http://web.archive.org/web/20140419214457/http://hindini.com/fursatiya/archives/236
काव्यात्मक न्याय और अंतर्जालीय ‘चेंगड़े’
By फ़ुरसतिया on January 29, 2007
पिछले दिनों शिल्पीजी ने सुभाष जयन्ती के अवसर पर नेताजी को याद करते हुये एक लेख
लिखा। उस लेख में उन्होंने हमारी एक पुरानी टिप्पणी का उल्लेख करते हुये
नेताजी की तुलना महाभारत के कर्ण से की। हमने ‘मर्द की जबान एक होती है’ का
सबूत देने के चक्कर में अपनी पुरानी टिप्पणी का समर्थन किया और यह बताया
कि हां, हम अब भी यही मानते हैं कि हमारे महापुरूष इसने खराब नहीं थे कि
आपस में एक-दूसरे के खिलाफ़ साजिश रचते रहें।
अब जैसे मर्द की जबान वैसे ही लेखक का लेखन भी अटल सत्य होता है। फिर इस विषय पर शिल्पीजी ने सालों शोध किया था इसलिये अधिकार-पूर्वक उन्होंने हमारी बातों को अबोध करार करते हुये उसे खारिज कर दिया। हम चुपा गये- सोचते हुये- चुपाइ रहौ दुल्हिन मारा जाई कौआ।
फिर कुछ दूसरे साथियों ने टिप्पणियों को व्यक्तिगत रुख न देने का आवाहन करते हुये तमाम ज्ञान-गूढ़ बातें लिखीं हम उनको मूढ़ी हिला-हिलाकर ग्रहण करते गये। फिर आये प्रियंकर जी। उन्होंने शिल्पीजी की नयी सोच की तारीफ़ की और मेरे बारे में बताया कि:-
यह टिप्पणी मुझे सागर ने दिखाई जब वे आनलाइन मिले। वे उत्तेजित भी थे। मैं उनसे मौज लेता रहा- क्या यार तुम भी टीन-टप्पर की तरह झट से गरम हो जाते हो। लिखने दो उनको जैसा ठीक समझें। तुम भी मस्त रहो।
इसके बाद सागर ने कुछ लिखा। फिर और लोगों ने भी टिप्पणी करके बातों को व्यक्तिगत रुख न देने का आग्रह किया।
अगले दिन जब फिर मैंने देखा तो मैंने अपनी टिप्पणी लिखी। जिसके जबाब में मैंने टिप्पणी लिखी। इस पर फिर उन्होंनेऔर जरूरी बातों के अलावा लिखा- चलते-चलते एक बात और कहूंगा, चेले मूड़ना आसान है, उनके किये पर आंख मींच लेना और भी आसान, पर उन पर काबू रखना जरा मुश्किल है ।
इसके अलावा और भी तमाम टिप्पणियां थीं लेकिन सबसे आश्चर्यजनक टिप्पणी मुझे देबाशीषजी की लगी जिसमें उन्होंने प्रियंकर की पूरी टिप्पणी को समयोचित और सभ्य लगी जिसके लिये प्रियंकरजी को पढ़ कर थोड़ी तसल्ली हुई।
पहले तो मैंने समझा शायद देबाशीषजी नेताजी सुभाष चन्द्रजी के बारे में पढ़कर इतना उत्साहित हो गये कि उनको मेरे बारे में की गयी टिप्पणियां दिखीं नहीं लेकिन जब सागर, पंकज और संजय बेंगाणी के एतराज के बाद उन्होंने लिखा -मुझे और कुछ लिखने की ज़रूरत नही क्योंकि सबको अपनी राय रखने का हक है। इसका मतलब प्रियंकरजी ने मेरे बारे में जो भी लिखा वह देबाशीषजी सच मानते हैं।
मैंने इस बारे में बहुत विचार किया। कई बार सोचा। पहले सोचा कि शिल्पीजी के लेख पर अपनी सोच के बारे में विस्तार से लिखूं लेकिन फिर यह सोचकर छोड़ दिया कि उनके सालों के अध्ययन ने निकले निष्कर्ष के जवाब में मेरे तर्क कहां ठहरेंगे। और सच तो यह है मैं इस बारे में कुछ लिखना भी नहीं चाहता। न मेरा माद्दा है मन! शिल्पीजी का अपना अध्ययन है, जब लिखेंगे पढ़ लूंगा पाठक की हैसियत से। अगर कोई विचार होगा तो उसे रख लूंगा मन में। उनके लेखन के बारे में टिप्पणी करने से पहले कई बार सोचूंगा।
प्रियंकरजी की मेरे बारे में की गयी टिप्पणी मुझे तात्कालिक तौर पर मात्र एक टिप्पणी लगी। और सच तो यह है कि अगर बाद में देबाशीषजी और प्रियंकरजी की टिप्पणियां न होंती तो मैं अभी भी यही सोचता। लेकिन जब प्रियंकरजी ने बाद में भी चेले पालने वाली बात लिखी तो मुझे लगा कि मेरे बारे में सच में उनके मन में यही धारणा है और देबाशीषजी भी यही मानते हैं। शायद यही उनका मेरे साथ किया ‘पोयटिक जस्टिस’ है कि
प्रियंकरजी सागर, प्रेमेन्द्र आदि को मेरा अन्तर्जालीय चेंगड़ा बताये और देबाशीष उनकी इस टिप्पणी को ‘समयोचित और सभ्य’ बतायें!
मैंने इस बारे में कई बार लिखने की सोची लेकिन टाल गया -क्या फायदा ,कहानी सुनाने का। मैं जो हूं वह लोग समझें न समझें लेकिन मैं तो जानता हूं। कई दोस्तों ने भी यही कहा -छोड़ो यार! कहां टाइम बरबाद करते हो।
लेकिन आज जब मैंने फिर से सारी टिप्पणियों को देखा तो मुझे यह लगा कि बात केवल मुझ तक ही सीमित नहीं है। मेरे साथ तो पहले से ही ऐसा होता आया है। देबाशीष से शुरू होकर, जब उन्होंने मुझे अपने लेखन की भाषा पर ध्यान रखने की सहज सलाह दी थी और मैंने इस बारे में अपनी बात लिखी थी, हमारे ऊपर जूते-चप्पल तक चलाने का आवाहन भाई लोग कर चुके हैं। अब प्रियंकरजी ने मेरे व्यक्तित्व के बारे में विस्तार से लिखा। लेकिन इस बार बात मेरे तक ही सीमित नहीं थी। मेरे साथ सागर, प्रेमेन्द्र और मेरे तमाम अन्तर्जालीय चेंगडों के बारे में टिप्पणी थी। मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अपना कोई अखाड़ा खोले हूं और मेरे पहलवान मेरे इशारे पर उछल-कूद मचाये रहते हैं जिसकीं मैं अनदेखी करता रहता हूं इस डर से कि अगर टोंकूंगा तो ये मुझे ही उठाकर पटक देंगे। इस टिप्पणी से स्वाभाविक रूप से सागर, प्रेमेन्द्र और बेंगाणी बन्धुऒं को तकलीफ हुई और जाने-अनजाने में इसका माध्यम बना। इसलिये इस सम्बन्ध में मैंने अपनी बात कहना जरूरी समझा। ऊपर प्रियंकरजी की टिप्पणियों के वे अंश जिनका जवाब देना मैंने जरूरी समझा वे क्रमवार दिये हैं।
आगे कुछ लिखने के पहले बता दूं कि यह लिखते समय मेरे मन किसी किस्म का आक्रोश नहीं है न ही किसी को दुखी करने या चोट पहुंचाने मन्तव्य। मेरा मकसद केवल प्रियंकरजी की बातों के बारे में अपना पक्ष रखना है।
१.गांधी पर हुई बहस में मेरा रुख: प्रियंकरजी ने लिखा कि गांधी पर हुई बहस में उनका रुख प्रारम्भ से ही कुछ संदिग्ध सा लगता रहा है।
इस पर मेरा यही कहना है कि अगर आपको ऐसा लगता है तो मुझे इस बारे में कोई एतराज नहीं है। जो आप पढ़ते हैं उस पर आपको अपनी राय बनाने का पूरा हक है। वैसे अगर आप मेरा गांधीजी पर लेख देखें तो पायेंगे शायद मैंने लिखा है कि न मैं गाधीवादी हूं और न ही गांधी साहित्य का मर्मज्ञ। मैंने जो लिखा वह एक सामान्य जानकारी युक्त भारतीय की तरह लिखा। उसमें अगर आप या कोई भी पाठक कुछ गलतियां पाता है और उसके अनुसार मेरे रुख को संदिग्ध मानता है तो इस बारे में मुझे न कोई एतराज है न किसी से कोई शिकायत। हां, अगर कोई यह पूछे कि ऐसा मैंने क्यों लिखा तो वह मैं पूरी ईमानदारी से बताने का प्रयास कर सकता हूं।
