http://web.archive.org/web/20110909233954/http://hindini.com/fursatiya/archives/215
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
एक चलताऊ चैनल चर्चा
पिछ्ले दिनों कानपुर में एक मूर्ति को कुछ शरारती लोगों ने
क्षतिग्रस्त कर दिया। कानपुर वैसे भी दंगाप्रधान शहर है। लोग बहुत कम खर्चे
पर यहां शानदार दंगा आयोजित कर लेते हैं। ‘तिल को ताड़ और चींटी को पहाड़’ बनाकर
लोग बड़ी कुशलता से दंगा कर/करा लेते हैं। होली, दीवाली, ईद, मोहर्रम के
अवसर के अलावा एकाध मौकों पर लोग अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार इसे मना लेते
हैं।
कानपुर में स्थिति काफ़ी देर तक तनाव पूर्ण किंतु नियंत्रण में रखने के बाद घटना की जांच के लिये एक अधिकारी लगा दिया। अधिकारी पहले तो इस बात के लिये कुनमुनाया कि उसे हर बार की तरह वही घरेलू टाइप जांच सौंप दी गयी है जब कि सीनियारिटी के लिहाज से अब उसे ‘जेम्सबांड’ टाइप केस मिलने चाहिये जिसमें वह विदेशों में जाकर पूछताछ कर सके। लेकिन उसे ‘अगली बार देखेंगे’ कहकर काम तुरंत पूरा करने का आदेश दे दिया गया।
जब तक अधिकारी की जांच रिपोर्ट आती है तब तक हम आपको अपने जीवन से जुड़ी एक सच्ची घटना सुनाते हैं। अगर आप बहुत व्यस्त न हों तो इसे पढ़ें। व्यस्त होने की स्थिति में हम आपसे बिल्कुल अनुरोध नहीं करेंगे क्योंकि हम जानते हैं कि आप इसी तरह के कामों के लिये व्यस्त होते हैं।
कुछ साल पहले भी हमारे शहर में एक जनसेवक की मूर्ति भी कुछ इसी तरह क्षति ग्रस्त कर दी गयी थी। सत्तापक्ष के कर्मठ जनसेवक होने के बावजूद उन्होंने अपनी सारी ताकत जनता की सेवा में ही लगाये रखी। इतनी सेवा की, इतनी सेवा की कि मरणोपरान्त अपनी मूर्ति लगवाने के ‘इन्टाइटिल्ड‘ होकर ही स्वर्ग सिधारे। मरणोपरान्त जब एक फ्लाई ओवर के पास मूर्ति स्थापना के लिये उनकी फाइल रखी गयी तो सेवा, समर्पण, त्याग और तपस्या में मीलों ऊपर होने के बावजूद एक दूसरे सद्य स्वर्गवासी नेता की ‘मूर्ति केस’ से उनका ‘मूर्ति मामला’ कमजोर पड़ गया। बाद में कारण पता चला कि जनसेवकजी ने जनता की सेवा जी-जान से की जबकि दूसरे नेताजी ने देश और जनता दोनों की सेवा तन-मन-धन से की थी। धन की उपेक्षा के कारण जनसेवक जी फ्लाई ओवर से उतरकर ढकनापुरवा के जनता पार्क में अपनी मूर्ति को स्वर्ग से निहारते रहने के लिये मजबूर हैं। जबकि दूसरे नेताजी ने थोड़े से तन और तनिक से मन में ढेर सारा धन मिलाकर पूरा फ्लाई ओवर अपने नाम कर लिया और अपने ऊपर से नये-नये माडल की कारों को मय सवारियों निहारते हैं।
बहरहाल, एक दिन पता चला कि जनसेवक जी की मूर्ति कुछ शरारती तत्वों ने क्षतिग्रस्त कर दी है। लोग अपने मां, बाप, भाई, प्रेमी, प्रेमिका, पति, पत्नी को क्षतिग्रस्त करने में पिले पड़े हैं और ऐसी खबरों को अखबार में बराबर पढ़ते भी रहते हैं। मूर्ति के क्षतिग्रस्त होने का समाचार देने के लिये अखबारों को समय नहीं मिलता न ही विज्ञापनों के कारण अखबार में जगह।
शहर में एक नये खुले टी.वी चैनेल ने अखबारों की इसी चूक और गफलत का फायदा उठाया और जनसेवकजी की मूर्तिभंजन का सजीव प्रसारण कर डाला। घटना पुरानी है लेकिन मैं जितना याद है उतना प्रसारण आपके लिये करने का प्रयास करता हूं।
राहुल: अभी-अभी खबर मिली है कि ढकनापुरवा में प्रख्यात स्वतंत्रतासेनानी जनसेवक जी की प्रतिमा को कल रात कुछ क्षतिग्रस्त कर दिया है। इससे इलाके में तनाव है। जाड़े के बावजूद लोग अपने घरों से बाहर निकलकर मूर्ति के पास जमा हो गये हैं। हमारी संवाददाता रंजना आपके लिये इस घटना की खास रिपोर्टिंग करने गयी हैं। आइये आपको सीधे ढकनापुरवा ले चलते हैं। रंजना क्या आपको मेरी आवाज सुनाई दे रही है?
[टेलीविजन का पर्दा सन १९४७ के हिंदुस्तान के नक्शे की तरह दो भागों में बंट जाता है। कुछ देर तक सिर इधर-उधर हिलाने और ईयर फोन कान में घुमाने के बाद वे वार्तालाप में संलग्न हो जाते हैं।
रंजना:-हां राहुल, अब मुझे आपकी आपकी आवाज साफ सुनाई दे रही है।
श्वेता:- रंजना, वहां का माहौल कैसा है? लोग कैसा महसूस कर रहे हैं?
