Saturday, November 11, 2006

राग दरबारी इंटरनेट पर

http://web.archive.org/web/20110904055514/http://hindini.com/fursatiya/archives/209

राग दरबारी इंटरनेट पर

जैसा कि हमने कहा था कि मैं रागदरबारी को इंटरनेट पर लाना चाहता हूं।
इस बारे में कुछ साथियों का विचार था कि इसका आंशिक भाग हमें नेट पर प्रकाशित करना चाहिये ताकि लोगों को पढ़ने की रुचि जाग्रत हो और वे खरीदकर पढ़ें। मजे की बात है कि अनूप भार्गव जी के इस प्रस्ताव का समर्थन प्रत्यक्षाजी ने भी किया जो कोई भी किताब तभी खरीदती हैं जब वे किताब को एक बार पढ़कर इस बात का इत्मिनान कर लेती हैं कि किताब वाकई खरीदने लायक है।
मेरा विचार यह है कि यह किताब ऐसी है कि जो भी इसे पढ़ेगा वह खुद खरीदकर घर लायेगा और चार दूसरे लोगों को पढ़वायेगा। किताब नेट पर पूरी उपलब्ध होने पर भी खरीदने वाले इसे खरीदकर पढ़ेंगे ही। इसके नेट पर उपलब्ध होने पर इसकी बिक्री में इजाफ़ा ही होगा कमी नहीं आयेगी।
और फ़िर जब अंग्रेजी के तमाम लेखकों का पूरा साहित्य नेट पर उपलब्ध है तो हिंदी का ऐसा उपन्यास क्यों नहीं हो जो कि अपनी तरह का पहला उपन्यास है और बावजूद हिंदी भाषियों की पुस्तक खरीद में कंजूसी के हर साल इसका एक नया संस्करण बिक जाता है। मैं अभी तक मित्रों को भेंट करने के लिये अब तक दस-पंद्रह रागदरबारी की प्रतियां खरीद चुका हूं और मजे की बात जब मैंने पहला भाग टाइप किया तो मेरे पास इसकी कोई प्रति न होने के कारण मुझे अपने मित्र से इसे मांगना पड़ा।
रविरतलामी जी का सुझाव था कि मैं प्रकाशक से बात करके उनसे इसकी सी.डी. लेकर पोस्ट कर दूं। लेकिन मेरा न ही प्रकाशकों से कोई संपर्क है न जान-पहचान। और फिर जब खुद लेखक श्रीलाल शुक्ल जी बातचीत में उन्होंने कुछ भाग ही नेट पर पोस्ट करने की अनुमति दी तो वे अपनी टाइप की हुयी सी.डी. देंगे इस पर मुझे संदेह है।
इस किताब को नेट पर लाने के पीछे मेरे दिमाग में वे तमाम लोग भी थे जो सालों से देश से बाहर हैं और खरीदने की हैसियत और मन होने के बावजूद किताब के पास तक नहीं पहुंच पाये अभी तक। किताब की कीमत कुल जमा पैंसठ रुपये है लेकिन डाक खर्च आदि मिलाकर किताब की कीमत उनके उत्साह पर हमेशा भारी पड़ती है। यह मितुल जैसे हमारे साथियों के लिये हमारी तरफ़ से उपहार है जो पूरे मन से नेट (विकिपीडिया) पर हिंदी को स्थापित करने में लगे रहते हैं और चाहने के बावजूद तमाम अच्छी किताबों से रूबरू होने में फिलहाल दूर हैं।
बहरहाल, मैंने यही ठीक समझा कि इस किताब को टाइप करके नेट पर डाल दिया जाये। श्रीलाल शुक्ल जी ने, जिनके नाम किताब का कापी राइट है, हमें इसके लिये मौखिक सहमति दी है।
हालांकि जरूरत नहीं फिर भी यह कह देने में कोई हर्ज नहीं कि इस रागदरबारी को नेट पर लाने के पीछे किसी भी तरह का आर्थिक लाभ कमाना हमारा उद्देश्य नहीं है। हमारा एकमात्र उद्देश्य अच्छे साहित्य को लोगों तक पहुंचाना है। इसमें हम कितना सफल हुये यह समय बतायेगा।
राग दरबारी में कुल पैंतीस भाग हैं। दो भाग नेट पर आ गये हैं। तीसरा भाग कुंडलिया किंग समीर लाल जी टाइप कर रहे हैं और चौथे भाग के लिये इनके काबिल शिष्य गिरिराज जोशी जुटे हैं। आगे के भागों के लिये भी तमाम साथियों से तय करके टाइपिंग यज्ञ में योगदान लिया जायेगा। साथियों की तरफ़ से सहयोग को लेकर मैं निश्चिंत हूं ,आश्वस्त हूं। भुवनेश शर्मा ने अपनी बीमारी के बावजूद आज दूसरा भाग टाइप करके भेजा। पहला भाग अभी दो दिन पहले ही मैंने टाइप किया था।
आपसे अनुरोध है कि जिन लोगों ने रागदरबारी अभी तक न पढी़ हो वे इसे पढ़ें और अपनी राय जाहिर करते रहें। जीतेंद्र से गुजारिश है कि फिलहाल कुछ दिन के लिये जब तक रागदरबारी की टाइपिंग/पोस्टिंग का दौर चल रहा है, इसे नारद की सूची में शामिल कर लें ताकि पाठकों को इसकी नयी पोस्ट की जानकारी मिलती रहे। चिट्ठाचर्चा करने वाले साथियों से अनुरोध है कि जिस दिन रागदरबारी पर नयी पोस्ट हो तो इसका जिक्र करने का प्रयास करें।
हमारे इस प्रयास में आपके किसी भी सुझाव का स्वागत है।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