२.गोडसे भक्त सागर के बयान पठनीय और गांधी विरोधी प्रेमेन्द्र के बयान ओजस्वी:-सागर और प्रेमेन्द्र की किस पोस्ट पर मैंने इस तरह की टिप्पणी की इस बारे में कोई सफ़ाई दिये बगैर मैं यह कहना चाहता हूं कि न मुझे सागर के गोडसे भक्ति के बयान ठीक लगते हैं और न ही प्रेमेन्द्र के अति उत्साही बयान। मैं जितना इन लोगों को जानता हूं ये दोनों प्रखर राष्टवादी विचार के हैं। इनकी अपनी सोच है। उसके हिसाब से ये अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं। मैंने अबतक लगभग २०० से पोस्ट लिखीं हैं। क्या किसी में इस तरह के रुझान के दर्शन होते हैं? मेरे ख्याल से मेरी ऐसी सोच कतई नहीं है। और जहां तक टिप्पणी का सवाल है उसके लिये आपके ब्लाग जगत में टिप्पणी का मनोविज्ञान समझना पड़ेगा। ज्यादातर टिप्पणियां उत्साहवर्धन के लिये की जाती हैं। आपस में
लोगों का पाठक समुदाय है। लोग उनके चिट्ठों को पढ़ते हैं जिनसे वे किसी न किसी रूप में जुड़े होते हैं। और जब पढ़ते हैं तो कभी-कभी या अक्सर (और समीरलाल जी तो हमेशा ऐसा करते हैं) कुछ न कुछ टिप्पणी कर देते हैं। टिप्पणी में आमतौर पर तारीफ़ ही की जाती है। बुराई या कमी वाली टिप्पणियां स्वीकार करने और उनको सच मानने का माद्दा बहुत कम लोगों में होता है। इसी पोस्ट में शिल्पीजी आलोचनात्मक टिप्पणी को पचा नहीं पाये और अपनी त्वरित टिप्पणी
मेरे अर्थ को घटिया बताया। और यह भी कि सत्य को उदघाटित करके शीध्र ही मेरे जैसे ‘आम आदमी’ तक सामने लायेंगे। तो मेरा अनुरोध है कि मेरी मात्र उत्साह वर्धन के लिये की गयी टिप्पणियों को यह न माना जाये कि मैं उनके मत का समर्थन कर रहा हूं। और अगर यह माना ही जाये तो यह भी देखा जाये कि सागर द्वारा अनजाने में कवि प्रदीप को गांधीजी का चाटुकार मानने की बात का समर्थन करने पर उनको टोंकने वाला कौन था? शिल्पीजी, देबाशीषजी, प्रियंकरजी या अनूप शुक्ला।
३.उनमें मुंह देखकर तिलक करने की प्रवृत्ति है:-इस बात का आधार क्या है मुझे नहीं पता लेकिन अगर ब्लाग पर टिप्पणियां इनका आधार हैं तो यह ब्लाग जगत से जुडे़ हर लेखक का अपना पाठक है और हर पाठक के अपने-अपने पसंदीदा ब्लाग। एक पाठक की हैसियत से मुझे अपनी पसन्द के ब्लाग पढ़ने और उन पर मनोनुकूल टिप्पणी करने का अधिकार है। एक ही पोस्ट/टिप्पणी को देखकर पाठक पर उसकी मन:स्थिति के हिसाब से अलग-अलग प्रतिक्रियायें होती हैं। इसी टिप्पणी को पढ़कर पहले मुझे हंसी आई, फिर सोचा कि शिल्पी के सारे लेखन की पड़ताल करूं, फिर सोचा कड़ा प्रतिवाद करूं लेकिन धीरे-धीरे सारे विचार खारिज होते चले गये। यह सोचा कि छोड़ो जिसको जो समझना है समझे। लेकिन आज यह विचार किया कि अपनी स्थिति स्पष्ट कर दूं। इसी तरह टिप्पणियों और प्रतिक्रियाऒं के बारे में है। जितनी सहजता से मैं जीतेन्द्र, समीरलाल, स्वामी, आशीष और अतुल की पोस्ट ्पर टिप्पणी कर सकता हूं उतनी सहजता से दूसरे साथियों की पोस्ट पर नहीं। इसी तरह जितनी जरूरत मुझे सागर आदि अपेक्षाक्रत नये लेखकों के ब्लाग पर उत्साह वर्धन की लगती है उतनी स्थापित लेखकों के ब्लाग पर नहीं। फिर टिप्पणी आदि करने में व्यक्तिगत सम्बन्ध वाली बात होती है। जिनसे रोज-रोज या दिन में कई-कई बार होती है उनके साथ व्यवहार में और जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते उसमें कुछ तो अन्तर होगा ही। अब अगर इसी को प्रियंकरजी मुंह देखकर तिलक करने की बात कहते हैं तो मुझे उनकी यह बात स्वीकार्य है और इसके लिये मुझे कुछ नहीं कहना। इसके अलावा यदि और कुछ उनकी बात का मतलब हो तो बतायें!
४. मेरा अभिजात्य, अंतर्जालीय चेंगड़े और मेरा डर:-इस बात के जवाब में मैं क्या कहूं लेकिन यही वह बात है जिसके लिये मैंने यह पोस्ट चाहा है क्योंकि सबसे ज्यादा इसी बात से न सिर्फ मुझे अफसोस हुआ बल्कि यही वह बात है जिसके कारण सागर, पंकज बेंगाणी और संजय बेंगाणी को भी तकलीफ़ हुई। और यही वह बात है जो सच से सबसे ज्यादा दूर है।
‘चेंगड़े’ का मतलब नहीं मिला शब्दकोश में मुझे लेकिन मैं अन्दाजा लग सकता हूं कि इसका मतलब ‘बिगड़ैल चेले’ टाइप कुछ होता होगा। तो कुल लब्बोलुआब यह कि सागर, प्रेमेन्द्र और अन्य साथी मेरे अन्तर्जालीय बिगड़ैल चेले हैं और मैं इनसे डरता हूं इसलिये कि अगर इनके विरोध में मैं कुछ कहूंगा तो ये मे्रे व्यक्तित्व का छियाछार कर देंगे यानि की ऐसी- तैसी कर देंगे। यह बात प्रियंकरजी ने कही और देबाशीषजी ने इसे ‘समयोचित और सभ्य’ बताया।
पहले सागर और प्रेमेन्द्र के बारे में। प्रेमेन्द्र अभी ग्रेजुयेशन कर रहे हैं। इन्होंने जब ब्लाग लिखना शुरू किया तब उसी समय कुछ गलतफहमी के कारण इनके साथ परिचर्चा में कहा-सुनी हो गयी। ये अकेले पड़ गये थे और ब्लाग-स्लाग लिखना बंद कर चुके थे। यह बात मुझे बहुत देर से पता चली क्योंकि मैं आम तौर पर परिचर्चा मंच पर जा नहीं पाता। चाहे जिस कारण हो लेकिन जब मुझे इनके साथ हुयी बात का पता चला तो मुझे यह बड़ा नागवार गुजरा। इसलिये नहीं कि ये बहुत अच्छा लिखते थे और इनके न लिखने से हिंदी को कोई अपूरणीय क्षति हो जाती। बल्कि हिंदी चिट्ठा जगत से जुड़े होने के नाते मुझे लगा कि यहां से कटु स्म्रतियां लेकर कोई जाये यह ठीक नहीं होगा। फिर मैंने प्रेमेन्द्र से आनलाइन बात की। इनके घर फोन पर बात की और अनुरोध किया कि ये लिखते रहें। इनके भाईसाहब से भी बात की। फिर ये लिखने लगे। अब तो बहुत दिन हो गये बात ही नहीं होती। प्रेमेन्द्र के ब्लाग पर मेरी टिप्पणियां भी कम ही हैं। कभी-कभार उत्साह वर्धन के लिये मौका मिला तो टिप्पणी भी कर देता हूं। कुछ अच्छी पोस्ट भी इन्होंने लिखी हैं। जिसमें एक टेनिस सुन्दरी की तस्वीर मेरे दिमाग में अब भी है। इसी तरह मेरे ब्लाग पर भी प्रेमेन्द्र गाहे-बगाहे ही नजरे इनायत करते हैं। क्या इतने कार्यकलाप मात्र से प्रेमेन्द्र मेरे ‘चेंगड़े’ हो गये?