रंजना:-जैसा कि आप देख रहीं हैं श्वेता कि लोग यहां अच्छा महसूस कर रहे हैं। मौसम अच्छा है बल्कि कुछ खुशनुमा सा है। धूप भी निकल आयी है। सड़क से गुजरते लोग हमारी टीम को देखकर रुककर कैमरे के सामने आकर अपनी खुशी जाहिर कर रहे हैं। कुछ लोग हाथ हिला रहे हैं। कुछ लोग कैमरे के सामने आकर मुस्करा रहे हैं। लोगों में इस बात की बड़ी खुशी है कि हमारी टीम उनके दुख में उनके साथ है।
राहुल:- आप लोग वहां पहुंचे कैसे? रास्ते में किसी ने रोका तो नहीं? मेरा मतलब कि रास्ते में
तनाव के कारण कोई परेशानी तो नहीं हुई?
रंजना:- नहीं, नहीं हम यहां बड़े आराम से पहुंच गये। रास्ते में सब लोगों ने बहुत'कोआपरेट' किया। पहले तो हम जो भी मूर्ति टूटी दिखी उसे ही घटनास्थल समझकर रिपोर्टिंग करने लगे लेकिन फिर लोगों ने बताया कि वे मूर्तियां तो सालों पहले से टूटी हैं। फिर हम खोजते-खाजते यहां आये। जैसा आपने बताया था उसी 'क्लू' के सहारे।
श्वेता:-लेकिन आप लोगों को यह भरोसा कैसे हुआ रंजना कि यही वह मूर्ति है जिसे कल रात तोड़ा गया है?
रंजना:-श्वेता, मुझे जैसा राहुल ने बताया था कि 'इम्पार्टेंन्ट'मूर्ति वही होगी जिसके आसपास कचरा होगा, गायें-भैंसे, सुअर-कुत्ते लोट रहे होंगे, गोबर बिखरा होगा और लोगों ने अवैध कब्जा कर रखा होगा। इसी तरह की मूर्तियों की हम शक के आधार पर खोज कर रहे थे। लेकिन इस तरह की तमाम मूर्तियां दिखीं। इससे हम भ्रमित से हो गये और परेशान होकर वापस लौटने वाले थे। तब तक हमें याद आया कि राहुल ने यह भी बताया था कि जहां भी कुछ गड़बड़ होती है वहां पुलिस जरूर पहुंचती है, चाहे देर से पहुंचे। गड़बड़ी और पुलिस का चोली-दामन का साथ है। यहां भी हमने जब पुलिस को देखा तो समझ गये जरूर कुछ गड़बड़ है। फिर आप देख ही रहे हैं कि हम सही जगह पर ही पहुंच गये हैं।
रंजना:-लोगों के अलग-अलग विचार हैं। कुछ लोग कह रहे हैं कि मसाले में सीमेंट कम थी इसीलिये मूर्ति कमजोर बनी थी। लेकिन एक सीमेंट बेचने वाला कह रहा है कि अगर उसकी कम्पनी की सीमेंट लगाई जाती तो मूर्ति ढह भले जाती लेकिन टूटती नहीं। जबकि कुछ लोग कह रहे हैं कि इस नयी मूर्ति की प्रतिष्ठा पुरानी मूर्तियों के मुकाबले कुछ ज्यादा थी इसलिये उन मूर्तियों की देखरेख करने वालों ने इसे तुड़वाने की साजिश रची है। कह तो कुछ लोग यह भी रहे हैं कि मोहल्ले के एक नये युवा नेता अपने जीते जी अपनी मूर्ति लगाने की व्यवस्था कर लेना चाहते हैं, ताकि बाद में कोई चूक न होने पावे। उनकी इसी मंशा को भांपते हुये उनके समर्थकों ने यह काम कर डाला। ऐसे भी लोगों की कमी नहीं है जो यह मान रहे हैं कि मूर्ति भंजन से मूर्ति का महत्व बढ़ गया है। सालों तक जिस मूर्ति की किसी ने सुधि नहीं ली वह एक दिन में धोनी की तरह सुपर स्टार मूर्ति हो गयी। पास की झोपड़ पट्टी में मवेशी की तरह ठुंसकर रहने वाले मुंह बाये सोच रहे हैं कि काश वे भी मूर्ति होते तो कम से कम कायदे से रहने का तो जुगाड होता। बगल के होटल का मालिक सोच रहा है कि इसी तरह जांच-फांच चलती रहे ताकि उसकी दुकान की बिक्री में और इजाफ़ा हो। पास की जमीन पर कब्जा करके अवैध इमारत बनवाकर रह रहा नवधनाढ्य ठेकेदार अपनी बालकनी के टेरेस से मूर्ति के आसपास के इलाके को देखते हुये हिसाब लगा रहा है कि पुलिस, नेता, अधिकारी सहयोग से अगर इस जगह को कब्जिया कर 'जनसेवक शापिंग काम्प्लेक्स' बनाया जाये तो कैसा रहेगा।
रंजना:-श्वेता, अभी तक राजनीतिक पार्टियां इस मामले में अपना स्टैंड नहीं कर पायी हैं। इसके लिये यहां के स्थानीय कार्यकर्ता अपने-अपने हाईकमान से निर्देश पाने की जुगाड़ में लगे हैं लेकिन सबके हाईकमान इसके बारे में स्थानीय कार्यकर्ताऒं से जनसेवकजी के बारे में जानकारी मांग रहे हैं ताकि वे स्थिति के अनुसार अपनी पार्टी के फायदे के मुताबिक बयान जारी कर सकें।
श्वेता:- लेकिन लोग अपने विचार तो बता सकते हैं!
