http://web.archive.org/web/20110101200338/http://hindini.com/fursatiya/archives/216
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
जनकवि कैलाश गौतम
[प्रख्यात जनकवि, संचालक कैलाश गौतम का
9 दिसम्बर2006 को इलाहाबाद में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। कैलाश
गौतमजी अपनी सहज, सरल भाषा में गहरी बात कहने वाली कविताऒं,गीतों के लिये
जाने जाते थे। पिछले साल इटावा साहित्य निधि समारोह में मुझे कैलाश गौतमजी
को सुनने का सौभाग्य मिला। कैलाश गौतम जी के निधन से हिंदी गीत विधा को
अपूरणीय क्षति हुयी। कैलाश गौतम जी को विनम्र श्रद्धांजलि देते हुये उनका
परिचय देने के उद्धेश्य से यह लेख प्रस्तुत है। इस लेख का अधिकांश भाग
व्यंग्यकार, कवि सूर्यकुमार पांडेय के लेख पर आधारित है। इस बारे में
अभिव्यक्ति में प्रकाशित लेख भी देखें।]
साफ दिखाई पड़ती हैं।
कबीर को जिसने भी पढ़ा है वह जानता है कि वह सपाटबयानी करते चलते हैं। लेकिन कबीर को गुनते समय वक्रता और जटिलता की जितनी परतें खुलती हैं ,कैलाश गौतम में वह ही परम्परा दीखती है। कैलाश गौतम की कविताऒं में अक्खड़पन भी है, गहराई भी और और आज के समाज पर करारा व्यंग्य भी। यह भी संयोग रहा कि कबीर की तरह कैलाश गौतम की कविता ने भी बनारस में ही जन्म लिया था। वे बनारसी बोली के श्रेष्ठतम कवियॊं में से एक थे। ‘अमावस का मेला’ जैसी लोग संस्कारों को व्याख्यायित करने वाली कविता अद्भुत है और अप्रतिम भी।
कैलाश गौतम की सृजन प्रतिभा को किसी विधा विशेष में नहीं बांधा जा सकता। वे गीत भी रचते रहे नवगीत और दोहे भी। उन्होंने गद्य में भी लेखनी चलायी। बनारस की कविता परम्परा से व्यंग्य विनोद को आलंबन के रूप में ग्रहण करते रहे। छंद को तोड़ा नहीं लेकिन शिष्टता और विशिष्टता का परिधान पहनाकर अपने रचनाऒं को भदेसपन से बचाते रहे। लोक मुहावरों का आधुनिक संदर्भों में प्रयोग करने में उन्हें महारत हासिल थी। वे अक्सर अपनी बात कहने के लिये रस्सी का दूसरा सिरा पकड़ते थे। उनकी ‘कुर्सी’ और’कचहरी’ कविताऒं में इसे महसूस किया जा सकता है:-
अंधाधुंध शहरीकरण और आबादी के गांवों से शहरों की तरफ पलायन का कारण मात्र शहरों की चकाचौंध और सुविधा-सम्पन्नता का आकर्षण ही नहीं हैं। उनका मानना है कि आज गांवों की स्थितियां ऐसी नहीं रह गयीं हैं कि वहां सुकून से रहा जा सके। अपने कविता गांव गया था गांव से भागा में वे लिखते हैं:-
अपने निधन से दो दिन पूर्व उन्होंने इलाहाबाद के सांस्कृतिक मंच से उन्होंने हंसी-ठहाकों के बीच कवि सम्मेलन का सफलतापूर्वक संचालन किया। तब यह किसी ने यह सोचा भी न होगा कि वे दो दिन बाद इस दुनिया को अलविदा कह
देंगे। ९ दिसंबर को सबेरे उनका दिल का दौरा पड़ने से इलाहाबाद में निधन हो गया।
कविता को बंद कमरों से बाहर निकालकर जन-जन तक पहुंचाने वाले जनकवि कैलाश गौतम का जाना साहित्य का वह सन्नाटा है जिसकी पूर्ति सम्भव नही है। उन्होंने कविता के भूगोल को ऐसा विस्तार दिया कि वह समृद्ध मंचों से लेकर
गांव की चौपाल और खेत, खलिहानों तक भी पहुंची।
जनकवि कैलाश गौतम को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।
२.महादेवी वर्मा साहित्य सहकार न्यास की ओर से महादेवी वर्मा सम्मान
३.मुम्बई का परिवार सम्मान