सागर से भी बातचीत बहुत देर में शुरू हुयी। पहले वे एक बार ब्लाग जगत छोड़ने की धमकी दे चुके थे। फिर तमाम साथियों के और मेरे भी समझाने पर इन्होंने दुबारा लिखना शुरू किया। अपना काम करते हैं। भावुक हैं। जल्दी उत्तेजित होते हैं उससे जल्दी शांत हो जाते हैं। इनकी वैचारिक ईमानदारी मैं कायल हूं। मुझे ये भाई साहब कहते हैं और मानते भी हैं। एक बार चिट्ठाचर्चा में देबाशीष की टिप्पणी से अनावश्यक रूप से बमक गये और लम्बी पोस्ट लिख डाली। मैंने इनसे बात की और देबाशीष की तरफ़ से बिना कुछ कहे अफसोस जाहिर किया और झटके में माफी भी मांग ली। इतने में ही सागर बाबू को रोना आ गया और इन्होंने अपने सारे गिले-सिकवे तहा के अलग रख दिये। सागर की संवेदनशीलता के लिये मेरे मन में इज्जत है। जितनी आसानी से वे एक घायल को बिना उपचार कराये छोड़ आने के अपराध बोध को स्वीकार सकते हैं उतनी आसानी से मैं नहीं कर सकता। सागर के प्रति मेरे मन में आदर के साथ प्रेम भी रहा है। यह उनके प्रति मेरा लगाव ही था कि मैंने खोजकर फिराक गोरखपुरी की करीब २० पेज लंबी नज्म ‘मां’ पोस्ट की और उनकी एक कविता ‘बोछकी’ अभी भी खोज रहा हूं। क्या यह सब मैं इसलिये करता रहा कि ये मेरे ‘चेंगड़े’ हैं? क्या मुझे भाई साहब कहने वाला और मेरे एक बार कहने मात्र से अपनी पोस्ट तक हटा लेने के लिये तैयार शक्स और मेरे बीच केवल खलीफा और बिगड़ैल चेले का ही सम्बन्ध हो सकता है! क्या मैं इनसे डरता हूंगा कि कल को अगर मैं कुछ इनके खिलाफ़ लिखूंगा तो ये मेरी ऐसी-तैसी कर देंगे?
इसी तरह बेंगाणी बन्धु। संजय बेंगाणी की विचारधारा से मेरा कोई तालमेल नहीं है। बातचीत भी कभी-कभी ही होती है। लेखन सामयिक घटनाऒं सामाजिक हलचलों पर रहता है। कभी वर्तनी की गलती भी रहती हैं। लेकिन इसके बावजूद मेरे में संजय के प्रति सम्मान भाव है जबकि वे मुझसे उमर में छोटे हैं। यह सम्मान भाव इसलिये नहीं कि मैं उनका गुरू हूं या वे मेरे हमविचार हैं या इनसे हमें या हमसे इनको कोई फायदा हो सकता है। यह सम्मान इसलिये है कि इन्होंने अपनी ईमानदारी बचाके रखी है और अपनी इनकी खुद की समझ है और उस समझ पर पूरी ईमानदारी से अमल करते हैं। ऐसा व्यक्ति किसी के इशारे पर नाचा नहीं करता। न वह चेले बनाता है न खुद किसी का पिछलग्गू बना घूमता है।
पंकज बेंगाणी भी अपने भाई को ही अपना आदर्श मानते हैं। ये खुद ही मास्साब कहलाते हैं कोई इनका खलीफ़ा क्या बनेगा? और प्रियंकर जी ने इनकी जिस भाषा का जिक्र किया वह तो ये सुधार सकते हैं लेकिन जिस सिद्ध भाषा में इनको हमारा चेंगड़ा बताया गया उसमें क्या गुंजाइश है। बकौल कवि विनोद श्रीवास्तव-
चोट तो फूल से भी लगती है,
सिर्फ पत्थर कड़े नहीं होते ।
और पंकज केवल उजड्ड होते तो किसी पाठक के एतराज जताये जाने पर अपनी बंदर सीरीज का लेखन न छोड़ते।
मेरे अभिजात्य के छियाछार होने डर की बात करने वाले प्रियंकरजी को भले पता न हो लेकिन देबाशीषजी को अच्छा तरह पता होगा कि हिंदी ब्लाग जगत में
तमाम बार साथियों में उठापटक हुई। जीतेंद्र, अतुल, स्वामीजी और देबाशीष भी समय-समय पर ताल-ठोंक कुस्ती लड़ते रहे समय-समय पर। आज अगर सब एक मत न हों फिर भी सहयोग की भावना है तो उसमें मेरा कुछ न कुछ इस बात का योगदान रहा कि मैं इन लोगों को साथ लाने और मतभेद भुलाने का माध्यम बना। ऐसा नहीं कि मेरा व्यक्तित्व इतना चमत्कारी है जिसके आलोक में चकाचौंध होकर ये अपने मतभेद भूल गये। मैंने केवल इनसे मतभेद समाप्त करने का आग्रह किया और ये इनकी महानता रही कि मेरे कहने पर इन लोगों ने अपने मन की आवाज सुनी। तो क्या ये महापुरुष भी हमारे चेंअड़े हैं? क्यों भाई देबाशीष कुछ बताओ!
हिंदी ब्लाग जगत में इतने दिनों में मैंने बहुत कुछ पाया। तमाम दोस्त, तमाम प्रशंसक, तमाम भाई कहने वाले दोस्त और गुरुदेव हमने वाले ऐसे लोग जो हमारे भी गुरू हैं। इनमें से कई लोगों से मेरी रोज की बातचीत है। राकेश खंडेलवाल ने हमें अभी दो दिन पहले अमेरिका से फोन करके निराला जी पर लिखे लेख की तारीफ की तो इंग्लैंड से राकेश दुबे मुझसे मिलने आये जिनसे मेरा सिर्फ इतना परिचय था कि वे मेरा ब्लाग पढ़ते हैं।
ऐसा नहीं कि मुझे अपने लेखन के प्रति कोई गलतफहमी हो। दोस्तों की तमाम प्रशंसाऒं के बावजूद मैं जानता हूं कि कुछेक लेखों के अलावा मेरा सारा लिखना बकौल निधि ‘ऐं-वैं टाइप’ ही है। ब्लागिंग मेरे लिये शौकिया माध्यम है न कि रोजी-रोटी का जुगाड़। फिर मैं ऐसा गैंग टाइप का किसलिये बनाऊंगा कि जिसके लिये मुझे ‘चेंगड़े’ पालने पड़ें।
मैं सामान्य व्यक्ति की तरह रहना चाहता हूं। मौज-मस्ती से रहने की आदत है। अपने लिये महाब्लागर, वरिष्ठ चिट्ठाकार जैसी उपाधियां मुझे बकवास और बोझ लगती हैं। इसको अपने ऊपर चस्पां देखकर असहजता महसूस होती है। ऐसा व्यक्ति किस कारण अपने गुर्गे टाइप चेले तैयार करेगा। कौन सा कालिज हथियाने के लिये लिये ‘छोटे पहलवालों’ का गोल जुटायेगा!