रंजना:- सही कह रही हैं आप लेकिन आजकल राजनैतिक पार्टियों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होती है। और स्वतंत्रता की गंगा हर पार्टी के हाईकमान से कार्यकर्ता तक बहती है। कार्यकर्ता अपनी नदी अलग नहीं बहाते। इसीलिये लोग इंतजार करते हैं कि हाईकमान अपने अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता के अधिकार का उपयोग कर ले तब वे बाकी बचे हुये अपने स्वतंत्रता के अधिकार का इस्तेमाल करें। कुछ लोग जो इस नियम का पालन नहीं कर पाते और अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति करने लगते हैं उनको पार्टियां स्वतंत्र कर देती हैं और वे फिर केवल अभिव्यक्ति करते रहते हैं, किसी और काम लायक नहीं रहते। इसीलिये लोग हाईकमान की राय का उसी तरह इंतजार करते हैं जिस तरह भारतवर्ष में लोग हर परेशानी की काट के लिये देवताऒं के अवतार में खोजते हैं।
रंजना:-बच्चे समझ नहीं पा रहे हैं राहुल कि 'एक्चुअली' उन्हें क्या करना चाहिये। दरअसल इस इलाके में इस तरह की यह पहली घटना है इसलिये उनको पता नहीं है कि उनको कैसे 'रिएक्ट' करना चाहिये। आजकल अच्छे स्कूलों में और घरों में जागरूक माता-पिता यह तो सिखाने लगे हैं कि अजनबी की दी हुयी चीज न खायें किसी का भरोसा न करें लेकिन उनको यह नहीं सिखाया गया है मूर्ति टूटने पर कैसे 'विहैव' करें। वैसे कुछ बच्चे आशा कर रहे हैं फसाद कुछ और बढ़ेगा और उनके स्कूल आज बंद हो जायेंगे।
श्वेता:-मूर्ति टूटने की बात का क्या असर है उन बच्चों पर?
रंजना:-जैसा मैंने बताया कि बच्चों को इसका अनुभव नहीं है कि कैसे 'रिएक्ट' करें। मूर्ति के बारे में उनको कुछ पता नहीं है क्योंकि उनके कोर्स में इसका कोई जिक्र किया नहीं गया है। वैसे कुछ बच्चे अपनी किताब की सारी फोटुऒं से मूर्ति का मिलान करके जनसेवक जी को महापुरुष के रूप में शिनाख्त करने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन ज्यादातर बच्चों को इस बात का सुकून है कि मूर्ति के नीचे का चबूतरा बचा हुआ है। इससे चबूतरे के चारों कोनो पर लगे चारो क्रिकेट के विकेट साबुत बचे हुये हैं। कुछ बच्चों ने मूर्ति के गिरे हुये हिस्से को विकेट का दूसरा छोर बनाने की सोची लेकिन फिर इरादा टाल दिया।
रंजना:-लोग अलग-अलग तरह से अपनी प्रतिक्रियायें दे रहे हैं। कुछ लोग कह रहे हैं कि तुरन्त चंदा करके मूर्ति की मरम्मत करवानी चाही। लेकिन ज्यादातर लोगों का मानना है कि मूर्ति बनवाना सरकार का काम है। जनता को सरकार के काम में दखल नहीं देना चाहिये। अधिक से अधिक जनता यह कर सकती है कि जिस मूर्ति की सरकार मरम्म्त करवाना चाहती है उसे तोड़ने में वह सरकार का थोड़ा बहुत सहयोग कर दे। एक मजे हुये खुर्राट नेता ने तो मूर्ति के आसपास लावारिश जमीन देखकर 'मूर्ति रक्षा संघर्ष समिति' की खड़े-खड़े स्थापना कर डाली और जनहित में उसके आजीवन अध्यक्ष पद पर आरूढ़ हो गया है। कुछ लोग मूर्ति के चारो तरफ आमरण अनशन पर बैठ गये हैं। उनमें से ही एक अखबार वालों को मोबाइल से फोन करके बुला रहा है,"आपलोग आकर मेरा इंटरव्यू ले लीजिये। पहली बार आमरण अनशन पर बैठ रहा हूं। मेरी इज्जत आपके ही हाथ में है।" एक ने अभी अपने घर फोन करके कहा है,"आज खाना मत बनाना! मैं आज आमरण अनशन में हूं। शाम तक तो कुछ खा नहीं पाउंगा, लोगों के सामने। रात को देखुंगा कि किस जुगाड़ से खाया जाता है।"
रंजना:- श्वेता, आप इस तरफ़ से देख सकती हैं कि मूर्ति की हालत वैसी ही है जैसी कि आमतौर
पर उदघाटन के बाद होती है। चारो तरफ़ गर्द छायी है। हफ्तों से इसे धोया नहीं गया है। लोग बताते हैं कि साल में दो-तीन बार राष्ट्रीय पर्वों के दिन इसकी साफ-सफाई की जाती है। मूर्ति को आसपास गंदगी उसी तरह धेरे हुये है जिस तरह किसी अच्छे नेता को टिकियाचोर समर्थक घेरे रहते हैं। लेकिन आज जनता की भीड़ देखकर लोग अपनी-अपनी गंदगी उठाकर अपने घरों में ले जा रहे हैं।
राहुल:-अच्छा रंजना, जिन जनसेवक जी की मूर्ति है यह उनके बारे में लोग कितना जानते हैं?
