http://web.archive.org/web/20110622182043/http://hindini.com/fursatiya/archives/186
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
मेरा पन्ना के दो साल-जियो मेरे लाल
कल रात मैं जल्दी सो गया। सबेरे उठा तो बच्चे ने बताया कि चौधरी अंकल का
फोन आया था । हमने पूछा कि कुछ खास बात,क्या बोला? बच्चे ने बताया कि आज
उनके ब्लाग की बर्थडे थी और हमने अभी तक उनको जन्मदिन की मुबारकबाद नहीं दी अब तक ।
हमने कहा बड़ी आफत है। फिर जीतेंद्र का पन्ना देखा। वहाँ बर्ड डे पार्टी चल रही है। गाना बज रहा है -हैप्पी बर्थ डे टू यू। इतना हल्ला अगर कुवैत में तब मच जाता जब सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर,कुछ दिन के लिये ही सही,कब्जा कर लिया था तो शायद वो ऐसे ही भाग जाता वापस और शायद आज अमेरिका के हाथों पकड़े जाने के बाद अपने ही देश में मुकदमें न झेल रहा होता।
जीतेंद्र हमारे ब्लाग जगत की सबसे हलचली चीज हैं। जहाँ रहेंगे उछलते ,कूदते रहते हैं।इनके संपर्कों का सिलसिला ईरान से तूरान तक पसरा है। हर ब्लागर की जन्मपत्री इनके पास पड़ी है। इनकी उछल-कूद देखकर मानव जीवन के विकास क्रम के बारे में जानकारी पता चलती है।
अब कोई बुरा माने या भला लेकिन हम यह बताना चाहेंगे कि हिंदी ब्लागजगत में सबसे ज्यादा गुलगपाड़ा अगर किसी एक शहर के लोगों ने मचाया है तो वह शहर कानपुर है। शुरुआत अतुल अरोरा के रोजनामचा से होकर फुरसतिया , मेरा पन्ना, लक्ष्मी गुप्तजी के काव्यकला से होते हुये आज निधि के चिंतन (आधा ही सही)तक जा पहुँची है। अब दिल्ली वाले अगर ब्लाग संख्या के बल पर अपना कालर ऊँचा करना चाहें तो वो हम न मानेंगें काहे से कि दिल्ली से उनका तन जुडा़ होगा मन नहीं।
जीतेंद्र ने शुरुआत अपने मोहल्ले के किस्सों से की। मेरे मोहल्ले का रावण उनकी सबसे अच्छी पोस्टों में से है। फिर उत्साह में वे कुछ ज्यादा ही खुल गये और अपने बउवा को घुसा दिया चक्की में अकेले कन्या विरादरी के साथ। वे आगे कुछ और ज्यादा खुलने के मूड में होंगे लेकिन उधर अमेरिका से अतुल इनकी हरकतों पर निगाह रखे थे। अइसा हड़लाया ,विद ड्यू रिगार्ड्स, कि बेचारे ऊटपटाँग किस्सों को हमेशा के लिये नमस्ते करके फिर से घर-परिवार की कहानियाँ बाँचने लगे।
बाद में अपने कुछ सुबुक-सुबुक वादी प्रेम कथाओं का यदा-कदा पारायण करते रहे। लालू यादव के बारे में लिखा ।वैसे क्या-क्या लिखा ये बताने के बजाय ये पूछना ज्यादा बेहतर होगा कि पट्ठे ने क्या नहीं लिखा।
हर कथाकार अपने कुछ खास चरित्र बनाते हैं। जीतेंद्र ने भी मिर्जा,छुट्टन,पप्पू,बउआ,छोटू आदि को अपने गैंग में शामिल किया। आजकल दिख नहीं रहे हैं वे ,लगता है कि दोनों में खटपट चल रही है। जीतेंद्र बताते हैं कि छुट्टन के कारण लोग उनको कहते हैं कि किन लोगों का साथ है तुम्हारा। उधर छुट्टन का रोना यह है कि भइया पेट के लिये आदमी को सब कुछ करना पड़ता है,जिस जगह हम अपनी मर्जी से जाना नहीं चाहते वहाँ उछलना कूदना पड़ता है।