अपने सभी साथियों से मुझे लगाव है। उम्र में बड़े कुछ चिट्ठाकारों के प्रति मेरे मन में आदर भाव भी है।मैं बावजूद मौज-मजे के उन लोगों के प्रति कुछ भी अशोभनीय बात कहने से बचता रहने का प्रयास करता हूं। और यह सब मैं अपने सुख के लिये करता हूं यही मेरा लालच है जैसा याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा-
देबाशीष भाई से भी गुजारिश है कि वे उन कारणों की तलाश करें कि कैसे छह महीने पहला का उनका ‘बड़भैया’ऐसा माफिक हो गया कि ‘अन्तर्जालीय चेंगड़े’ पालने लगा।
सागर, प्रेमेन्द्र, संजय बेंगाणी और पंकज बेंगाणी के लिये मैं अपनी तरफ़ से अफसोस जाहिर करता हूं कि मेरे कारण जाने-अनजाने उनको असहज टिप्पणियां मिलीं और उनको कष्ट हुआ।
मेरी पसंद
अब जैसे मर्द की जबान वैसे ही लेखक का लेखन भी अटल सत्य होता है। फिर इस विषय पर शिल्पीजी ने सालों शोध किया था इसलिये अधिकार-पूर्वक उन्होंने हमारी बातों को अबोध करार करते हुये उसे खारिज कर दिया। हम चुपा गये- सोचते हुये- चुपाइ रहौ दुल्हिन मारा जाई कौआ।
फिर कुछ दूसरे साथियों ने टिप्पणियों को व्यक्तिगत रुख न देने का आवाहन करते हुये तमाम ज्ञान-गूढ़ बातें लिखीं हम उनको मूढ़ी हिला-हिलाकर ग्रहण करते गये। फिर आये प्रियंकर जी। उन्होंने शिल्पीजी की नयी सोच की तारीफ़ की और मेरे बारे में बताया कि:-
१.गांधी पर हुई बहस में उनका रुख प्रारम्भ से ही कुछ संदिग्ध सा लगता रहा है।
२.अनूप शुक्ला को गोडसे भक्त सागर के बयान पठनीय और गांधी विरोधी प्रेमेन्द्र के बयान ओजस्वी लगते रहे।
३.उनमें मुंह देखकर तिलक करने की प्रवृत्ति है।
४.उनका अभिजात्य उन्हें अंतर्जालीय ‘चेंगडों’ से दो-दो हाथ करने से रोकता है।सज्जनों को सीख देते समय वे सौरव गांगुली की तरह फ़ॉर्म में आ जाते हैं। इस मामले में वे बाबा तुलसीदास की परम्परा में हैं जो कहते हैं: ‘बंदउं संत असज्जन चरना’ । असज्जन की वंदना इसलिये कि दुष्ट आदमी दो मिनट में आपके अभिजात्य को छियाछार कर सकता है — उस अभिजात्य को जिसे आपने परत-दर-परत बरसों से बड़े जतन से अपने व्यक्तित्व पर चढाया है।
यह टिप्पणी मुझे सागर ने दिखाई जब वे आनलाइन मिले। वे उत्तेजित भी थे। मैं उनसे मौज लेता रहा- क्या यार तुम भी टीन-टप्पर की तरह झट से गरम हो जाते हो। लिखने दो उनको जैसा ठीक समझें। तुम भी मस्त रहो।
इसके बाद सागर ने कुछ लिखा। फिर और लोगों ने भी टिप्पणी करके बातों को व्यक्तिगत रुख न देने का आग्रह किया।
अगले दिन जब फिर मैंने देखा तो मैंने अपनी टिप्पणी लिखी। जिसके जबाब में मैंने टिप्पणी लिखी। इस पर फिर उन्होंनेऔर जरूरी बातों के अलावा लिखा- चलते-चलते एक बात और कहूंगा, चेले मूड़ना आसान है, उनके किये पर आंख मींच लेना और भी आसान, पर उन पर काबू रखना जरा मुश्किल है ।
इसके अलावा और भी तमाम टिप्पणियां थीं लेकिन सबसे आश्चर्यजनक टिप्पणी मुझे देबाशीषजी की लगी जिसमें उन्होंने प्रियंकर की पूरी टिप्पणी को समयोचित और सभ्य लगी जिसके लिये प्रियंकरजी को पढ़ कर थोड़ी तसल्ली हुई।
पहले तो मैंने समझा शायद देबाशीषजी नेताजी सुभाष चन्द्रजी के बारे में पढ़कर इतना उत्साहित हो गये कि उनको मेरे बारे में की गयी टिप्पणियां दिखीं नहीं लेकिन जब सागर, पंकज और संजय बेंगाणी के एतराज के बाद उन्होंने लिखा -मुझे और कुछ लिखने की ज़रूरत नही क्योंकि सबको अपनी राय रखने का हक है। इसका मतलब प्रियंकरजी ने मेरे बारे में जो भी लिखा वह देबाशीषजी सच मानते हैं।
मैंने इस बारे में बहुत विचार किया। कई बार सोचा। पहले सोचा कि शिल्पीजी के लेख पर अपनी सोच के बारे में विस्तार से लिखूं लेकिन फिर यह सोचकर छोड़ दिया कि उनके सालों के अध्ययन ने निकले निष्कर्ष के जवाब में मेरे तर्क कहां ठहरेंगे। और सच तो यह है मैं इस बारे में कुछ लिखना भी नहीं चाहता। न मेरा माद्दा है मन! शिल्पीजी का अपना अध्ययन है, जब लिखेंगे पढ़ लूंगा पाठक की हैसियत से। अगर कोई विचार होगा तो उसे रख लूंगा मन में। उनके लेखन के बारे में टिप्पणी करने से पहले कई बार सोचूंगा।
प्रियंकरजी की मेरे बारे में की गयी टिप्पणी मुझे तात्कालिक तौर पर मात्र एक टिप्पणी लगी। और सच तो यह है कि अगर बाद में देबाशीषजी और प्रियंकरजी की टिप्पणियां न होंती तो मैं अभी भी यही सोचता। लेकिन जब प्रियंकरजी ने बाद में भी चेले पालने वाली बात लिखी तो मुझे लगा कि मेरे बारे में सच में उनके मन में यही धारणा है और देबाशीषजी भी यही मानते हैं। शायद यही उनका मेरे साथ किया ‘पोयटिक जस्टिस’ है कि
प्रियंकरजी सागर, प्रेमेन्द्र आदि को मेरा अन्तर्जालीय चेंगड़ा बताये और देबाशीष उनकी इस टिप्पणी को ‘समयोचित और सभ्य’ बतायें!
मैंने इस बारे में कई बार लिखने की सोची लेकिन टाल गया -क्या फायदा ,कहानी सुनाने का। मैं जो हूं वह लोग समझें न समझें लेकिन मैं तो जानता हूं। कई दोस्तों ने भी यही कहा -छोड़ो यार! कहां टाइम बरबाद करते हो।
लेकिन आज जब मैंने फिर से सारी टिप्पणियों को देखा तो मुझे यह लगा कि बात केवल मुझ तक ही सीमित नहीं है। मेरे साथ तो पहले से ही ऐसा होता आया है। देबाशीष से शुरू होकर, जब उन्होंने मुझे अपने लेखन की भाषा पर ध्यान रखने की सहज सलाह दी थी और मैंने इस बारे में अपनी बात लिखी थी, हमारे ऊपर जूते-चप्पल तक चलाने का आवाहन भाई लोग कर चुके हैं। अब प्रियंकरजी ने मेरे व्यक्तित्व के बारे में विस्तार से लिखा। लेकिन इस बार बात मेरे तक ही सीमित नहीं थी। मेरे साथ सागर, प्रेमेन्द्र और मेरे तमाम अन्तर्जालीय चेंगडों के बारे में टिप्पणी थी। मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अपना कोई अखाड़ा खोले हूं और मेरे पहलवान मेरे इशारे पर उछल-कूद मचाये रहते हैं जिसकीं मैं अनदेखी करता रहता हूं इस डर से कि अगर टोंकूंगा तो ये मुझे ही उठाकर पटक देंगे। इस टिप्पणी से स्वाभाविक रूप से सागर, प्रेमेन्द्र और बेंगाणी बन्धुऒं को तकलीफ हुई और जाने-अनजाने में इसका माध्यम बना। इसलिये इस सम्बन्ध में मैंने अपनी बात कहना जरूरी समझा। ऊपर प्रियंकरजी की टिप्पणियों के वे अंश जिनका जवाब देना मैंने जरूरी समझा वे क्रमवार दिये हैं।
आगे कुछ लिखने के पहले बता दूं कि यह लिखते समय मेरे मन किसी किस्म का आक्रोश नहीं है न ही किसी को दुखी करने या चोट पहुंचाने मन्तव्य। मेरा मकसद केवल प्रियंकरजी की बातों के बारे में अपना पक्ष रखना है।
१.गांधी पर हुई बहस में मेरा रुख: प्रियंकरजी ने लिखा कि गांधी पर हुई बहस में उनका रुख प्रारम्भ से ही कुछ संदिग्ध सा लगता रहा है।