रंजना:- यहां अभी तक कोई ऐसा व्यक्ति सीधे जानता हो। सब लोग मोहल्ले में नये आकर बसे हुये हैं। जिन लोगों को कुछ मालूम भी है वे यही कहते हैं कि उन्होंने देश के लिये अपने को कुर्बान कर दिया। काफी दिन सत्ताधारी पार्टी में रहने के बाद जाने क्या हुआ कि वे केवल जनता की सेवा में लग गये। बाद में सिद्धान्तों के चक्कर में पार्टी भी छोड़ दी। इसी चक्कर में अब कोई पार्टी उनको अपना नहीं मानती क्योंकि मरने के पहले तक न उन्होंने कोई पार्टी बनायी न पैसा। वे जनता के होकर रहे, जनता के लिये मर गये। लोग कहते हैं 'न पार्टी न पैसा, ये जनसेवक कैसा? वैसे लोग यह मानते हैं कि अगर किसी एक पार्टी के होकर रहते/मरते जनसेवक जी तो अब तक उनकी मूर्ति के चारो तरफ़ बाउंडरी भी बन जाती और आज उनकी हालत इतनी बेचारी न होती। पार्टी उनको अपने वोट बैंक के कारण थामे रहती।
श्वेता:- रंजना, क्या लगता है लोगों को इस घटना के लिये कौन जिम्मेदार है?
रंजना:- लोग यही कह रहे हैं कि कोई खालिश कनपुरिया कोई भी जिम्मेदारी का काम कर ही नहीं सकता इसलिये इसमें बाहरी ताकतों का ही हाथ लगता है। पाकिस्तान का हाथ होगा तो शाम तक सरकार बतायेगी। इसके अलावा अगर किसी आतंकवादी संगठन का हाथ होगा तो एकाध दिन में जिम्मेदारी कुबूल कर लेगा। वैसे कभी-कभी इन आतंकवादियों की जिम्मेदारी की भावना देखकर ताज्जुब होता है कि कैसे हर घटना की जिम्मेदारी ले लेते हैं।
मेरी पसन्द
विष्णु नागर
तद्भव अंक १२ से साभार
कानपुर वैसे भी दंगाप्रधान शहर है। लोग बहुत कम खर्चे पर यहां शानदार दंगा आयोजित कर लेते हैं।
बहरहाल, इस बार जब मूर्ति टूटी तो बवाल हुआ और दंगे की भूमिका बन गयी
लेकिन कुछ तो लोगों का मूड सही नहीं था और कुछ लोगों के मन पर टीम इंडिया
का मनोबल हावी था तो लोगों ने शहर में हुये बवाल को पुष्पक एक्सप्रेस में
बैठाकर मुंबई टहला दिया ताकि वह वहां फले-फूले। कानपुर की सौगात को मुंबई,
महाराष्ट्र के लोगों ने हाथोंहाथ लिया और पड़ोसी का घर, सरकारी सम्पत्ति
जलाकर रोशनी से उसका स्वागत किया। कुछ ट्रेन-फ्रेन भी जलीं। पहले तो लोगों
ने सोचा कि शायद आगे आने वाले जाड़े से बचने के लिये सरकार की तरफ़ से अलाव
की अग्रिम व्यवस्था की गयी है। लेकिन जब याद
आया कि मुंबई में जाड़ा नहीं बाढ़ आती है तो लोगों ने कुछ दूसरी तरफ़ सोच के
घोड़े दौडा़ये। कुछ लोगों ने यह अनुमान लगाया कि शायद ‘द बर्निंग ट्रेन’ का रीमेक बन रहा है लेकिन जब ट्रेन पूरी जलने तक भी न कोई हीरो आया न कोई गाना बजा तब लोग समझ गये कि लफड़ा कुछ दूसरा है।कानपुर में स्थिति काफ़ी देर तक तनाव पूर्ण किंतु नियंत्रण में रखने के बाद घटना की जांच के लिये एक अधिकारी लगा दिया। अधिकारी पहले तो इस बात के लिये कुनमुनाया कि उसे हर बार की तरह वही घरेलू टाइप जांच सौंप दी गयी है जब कि सीनियारिटी के लिहाज से अब उसे ‘जेम्सबांड’ टाइप केस मिलने चाहिये जिसमें वह विदेशों में जाकर पूछताछ कर सके। लेकिन उसे ‘अगली बार देखेंगे’ कहकर काम तुरंत पूरा करने का आदेश दे दिया गया।
जब तक अधिकारी की जांच रिपोर्ट आती है तब तक हम आपको अपने जीवन से जुड़ी एक सच्ची घटना सुनाते हैं। अगर आप बहुत व्यस्त न हों तो इसे पढ़ें। व्यस्त होने की स्थिति में हम आपसे बिल्कुल अनुरोध नहीं करेंगे क्योंकि हम जानते हैं कि आप इसी तरह के कामों के लिये व्यस्त होते हैं।