जीतेंद्र के लगभग सभी ब्लागरों से भाई-बहन का हो या दोस्त-मित्र का हो या आदरणीय-सम्माननीय का रिश्ता है।अपरिभाषित रिश्ते वाले किसी संबंध का सुराग जीतेंद्र ने मुझे अभी तक नहीं दिया।
वैसे प्रसंगत: मैं यह बताना चाहूँगा कि ये जो झटके में आदरणीय,वंदनीय ,पूजनीय बनने वाले रिश्ते हैं उनके झटकों में ही अनादरणीय,निंदनीय,अपूजनीय में देर नहीं लगती। जो लोग पहली मुलाकात में ही चरण चांपने में जुट जाते हैं उनसे मुझे बहुत घबडा़हट होती है। साष्टांग दंतवत से शुरू होकर मामला कब वाया चरण, घुटना, कमर होते हुये गरदन तक पहुँच जाये कुछ पता नहीं चलता। बडे़ तेज चैनेल होते हैं भाई लोग!ये हमारे जीवन जगत के अनुभव हैं,ब्लाग जगत में कितना लागू होते
हैं , समय बतायेगा।
जीतेंदर के यहाँ आदर इफरात में मिलता है। अपने से दस-बीस साल बडे़ छोटे
को बडे़ प्यार से दादा बोलते हैं। लड़ाई करने पर भी कोई नया संबोधन नहीं
तलाशते । एक ही एकाउंट में गुस्से प्यार की बुकिंग करते हैं। वैसे जहाँ तक
लडा़ई की बात है तो जैसे साइकिल सवारी सीखने के लिये घुटने छिलवाने जरूरी
है वैसे ही जीतू से एकाध बार कहा-सुनी जरूरी है इनसे बातचीत में मधुरता
लाने के लिये।जीतेंदर लगभग हर ब्लागर से केवल एक ई-मेल की दूरी पर रहते
हैं। ज्यादातर नये लोग अपने किसी न किसी कारणवश जीतेंदर के संपर्क में जरूर
रहते हैं तथा उनसे ज्ञानलाभ करते हैंऔर कालांतर में जीतू के प्रशंसक में
रूपान्तरित होते हैं।
लोगों के व्यक्तिगत ब्लाग में सहायता देने के अलावा हिंदी चिट्ठाजगत में ब्लागनाद,रामचरितमानस,हिंदी-उर्दू शब्दकोश, नारद,परिचर्चा तथा निरंतर,तरकश जैसे सामूहिक काम-काज में जीतेंदर का काफी योगदान रहा। आजकल नारद इनके लिये वह तोता है जिसमें इनकी जान बसती है।परिचर्चा पर तो कई मंदक हैं लेकिन ये अक्सर हमको उकसाते कोसते रहते हैं कि मैं परिचर्चा में भाग नहीं लेता।
निरंतर में इस बार सवाल के अलावा कुछ खास योगदान नहीं दे पाये लेकिन आगे देने से कब तक बचेंगे। प्रसंगत: एक बात का उल्लेख करना चाहूँगा। तरकश की टीम की तकनीकी क्षमता कैसी है यह मैं नहीं कह सकता लेकिन उनकी प्रबंधन क्षमता गजब की है जिसके चलते उन्होंने जीतू ,देबाशीष,स्वामी जैसे तीन ध्रुवों के समान सोच रखने वाले लोगों से एक साथ ही सहयोग लेकर अपना काम कर लिया। इस तरह की बातें ये तीनों धुरंधर आपस में कई बार कर चुके थे लेकिन सबसे अच्छा तरीके पर एकमत नहीं हो पाये अभी तक।
जीतेंद्र के व्यक्तित्व की सबसे खास बात है प्रदर्शन प्रियता। जो किया उसको विन्रमता से ही सही दिखाना -गाना इनका अहम स्वभाव है। ये अगर कोई पोस्ट लिखेंगे तो जितनी लंबी पोस्ट लिखेंगे उससे ज्यादा कमेंट के लिये तकादा करेंगे। कभी-कभी तो ऐसा तकादा करते हैं गोया उधारी खाये हैं।
ये दिखावे की आदत जीतेंदर की खाशियत है जो उन्होंने अपने पुराने पेशेगत मजबूरी के कारण धारण की है या बेहतर होगा यह कहना कि चिपक गयी है इनसे। पहले ये सेल्स मैनेजर काम देखते थे तथा अपने बारे में हांकते हुये बताते हैं -”मैं गंजों को कंघा बेच देता था”।
