http://web.archive.org/web/20110925215715/http://hindini.com/fursatiya/archives/208
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
श्रीलाल शुक्ल जी एक मुलाकात
हम पिछ्ले माह जब लखनऊ गये थे तो एक बार फिर श्रीलाल शुक्ल जी से मिले।
हम सबेरे-सबेरे कानपुर से निकले। सपरिवार गाते-बजाते हुये दोपहर होने के नजदीक लखनऊ पहुंचे। ईद की छुट्टी होने के कारण सड़कें किसी बुद्धिजीवी के दिमाग सी खाली थीं। कार सड़क पर सरपट दौड़ रही थी जैसे बुद्धिजीवी के दिमाग में विचार दौड़ते हैं।
बहरहाल हमारा काम शाम होते-होते तमाम हो गया और हमें वापस कानपुर मार्च के लिये आदेश दिया गया।
हम पांच मिनट में आने को कहकर घर, सड़क और फिर मोहल्ला पारकर के पांच मिनट में श्रीलाल जी के पास थे। वे अपने पोते के साथ टेलीविजन पर क्रिकेट मैच देख रहे थे। बच्चा होमवर्क भी करता जा रहा था साथ में। हमारे जाने से उस बेचारे के आनंद में व्यवधान हुआ क्योंकि दादा ने टीवी की आवाज कम कर दी।
श्रीलाल जी से तमाम बाते हुयीं। उनका उपन्यास रागदरबारी जब प्रकाशित हुआ तब उनकी उमर लगभग ४३ वर्ष थी। इसे लिखने में उनको करीब पांच वर्ष लगे। उत्तर प्रदेश शासन में अधिकारी होने के नाते उनको यह ख्याल आया कि इसके प्रकाशन की अनुमति भी ले ली जाये। हालांकि इसके पहले भी उनकी किताबें छप चुकी थीं और उनके लिये कोई अनुमति नहीं ली गई थी। लेकिन रागदरबारी में तमाम जगह शासन व्यवस्था पर व्यंग्य था इसलिये एहतियातन यह उचित समझा गया कि शासन से अनुमति ले ली जाये। अनुमति मिलने में काफ़ी समय लग गया, एकाध साल के लगभग। इसबीच श्रीलाल शुक्ल जी ने नौकरी छोड़ने का मन बना लिया था। अज्ञेयजी की जगह दिनमान सापताहिक में संपादक की बात भी तय हो गयी थी। यह सब होने के बात श्रीलालजी ने उत्तर प्रदेश शासन को एक विनम्र-व्यंग्यात्मक पत्र लिखा जिसमें इस बात का जिक्र था कि उनकी किताब पर न उनको अनुमति मिली न ही मना किया गया। बहरहाल, इसे पत्र का ही प्रभाव कहें कि तुरंत रागदरबारी के प्रकाशन की अनुमति मिल गयी। और आज यह राजकमल प्रकाशन से छपने वाली सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में से है।
हमारे यह पूछने पर कि रागदरबारी के लिये मसाला कहां से, कैसे मिला श्रीलाल जी ने बताया कि जो देखा था वही मसाला बना। अलग-अलग समय के अनुभवों को इकट्ठा करके इसे लिखा गया। इसको प्रकाशन के पहले पांच बार संवारा-सुधारा गया। इसे लिखने के समय श्रीलालजी की नियुक्ति बुंदेलखंड के पिछ्ड़े इलाकों में रही। कुछ हिस्से तो वीराने में जीप खड़ी करके लिखे गये।
हमने रागदरबारी को नेट पर प्रकाशित करने की अनुमति चाही। श्रीलाल जी ने कहा कि एक लेखक की हैसियत से तो उनको कोई एतराज नहीं है लेकिन प्रकाशक से पूछना भी ठीक रहेगा। प्रकाशक से पूछने पर उन्होंने बताया कि उनका कहना कि कुछ अंश छाप सकते हैं। वैसे राग दरबारी का कापीराइट श्रीलाल शुक्ल की के नाम है तो मेरे ख्याल में उनकी सहमति पर्याप्त होनी चाहिये। मजे की बात है कि रागदरबारी के पाकिस्तान और राजस्थान( जहां यह कोर्स की किताब है) लोग इसे धड़ल्ले से इसे छाप रहे हैं और बेच रहे हैं। बहरहाल हमने यह तय किया है कि रागदरबारी को नेट पर लाया जाना चाहिये। इसके लिये ब्लाग बना लिया गया और आगे के लिये स्वयंसेवकों का आवाहन है जिनके पास रागदरबारी किताब है और जो रागदरबारी-टाइपिंग यज्ञ में अपना योगदान दे सकें।