कुछ साल पहले भी हमारे शहर में एक जनसेवक की मूर्ति भी कुछ इसी तरह क्षति ग्रस्त कर दी गयी थी। सत्तापक्ष के कर्मठ जनसेवक होने के बावजूद उन्होंने अपनी सारी ताकत जनता की सेवा में ही लगाये रखी। इतनी सेवा की, इतनी सेवा की कि मरणोपरान्त अपनी मूर्ति लगवाने के ‘इन्टाइटिल्ड‘ होकर ही स्वर्ग सिधारे। मरणोपरान्त जब एक फ्लाई ओवर के पास मूर्ति स्थापना के लिये उनकी फाइल रखी गयी तो सेवा, समर्पण, त्याग और तपस्या में मीलों ऊपर होने के बावजूद एक दूसरे सद्य स्वर्गवासी नेता की ‘मूर्ति केस’ से उनका ‘मूर्ति मामला’ कमजोर पड़ गया। बाद में कारण पता चला कि जनसेवकजी ने जनता की सेवा जी-जान से की जबकि दूसरे नेताजी ने देश और जनता दोनों की सेवा तन-मन-धन से की थी। धन की उपेक्षा के कारण जनसेवक जी फ्लाई ओवर से उतरकर ढकनापुरवा के जनता पार्क में अपनी मूर्ति को स्वर्ग से निहारते रहने के लिये मजबूर हैं। जबकि दूसरे नेताजी ने थोड़े से तन और तनिक से मन में ढेर सारा धन मिलाकर पूरा फ्लाई ओवर अपने नाम कर लिया और अपने ऊपर से नये-नये माडल की कारों को मय सवारियों निहारते हैं।
बहरहाल, एक दिन पता चला कि जनसेवक जी की मूर्ति कुछ शरारती तत्वों ने क्षतिग्रस्त कर दी है। लोग अपने मां, बाप, भाई, प्रेमी, प्रेमिका, पति, पत्नी को क्षतिग्रस्त करने में पिले पड़े हैं और ऐसी खबरों को अखबार में बराबर पढ़ते भी रहते हैं। मूर्ति के क्षतिग्रस्त होने का समाचार देने के लिये अखबारों को समय नहीं मिलता न ही विज्ञापनों के कारण अखबार में जगह।
शहर में एक नये खुले टी.वी चैनेल ने अखबारों की इसी चूक और गफलत का फायदा उठाया और जनसेवकजी की मूर्तिभंजन का सजीव प्रसारण कर डाला। घटना पुरानी है लेकिन मैं जितना याद है उतना प्रसारण आपके लिये करने का प्रयास करता हूं।
अथ टेलीविजन प्रसारण कथा
[टेलीविजन स्टूडियों में एक पुरुष और एक महिला उदघोषक/उदघोषिका का जोड़ा बैठा है। एक मेज पर चाय/काफी का मग रखे वे इठलाते हुये कामर्शियल ब्रेक में जाने के पहले कार्यक्रमों का जखीरा पेश कर रहे हैं। आपस में बतियाते हुये वे मुख्य खबर पेश करते हैं। वैसे तो नाम में क्या रखा है लेकिन सुविधा के लिये उनका नाम राहुल और श्वेता रख लेते हैं। अब जिस कार्यक्रम का सजीव प्रसारण वे करने वाले हैं उसके कवरेज के लिये उन्होंने कैमरामैन संजीव के साथ संवाददाता रंजना को भेज रखा है। सजीव प्रसारण शुरू होता है]राहुल: अभी-अभी खबर मिली है कि ढकनापुरवा में प्रख्यात स्वतंत्रतासेनानी जनसेवक जी की प्रतिमा को कल रात कुछ क्षतिग्रस्त कर दिया है। इससे इलाके में तनाव है। जाड़े के बावजूद लोग अपने घरों से बाहर निकलकर मूर्ति के पास जमा हो गये हैं। हमारी संवाददाता रंजना आपके लिये इस घटना की खास रिपोर्टिंग करने गयी हैं। आइये आपको सीधे ढकनापुरवा ले चलते हैं। रंजना क्या आपको मेरी आवाज सुनाई दे रही है?
[टेलीविजन का पर्दा सन १९४७ के हिंदुस्तान के नक्शे की तरह दो भागों में बंट जाता है। कुछ देर तक सिर इधर-उधर हिलाने और ईयर फोन कान में घुमाने के बाद वे वार्तालाप में संलग्न हो जाते हैं।
रंजना:-हां राहुल, अब मुझे आपकी आपकी आवाज साफ सुनाई दे रही है।
श्वेता:- रंजना, वहां का माहौल कैसा है? लोग कैसा महसूस कर रहे हैं?
रंजना:-जैसा कि आप देख रहीं हैं श्वेता कि लोग यहां अच्छा महसूस कर रहे हैं। मौसम अच्छा है बल्कि कुछ खुशनुमा सा है। धूप भी निकल आयी है। सड़क से गुजरते लोग हमारी टीम को देखकर रुककर कैमरे के सामने आकर अपनी खुशी जाहिर कर रहे हैं। कुछ लोग हाथ हिला रहे हैं। कुछ लोग कैमरे के सामने आकर मुस्करा रहे हैं। लोगों में इस बात की बड़ी खुशी है कि हमारी टीम उनके दुख में उनके साथ है।
राहुल:- आप लोग वहां पहुंचे कैसे? रास्ते में किसी ने रोका तो नहीं? मेरा मतलब कि रास्ते में
तनाव के कारण कोई परेशानी तो नहीं हुई?
रंजना:- नहीं, नहीं हम यहां बड़े आराम से पहुंच गये। रास्ते में सब लोगों ने बहुत'कोआपरेट' किया। पहले तो हम जो भी मूर्ति टूटी दिखी उसे ही घटनास्थल समझकर रिपोर्टिंग करने लगे लेकिन फिर लोगों ने बताया कि वे मूर्तियां तो सालों पहले से टूटी हैं। फिर हम खोजते-खाजते यहां आये। जैसा आपने बताया था उसी 'क्लू' के सहारे।
श्वेता:-लेकिन आप लोगों को यह भरोसा कैसे हुआ रंजना कि यही वह मूर्ति है जिसे कल रात तोड़ा गया है?