४.उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का राहुल सांकृत्यायन सम्मान
५.लोक भूषण सम्मान
६.सुमित्रानन्दन पंत सम्मान
७.ऋतुराज सम्मान
सामग्री संदर्भ: १. हिंदी दैनिक हिंदुस्तान में कवि,व्यंग्यकार सूर्य कुमार पांडेय का लेख लोक मानस के यथार्थ संदर्भों का चितेरा
२. अमर उजाला में प्रकाशित लेख-‘जनकवि’ कैलाश गौतम नहीं रहे
३.अभिव्यक्ति
कैलाश गौतम
कैलाश गौतम स्वभाव से जितने मिलनसार, हंसमुख और सहज थे, उतनी ही सहज
उनकी लेखनी भी थी। कहीं कोई क्लिष्टता नहीं, बनावट नहीं। वे पारदर्शी
कवितायें रचते रहे। जिस तरह स्वच्छ जल को अंजुरी में लेकर उसमें झांकने पर
स्वयं की हथेली और उसकी रेखायें नजर आती हैं, कुछ इसी तरह जिसने भी कैलाश
गौतम को पढ़ा या मंच पर कविता पढ़ते हुये सुना है, उसे अनुभव हुआ होगा।
उनकी कविताऒं में समकालीन भारतीय समाज, खासकर ग्राम्य जीवन की भाग्य
रेखायेंसाफ दिखाई पड़ती हैं।
कैलाश गौतम
जन्म-08.01.1944 चंदौली,वाराणसी
निधन-09.12.2006 इलाहाबाद
शिक्षा-एम.ए.,बी.एड.
प्रकाशित कविता संग्रह-सीली माचिस की तीलियां,जोडा ताल,तीन चौथाई आंश,सिर पर आग(भोजपुरी)
आज के भड़ैती भरे काव्य मंचोंपर उनकी उपस्थिति मात्र से बल मिलता था। वे
आंचलिक बिंबों के प्रयोगधर्मा कवि के रूप मे याद किये जायेंगे। कैलाश गौतम
अपनी रचनाऒं में इतना सरल, सपाट और सहज दीखते हैं कि एक बारगी लगता है कि
उनकी कविताऒं पर किसी अतिरिक्त टिप्पणी की आवश्यकता नहीं है। कविता की
व्याख्या के लिये कोई व्यास नहीं चाहिये। इन्हें पढ़िये या सुनिये ,कैलाश
गौतम सरल रेखा में संप्रेषित होते जायेंगे। उनकी रचनाधर्मिता सरल होते हुये
भी ऋजुमयी है। तभी तो इन्हें सुनते समय अतिरिक्त चौकन्ना होना पड़ता है।जन्म-08.01.1944 चंदौली,वाराणसी
निधन-09.12.2006 इलाहाबाद
शिक्षा-एम.ए.,बी.एड.
प्रकाशित कविता संग्रह-सीली माचिस की तीलियां,जोडा ताल,तीन चौथाई आंश,सिर पर आग(भोजपुरी)
कबीर को जिसने भी पढ़ा है वह जानता है कि वह सपाटबयानी करते चलते हैं। लेकिन कबीर को गुनते समय वक्रता और जटिलता की जितनी परतें खुलती हैं ,कैलाश गौतम में वह ही परम्परा दीखती है। कैलाश गौतम की कविताऒं में अक्खड़पन भी है, गहराई भी और और आज के समाज पर करारा व्यंग्य भी। यह भी संयोग रहा कि कबीर की तरह कैलाश गौतम की कविता ने भी बनारस में ही जन्म लिया था। वे बनारसी बोली के श्रेष्ठतम कवियॊं में से एक थे। ‘अमावस का मेला’ जैसी लोग संस्कारों को व्याख्यायित करने वाली कविता अद्भुत है और अप्रतिम भी।
कैलाश गौतम की सृजन प्रतिभा को किसी विधा विशेष में नहीं बांधा जा सकता। वे गीत भी रचते रहे नवगीत और दोहे भी। उन्होंने गद्य में भी लेखनी चलायी। बनारस की कविता परम्परा से व्यंग्य विनोद को आलंबन के रूप में ग्रहण करते रहे। छंद को तोड़ा नहीं लेकिन शिष्टता और विशिष्टता का परिधान पहनाकर अपने रचनाऒं को भदेसपन से बचाते रहे। लोक मुहावरों का आधुनिक संदर्भों में प्रयोग करने में उन्हें महारत हासिल थी। वे अक्सर अपनी बात कहने के लिये रस्सी का दूसरा सिरा पकड़ते थे। उनकी ‘कुर्सी’ और’कचहरी’ कविताऒं में इसे महसूस किया जा सकता है:-
यूं तो है वह काठ की कुर्सीअपने जीवन के अंतिम काल में आकाशवाणी से अवकाश प्राप्ति के बाद कैलाश गौतम इलाहाबाद में हिंदुस्तानी एकेडमी के अध्यक्ष पद पर कार्यरत थे। आकाशवाणी इलाहाबाद केंन्द्र के ग्रामीण कार्यक्रमों से जुड़ाव ने कैलाश गौतम के ग्राम्य मन को सदैव टटका रखा। समकालीन रचनाकारों में लोकसंवेदना का ऐसा कवि मिलना विरल है।