बात किताबों से कमाई की तरफ भी मुड़ी। श्रीलाल जी के मुताबिक केवल लेखन से जीवन बिताना हिंदी के लेखक के मुश्किल है। उन्होंने बताया कि निर्मल वर्मा जैसे लेखक, जिनकी कि तमाम किताबें छपी हैं, की भी रायल्टी अधिक से अधिक दो लाख रुपये से भी कम ही है। यह भी तब जब गत वर्ष उनके निधन के कारण उनकी किताबों की मांग बढ़ी है।
हमने पूछा तो फिर परसाईजी जैसे लोगों की जिंदगी कैसे गुजरती होगी जिन्होंने लेखन के लिये नौकरी छोड़ दी! श्रीलाल जी ने बताया कि उन्होंने अपनी कमाई के अनुसार अपनी जरूरतें कम रखीं। परिवार नहीं था जब नौकरी छोड़ी। शादी की नहीं। बाद में बहन के परिवार की जिम्मेदारी निभानी पड़ी। लेकिन अपनी आमदनी के लिहाज से अपनी जरूरतों को सीमित किया इसलिये कर सके होंगे गुजारा। श्रीलाल जी ने परसाई जी के साहित्य में योगदान पर भी कुछ चर्चा की तथा बताया कि मध्य प्रदेश में हिंदी साहित्य के प्रचार का बहुत कुछ श्रेय परसाई जी को जाता है।
हमने हिंदी लेखक की विपन्नता की स्थिति की बाबत बात करनी चाही तो शुकुलजी का कहना था- हम हिंदी वाले आम तौर पर जाहिल मनोवृत्ति के लोग हैं। हिंदी पढ़ने -लिखने वालों की अबादी तीस-चालीस करोड़ है। अगर एक प्रतिशत लोग भी महीने में एक किताब खरीदें तो साल में पचास लाख किताबें बिकें लेकिन ऐसा नहीं होता। जब किताबें बिकेगीं नहीं तो छ्पेगीं भी नहीं और हिंदी लेखक ऐसे ही विपन्न रहेगा। केवल लेखन से जीविका इसीलिये हिंदी में बहुत मुश्किल बात है।
हमारे यह पूछने पर कि आजकल क्या लिख रहे हैं श्रीलाल जी ने बताया कि स्वास्थ्य के कारणों से पिछले कुछ दिनों से लिखना नहीं हो पा रहा है। वैसे इंडिया टु दे तथा आउटलुक और अन्य पत्रिकाऒं से नियमिते लेखन का प्रस्ताव है लेकिन लिखना हो नहीं पा रहा। मैंने कहा कि आप बोलकर लिखवाया करें जैसे नागरजी लिखवाया करते थे। इस पर श्रीलाल जी ने कहा कि बोलकर लिखवाने की उनकी आदत नहीं है। अपने लिखे को ही दो तीन बार सुधारना पड़ता है तो दूसरे को बोलकर लिखवाना तो और मुश्किल है। नागरजी के बोलकर लिखवाने का ही जिक्र करते हुये उन्होंने अपना मत बताया कि अगर नागरजी अपना उपन्यास बूंद और समुद्र को कुछ संपादित करके लिखते तो तो शायद कुछ पतला होकर यह और श्रेष्ठ उपन्यास बनता।
अपने लिखने के बारे में बात करते हुये उन्होंने कहा -”एक समय ऐसा आता है कि लेखक अपने लिखे पर ही सवाल उठाता है कि हमने जो लिखा वह कितना सार्थक है! उसकी कितनी सामाजिक उपादेयता है! मैं अब ८१ वर्ष की उम्र में शायद उसी दौर से गुजर रहा हूं।”