रंजना:-श्वेता, मुझे जैसा राहुल ने बताया था कि 'इम्पार्टेंन्ट'मूर्ति वही होगी जिसके आसपास कचरा होगा, गायें-भैंसे, सुअर-कुत्ते लोट रहे होंगे, गोबर बिखरा होगा और लोगों ने अवैध कब्जा कर रखा होगा। इसी तरह की मूर्तियों की हम शक के आधार पर खोज कर रहे थे। लेकिन इस तरह की तमाम मूर्तियां दिखीं। इससे हम भ्रमित से हो गये और परेशान होकर वापस लौटने वाले थे। तब तक हमें याद आया कि राहुल ने यह भी बताया था कि जहां भी कुछ गड़बड़ होती है वहां पुलिस जरूर पहुंचती है, चाहे देर से पहुंचे। गड़बड़ी और पुलिस का चोली-दामन का साथ है। यहां भी हमने जब पुलिस को देखा तो समझ गये जरूर कुछ गड़बड़ है। फिर आप देख ही रहे हैं कि हम सही जगह पर ही पहुंच गये हैं।
जहां
भी कुछ गड़बड़ होती है वहां पुलिस जरूर पहुंचती है, चाहे देर से पहुंचे।
गड़बड़ी और पुलिस का चोली-दामन का साथ है। यहां भी हमने जब पुलिस को देखा तो
समझ गये जरूर कुछ गड़बड़ है।
राहुल:- वहां लोग क्या कह रहे हैं? लोगों की क्या प्रतिक्रिया है।रंजना:-लोगों के अलग-अलग विचार हैं। कुछ लोग कह रहे हैं कि मसाले में सीमेंट कम थी इसीलिये मूर्ति कमजोर बनी थी। लेकिन एक सीमेंट बेचने वाला कह रहा है कि अगर उसकी कम्पनी की सीमेंट लगाई जाती तो मूर्ति ढह भले जाती लेकिन टूटती नहीं। जबकि कुछ लोग कह रहे हैं कि इस नयी मूर्ति की प्रतिष्ठा पुरानी मूर्तियों के मुकाबले कुछ ज्यादा थी इसलिये उन मूर्तियों की देखरेख करने वालों ने इसे तुड़वाने की साजिश रची है। कह तो कुछ लोग यह भी रहे हैं कि मोहल्ले के एक नये युवा नेता अपने जीते जी अपनी मूर्ति लगाने की व्यवस्था कर लेना चाहते हैं, ताकि बाद में कोई चूक न होने पावे। उनकी इसी मंशा को भांपते हुये उनके समर्थकों ने यह काम कर डाला। ऐसे भी लोगों की कमी नहीं है जो यह मान रहे हैं कि मूर्ति भंजन से मूर्ति का महत्व बढ़ गया है। सालों तक जिस मूर्ति की किसी ने सुधि नहीं ली वह एक दिन में धोनी की तरह सुपर स्टार मूर्ति हो गयी। पास की झोपड़ पट्टी में मवेशी की तरह ठुंसकर रहने वाले मुंह बाये सोच रहे हैं कि काश वे भी मूर्ति होते तो कम से कम कायदे से रहने का तो जुगाड होता। बगल के होटल का मालिक सोच रहा है कि इसी तरह जांच-फांच चलती रहे ताकि उसकी दुकान की बिक्री में और इजाफ़ा हो। पास की जमीन पर कब्जा करके अवैध इमारत बनवाकर रह रहा नवधनाढ्य ठेकेदार अपनी बालकनी के टेरेस से मूर्ति के आसपास के इलाके को देखते हुये हिसाब लगा रहा है कि पुलिस, नेता, अधिकारी सहयोग से अगर इस जगह को कब्जिया कर 'जनसेवक शापिंग काम्प्लेक्स' बनाया जाये तो कैसा रहेगा।
मूर्ति
भंजन से मूर्ति का महत्व बढ़ गया है। सालों तक जिस मूर्ति की किसी ने सुधि
नहीं ली वह एक दिन में धोनी की तरह सुपर स्टार मूर्ति हो गयी।
श्वेता:- रंजना,वहां की राजनीतिक पार्टी के लोगों का क्या विचार है?रंजना:-श्वेता, अभी तक राजनीतिक पार्टियां इस मामले में अपना स्टैंड नहीं कर पायी हैं। इसके लिये यहां के स्थानीय कार्यकर्ता अपने-अपने हाईकमान से निर्देश पाने की जुगाड़ में लगे हैं लेकिन सबके हाईकमान इसके बारे में स्थानीय कार्यकर्ताऒं से जनसेवकजी के बारे में जानकारी मांग रहे हैं ताकि वे स्थिति के अनुसार अपनी पार्टी के फायदे के मुताबिक बयान जारी कर सकें।
श्वेता:- लेकिन लोग अपने विचार तो बता सकते हैं!
रंजना:- सही कह रही हैं आप लेकिन आजकल राजनैतिक पार्टियों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होती है। और स्वतंत्रता की गंगा हर पार्टी के हाईकमान से कार्यकर्ता तक बहती है। कार्यकर्ता अपनी नदी अलग नहीं बहाते। इसीलिये लोग इंतजार करते हैं कि हाईकमान अपने अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता के अधिकार का उपयोग कर ले तब वे बाकी बचे हुये अपने स्वतंत्रता के अधिकार का इस्तेमाल करें। कुछ लोग जो इस नियम का पालन नहीं कर पाते और अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति करने लगते हैं उनको पार्टियां स्वतंत्र कर देती हैं और वे फिर केवल अभिव्यक्ति करते रहते हैं, किसी और काम लायक नहीं रहते। इसीलिये लोग हाईकमान की राय का उसी तरह इंतजार करते हैं जिस तरह भारतवर्ष में लोग हर परेशानी की काट के लिये देवताऒं के अवतार में खोजते हैं।
राजनैतिक
पार्टियों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होती है। और स्वतंत्रता की गंगा
हर पार्टी के हाईकमान से कार्यकर्ता तक बहती है। कार्यकर्ता अपनी नदी अलग
नहीं बहाते। इसीलिये लोग इंतजार करते हैं कि हाईकमान अपने अभिव्यक्ति के
स्वतंत्रता के अधिकार का उपयोग कर ले तब वे बाकी बचे हुये अपने स्वतंत्रता
के अधिकार का इस्तेमाल करें।
राहुल:-और बच्चे वहां बहुत सारे दिख रहे हैं उनके क्या 'रिएक्शन्स' हैं?रंजना:-बच्चे समझ नहीं पा रहे हैं राहुल कि 'एक्चुअली' उन्हें क्या करना चाहिये। दरअसल इस इलाके में इस तरह की यह पहली घटना है इसलिये उनको पता नहीं है कि उनको कैसे 'रिएक्ट' करना चाहिये। आजकल अच्छे स्कूलों में और घरों में जागरूक माता-पिता यह तो सिखाने लगे हैं कि अजनबी की दी हुयी चीज न खायें किसी का भरोसा न करें लेकिन उनको यह नहीं सिखाया गया है मूर्ति टूटने पर कैसे 'विहैव' करें। वैसे कुछ बच्चे आशा कर रहे हैं फसाद कुछ और बढ़ेगा और उनके स्कूल आज बंद हो जायेंगे।
श्वेता:-मूर्ति टूटने की बात का क्या असर है उन बच्चों पर?