यही सामर्थ्य इनकी सीमा बन जाती है। इनसे किसी काम की चर्चा की जाने पर यदि कोई सूचना सर्कुलर वाली बात होगी तो अगला वाक्य लिखने के पहले ये आमतौर पर लिखते पाये जाते हैं-सबको मेल भेज दी। यही तेजी कुछ मामलों में हड़बड़ी में बदल जाती है और उनमें से कुछ मामलों में गड़बड़ी हो जाती है। जिससे निपटने के लिये जीतेंदर का पास फिलहाल दो ही हथियार हैं ।एक है -हेंहेंहे,हीहीही तथा दूसरा है -क्या कर लोगे?वैसे अमूमन ये पहले हथियार का प्रयोग करते पाये जाते हैं जब कभी दूसरे हथियार का इस्तेमाल करते भी हैं तो ऊपरी तौर पर ही। मौका मिलते ही पहला हेंहेंहें वाला वार कर देते हैं।
अब इसे हड़बड़ी नहीं कहा जायेगा तो और क्या कहा जायेगा कि बंदे ने पहली पोस्ट लिखी २० सितम्बर ,२००४ को जिसके दो साल पूरे होंगे दो हफ्ते बाद लेकिन अगले को केक काटने का बुखार सवार है। सजा डाले अपनी दुकान आओ हमें हैप्पी बर्थ डे बोलो । जियो मेरे लाल।
जीतेंदर आम तौर किसी भी बात का बुरा नहीं मानते। यह आदत भी वैसे इनके पुराने सेल्स मैंनेजरी के पेशे की देन है। इसके बारे में श्रम को भुलाने के लिये एक सत्य कथा सुनी जाये:-
वैसे लंबी पोस्ट लिखने के लिये हम बदनाम हैं लेकिन इसका काफीराइट जीतेंदर की पास है।शुरूआती दिनों में नियमितता भी इतनी थी कि चिट्ठाविश्व पर अक्सर सारी जगह मेरा पन्ना की पोस्ट घेरे रहतीं थीं- सारी चित्रमय। कभी-कभी देखकर लगता कि एक ही घर के लोग किसी जनरल डिब्बे में घुस आये हैं तथा सारी बर्थों पर अंगौछा बिछाकर लेट गये हैं,कब्जा कर लिया है। कुछ लोग कहते हैं कि लोगों ने इसीलिये चिट्ठाविश्व देखना कम कर दिया कि वहां इसके पोस्टर के अलावा कुछ दिखता ही नहीं था।
कविता से ये उसी तरह परहेज करते हैं जैसे गांगुली से भारतीय टीम। वैसे यह भी सही है कि कविताओं पर ये अक्सर इसलिये वाह-वाह ,क्या बात है नुमा टिप्पणी करते रहते हैं ताकि लोग यह न समझें कि कविता इनको बिल्कुल्लै‘ नहीं समझ में आती है। यह बात भी बिल्कुल अलग है कि जब कुछ दिन भारत में रहे तो कविताओं, गजलों की ‘आटो-पोस्टिंग’ ब्लागनाद में करते रहे जिससे उनकी इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनी ने उनका ब्लाग बंद कर दिया-कुछ दिन के लिये।
जीतेंदर हमारा बहुत ख्याल रखते हैं। हमारी किसी भी बात का बुरा नहीं मानते(मान भी लेंगे तो क्या कर लेंगे) । कोई हमें तमाचे मारता है तो गाल इनके लाल हो जाते हैं। कानपुर के बारे में कोई भी पोस्ट खुराफात लिखेंगे तो कहेंगे -इसका मतलब फुरसतिया बतायेंगे। गोया हम “इनसाक्लोपीडिया कनपुरिया” हो गये।
जीतेंदर हमको तथा हम जैसे कुछ लोगों को सीनियर ब्लागर मानते हैं। हमारा अपराध खाली यह है कि हमने दूसरे कुछ लोगों के मुकाबले पहले ये खुराफात शुरू कर दी। लेकिन इसकी इतनी बड़ी सजा ठीक थोड़ी है कि हमें सीनयर सिटीजन की तरह अलग बैठालकर कहा जाये-सीनियर ब्लागर को चाहिये कि…। भइया ये लौंडपने,धौलधप्पे,गुलगपाड़े के अधिकार की कीमत पर सीनियर ब्लागर की ‘पीटी अध्यापक’ वाली पदवी हमें नहीं चाहिये।