अपने लेखन से कितने संतुष्ट हैं और अपनी रचनाऒ को दुनिया के महान साहित्यकारों की रचनाऒं से तुलना करने पर कैसा महसूस करते हैं यह सवाल जब मैंने पूछा तो श्रीलालजी ने कहा- “अब मुझमें इतनी अकल तो है ही कि मैं अपने लिखे की तुलना किसी बहुत आम लेखक की आम रचनाओं से करके खुशफहमी पालने से अपने को बचा सकूं लेकिन जब कभी ‘वर्ल्ड क्लासिक्स’ से तुलना करता हूं तो लगता है कि मैंने कुछ नहीं लिखा उनके सामने।”
मैं समीक्षक नहीं हूं लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि श्रीलाल शुक्ल जी का रागदरबारी उपन्यास विश्व के अनेक कालजयी उपन्यासों के स्तर का उपन्यास है।
इस बीच श्रीलालजी की रैक की किताबें पलटते हुये मैं प्रख्यात पत्रकार स्व. अखिलेश मिश्र की किताब पत्रकारिता: मिशन से मीडिया तकउलटने-पलटने लगा था। पिछ्ले ही हफ्ते हिंदी दैनिक हिंदुस्तान में छपी इसकी समीक्षा को पढ़कर इसे पढ़ने की सहज इच्छा थी। मेरी उत्सुकता देखकर श्रीलाल जी ने वह किताब हमें दे दी कि मैं उसे ले जाऊं। हमने उसे प्रसाद की तरह ग्रहण कर लिया। अब जब वह किताब पढ़ रहा था तो लगा कि यह हर पत्रकार के लिये आवश्यक किताब है।
बहरहाल तमाम बाते होती रहीं। साहित्यिक, सामाजिक, व्यक्तिगत। ढेर सारा समय कैसे सरक गया पता ही नहीं चला। पांच मिनट के लिये कहकर मैं घंटे भर से ऊपर यहां गपियाते हुये बिता चुका था। बातों का क्रम भंग कर दिया मुये मोबाइल ने। घरवाले बुलाहट कर रहे थे कानपुर वापस लौटने के लिये।
हम वापस लौट आये। अभी जब मैं लखनऊ में श्रीलाल शुक्ल के साथ सहज रूप से बिताये समय को याद कर रहा हूं तो लगता है कि वे ऐसे व्यक्ति साहित्यकार हैं जिनसे बात करते समय यह अहसास ही नहीं होता कि हम किसी बहुत खास व्यक्ति से, महान लेखक से बात कर रहे हैं। यही शायद उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खासियत है। यही उनकी महानता है।
हम सबेरे-सबेरे कानपुर से निकले। सपरिवार गाते-बजाते हुये दोपहर होने के नजदीक लखनऊ पहुंचे। ईद की छुट्टी होने के कारण सड़कें किसी बुद्धिजीवी के दिमाग सी खाली थीं। कार सड़क पर सरपट दौड़ रही थी जैसे बुद्धिजीवी के दिमाग में विचार दौड़ते हैं।
बहरहाल हमारा काम शाम होते-होते तमाम हो गया और हमें वापस कानपुर मार्च के लिये आदेश दिया गया।
हम पांच मिनट में आने को कहकर घर, सड़क और फिर मोहल्ला पारकर के पांच मिनट में श्रीलाल जी के पास थे। वे अपने पोते के साथ टेलीविजन पर क्रिकेट मैच देख रहे थे। बच्चा होमवर्क भी करता जा रहा था साथ में। हमारे जाने से उस बेचारे के आनंद में व्यवधान हुआ क्योंकि दादा ने टीवी की आवाज कम कर दी।
श्रीलाल जी से तमाम बाते हुयीं। उनका उपन्यास रागदरबारी जब प्रकाशित हुआ तब उनकी उमर लगभग ४३ वर्ष थी। इसे लिखने में उनको करीब पांच वर्ष लगे। उत्तर प्रदेश शासन में अधिकारी होने के नाते उनको यह ख्याल आया कि इसके प्रकाशन की अनुमति भी ले ली जाये। हालांकि इसके पहले भी उनकी किताबें छप चुकी थीं और उनके लिये कोई अनुमति नहीं ली गई थी। लेकिन रागदरबारी में तमाम जगह शासन व्यवस्था पर व्यंग्य था इसलिये एहतियातन