रंजना:-जैसा मैंने बताया कि बच्चों को इसका अनुभव नहीं है कि कैसे 'रिएक्ट' करें। मूर्ति के बारे में उनको कुछ पता नहीं है क्योंकि उनके कोर्स में इसका कोई जिक्र किया नहीं गया है। वैसे कुछ बच्चे अपनी किताब की सारी फोटुऒं से मूर्ति का मिलान करके जनसेवक जी को महापुरुष के रूप में शिनाख्त करने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन ज्यादातर बच्चों को इस बात का सुकून है कि मूर्ति के नीचे का चबूतरा बचा हुआ है। इससे चबूतरे के चारों कोनो पर लगे चारो क्रिकेट के विकेट साबुत बचे हुये हैं। कुछ बच्चों ने मूर्ति के गिरे हुये हिस्से को विकेट का दूसरा छोर बनाने की सोची लेकिन फिर इरादा टाल दिया।
कुछ बच्चे अपनी किताब की सारी फोटुऒं से मूर्ति का मिलान करके जनसेवक जी को महापुरुष के रूप में शिनाख्त करने की कोशिश में लगे हैं।
राहुल:-अच्छा, रंजना अब आगे क्या करने की सोच रहे हैं लोग वहां के?रंजना:-लोग अलग-अलग तरह से अपनी प्रतिक्रियायें दे रहे हैं। कुछ लोग कह रहे हैं कि तुरन्त चंदा करके मूर्ति की मरम्मत करवानी चाही। लेकिन ज्यादातर लोगों का मानना है कि मूर्ति बनवाना सरकार का काम है। जनता को सरकार के काम में दखल नहीं देना चाहिये। अधिक से अधिक जनता यह कर सकती है कि जिस मूर्ति की सरकार मरम्म्त करवाना चाहती है उसे तोड़ने में वह सरकार का थोड़ा बहुत सहयोग कर दे। एक मजे हुये खुर्राट नेता ने तो मूर्ति के आसपास लावारिश जमीन देखकर 'मूर्ति रक्षा संघर्ष समिति' की खड़े-खड़े स्थापना कर डाली और जनहित में उसके आजीवन अध्यक्ष पद पर आरूढ़ हो गया है। कुछ लोग मूर्ति के चारो तरफ आमरण अनशन पर बैठ गये हैं। उनमें से ही एक अखबार वालों को मोबाइल से फोन करके बुला रहा है,"आपलोग आकर मेरा इंटरव्यू ले लीजिये। पहली बार आमरण अनशन पर बैठ रहा हूं। मेरी इज्जत आपके ही हाथ में है।" एक ने अभी अपने घर फोन करके कहा है,"आज खाना मत बनाना! मैं आज आमरण अनशन में हूं। शाम तक तो कुछ खा नहीं पाउंगा, लोगों के सामने। रात को देखुंगा कि किस जुगाड़ से खाया जाता है।"
लोगों
का मानना है कि मूर्ति बनवाना सरकार का काम है। जनता को सरकार के काम में
दखल नहीं देना चाहिये। अधिक से अधिक जनता यह कर सकती है कि जिस मूर्ति की
सरकार मरम्म्त करवाना चाहती है उसे तोड़ने में वह सरकार का थोड़ा बहुत सहयोग
कर दे।
श्वेता:-अच्छा रंजना, मूर्ति की हालत कैसी है, उसके आसपास रखरखाव कैसा है?रंजना:- श्वेता, आप इस तरफ़ से देख सकती हैं कि मूर्ति की हालत वैसी ही है जैसी कि आमतौर
पर उदघाटन के बाद होती है। चारो तरफ़ गर्द छायी है। हफ्तों से इसे धोया नहीं गया है। लोग बताते हैं कि साल में दो-तीन बार राष्ट्रीय पर्वों के दिन इसकी साफ-सफाई की जाती है। मूर्ति को आसपास गंदगी उसी तरह धेरे हुये है जिस तरह किसी अच्छे नेता को टिकियाचोर समर्थक घेरे रहते हैं। लेकिन आज जनता की भीड़ देखकर लोग अपनी-अपनी गंदगी उठाकर अपने घरों में ले जा रहे हैं।
राहुल:-अच्छा रंजना, जिन जनसेवक जी की मूर्ति है यह उनके बारे में लोग कितना जानते हैं?
रंजना:- यहां अभी तक कोई ऐसा व्यक्ति सीधे जानता हो। सब लोग मोहल्ले में नये आकर बसे हुये हैं। जिन लोगों को कुछ मालूम भी है वे यही कहते हैं कि उन्होंने देश के लिये अपने को कुर्बान कर दिया। काफी दिन सत्ताधारी पार्टी में रहने के बाद जाने क्या हुआ कि वे केवल जनता की सेवा में लग गये। बाद में सिद्धान्तों के चक्कर में पार्टी भी छोड़ दी। इसी चक्कर में अब कोई पार्टी उनको अपना नहीं मानती क्योंकि मरने के पहले तक न उन्होंने कोई पार्टी बनायी न पैसा। वे जनता के होकर रहे, जनता के लिये मर गये। लोग कहते हैं 'न पार्टी न पैसा, ये जनसेवक कैसा? वैसे लोग यह मानते हैं कि अगर किसी एक पार्टी के होकर रहते/मरते जनसेवक जी तो अब तक उनकी मूर्ति के चारो तरफ़ बाउंडरी भी बन जाती और आज उनकी हालत इतनी बेचारी न होती। पार्टी उनको अपने वोट बैंक के कारण थामे रहती।
श्वेता:- रंजना, क्या लगता है लोगों को इस घटना के लिये कौन जिम्मेदार है?