हम भी यथासम्भव इनका ख्याल रखते हैं। जब भी पता चलता है कि इनकी तबियत कुछ नासाज है हम इनको खींचकर एक पोस्ट लिख देते हैं इनकी तबियत झक्क हो जाती है।
पिछले दिनों से जो इनकी नयी फोटो में इनका चेहरा गिरा-गिरा सा है उसका कारण भी यही है कि बहुत दिन से हमने इनको दवा नहीं दी। वैसे कहने को तो बहुत लोग कहते हैं कि हम जीतेंदर के साथ बहुत अत्याचार करते हैं । इनकी खिंचाई बहुत करते हैं ।मानोसी तो कहती हैं-कभी तो छोड़ दिया करें जीतू जी को।
अब हमें कोई बताये कि हम इन बे-सिर पैर की अफवाहों पर कान दें या यह देखें कि मेरा ब्लाग पर अपने बारे में पढ़ते ही जीतेंदर की बांछें(बतौर श्रीलाल शुक्ल वे शरीर में जहाँ भी होती हों) खिल जाती हैं तथा उनके मुखमंडल पर हास्य रश्मियाँ नर्तन करने लगती हैं।
बहरहाल लिखने को तो बहुत कुछ है लेकिन अब चूंकि दिन बीत रहा है। जीतेंदर बार-बार अपने पन्ने के लिये हमारी शुभकामनाओं के लिये टकटकी लगा के ताक रहे हैं। बार-बार अपना ब्लाग रिफ्रेश कर रहे हैं। लिहाजा फिलहाल इतने पर ही रुकता हूँ।
हिंदी चिट्ठाजगत अगर एक कला दीर्घा की तरह है जिसमें भांति-भांति के रंग-बिरंगे,धूसर-मटमैले,कलापूर्ण-चलताऊ, आधुनिक-पुरातन,चटकीले-मटकीले,भड़कीले-शांत रंगों वाले विविध चित्र हैं तो जीतेंदर का मेरा पन्ना इस सभी रंगों-चित्रों का एक धड़कता हुआ कोलाज है जिसमें हर चित्र-रंग ,कम-ज्यादा मात्रा में शामिल हैं। लोग इस कोलाज को पसंद-नापसंद कर सकते हैं लेकिन इस खिलंदड़े,बोलते चित्र की उपेक्षा करना किसी के बस में नहीं है।
मैं जीतेंदर को उनके लोकप्रिय चिट्ठे मेरा पन्ना के दो साल पूरे होने पर पूरे मन से उनको मुबारकबाद देता हूँ तथा कामना करता हूँ कि आगे आने वाले समय में वे तमाम कीर्तिमान स्थापित करें। जिस तरह उनकी उपस्थिति हिंदी ब्लाग जगत में अभी हलचल मचाती है,वैसे ही वह आगे भी और अधिक सार्थक रूप में इसे स्पंदित करती रहे।
हमने कहा बड़ी आफत है। फिर जीतेंद्र का पन्ना देखा। वहाँ बर्ड डे पार्टी चल रही है। गाना बज रहा है -हैप्पी बर्थ डे टू यू। इतना हल्ला अगर कुवैत में तब मच जाता जब सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर,कुछ दिन के लिये ही सही,कब्जा कर लिया था तो शायद वो ऐसे ही भाग जाता वापस और शायद आज अमेरिका के हाथों पकड़े जाने के बाद अपने ही देश में मुकदमें न झेल रहा होता।
जीतेंद्र हमारे ब्लाग जगत की सबसे हलचली चीज हैं। जहाँ रहेंगे उछलते ,कूदते रहते हैं।इनके संपर्कों का सिलसिला ईरान से तूरान तक पसरा है। हर ब्लागर की जन्मपत्री इनके पास पड़ी है। इनकी उछल-कूद देखकर मानव जीवन के विकास क्रम के बारे में जानकारी पता चलती है।
अब कोई बुरा माने या भला लेकिन हम यह बताना चाहेंगे कि हिंदी ब्लागजगत में सबसे ज्यादा गुलगपाड़ा अगर किसी एक शहर के लोगों ने मचाया है तो वह शहर कानपुर है। शुरुआत अतुल अरोरा के रोजनामचा से होकर फुरसतिया , मेरा पन्ना, लक्ष्मी गुप्तजी के काव्यकला से होते हुये आज निधि के चिंतन (आधा ही सही)तक जा पहुँची है। अब दिल्ली वाले अगर ब्लाग संख्या के बल पर अपना कालर ऊँचा करना चाहें तो वो हम न मानेंगें काहे से कि दिल्ली से उनका तन जुडा़ होगा मन नहीं।