माने रखती है,
बडे़-बड़ों को ये अपने
पैताने रखती है।
अंधाधुंध शहरीकरण और आबादी के गांवों से शहरों की तरफ पलायन का कारण मात्र शहरों की चकाचौंध और सुविधा-सम्पन्नता का आकर्षण ही नहीं हैं। उनका मानना है कि आज गांवों की स्थितियां ऐसी नहीं रह गयीं हैं कि वहां सुकून से रहा जा सके। अपने कविता गांव गया था गांव से भागा में वे लिखते हैं:-
गांव गया थाकैलाश गौतम लोक मानस के यथार्थ संबंधों के चितेरे थे। यथार्थ का बयान ही उनकी कविता की शक्ति है। मानवीय संबंधों की टूटन और रिश्तों-नातों के विघटन को लेकर उन्होंने कई कवितायें लिखीं। भौजी उनका एक प्रिय प्रतीक है जो बारम्बार उनकी रचनाऒं में आता रहा है। भौजी हमेशा घर-परिवार के लिये चिंतित दीखती हैं। कभी वह अपने देवर को पाती लिखकर ‘नदी किनारे सुरसतिया की लाश’ मिलने की सूचना पढ़ाती हैं तो कभी ‘बड़की भौजी’ बनकर सबके दुख दर्द का ख्याल रख रही होती हैं:-
गांव से भागा
सरकारी स्कीम देखकर
बालू में से क्रीम देखकर
देह बनाती टीम देखकर
हवा में उड़ता भीम देखकर
सौ-सौ नीम हकीम देखकर
गिरवी राम-रहीम देखकर
गांव गया था
गांव से भागा।
इधर भागती,उधर भागती,साथ के दशक में वाराणसी अधिवास के दौरान वे ‘आज’ और ‘गांडीव’ दैनिक पत्रों से जुड़े रहे। उन्होंने’सन्मार्ग’ के लिये भी नियमित स्तंभ लेखन किया। कैलाश गौतम लोकप्रिय कवि और सफल संचालक थे। मंच पर कविता की स्थिति देखकर अपने साथी /युवा कवियों से कहा करते थे:-
नाचा करती हैं,
बड़की भौजी, सबका चेहरा
बांचा करती हैं।
“आज मंचों पर न हास्य है, न व्यंग्य। रह गया है तो सिर्फ चुटकुला। अब इसे ही झेलना पड़ेगा और मंचों पर कुछ नये प्रयोग करने पड़ेंगे।”
अपने निधन से दो दिन पूर्व उन्होंने इलाहाबाद के सांस्कृतिक मंच से उन्होंने हंसी-ठहाकों के बीच कवि सम्मेलन का सफलतापूर्वक संचालन किया। तब यह किसी ने यह सोचा भी न होगा कि वे दो दिन बाद इस दुनिया को अलविदा कह
देंगे। ९ दिसंबर को सबेरे उनका दिल का दौरा पड़ने से इलाहाबाद में निधन हो गया।
कविता को बंद कमरों से बाहर निकालकर जन-जन तक पहुंचाने वाले जनकवि कैलाश गौतम का जाना साहित्य का वह सन्नाटा है जिसकी पूर्ति सम्भव नही है। उन्होंने कविता के भूगोल को ऐसा विस्तार दिया कि वह समृद्ध मंचों से लेकर
गांव की चौपाल और खेत, खलिहानों तक भी पहुंची।
जनकवि कैलाश गौतम को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।
कैलाश गौतम को मिले सम्मान:
१.अखिल भारतीय मंचीय कवि परिषद की ओर से शारदा सम्मान२.महादेवी वर्मा साहित्य सहकार न्यास की ओर से महादेवी वर्मा सम्मान
३.मुम्बई का परिवार सम्मान
४.उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का राहुल सांकृत्यायन सम्मान
५.लोक भूषण सम्मान
६.सुमित्रानन्दन पंत सम्मान
७.ऋतुराज सम्मान
सामग्री संदर्भ: १. हिंदी दैनिक हिंदुस्तान में कवि,व्यंग्यकार सूर्य कुमार पांडेय का लेख लोक मानस के यथार्थ संदर्भों का चितेरा
२. अमर उजाला में प्रकाशित लेख-‘जनकवि’ कैलाश गौतम नहीं रहे
३.अभिव्यक्ति
Posted in इनसे मिलिये, संस्मरण | 15 Responses
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे।
श्रृद्धांजली एवं नमन.