इस पर मेरा यही कहना है कि अगर आपको ऐसा लगता है तो मुझे इस बारे में कोई एतराज नहीं है। जो आप पढ़ते हैं उस पर आपको अपनी राय बनाने का पूरा हक है। वैसे अगर आप मेरा गांधीजी पर लेख देखें तो पायेंगे शायद मैंने लिखा है कि न मैं गाधीवादी हूं और न ही गांधी साहित्य का मर्मज्ञ। मैंने जो लिखा वह एक सामान्य जानकारी युक्त भारतीय की तरह लिखा। उसमें अगर आप या कोई भी पाठक कुछ गलतियां पाता है और उसके अनुसार मेरे रुख को संदिग्ध मानता है तो इस बारे में मुझे न कोई एतराज है न किसी से कोई शिकायत। हां, अगर कोई यह पूछे कि ऐसा मैंने क्यों लिखा तो वह मैं पूरी ईमानदारी से बताने का प्रयास कर सकता हूं।
२.गोडसे भक्त सागर के बयान पठनीय और गांधी विरोधी प्रेमेन्द्र के बयान ओजस्वी:-सागर और प्रेमेन्द्र की किस पोस्ट पर मैंने इस तरह की टिप्पणी की इस बारे में कोई सफ़ाई दिये बगैर मैं यह कहना चाहता हूं कि न मुझे सागर के गोडसे भक्ति के बयान ठीक लगते हैं और न ही प्रेमेन्द्र के अति उत्साही बयान। मैं जितना इन लोगों को जानता हूं ये दोनों प्रखर राष्टवादी विचार के हैं। इनकी अपनी सोच है। उसके हिसाब से ये अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं। मैंने अबतक लगभग २०० से पोस्ट लिखीं हैं। क्या किसी में इस तरह के रुझान के दर्शन होते हैं? मेरे ख्याल से मेरी ऐसी सोच कतई नहीं है। और जहां तक टिप्पणी का सवाल है उसके लिये आपके ब्लाग जगत में टिप्पणी का मनोविज्ञान समझना पड़ेगा। ज्यादातर टिप्पणियां उत्साहवर्धन के लिये की जाती हैं। आपस में
लोगों का पाठक समुदाय है। लोग उनके चिट्ठों को पढ़ते हैं जिनसे वे किसी न किसी रूप में जुड़े होते हैं। और जब पढ़ते हैं तो कभी-कभी या अक्सर (और समीरलाल जी तो हमेशा ऐसा करते हैं) कुछ न कुछ टिप्पणी कर देते हैं। टिप्पणी में आमतौर पर तारीफ़ ही की जाती है। बुराई या कमी वाली टिप्पणियां स्वीकार करने और उनको सच मानने का माद्दा बहुत कम लोगों में होता है। इसी पोस्ट में शिल्पीजी आलोचनात्मक टिप्पणी को पचा नहीं पाये और अपनी त्वरित टिप्पणी
मेरे अर्थ को घटिया बताया। और यह भी कि सत्य को उदघाटित करके शीध्र ही मेरे जैसे ‘आम आदमी’ तक सामने लायेंगे। तो मेरा अनुरोध है कि मेरी मात्र उत्साह वर्धन के लिये की गयी टिप्पणियों को यह न माना जाये कि मैं उनके मत का समर्थन कर रहा हूं। और अगर यह माना ही जाये तो यह भी देखा जाये कि सागर द्वारा अनजाने में कवि प्रदीप को गांधीजी का चाटुकार मानने की बात का समर्थन करने पर उनको टोंकने वाला कौन था? शिल्पीजी, देबाशीषजी, प्रियंकरजी या अनूप शुक्ला।
३.उनमें मुंह देखकर तिलक करने की प्रवृत्ति है:-इस बात का आधार क्या है मुझे नहीं पता लेकिन अगर ब्लाग पर टिप्पणियां इनका आधार हैं तो यह ब्लाग जगत से जुडे़ हर लेखक का अपना पाठक है और हर पाठक के अपने-अपने पसंदीदा ब्लाग। एक पाठक की हैसियत से मुझे अपनी पसन्द के ब्लाग पढ़ने और उन पर मनोनुकूल टिप्पणी करने का अधिकार है। एक ही पोस्ट/टिप्पणी को देखकर पाठक पर उसकी मन:स्थिति के हिसाब से अलग-अलग प्रतिक्रियायें होती हैं। इसी टिप्पणी को पढ़कर पहले मुझे हंसी आई, फिर सोचा कि शिल्पी के सारे लेखन की पड़ताल करूं, फिर सोचा कड़ा प्रतिवाद करूं लेकिन धीरे-धीरे सारे विचार खारिज होते चले गये। यह सोचा कि छोड़ो जिसको जो समझना है समझे। लेकिन आज यह विचार किया कि अपनी स्थिति स्पष्ट कर दूं। इसी तरह टिप्पणियों और प्रतिक्रियाऒं के बारे में है। जितनी सहजता से मैं जीतेन्द्र, समीरलाल, स्वामी, आशीष और अतुल की पोस्ट ्पर टिप्पणी कर सकता हूं उतनी सहजता से दूसरे साथियों की पोस्ट पर नहीं। इसी तरह जितनी जरूरत मुझे सागर आदि अपेक्षाक्रत नये लेखकों के ब्लाग पर उत्साह वर्धन की लगती है उतनी स्थापित लेखकों के ब्लाग पर नहीं। फिर टिप्पणी आदि करने में व्यक्तिगत सम्बन्ध वाली बात होती है। जिनसे रोज-रोज या दिन में कई-कई बार होती है उनके साथ व्यवहार में और जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते उसमें कुछ तो अन्तर होगा ही। अब अगर इसी को प्रियंकरजी मुंह देखकर तिलक करने की बात कहते हैं तो मुझे उनकी यह बात स्वीकार्य है और इसके लिये मुझे कुछ नहीं कहना। इसके अलावा यदि और कुछ उनकी बात का मतलब हो तो बतायें!
४. मेरा अभिजात्य, अंतर्जालीय चेंगड़े और मेरा डर:-इस बात के जवाब में मैं क्या कहूं लेकिन यही वह बात है जिसके लिये मैंने यह पोस्ट चाहा है क्योंकि सबसे ज्यादा इसी बात से न सिर्फ मुझे अफसोस हुआ बल्कि यही वह बात है जिसके कारण सागर, पंकज बेंगाणी और संजय बेंगाणी को भी तकलीफ़ हुई। और यही वह बात है जो सच से सबसे ज्यादा दूर है।
‘चेंगड़े’ का मतलब नहीं मिला शब्दकोश में मुझे लेकिन मैं अन्दाजा लग सकता हूं कि इसका मतलब ‘बिगड़ैल चेले’ टाइप कुछ होता होगा। तो कुल लब्बोलुआब यह कि सागर, प्रेमेन्द्र और अन्य साथी मेरे अन्तर्जालीय बिगड़ैल चेले हैं और मैं इनसे डरता हूं इसलिये कि अगर इनके विरोध में मैं कुछ कहूंगा तो ये मे्रे व्यक्तित्व का छियाछार कर देंगे यानि की ऐसी- तैसी कर देंगे। यह बात प्रियंकरजी ने कही और देबाशीषजी ने इसे ‘समयोचित और सभ्य’ बताया।
पहले सागर और प्रेमेन्द्र के बारे में। प्रेमेन्द्र अभी ग्रेजुयेशन कर रहे हैं। इन्होंने जब ब्लाग लिखना शुरू किया तब उसी समय कुछ गलतफहमी के कारण इनके साथ परिचर्चा में कहा-सुनी हो गयी। ये अकेले पड़ गये थे और ब्लाग-स्लाग लिखना बंद कर चुके थे। यह बात मुझे बहुत देर से पता चली क्योंकि मैं आम तौर पर परिचर्चा मंच पर जा नहीं पाता। चाहे जिस कारण हो लेकिन जब मुझे इनके साथ हुयी बात का पता चला तो मुझे यह बड़ा नागवार गुजरा। इसलिये नहीं कि ये बहुत अच्छा लिखते थे और इनके न लिखने से हिंदी को कोई अपूरणीय क्षति हो जाती। बल्कि हिंदी चिट्ठा जगत से जुड़े होने के नाते मुझे लगा कि यहां से कटु स्म्रतियां लेकर कोई जाये यह ठीक नहीं होगा। फिर मैंने प्रेमेन्द्र से आनलाइन बात की। इनके घर फोन पर बात की और अनुरोध किया कि ये लिखते रहें। इनके भाईसाहब से भी बात की। फिर ये लिखने लगे। अब तो बहुत दिन हो गये बात ही नहीं होती। प्रेमेन्द्र के ब्लाग पर मेरी टिप्पणियां भी कम ही हैं। कभी-कभार उत्साह वर्धन के लिये मौका मिला तो टिप्पणी भी कर देता हूं। कुछ अच्छी पोस्ट भी इन्होंने लिखी हैं। जिसमें एक टेनिस सुन्दरी की तस्वीर मेरे दिमाग में अब भी है। इसी तरह मेरे ब्लाग पर भी प्रेमेन्द्र गाहे-बगाहे ही नजरे इनायत करते हैं। क्या इतने कार्यकलाप मात्र से प्रेमेन्द्र मेरे ‘चेंगड़े’ हो गये?