जीतेंद्र ने शुरुआत अपने मोहल्ले के किस्सों से की। मेरे मोहल्ले का रावण उनकी सबसे अच्छी पोस्टों में से है। फिर उत्साह में वे कुछ ज्यादा ही खुल गये और अपने बउवा को घुसा दिया चक्की में अकेले कन्या विरादरी के साथ। वे आगे कुछ और ज्यादा खुलने के मूड में होंगे लेकिन उधर अमेरिका से अतुल इनकी हरकतों पर निगाह रखे थे। अइसा हड़लाया ,विद ड्यू रिगार्ड्स, कि बेचारे ऊटपटाँग किस्सों को हमेशा के लिये नमस्ते करके फिर से घर-परिवार की कहानियाँ बाँचने लगे।
बाद में अपने कुछ सुबुक-सुबुक वादी प्रेम कथाओं का यदा-कदा पारायण करते रहे। लालू यादव के बारे में लिखा ।वैसे क्या-क्या लिखा ये बताने के बजाय ये पूछना ज्यादा बेहतर होगा कि पट्ठे ने क्या नहीं लिखा।
हर कथाकार अपने कुछ खास चरित्र बनाते हैं। जीतेंद्र ने भी मिर्जा,छुट्टन,पप्पू,बउआ,छोटू आदि को अपने गैंग में शामिल किया। आजकल दिख नहीं रहे हैं वे ,लगता है कि दोनों में खटपट चल रही है। जीतेंद्र बताते हैं कि छुट्टन के कारण लोग उनको कहते हैं कि किन लोगों का साथ है तुम्हारा। उधर छुट्टन का रोना यह है कि भइया पेट के लिये आदमी को सब कुछ करना पड़ता है,जिस जगह हम अपनी मर्जी से जाना नहीं चाहते वहाँ उछलना कूदना पड़ता है।
जीतेंद्र के लगभग सभी ब्लागरों से भाई-बहन का हो या दोस्त-मित्र का हो या आदरणीय-सम्माननीय का रिश्ता है।अपरिभाषित रिश्ते वाले किसी संबंध का सुराग जीतेंद्र ने मुझे अभी तक नहीं दिया।
वैसे प्रसंगत: मैं यह बताना चाहूँगा कि ये जो झटके में आदरणीय,वंदनीय ,पूजनीय बनने वाले रिश्ते हैं उनके झटकों में ही अनादरणीय,निंदनीय,अपूजनीय में देर नहीं लगती। जो लोग पहली मुलाकात में ही चरण चांपने में जुट जाते हैं उनसे मुझे बहुत घबडा़हट होती है। साष्टांग दंतवत से शुरू होकर मामला कब वाया चरण, घुटना, कमर होते हुये गरदन तक पहुँच जाये कुछ पता नहीं चलता। बडे़ तेज चैनेल होते हैं भाई लोग!ये हमारे जीवन जगत के अनुभव हैं,ब्लाग जगत में कितना लागू होते
हैं , समय बतायेगा।
लोगों के व्यक्तिगत ब्लाग में सहायता देने के अलावा हिंदी चिट्ठाजगत में ब्लागनाद,रामचरितमानस,हिंदी-उर्दू शब्दकोश, नारद,परिचर्चा तथा निरंतर,तरकश जैसे सामूहिक काम-काज में जीतेंदर का काफी योगदान रहा। आजकल नारद इनके लिये वह तोता है जिसमें इनकी जान बसती है।परिचर्चा पर तो कई मंदक हैं लेकिन ये अक्सर हमको उकसाते कोसते रहते हैं कि मैं परिचर्चा में भाग नहीं लेता।
निरंतर में इस बार सवाल के अलावा कुछ खास योगदान नहीं दे पाये लेकिन आगे देने से कब तक बचेंगे। प्रसंगत: एक बात का उल्लेख करना चाहूँगा। तरकश की टीम की तकनीकी क्षमता कैसी है यह मैं नहीं कह सकता लेकिन उनकी प्रबंधन क्षमता गजब की है जिसके चलते उन्होंने जीतू ,देबाशीष,स्वामी जैसे तीन ध्रुवों के समान सोच रखने वाले लोगों से एक साथ ही सहयोग लेकर अपना काम कर लिया। इस तरह की बातें ये तीनों धुरंधर आपस में कई बार कर चुके थे लेकिन सबसे अच्छा तरीके पर एकमत नहीं हो पाये अभी तक।