12 responses to “राग दरबारी इंटरनेट पर”

  1. मनीष
    वैसे तो श्रीलाल शुक्ल जी की कई किताबों को पढ़ा है पर राग – दरबारी का जवाब नहीं । इसके सारे चरित्र इस कदर जमीन से जुड़े हैं कि पूरी कथा सामने घटित हुई सी लगती है । भारत के बाहर के लोगों के लिये इस पुस्तक को नेट पर लाने का आप सब का प्रयास सराहनीय है ।
  2. Pramendra Pratap SIngh
    हिन्‍दी की पुस्‍तको का इन्‍टरनेट पर आना हिन्‍दी तथा हिन्‍दी प्रेमियों दोनो के लिये संजीवनी का काम करेगा। बहुत सी किताबे ऐसी है जो आज भी गुमनामी के अधेरे मे दम तोड रही है। मै सच कहूं तो श्री श्रीलाल शुक्‍ल तथा उनकी राग दरबारी का नाम पहली बार आपके लेखो मे ही सुना था। यह एक सही प्रयास है कि आपस मे ज्ञान बाटने की परम्‍परा की शुरूवात हुई है और होनी चाहिये। राग-दरबारी ही नही अगर हम आपसी सहयोग से काम करना चालू करे तो ऐसी बहुत सी किताबे जो कॉपी राइट से मुक्‍त हो चुकी है, उन्‍हे इन्‍टरनेट पर लाया जा सकता है, और ज्‍यादा समय नही लगेगा कि हमारे कम्‍प्‍युटर पर एक वाचनालय उपलब्‍ध होगा।
    रागदरबारी को नेट पर लाने मे लगी पूरी टीम को शुभकामनाऐ
  3. सागर चन्द नाहर
    धन्यवाद भाई साहब
    यह पुस्तक पूरी प्रकाशित हो जाती है तब मैं इसे ई-बुक (pdf) के रूप में प्रस्तुत करने के लिये कोशिश करूंगा। इस पुस्तक को टाईप करने के कार्य में मैं भी सहयोग दे पाता काश मेरे पास पुस्तक होती।
  4. जीतू
    अध्याय – ६ मै टाइप कर रहा हूँ, आधे से ज्यादा हो चुका है। आज या कल तक भेज देता हूँ।
    सागर भाई,रागदरबारी इन्टरनैट पर इमेज (TIFF )फारमेट मे मौजूद है, फुरसतिया जी, सागर भाई को लिंक दे दीजिए। फुरसतिया जी एक काम और करिए, किसी एक जगह पर विषय सूची डाल दीजिए, और अध्यायों के शुरु और आखिरी पेज का नम्बर भी दे दीजिए, ताकि साथियों को कम से कम परेशानी हो। साथ ही जो भाई लोग काम कर रहे है, वे अपनी प्रगति की रिपोर्ट फुरसतिया तक पहुँचाते रहे। वो ही प्रोजेक्ट मैनेजर है, इस प्रोजेक्ट के।
  5. SHUAIB
    शुक्रिया अनूप जी, पढने के लिए कुछ अच्छा मिला – लिंक्स देने का धन्यवाद
  6. संजय बेंगाणी
    आपका यह प्रयास सचमुच प्रशंसनीय है. आपको साधूवाद देता हूँ.
    इस पुस्तक का टीफ फोर्मेट देख कर आपसे सम्पर्क करता हूँ.
  7. Nitesh S
    अनूप जी , इंग्लिश मे किताबों को नेट पर उतारने के बहुत सुलभ औजार उपलब्ध हैं.
    कई तो हमारे भारतीय भाइयों ने ही बनाईं होंगे.
    अगर कोई optical character recognition software हिन्दी के लिए मिल जाए तो मज़ा आ जाएगा , और बहुत सी ऐसी किताबें जो copyright से मुख हो चुकी हैं नेट पर आसानी से डाली जा सकती है..
  8. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    टाइप करने के बजाय यदि इसके पृष्ठों को स्कैन करके क्रमबद्ध रूप से नेट पर डाल दिया जाय तो आसानी से काम हो सकता है। पृष्ठों की साज सज्जा में value addition भी हो जाय, और शायद कॉपी राइट का चक्कर भी सुलझ जाय।
    मैने हाल ही में हिन्दुस्तानी त्रैमासिक का सम्पादकीय इसी प्रकार यहाँ पोस्ट किया था।
  9. राग दरबारी और हिन्दी पुस्तकों पर कंजूसी | दुनिया मेरी नज़र से - world from my eyes!!
    [...] आया कि अनूप जी ने इसकी प्रशंसा में लिखा था, तो झट से उनको फोन मिलाया इसके बारे में [...]
  10. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] हनीमून 2..श्रीलाल शुक्ल जी एक मुलाकात 3..राग दरबारी इंटरनेट पर 4..नगर निगम चौकस हुआ, हिजड़े दिये लगाय [...]
  11. sanjay shishodia
    vastav me raag darbari ka jawab nahi…. aaj ki laal fita shahi per dr. shri lal shukl ki ye kitaab seeedha or paroksh kataksh hai….
  12. arvind
    क्या बात है! मै इस पुस्तक का भारी प्रसंशक हूं. आपके इस प्रयास को साधुवाद.

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