सागर से भी बातचीत बहुत देर में शुरू हुयी। पहले वे एक बार ब्लाग जगत छोड़ने की धमकी दे चुके थे। फिर तमाम साथियों के और मेरे भी समझाने पर इन्होंने दुबारा लिखना शुरू किया। अपना काम करते हैं। भावुक हैं। जल्दी उत्तेजित होते हैं उससे जल्दी शांत हो जाते हैं। इनकी वैचारिक ईमानदारी मैं कायल हूं। मुझे ये भाई साहब कहते हैं और मानते भी हैं। एक बार चिट्ठाचर्चा में देबाशीष की टिप्पणी से अनावश्यक रूप से बमक गये और लम्बी पोस्ट लिख डाली। मैंने इनसे बात की और देबाशीष की तरफ़ से बिना कुछ कहे अफसोस जाहिर किया और झटके में माफी भी मांग ली। इतने में ही सागर बाबू को रोना आ गया और इन्होंने अपने सारे गिले-सिकवे तहा के अलग रख दिये। सागर की संवेदनशीलता के लिये मेरे मन में इज्जत है। जितनी आसानी से वे एक घायल को बिना उपचार कराये छोड़ आने के अपराध बोध को स्वीकार सकते हैं उतनी आसानी से मैं नहीं कर सकता। सागर के प्रति मेरे मन में आदर के साथ प्रेम भी रहा है। यह उनके प्रति मेरा लगाव ही था कि मैंने खोजकर फिराक गोरखपुरी की करीब २० पेज लंबी नज्म ‘मां’ पोस्ट की और उनकी एक कविता ‘बोछकी’ अभी भी खोज रहा हूं। क्या यह सब मैं इसलिये करता रहा कि ये मेरे ‘चेंगड़े’ हैं? क्या मुझे भाई साहब कहने वाला और मेरे एक बार कहने मात्र से अपनी पोस्ट तक हटा लेने के लिये तैयार शक्स और मेरे बीच केवल खलीफा और बिगड़ैल चेले का ही सम्बन्ध हो सकता है! क्या मैं इनसे डरता हूंगा कि कल को अगर मैं कुछ इनके खिलाफ़ लिखूंगा तो ये मेरी ऐसी-तैसी कर देंगे?
इसी तरह बेंगाणी बन्धु। संजय बेंगाणी की विचारधारा से मेरा कोई तालमेल नहीं है। बातचीत भी कभी-कभी ही होती है। लेखन सामयिक घटनाऒं सामाजिक हलचलों पर रहता है। कभी वर्तनी की गलती भी रहती हैं। लेकिन इसके बावजूद मेरे में संजय के प्रति सम्मान भाव है जबकि वे मुझसे उमर में छोटे हैं। यह सम्मान भाव इसलिये नहीं कि मैं उनका गुरू हूं या वे मेरे हमविचार हैं या इनसे हमें या हमसे इनको कोई फायदा हो सकता है। यह सम्मान इसलिये है कि इन्होंने अपनी ईमानदारी बचाके रखी है और अपनी इनकी खुद की समझ है और उस समझ पर पूरी ईमानदारी से अमल करते हैं। ऐसा व्यक्ति किसी के इशारे पर नाचा नहीं करता। न वह चेले बनाता है न खुद किसी का पिछलग्गू बना घूमता है।
पंकज बेंगाणी भी अपने भाई को ही अपना आदर्श मानते हैं। ये खुद ही मास्साब कहलाते हैं कोई इनका खलीफ़ा क्या बनेगा? और प्रियंकर जी ने इनकी जिस भाषा का जिक्र किया वह तो ये सुधार सकते हैं लेकिन जिस सिद्ध भाषा में इनको हमारा चेंगड़ा बताया गया उसमें क्या गुंजाइश है। बकौल कवि विनोद श्रीवास्तव-
चोट तो फूल से भी लगती है,
सिर्फ पत्थर कड़े नहीं होते ।
और पंकज केवल उजड्ड होते तो किसी पाठक के एतराज जताये जाने पर अपनी बंदर सीरीज का लेखन न छोड़ते।
मेरे अभिजात्य के छियाछार होने डर की बात करने वाले प्रियंकरजी को भले पता न हो लेकिन देबाशीषजी को अच्छा तरह पता होगा कि हिंदी ब्लाग जगत में
तमाम बार साथियों में उठापटक हुई। जीतेंद्र, अतुल, स्वामीजी और देबाशीष भी समय-समय पर ताल-ठोंक कुस्ती लड़ते रहे समय-समय पर। आज अगर सब एक मत न हों फिर भी सहयोग की भावना है तो उसमें मेरा कुछ न कुछ इस बात का योगदान रहा कि मैं इन लोगों को साथ लाने और मतभेद भुलाने का माध्यम बना। ऐसा नहीं कि मेरा व्यक्तित्व इतना चमत्कारी है जिसके आलोक में चकाचौंध होकर ये अपने मतभेद भूल गये। मैंने केवल इनसे मतभेद समाप्त करने का आग्रह किया और ये इनकी महानता रही कि मेरे कहने पर इन लोगों ने अपने मन की आवाज सुनी। तो क्या ये महापुरुष भी हमारे चेंअड़े हैं? क्यों भाई देबाशीष कुछ बताओ!
हिंदी ब्लाग जगत में इतने दिनों में मैंने बहुत कुछ पाया। तमाम दोस्त, तमाम प्रशंसक, तमाम भाई कहने वाले दोस्त और गुरुदेव हमने वाले ऐसे लोग जो हमारे भी गुरू हैं। इनमें से कई लोगों से मेरी रोज की बातचीत है। राकेश खंडेलवाल ने हमें अभी दो दिन पहले अमेरिका से फोन करके निराला जी पर लिखे लेख की तारीफ की तो इंग्लैंड से राकेश दुबे मुझसे मिलने आये जिनसे मेरा सिर्फ इतना परिचय था कि वे मेरा ब्लाग पढ़ते हैं।
ऐसा नहीं कि मुझे अपने लेखन के प्रति कोई गलतफहमी हो। दोस्तों की तमाम प्रशंसाऒं के बावजूद मैं जानता हूं कि कुछेक लेखों के अलावा मेरा सारा लिखना बकौल निधि ‘ऐं-वैं टाइप’ ही है। ब्लागिंग मेरे लिये शौकिया माध्यम है न कि रोजी-रोटी का जुगाड़। फिर मैं ऐसा गैंग टाइप का किसलिये बनाऊंगा कि जिसके लिये मुझे ‘चेंगड़े’ पालने पड़ें।
मैं सामान्य व्यक्ति की तरह रहना चाहता हूं। मौज-मस्ती से रहने की आदत है। अपने लिये महाब्लागर, वरिष्ठ चिट्ठाकार जैसी उपाधियां मुझे बकवास और बोझ लगती हैं। इसको अपने ऊपर चस्पां देखकर असहजता महसूस होती है। ऐसा व्यक्ति किस कारण अपने गुर्गे टाइप चेले तैयार करेगा। कौन सा कालिज हथियाने के लिये लिये ‘छोटे पहलवालों’ का गोल जुटायेगा!
अपने सभी साथियों से मुझे लगाव है। उम्र में बड़े कुछ चिट्ठाकारों के प्रति मेरे मन में आदर भाव भी है।मैं बावजूद मौज-मजे के उन लोगों के प्रति कुछ भी अशोभनीय बात कहने से बचता रहने का प्रयास करता हूं। और यह सब मैं अपने सुख के लिये करता हूं यही मेरा लालच है जैसा याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा-
न वा अरे मैत्रेयी पुत्रस्य कामाय पुत्रम प्रियम भवति, आतमनस्तु वै कामाय पुत्रम प्रियम भवति।आत्मनस्तु वै कामाय सर्वम प्रियम भवति।पता नहीं मैं अपनी बात सही तरह से कह पाया कि नहीं लेकिन मुझे खुशी है कि प्रियंकरजी और देबाशीषजी के बहाने मुझे कुछ कहने का मौका मिला और उन्होंने एक तरह से मुझे टोंका भी। इस बारे में मैं अपने को सौभाग्यशाली मानता हूं कि मुझे टोंकने वाले लोग मौजूद हैं क्योंकि मेरी दीदी कहती हैं – वह व्यक्ति अभागा होता है जिसको टोंकने वाला कोई नहीं होता।
(अरे मैत्रेयी पुत्र की कामना के लिये पुत्र प्रिय नहीं होता बल्कि अपनी कामना के लिये पुत्र प्रिय होता है। अपनी ही कामना के लिये सब कुछ प्रिय होता है।)
देबाशीष भाई से भी गुजारिश है कि वे उन कारणों की तलाश करें कि कैसे छह महीने पहला का उनका ‘बड़भैया’ऐसा माफिक हो गया कि ‘अन्तर्जालीय चेंगड़े’ पालने लगा।
सागर, प्रेमेन्द्र, संजय बेंगाणी और पंकज बेंगाणी के लिये मैं अपनी तरफ़ से अफसोस जाहिर करता हूं कि मेरे कारण जाने-अनजाने उनको असहज टिप्पणियां मिलीं और उनको कष्ट हुआ।
मेरी पसंद
खारे पन का अहसास मुझे था पहले सेडा.कन्हैयालाल नंदन
पर विश्वासों का दोना सहसा बिछल गया
कल,
मेरा एक समंदर गहरा-गहरा सा
मेरा आंखों के आगे उथला निकल गया।
Posted in बस यूं ही | 30 Responses
कई अच्छे लोगों का इस विधा से इस प्रकार के विवादों के चलते मोह भंग हुआ है. कितनों का लेखन कम हुआ है – कितने निरुत्साहित हुए हैं. मेरे अपने अतीत से मैंने ये सीखा है की शब्दों से उकसाना और उकसना किसी का भला नहीं करता.