जीतेंद्र के व्यक्तित्व की सबसे खास बात है प्रदर्शन प्रियता। जो किया उसको विन्रमता से ही सही दिखाना -गाना इनका अहम स्वभाव है। ये अगर कोई पोस्ट लिखेंगे तो जितनी लंबी पोस्ट लिखेंगे उससे ज्यादा कमेंट के लिये तकादा करेंगे। कभी-कभी तो ऐसा तकादा करते हैं गोया उधारी खाये हैं।
ये दिखावे की आदत जीतेंदर की खाशियत है जो उन्होंने अपने पुराने पेशेगत मजबूरी के कारण धारण की है या बेहतर होगा यह कहना कि चिपक गयी है इनसे। पहले ये सेल्स मैनेजर काम देखते थे तथा अपने बारे में हांकते हुये बताते हैं -”मैं गंजों को कंघा बेच देता था”।
यही सामर्थ्य इनकी सीमा बन जाती है। इनसे किसी काम की चर्चा की जाने पर यदि कोई सूचना सर्कुलर वाली बात होगी तो अगला वाक्य लिखने के पहले ये आमतौर पर लिखते पाये जाते हैं-सबको मेल भेज दी। यही तेजी कुछ मामलों में हड़बड़ी में बदल जाती है और उनमें से कुछ मामलों में गड़बड़ी हो जाती है। जिससे निपटने के लिये जीतेंदर का पास फिलहाल दो ही हथियार हैं ।एक है -हेंहेंहे,हीहीही तथा दूसरा है -क्या कर लोगे?वैसे अमूमन ये पहले हथियार का प्रयोग करते पाये जाते हैं जब कभी दूसरे हथियार का इस्तेमाल करते भी हैं तो ऊपरी तौर पर ही। मौका मिलते ही पहला हेंहेंहें वाला वार कर देते हैं।
अब इसे हड़बड़ी नहीं कहा जायेगा तो और क्या कहा जायेगा कि बंदे ने पहली पोस्ट लिखी २० सितम्बर ,२००४ को जिसके दो साल पूरे होंगे दो हफ्ते बाद लेकिन अगले को केक काटने का बुखार सवार है। सजा डाले अपनी दुकान आओ हमें हैप्पी बर्थ डे बोलो । जियो मेरे लाल।
जीतेंदर आम तौर किसी भी बात का बुरा नहीं मानते। यह आदत भी वैसे इनके पुराने सेल्स मैंनेजरी के पेशे की देन है। इसके बारे में श्रम को भुलाने के लिये एक सत्य कथा सुनी जाये:-
एक नये भर्ती किये गये सेल्स मैन ने कुछ दिन बाद नौकरी छोड़ने के लिये आवेदन लिखा। मैंनेजर ने कारण पूछा। उसने बताया कि यह इस पेशे के काबिल नहीं। लोग जिस तरह से व्यवहार करते हैं उससे उसे बड़ी तकलीफ होती है, बेइज्जती महसूस होती है।मैंनेजर ने कहा- तुम नौकरी छोड़ रहे हो यह कोई नयी बात नहीं लेकिन लेकिन ये बेइज्जती वाली बात हजम नहीं हुई मुझे। मैंने भी बीस यही काम किया है। मैं काफी सफल भी रहा। लोगों ने मुझसे ठीक से बात नहीं की,सामान नहीं खरीदा,लौटा दिया,पैसे नहीं दिये,बुरा-भला कहा,भाग जाने को कहा,धक्के मार के निकाल देने की धमकी दी लेकिन मेरी बेइज्जती आज तक नहीं हुई। ये मुझे समझ नहीं आ रहा कि जो चीज मेरे साथ बीस साल में नहीं हुईलेखन में क्या कहा जाये। जीतेंदर की सरल-सहज लेखन शैली के कारण लगभग सारे पाठक उनके मुरीद हैं। ये गम्भीरता का बनावटी चोला कभी नहीं ओढ़ते। न ऐसी कोई ऐसी गम्भीर-गरिष्ठ बात लिखते हैं जिससे कि उनको खुद समझने में तकलीफ हो। इसी सावधानी के कारण इनके पाठकों को भी आराम रहती है।
वह तुम्हारे साथ पहले साल ही कैसे हो गयी!