यह उचित समझा गया कि शासन से अनुमति ले ली जाये। अनुमति मिलने में काफ़ी समय लग गया, एकाध साल के लगभग। इसबीच श्रीलाल शुक्ल जी ने नौकरी छोड़ने का मन बना लिया था। अज्ञेयजी की जगह दिनमान सापताहिक में संपादक की बात भी तय हो गयी थी। यह सब होने के बात श्रीलालजी ने उत्तर प्रदेश शासन को एक विनम्र-व्यंग्यात्मक पत्र लिखा जिसमें इस बात का जिक्र था कि उनकी किताब पर न उनको अनुमति मिली न ही मना किया गया। बहरहाल, इसे पत्र का ही प्रभाव कहें कि तुरंत रागदरबारी के प्रकाशन की अनुमति मिल गयी। और आज यह राजकमल प्रकाशन से छपने वाली सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में से है।
हमारे यह पूछने पर कि रागदरबारी के लिये मसाला कहां से, कैसे मिला श्रीलाल जी ने बताया कि जो देखा था वही मसाला बना। अलग-अलग समय के अनुभवों को इकट्ठा करके इसे लिखा गया। इसको प्रकाशन के पहले पांच बार संवारा-सुधारा गया। इसे लिखने के समय श्रीलालजी की नियुक्ति बुंदेलखंड के पिछ्ड़े इलाकों में रही। कुछ हिस्से तो वीराने में जीप खड़ी करके लिखे गये।
हमने रागदरबारी को नेट पर प्रकाशित करने की अनुमति चाही। श्रीलाल जी ने कहा कि एक लेखक की हैसियत से तो उनको कोई एतराज नहीं है लेकिन प्रकाशक से पूछना भी ठीक रहेगा। प्रकाशक से पूछने पर उन्होंने बताया कि उनका कहना कि कुछ अंश छाप सकते हैं। वैसे राग दरबारी का कापीराइट श्रीलाल शुक्ल की के नाम है तो मेरे ख्याल में उनकी सहमति पर्याप्त होनी चाहिये। मजे की बात है कि रागदरबारी के पाकिस्तान और राजस्थान( जहां यह कोर्स की किताब है) लोग इसे धड़ल्ले से इसे छाप रहे हैं और बेच रहे हैं। बहरहाल हमने यह तय किया है कि रागदरबारी को नेट पर लाया जाना चाहिये। इसके लिये ब्लाग बना लिया गया और आगे के लिये स्वयंसेवकों का आवाहन है जिनके पास रागदरबारी किताब है और जो रागदरबारी-टाइपिंग यज्ञ में अपना योगदान दे सकें।
बात किताबों से कमाई की तरफ भी मुड़ी। श्रीलाल जी के मुताबिक केवल लेखन से जीवन बिताना हिंदी के लेखक के मुश्किल है। उन्होंने बताया कि निर्मल वर्मा जैसे लेखक, जिनकी कि तमाम किताबें छपी हैं, की भी रायल्टी अधिक से अधिक दो लाख रुपये से भी कम ही है। यह भी तब जब गत वर्ष उनके निधन के कारण उनकी किताबों की मांग बढ़ी है।
हमने पूछा तो फिर परसाईजी जैसे लोगों की जिंदगी कैसे गुजरती होगी जिन्होंने लेखन के लिये नौकरी छोड़ दी! श्रीलाल जी ने बताया कि उन्होंने अपनी कमाई के अनुसार अपनी जरूरतें कम रखीं। परिवार नहीं था जब नौकरी छोड़ी। शादी की नहीं। बाद में बहन के परिवार की जिम्मेदारी निभानी पड़ी। लेकिन अपनी आमदनी के लिहाज से अपनी जरूरतों को सीमित किया इसलिये कर सके होंगे गुजारा। श्रीलाल जी ने परसाई जी के साहित्य में योगदान पर भी कुछ चर्चा की तथा बताया कि मध्य प्रदेश में हिंदी साहित्य के प्रचार का बहुत कुछ श्रेय परसाई जी को जाता है।