हां, आप पर व्यक्तिगत आक्रमण कर के और सीन क्रियेट कर के अटेंशन तो ली जा सकती है लेकिन इस प्रकार की बातों और हरकतों के साईड-इफ़ेक्ट विधा पर और समूह पर क्या होते हैं अगर सोचा जाता तो ज्यादा सम्माननीय कर्म होता. सकारात्मक प्रयत्नों से सब खुश होते हैं उन पर ज़रा ध्यान दिया जाता तो मेरी तरह दूसरे भी पाते की आप कितने ही अच्छे प्रयासों के पीछे रहे हैं और वो ज्यादा महत्वपूर्ण है. मुझे मालूम है आप क्या करेंगे – माफ़ करेंगे और अपना काम करते रहेंगे! हमेशा की तरह:)
एक-दूसरे के लेखों की समालोचना करना बुरा नहीं, आखिर स्वस्थ चर्चा यही तो है, लेकिन यहाँ कुछ लोग ऐसे हैं जो बिला वजह मन में खुन्दक पाले रहते हैं। इस बारे में शीघ्र ही कुछ लिखूँगा।
बाकी आपकी लेखन-शैली का मैं कायल हूँ, आप किसी की टाँग खींचते हैं तो भी बुरा नहीं लगता। किसी की टाँग खींचना अलग बात है और किसी के प्रति अशिष्ट शब्दों का प्रयोग अलग बात। अब तक के मेरे पढ़े आपके लेखों में कहीं भी भाषा स्तरहीन नहीं देखी।
कृपया अपने छोटे भाईयों के समूह ‘अन्तर्जालीय चेंगड़ों’ में मुझे भी शामिल कर लें।
चेंगड़ा(स्त्री.चिंगड़ी)- छोटी बच्चा. शिशु.
(इस शब्द की उत्पत्ति का तो मुझे पता नहीं. वैसे, राँची प्रवास के दौरान सुना था. इसलिए संभव है, बांग्ला उत्पत्ति हो.)
मेरी इस टिप्पणी को किसी के समर्थन अथवा विरोध के रूप में न समझा जाये.
सर्वप्रथम, मुझे ये कभी समझ नही आया कि जब हम दो महान व्यक्तियों की तुलना करते हैं तो जाने/अनजाने किसी एक व्यक्तित्व को क्षुद्र बनाने का प्रयास क्यों करते हैं.
क्या गांधी को महान बताने के लिये सुभाष बाबू की निन्दा अथवा सुभाष को महिमामंडित करने के लिये गांधी के व्यक्तित्व को तार तार करना कहां तक उचित है. इस विषय पर एक उदाहरण देता हूं. कक्षा आठ तक मेरी शिक्षा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संचालित सरस्वती शिशु/विद्या मंदिर में हुई है. मैं संघ का कार्यकर्ता नहीं हूं परन्तु संघ का निश्चित रूप से सम्मान करता हूं. मैं संघ की कुछ नीतियों का कट्टर विरोधी भी हूं. जब मुझे सरसंघचालक श्री के. एस. सुदर्शनजी से साक्षात्कार का सुअवसर मिला था तो एक गोष्ठी में मैने अपने मत प्रकट किये थे. सुदर्शनजी ने मेरे प्रश्नों के सप्रेम उत्तर दिये थे और मुझे ऐसा नही लगा कि हमारे वैचारिक मतभेदों का उनके मेरे प्रति व्यवहार पर कोई प्रभाव पडा हो. महापुरूषों का व्यक्तित्व ही ऐसा होता है.
उन्मुक्तजी द्वारा गूगल वीडियो के दिये गये लिंक पर श्री ब्रजेन्द्र अवस्थी की वीर रस की कविताओं में उन्होनें गांधीजी की सुभाषबाबू एवं चन्द्रशेखर आजाद से तुलना की थी. उन कविताओं में उन्होने गांधीजी को नीचा दिखाने का प्रयास नही किया. मुझे उनकी कविताये एक स्वस्थ मानसिकता की परिचायक लगीं.
मै स्वयं को गांधीवादी कहता हूं, संघ का समर्थक भी हूं, स्वतन्त्रता संग्राम में क्रांतिकारियों के प्रति नतमस्तक भी, वामपंथियों की कुछ नीतियों का समर्थक, ह्रदय से समाजवादी, लोकतन्त्र में धर्मनिरपेक्षता का हिमायती, एक गर्वित हिन्दू, मुस्लिम कट्टरवादिता का धुर विरोधी, और पता नहीं क्या क्या.
मुझे कष्ट तब होता है जब मुझे कहा जाता है कि संघी होकर वामपंथी नहीं हो सकते और समाजवादी एक गर्वित हिन्दू कैसे हो सकता है. वामपंथी और संघी दोनों ही मुझे अपशब्द कहते हैं. ऐसा लगता है कि उस क्षण कोई तलवार लेकर मेरे ह्रदय के टुकडे कर रहा हो.
क्या हमारा ह्र्दय इतना तंग हो चला है कि उसमें गांधी और सुभाष साथ नही रह सकते?
मानता हूँ कि उसने कभी कुछ ऐसी चलती भाषा का प्रयोग ब्लाग पर कर लिया मगर क्या मन्तव्य वही था और क्या वो उसको करता चला गया, एक बार समझाईश के बात. क्या उसे उसके उम्र की थोड़ी बहुत छूट भी न मिले. तब तो मेरा बेटा बचपन से सिर्फ पिट रहा होता. क्या ब्लाग पर साहित्यिक इतिहास के पन्ने लिखे जा रहे हैं या यह सार्वजनिक डायरी का एक स्वरुप है. अगर कोई इसे साहित्यिक इतिहास के पन्ने मानता है तो शायद उसने बहुतरे अंग्रेजी ब्लाग के पन्ने नहीं पढ़े, जिसमें इसे so called defusion का सार्वजनिक माध्यम माना गया है.
सागर, जो सबको सिर्फ सम्मान देना जानता है. उत्तेजक हो जाता है कभी कभी. मगर अगर आप अपने आपको को ज्ञानी मानते हैं तो जरा गौर से उन्हें पूरा पढ़ें. वो जितना जल्दी उत्तेजित होते हैं उससे भी ज्यादा जल्दी संवेदनशील. पुनः मेरी उनसे मुलाकात नहीं है, मगर उनकी व्यवाहरिकता और सज्जनता मुझे अपनी अगली भारत यात्रा में हैदराबाद जाकर उनसे मिलने को प्रेरित करती है. उनमें और बैंगाणी बंधु में कुट कुट कर भरी संस्कारिता किसी बड़े तथाकथित साहित्यकार के सत्यापन की मोहताज नही और कम से कम मेरे लिये वो हमेशा सत्यापित है. मै तो गुजराती खाना और राजस्थानी खाना जरुर खाऊँगा दोनों जगह, क्योंकि दोनो क्योंकि दोनो को मैं अपना परिवार का अंग मानने लगा हूँ और पंडित के घर का खाना तो ड्यू है ही फुरसतिया जी के यहाँ और इलाहाबादी खाना हमारी ससूराल के मित्र परमेन्द्र के यहाँ.
दस मिनट की बात करके फोन पर कैसे दूसरे के साथ आप (अनकंडीशनल) रिश्ता गढ़ लेते हैं इसका अनुभव मुझे भी है।
पर मै समझता हुँ जरूरत है। जरूरत है उन लोगों को जवाब देने कि जो स्वम्भू महान होने गलतफहमी पाल बैठे हैं। उनको लगता है जैसे सबकुछ उन्ही कि वजह से चल रहा है, और उनके ना रहने से आफत आ जाएगी।
ऐसे लोगों को होश ही नही रहता कि कब उनका व्यंग्य मजाक का रूप लेकर सामने वाले को आहत करने लग जाता है। उनके लिए उनकी विचारधारा से असहमत लोग “कच्ची कौडी” के हैं। कमाल है!
तो इन पक्की कौडी वाले महाशय ने आजतक कितने तीर मार लिए हैं, वो भी पता चले।
गलतफहमी में जीने वाले लोगों को सारी दुनिया “तुच्छ” और सब लोग “चैंगडे” ही नजर आते हैं!
हिन्दी के कठीन से कठीन चुने हुए शब्दो को लिखकर, और वाक्यों तो तोड मरोड कर अर्थ का अनर्थ कर कर इन लोगों को लगने लगता है कि उन्होने साहित्यिक उपलब्धि को प्राप्त कर लिया है!!