वैसे लंबी पोस्ट लिखने के लिये हम बदनाम हैं लेकिन इसका काफीराइट जीतेंदर की पास है।शुरूआती दिनों में नियमितता भी इतनी थी कि चिट्ठाविश्व पर अक्सर सारी जगह मेरा पन्ना की पोस्ट घेरे रहतीं थीं- सारी चित्रमय। कभी-कभी देखकर लगता कि एक ही घर के लोग किसी जनरल डिब्बे में घुस आये हैं तथा सारी बर्थों पर अंगौछा बिछाकर लेट गये हैं,कब्जा कर लिया है। कुछ लोग कहते हैं कि लोगों ने इसीलिये चिट्ठाविश्व देखना कम कर दिया कि वहां इसके पोस्टर के अलावा कुछ दिखता ही नहीं था।
कविता से ये उसी तरह परहेज करते हैं जैसे गांगुली से भारतीय टीम। वैसे यह भी सही है कि कविताओं पर ये अक्सर इसलिये वाह-वाह ,क्या बात है नुमा टिप्पणी करते रहते हैं ताकि लोग यह न समझें कि कविता इनको बिल्कुल्लै‘ नहीं समझ में आती है। यह बात भी बिल्कुल अलग है कि जब कुछ दिन भारत में रहे तो कविताओं, गजलों की ‘आटो-पोस्टिंग’ ब्लागनाद में करते रहे जिससे उनकी इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनी ने उनका ब्लाग बंद कर दिया-कुछ दिन के लिये।
जीतेंदर हमारा बहुत ख्याल रखते हैं। हमारी किसी भी बात का बुरा नहीं मानते(मान भी लेंगे तो क्या कर लेंगे) । कोई हमें तमाचे मारता है तो गाल इनके लाल हो जाते हैं। कानपुर के बारे में कोई भी पोस्ट खुराफात लिखेंगे तो कहेंगे -इसका मतलब फुरसतिया बतायेंगे। गोया हम “इनसाक्लोपीडिया कनपुरिया” हो गये।
जीतेंदर हमको तथा हम जैसे कुछ लोगों को सीनियर ब्लागर मानते हैं। हमारा अपराध खाली यह है कि हमने दूसरे कुछ लोगों के मुकाबले पहले ये खुराफात शुरू कर दी। लेकिन इसकी इतनी बड़ी सजा ठीक थोड़ी है कि हमें सीनयर सिटीजन की तरह अलग बैठालकर कहा जाये-सीनियर ब्लागर को चाहिये कि…। भइया ये लौंडपने,धौलधप्पे,गुलगपाड़े के अधिकार की कीमत पर सीनियर ब्लागर की ‘पीटी अध्यापक’ वाली पदवी हमें नहीं चाहिये।
हम भी यथासम्भव इनका ख्याल रखते हैं। जब भी पता चलता है कि इनकी तबियत कुछ नासाज है हम इनको खींचकर एक पोस्ट लिख देते हैं इनकी तबियत झक्क हो जाती है।
पिछले दिनों से जो इनकी नयी फोटो में इनका चेहरा गिरा-गिरा सा है उसका कारण भी यही है कि बहुत दिन से हमने इनको दवा नहीं दी। वैसे कहने को तो बहुत लोग कहते हैं कि हम जीतेंदर के साथ बहुत अत्याचार करते हैं । इनकी खिंचाई बहुत करते हैं ।मानोसी तो कहती हैं-कभी तो छोड़ दिया करें जीतू जी को।
अब हमें कोई बताये कि हम इन बे-सिर पैर की अफवाहों पर कान दें या यह देखें कि मेरा ब्लाग पर अपने बारे में पढ़ते ही जीतेंदर की बांछें(बतौर श्रीलाल शुक्ल वे शरीर में जहाँ भी होती हों) खिल जाती हैं तथा उनके मुखमंडल पर हास्य रश्मियाँ नर्तन करने लगती हैं।
बहरहाल लिखने को तो बहुत कुछ है लेकिन अब चूंकि दिन बीत रहा है। जीतेंदर बार-बार अपने पन्ने के लिये हमारी शुभकामनाओं के लिये टकटकी लगा के ताक रहे हैं। बार-बार अपना ब्लाग रिफ्रेश कर रहे हैं। लिहाजा फिलहाल इतने पर ही रुकता हूँ।
हिंदी चिट्ठाजगत अगर एक कला दीर्घा की तरह है जिसमें भांति-भांति के रंग-बिरंगे,धूसर-मटमैले,कलापूर्ण-चलताऊ, आधुनिक-पुरातन,चटकीले-मटकीले,भड़कीले-शांत रंगों वाले विविध चित्र हैं तो जीतेंदर का मेरा पन्ना इस सभी रंगों-चित्रों का एक धड़कता हुआ कोलाज है जिसमें हर चित्र-रंग ,कम-ज्यादा मात्रा में शामिल हैं। लोग इस कोलाज को पसंद-नापसंद कर सकते हैं लेकिन इस खिलंदड़े,बोलते चित्र की उपेक्षा करना किसी के बस में नहीं है।