हमने हिंदी लेखक की विपन्नता की स्थिति की बाबत बात करनी चाही तो शुकुलजी का कहना था- हम हिंदी वाले आम तौर पर जाहिल मनोवृत्ति के लोग हैं। हिंदी पढ़ने -लिखने वालों की अबादी तीस-चालीस करोड़ है। अगर एक प्रतिशत लोग भी महीने में एक किताब खरीदें तो साल में पचास लाख किताबें बिकें लेकिन ऐसा नहीं होता। जब किताबें बिकेगीं नहीं तो छ्पेगीं भी नहीं और हिंदी लेखक ऐसे ही विपन्न रहेगा। केवल लेखन से जीविका इसीलिये हिंदी में बहुत मुश्किल बात है।
हमारे यह पूछने पर कि आजकल क्या लिख रहे हैं श्रीलाल जी ने बताया कि स्वास्थ्य के कारणों से पिछले कुछ दिनों से लिखना नहीं हो पा रहा है। वैसे इंडिया टु दे तथा आउटलुक और अन्य पत्रिकाऒं से नियमिते लेखन का प्रस्ताव है लेकिन लिखना हो नहीं पा रहा। मैंने कहा कि आप बोलकर लिखवाया करें जैसे नागरजी लिखवाया करते थे। इस पर श्रीलाल जी ने कहा कि बोलकर लिखवाने की उनकी आदत नहीं है। अपने लिखे को ही दो तीन बार सुधारना पड़ता है तो दूसरे को बोलकर लिखवाना तो और मुश्किल है। नागरजी के बोलकर लिखवाने का ही जिक्र करते हुये उन्होंने अपना मत बताया कि अगर नागरजी अपना उपन्यास बूंद और समुद्र को कुछ संपादित करके लिखते तो तो शायद कुछ पतला होकर यह और श्रेष्ठ उपन्यास बनता।
अपने लिखने के बारे में बात करते हुये उन्होंने कहा -”एक समय ऐसा आता है कि लेखक अपने लिखे पर ही सवाल उठाता है कि हमने जो लिखा वह कितना सार्थक है! उसकी कितनी सामाजिक उपादेयता है! मैं अब ८१ वर्ष की उम्र में शायद उसी दौर से गुजर रहा हूं।”
अपने लेखन से कितने संतुष्ट हैं और अपनी रचनाऒ को दुनिया के महान साहित्यकारों की रचनाऒं से तुलना करने पर कैसा महसूस करते हैं यह सवाल जब मैंने पूछा तो श्रीलालजी ने कहा- “अब मुझमें इतनी अकल तो है ही कि मैं अपने लिखे की तुलना किसी बहुत आम लेखक की आम रचनाओं से करके खुशफहमी पालने से अपने को बचा सकूं लेकिन जब कभी ‘वर्ल्ड क्लासिक्स’ से तुलना करता हूं तो लगता है कि मैंने कुछ नहीं लिखा उनके सामने।”
मैं समीक्षक नहीं हूं लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि श्रीलाल शुक्ल जी का रागदरबारी उपन्यास विश्व के अनेक कालजयी उपन्यासों के स्तर का उपन्यास है।
इस बीच श्रीलालजी की रैक की किताबें पलटते हुये मैं प्रख्यात पत्रकार स्व. अखिलेश मिश्र की किताब पत्रकारिता: मिशन से मीडिया तकउलटने-पलटने लगा था। पिछ्ले ही हफ्ते हिंदी दैनिक हिंदुस्तान में छपी इसकी समीक्षा को पढ़कर इसे पढ़ने की सहज इच्छा थी। मेरी उत्सुकता देखकर श्रीलाल जी ने वह किताब हमें दे दी कि मैं उसे ले जाऊं। हमने उसे प्रसाद की तरह ग्रहण कर लिया। अब जब वह किताब पढ़ रहा था तो लगा कि यह हर पत्रकार के लिये आवश्यक किताब है।
बहरहाल तमाम बाते होती रहीं। साहित्यिक, सामाजिक, व्यक्तिगत। ढेर सारा समय कैसे सरक गया पता ही नहीं चला। पांच मिनट के लिये कहकर मैं घंटे भर से ऊपर यहां गपियाते हुये बिता चुका था। बातों का क्रम भंग कर दिया मुये मोबाइल ने। घरवाले बुलाहट कर रहे थे कानपुर वापस लौटने के लिये।