” एक कवयित्री माइक से ठीक से आवाज न आने के कारण माइक को ठीक कर रही थी, तो उन्होने माइक वाले को आवाज दी, माइक वाला तो न आया कैलास जी आ गये और कवयित्री से बोले पढ़ो नही तो माइक वाले के जगह पर माइके वाले जरूर आ जायेगे।”
इन्ही ठाहको के बीच किसने सोचा था कि कैलास जी अब कभी हँसाने के लिये न होगें, कैलास जी के जाने से हिन्दी साहित्य जगत को अर्पूणिय छाति हुई है। भगवान शान्ति प्रदान करें।
क्या स्व. कैलाश गौतम जी की और कवितायें पढ़ने को मिल सकती है?
कैलाश गौतम जी के गीत यहाँ मिल गये हैं।
http://hi.literature.wikia.com/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%88%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%97%E0%A5%8C%E0%A4%A4%E0%A4%AE
कैलाश गौतम को हमारी भी श्रद्धांजलि!
मुझे क्या पता था कि पिता समान गुरु जनकवि कैलाश गौतम जी कि मुझसे ये अंतिम बातचीत है। अंतिम आशिर्वाद है। फिर वो मुझसे कभी बात नही करेंगे।
कल अभिव्यक्ति मे उनके निधन का समाचार पढकर मै तो सन्न रह गया। सहसा यकीन ही नही हुआ । लगा कि उनपर कोई आलेख छपा होगा । जब यह देखा कि यह सिर्फ आलेख नही , जनकवि को श्रद्धांजलि भी है तो रो पड़ा ।
भगवान इस सच्चे और महान आत्मा को शांति दें।
“जब देखो तब बडकी भौजी हंसती रहती है
हंसती रहती है कामों में फंसती रहती है ।”
खासतौर पर अंतिम पंक्तियों को दोहराने पर बहुत जोर रहता था :
“भैया की बातों पर भौजी इतना फूल गई,
दाल परस कर बैठी रोटी देना भूल गई ।”
इसी वर्ष जनवरी में शांतिनिकेतन में आकाशवाणी की स्वर्णजयंती पर आयोजित कवि सम्मेलन में मुझे उनके साथ काव्य पाठ करने का और उनके साथ दो दिन रहने का मौका मिला . जब उन्हें ‘बड़की भौजी’ से संबंधित यह पारिवारिक बात बताई तो वे बहुत प्रसन्न हुए और मुझे गले से लगा लिया.
उनके जैसे महत्वपूर्ण कवि और असाधारण गीतकार के चले जाने का समाचार मुझे आपके इस चिट्ठे के माध्यम से मिल रहा है,यह अपने आप में एक टिप्पणी है हमारे मुख्यधारा के समाचार पत्रों तथा अन्य सूचना माध्यमों पर जो चिरकुट से चिरकुट राजनेता की छींक को भी खबर बना देते हैं .
सादर,
आशीष
kuan hatheli par rokega,katre paani ke
baad pita ke in ankhon ne rona chhod diya……..saroj