मैं जीतेंदर को उनके लोकप्रिय चिट्ठे मेरा पन्ना के दो साल पूरे होने पर पूरे मन से उनको मुबारकबाद देता हूँ तथा कामना करता हूँ कि आगे आने वाले समय में वे तमाम कीर्तिमान स्थापित करें। जिस तरह उनकी उपस्थिति हिंदी ब्लाग जगत में अभी हलचल मचाती है,वैसे ही वह आगे भी और अधिक सार्थक रूप में इसे स्पंदित करती रहे।
Posted in बस यूं ही | 17 Responses
अब थोडी उधर से भी हो जाये । आदान प्रदान समुचित होता रहना चाहिये।स्वास्थ्य के लिये लाभकारी होता है।
इन्द्रधनुष के रंग संजोयें इस बगिया में खिलना सीखा
और नई महकें ले महको, आगे आगे नये वर्ष में
अमरावती बने ये पन्ना,सजी रहे ये कला दीर्घा
शुभकामनाओं सहित- एक संशोधन अनूप भाई( सद्दाम हुसैन मुकदमे अमरीका में नहीं झेल रहा
सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर,कुछ दिन के लिये ही सही,कब्जा कर लिया था तो शायद वो ऐसे ही भाग जाता वापस और शायद आज अमेरिका में मुकदमें न झेल रहा होता।
हम भी यह पदवी आपको देना नहीं चाहते पर आप परिचर्चा जैसे मंचो पर सभी ब्लोगरों के साथ दिखें भी.
यह लेख मजेदार रहा. बधाई.
हैप्पी बड्डे ताऊ!!!
यह आपने बिल्कुल सही कहा, मैं भी उन लोगों में से एक हुँ, जिनसे मैं अक्सर संपर्क में रहता हुँ और ज्ञानलाभ भी लेता रहता हुँ, और प्रशंषक तो हुँ ही।
हैं , समय बतायेगा।
मै आपकी इन बातो सक सहमत नही हूं। मै मानता हूं कि आज के दौर मे शिष्टाचार का स्तर गिरता जा रहा है पर सोना और कोयले की एक तराजू पर तौलना गलता होगा। हर व्यक्ति एक जैसा नही होता है अगर आप किसी को सम्मान देते हो दूसरा भी आपको अवश्य देगा। अब दोनो लोग एक ही रबड(बात) को इतना खीचोगे कि वह जब टूटेगा तो चोट दोनो को उतना ही लगेगा हां एक बात और हो सकती है एक बहुत ज्ञानी, बुद्धिमान चतुर होगा तथा दूसरा जो भावुक, मर्म स्पर्शी होगा तब पहला वाला रबड छोड देगा तथा दूसरा ही मार खायेगा।
लगता है फुरसतिया जी परसाई जी की छाप आप पर कुछ ज्यादा है क्योकि यह पक्तिंया मुझे उनके लेख ”विकलाग श्रद्धा का दौर” का याद दिला रही है।
यह लेख आपके द्वारा लिखे गये उन लेखो मे से है जिसे मैने पूरा पढ कर टिप्पडी कर किया करता हूं। यह लेख बहुत ही अच्छा था।
Your writeup on Parsaiji was extra ordianry. I was trying to write it in Hindi but its a companys computer HINDI is not available.
I would like to post my favorite poet BACHCHAN JI
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो ।
मैं जगत के ताप से डरता नहीं अब,
मैं समय के शाप से डरता नहीं अब,
आज कुंतल छाँह मुझपर तुम किए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो ।
रात मेरी, रात का श्रृंगार मेरा,
आज आधे विश्व से अभिसार मेरा,
तुम मुझे अधिकार अधरों पर दिए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
वह सुरा के रूप से मोहे भला क्या,
वह सुधा के स्वाद से जाए छला क्या,
जो तुम्हारे होंठ का मधु-विष पिए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
मृत-सजीवन था तुम्हारा तो परस ही,
पा गया मैं बाहु का बंधन सरस भी,
मैं अमर अब, मत कहो केवल जिए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
- हरिवंशराय बच्चन.
Thanx And bye
See you in Kanpur