हम वापस लौट आये। अभी जब मैं लखनऊ में श्रीलाल शुक्ल के साथ सहज रूप से बिताये समय को याद कर रहा हूं तो लगता है कि वे ऐसे व्यक्ति साहित्यकार हैं जिनसे बात करते समय यह अहसास ही नहीं होता कि हम किसी बहुत खास व्यक्ति से, महान लेखक से बात कर रहे हैं। यही शायद उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खासियत है। यही उनकी महानता है।
Posted in संस्मरण | 22 Responses
जब तक लेखन एक पूर्ण व्यवसाय नहीं बन जाता तब तक ‘राग दरबारी’ जैसी ‘क्लासिक’ महज अपवाद ही हो सकती हैं ।
राग दरबारी को आप का इंटरनेट पर लानें का प्रयास सराहनीय है लेकिन मेरा निजी विचार है कि पूरा उपन्यास देने के बजाय सिर्फ़ उस के कुछ अंश दें जिस से पाठकों की जिज्ञासा बढे और वह उपन्यास खरीद कर पढें । उपन्यास ‘पौकेटबुक’ में सरलता से उपलब्ध है । वैसे भी पूरा उपन्यास ‘इंटरनेट’ पर पढनें की क्षमता और रुचि न जानें कितनें लोगों में हो । आशा है आप सुझाव को अन्यथा न लेंगें , पूरे उपन्यास को लिखनें में किये गये परिश्रम का कहीं और बेहतर प्रयोग हो सकता है ।
वैसे अगर आप लिखना चाहें ही तो २० पन्नें मेरे नाम से जोड़ लें
आपने इस मुलाकात का विवरण बहुत अच्छी तरह से रखा है.
यह पढ़ कर एक फायदा मुझे नीजि तौर पर यह हुआ की अब तक मैं वर्तनियों की भूलो से डर कर लिखना टालता रहा था, पर जब इतने बड़े लेखको को ही अपने लिखे को तीन-चार बार सुधारना पड़ता है, तब हमे भी ज्यादा डरने की कहाँ आवश्यक्ता है.
मैं इसे टाईप करने के लिए तैयार हूँ पर अफ़सोस मेरे पास यह उपन्यास नहीं है।
अनूप (भार्गव) जी ने अच्छी सलाह दी है, आंशिक रूप से पढ़ने के बाद जिज्ञासा वश लोग किताब तो खरीदेंगे!
टाइपिँग मेँ भी कुछ् सहयोग करूँगा
आपका विवरण पढके ये लगता है जैसे खुद ही श्रीलाल जी से मुलाकात हो गई|
http://www.new.dli.ernet.in/
श्रीलाल जी से पूछे गये प्रश्न और उनके उत्तर बहुत सार्थक लगे तथा बहुत सारी नयी जानकारी मिली।
मुझे दु:ख है कि मेरे पास यह पुस्तक न होने के कारण मैं इस यज्ञ मे आहुति नहीं दे पाउँगा, अन्यथा दसेक पृष्ट तो छाप सकता था।
आपने बताया है कि आज भी रागदरबारी बेस्टसेलर की सूची में है तो निश्चित रूप से इसकी सॉफ़्टवेयर प्रतिलिपि प्रकाशक के पास होगी, और डीटीपी फ़ॉर्मेट में कृतिदेव फ़ॉन्ट में होगी. अगर इसकी एक प्रति प्रकाशक से मिल जाती है तो फिर से टाइप करने की समस्या दूर हो सकती है. इसे परिवर्तन जैसे सॉफ़्टवेयरों की मदद से यूनिकोड में आसानी से रूपांतरित किया जा सकता है. कुछ चर्चा कर देखें:
आपकी उनसे मुलाकात तो ऐसी रही कि लगा हमारी ही उनसे मुलाकात हो गई।
कुछ सीरियस टिप्पणी:
वाकई, जब तक समर्थ लोग खरीदेंगे नहीं, तब तक हिन्दी साहित्य में इस तरह की शख्सियत यदा कदा ही दिखेगी।
अपनी वाली पर:
सहयोग तो मैं भी पुरा करना चाहुँगा। गूगल पर ढुँढ रहा हूँ कहीं से देवनागरी यूनिकोड में तैयार सामग्री मिल जाये तो १००-५० पन्ने मैं भी कॉपी-पेस्ट कर के भेज सकता हूँ.
और यह भी डिसाईडेड ही है कि हमे भी उनसे मिलना है बस थोडा प्रिपेयर हो जाये अपने साजो सामान के साथ..