रंजना:- लोग यही कह रहे हैं कि कोई खालिश कनपुरिया कोई भी जिम्मेदारी का काम कर ही नहीं सकता इसलिये इसमें बाहरी ताकतों का ही हाथ लगता है। पाकिस्तान का हाथ होगा तो शाम तक सरकार बतायेगी। इसके अलावा अगर किसी आतंकवादी संगठन का हाथ होगा तो एकाध दिन में जिम्मेदारी कुबूल कर लेगा। वैसे कभी-कभी इन आतंकवादियों की जिम्मेदारी की भावना देखकर ताज्जुब होता है कि कैसे हर घटना की जिम्मेदारी ले लेते हैं।
कोई
खालिश कनपुरिया कोई भी जिम्मेदारी का काम कर ही नहीं सकता इसलिये इसमें
बाहरी ताकतों का ही हाथ लगता है। पाकिस्तान का हाथ होगा तो शाम तक सरकार
बतायेगी।
[सीधा प्रसारण चल ही रहा था कि प्रसारण में कुछ व्यवधान हो
गया। इस व्यवधान के बीच राहुल और श्वेता आपस में बतियाते रहे। उन बातों का
लब्बोलुआब यही था कि लोगों को सावधान रहना चाहिये। और मूर्ति जब भी बनवायी
जाये तो उसकी मरम्मत का इंतजाम पहले करना चाहिये। लेकिन ज्यादा देर तक
राहुल-श्वेता की जोड़ी इस वार्ता को जारी नहीं रख सकी क्योंकि इस बीच भारत
दक्षिण अफ्रीका से २०-२० ओवर वाले मैच में पता नहीं कैसे जीत गया। अब
टेलीविजन का सबसे जरूरी काम भारतीय टीम की शान के कसीदे काढ़ना हो गया था।]मेरी पसन्द
एक अरब से भी ज्यादा आबादी के इस देश में
यूं ही मर जाते हैं हजारों लोग रोज
यूं ही
एक नियम की तरह
ऐसे नियम की तरह
जिसका कभी कोई अपवाद नही होता
ऐसे नियम की तरह
जिसकी घूस देकर या ऊपर से दबाव डलवा कर
या भाई चारे का हवाल देकर अवहेलना नहीं की जा सकती
जिसे न संसद बदलना चाहती है, न विधानसभा कोई
यूं ही मर जाते हैं हजारों लोग
यूं ही
जैसे अभी एक तड़्पता हुआ कीड़ा मरा।
विष्णु नागर
तद्भव अंक १२ से साभार
Posted in बस यूं ही | 17 Responses
देश की तुच्छ और घिनौनी राजनीति पर करारई चोट।
एक मूर्ती के नुकसान से सारे देश में राजनीति हो रही है, मगर ‘आम आदमी’ कीड़ों सा मर रहा है
साथ साथ यह विचार आया कि जनसेवक हो कर ढकनपुरा में मूर्ती होना अधिक अच्छा है क्योंकि फ्लाईओवर के नीचे तो प्रदूषण और भी अधिक होता!
मैंने इलाहाबाद के कुछ सूत्रों से संपर्क किया तो पता चला कि एक राष्ट्रीय समाचार चैनल के स्थानीय संवाददाता की लगाई हुई आग है. दरअसल अधिकतर स्ट्रिंगरों (रिपोर्टर का एक प्रकार) को टीवी चैनल वाले प्रति रिपोर्ट के हिसाब से पेमेंट करते हैं. ऐसे में ज़्यादा से ज़्यादा रिपोर्ट पैदा करने की कोशिश रहती है स्ट्रिंगरों की.
तो इलाहाबाद का सच (मेरे हिसाब से) ये था कि उन स्ट्रिंगर महोदय ने कैफ़ के घर के बाहर प्रदर्शन का जुगाड़ किया था जिसने दुर्भाग्य से हिंसक रूप ले लिया. यदि कुंभ मेले के समय भी स्ट्रिंगर महोदय ने कोई ख़बर पैदा करने की कोशिश की, तो भगवान जाने क्या-क्या होगा!
वैसे आपके लेख से अंदाजा लगता है कि ये जनसेवक जरूर ‘जयप्रकाश’ जी रहे होंगें।
तीन बार डूब कर पढ़ा. एक बहुत सधा हुआ करारा व्यंग्य. साथ ही विष्णु नागर जी कविता–
यूं ही मर जाते हैं हजारों लोग
यूं ही
जैसे अभी एक तड़्पता हुआ कीड़ा मरा।
–बहुत जबरदस्त.
देश की वर्त्मान स्थिति और मीडिया के करित्र को बखूबी उजागर किया है
प्रसारण वाकई सजीव है
That the article was extremely beautifully conceived and delivered is evident from facts that it could be read all at once and left me wanting some more while at the same time angering, provoking, tickling and invoking the cynicism about the continuing of insanely timepass methods we all rely upon thanks to media, politicians and unscrupulous iconoclasts (literally).
thanx yet again.
आपने इतनी फुरसत से इतना लम्बा व्यंग्य कर के अंतत: अपने नामकरण की सिद्धी कर ही दी है… बोले तो एक्दम मस्त लेकिन इत्ता लम्बा कि पढ़्ने में 15 मिणट लग गये……..
आपका लेख बहुत अच्छा लगा.एक स्च्चा व्यंग आजकल की वास्तविकता पर.विष्णु
नागर की कविता भी अच्छी लगी.