क्यों ना ये लोग गलतफहमीयाँ छोडकर सबको साथ लेकर चलना सीख सकें।
आप महान हैं, पर यकीन मानिए यह आपका गुमान है।
अखरी तो केवल एक बात कि इस लेख में वो वाली व्यंग्यात्मक पुट नहीं थी, जिससे कायल हो आपकी लम्बी-लम्बी पोस्टे पढ़ते रहे है.
अगर ध्येय समान हो तो वैचारिक मतभेद के बाद भी एक-दुसरे के प्रति सम्मान का भाव कायम रहता है. हम सबको यही बात जोड़े हुए है.
इतिहास में देखें तो सावरकर से मिलने गाँधीजी स्वयं जाते है, अतं में दोनो स्वीकारते है की उनके वैचारिक मतभेद है. किंतु कभी सावरकर ने गाँधीजी के लिए अपशब्द नहीं कहे. यह बात और है की एक कॉग्रेसी सावरकर का नाम सेल्युलर जेल से हटा कर खुश होता है. अलग होने पर भी समय समय पर गाँधीजी नेताजी सुभाष को याद करते रहे थे. सिंगापुर से रेडीयो प्रसारण में सुभाष ने गाँधीजी को महनतम नेता कहा था.
इत्ता सेंटी होकर काहे लिखे हो पहलवान? (ध्यान रखना, हमने अखाड़े वाला पहलवान नही कहा)
देखो, दुनिया मे हर तरह के लोग होते है, कुछ लोग सीन क्रिएट करके ध्यान आकर्षित करते है और कुछ लोग अच्छा लिखकर। तुम अच्छा लिखने वालों की श्रेणी मे हो, सीन क्रिएट करने वालों को करने थे, थक-हार कर बैठ जाएंगे,जल्द ही। तुम ना परेशान हो।
मैने बहुत पहले ही कहा था, परिवार बढने के साथ साथ, विभिन्न विचारधाराओं वाले लोग भी आएंगे, साथ मे अपने अपने एजेन्डे लाएंगे। तो दादा, तुम उनसे व्यथित काहे होते हो, तुम हम सबके बड़े भाई थे और हो और हमेशा रहोगे। हर राह चलते की बात का जवाब दोगे तो निभा नही सकोगे। इसलिए मौज लो और मौज करो।
आप मेरे समग्र लेखन की पड़ताल करना चाहें और करें, यह मेरे लिए अति सौभाग्य की बात होगी। आज इसका प्रसंग भी बनता है क्योंकि आज ही हिन्दी चिट्ठाकारी में मेरे एक वर्ष पूरे हो रहे हैं।
मुझे स्वयं इस बात को लेकर खेद रहा है कि मेरा लेखन हिन्दी चिट्ठाजगत में कभी-कभी इतने अप्रिय विवादों का निमित्त क्यों बनता है? पहले भी आरक्षण, गाँधीजी और भूमंडलीकरण के मुद्दे पर मेरे लेखों के कारण चिट्ठा जगत में हंगामे-जैसा माहौल पैदा हुआ है। लेकिन अपने मन, वचन और कर्म के प्रति ईमानदारी मुझे प्रेरित करती है कि मैं जनहित के मुद्दों पर अपने अध्ययन और अनुभव जनित निष्कर्षों को तथ्यपूर्ण ढंग से सबके सामने रखूँ। ऐसा करने के पीछे मेरा कोई वैचारिक एजेंडा नहीं है और न ही अपने व्यक्तित्व को चमकाने की कोई कोशिश है। मैं अपनी निजी पहचान तक ऑनलाइन जगत में जाहिर करना जरूरी नहीं समझता। यदि विचारों में दम होगा तो लोग उसकी सराहना करेंगे और नहीं होगा तो लोग आलोचना करेंगे। और, मुझमें आलोचनाओं को पचा सकने और उनका जायज और जरूरी शब्दों में माकूल प्रत्युत्तर दे सकने की क्षमता है।
जैसा कि टी.एस.इलियट ने कहा है, भोक्ता (The man who suffers) और रचनाकार (the man who creates) के बीच सदा अंतर रहना चाहिए और यही सच्चे लेखन की सबसे बड़ी कसौटी है। हम चिट्ठाकारों को ब्लॉग जगत में इस कसौटी का ध्यान रहे तो कोई विवाद ही पैदा न हो।
@स्वामीजी, किसी को माफ़ करने की बात है ही नहीं। लोगों ने अपनी बात रखी मैंने अपनी बात कही। हां आगे तो लिखते ही रहेंगे। नहीं लिखेंगे तो हिंदिनी पर उल्लू नहीं बोलेंगे क्योंकि तुम तो आजकल हिलाड़ी भौजी में रुचि ले रहे हो।
@ई पंडितजी,ये बात अपनी बात रखने के लिये और दोस्तों की स्थिति बताने के लिये रखी गयी। ‘चेंगड़ा पार्टी’ का कोई अस्तित्व फिलहाल नहीं है। और जब बनेगी तो शामिल करने पर विचार किया जायेगा लेकिन उसकी मेम्बरशिप के लिये आवश्यक शर्त है आप पहले नियमित लिखें और ज्ञान प्रसार भी करते रहें-कम से १५-२० पोस्ट हर माह!:)
@हिंदी ब्लागरजी, आपकी बात सही है।लेकिन इस पोस्ट को मैंने मजबूरी में लिखा। ‘चेंगड़े’ का अर्थ बताने के लिये धन्यवाद!इसके लिहाज से अब मैं ‘क्रच‘ की देखभाल करने वाला हो गया जहां तमाम बच्चे ‘क्यों-म्यों’ करते हैं। कमलेश्वर जी पर मैं कल लिखने की सोच रहा था लेकिन मेरे पास जितना मसाला था वह कल आप लिख चुके। अब उनके बारे में जल्दी ही, इसी हफ़्ते लिखुंगा। अभी पढ़ रहा हूं उनके बारे में।
@नीरज भैया, हमने आपकी बात को बात की तरह ही लिया। किसी के पक्ष और विरोध में नहीं। आपकी बात सवा सोलह आने खरी है। हमारी नजर में हमारे सारे महापुरुष अलग-अलग कारणों से महान हैं। उनकी तुलना करने का विचार ठीक नहीं है।
@अनूप भैया, हम खिन्न नहीं हैं। एकदम मस्त हैं। टिचन्न हैं। और न कोई सही है न गलत बस हर कोई है। और आप चिंता न करें हमारा लिखना बिल्कुल प्रभावित नहीं होगा। कैसे लिखना कम करेंगे- अभी तो आपकी तमाम पोलें खोलनी हैं। हमने लगा भी रखा है आपकी कनाडा वाली मुंहबोली बहन को आपके बारे में मसाला बताने के लिये। उधर से आया नहीं कि इधर से पोस्ट छूटेगी-दनाक से।
@समीरलालजी, सही में खाना खाओगे? अच्छा बताओ का बनवायें! आलू-पराठा चलेगा या कढ़ी भात।
@जगदीश भाटिया जी,धन्यवाद! आपका अनुभव-वनुभव तो ठीक हैं लेकिन आपके मुन्ना भाई किधर निकल लिये? दिखते नहीं बहुत दिन से!
@पंकज बेंगाणी, मेरी जरूरत क्या थी कविता पढ़ो और मजा लो। इतनी बड़ी-बड़ी बातें लिखोगे तो कहीं के नहीं रहोगे। बुद्धिजीवी हो जाओगे। धन्धा के सारे विकेट डाउन हो जायेंगे। व्यस्त रहो-मस्त रहो।
@संजय बेंगाणी,मुझे यही खुशी है कि अपनी बात साफ़ कर सका। तुम्हारी टिप्पणी इसका बहुत बड़ा कारण बनी।
@जीतू, हम व्यथित नहीं हैं। ये भी एक तरह की मौजै है। अपने से मौज! क्या मजा नहीं आया?
@आशीष, कल्लो बेगम के आशिक की मांग जल्द ही पूरी करने का आश्वासन खुले मन से दिया जाता है।
@सृजन शिल्पी,पहले तो बधाई सालगिरह की। इस अवसर पर अपने एक साल के अनुभव समेटो और छाप दो अपनी पोस्ट पर। खेद-वेद के चक्कर में मती पड़ो। कुछ लिखोगे तो कुछ तो प्रतिक्रिया होइबै करेगी। मन,वचन और ईमानदारी को जनहित में लगाये रहो। हम आपके काम की सराहना करते हैं कि आपने दस साल तक नेताजी के बारे में शोध किया। हिंदी ब्लागजगत की कसौटी तो बनते-बनते बनेगी। अभी तो इसके दूध के दांत नहीं टूटे हैं। टी.एस.इलियट ने सही ही कहा होगा। इसके साथ ही हमारे यहां भी कोई कहिस है-निन्दक नियरे राखिये।और थोड़ा हंसी-खुशी भी करते रहा करो। हंसने से हाजमा भी दुरुस्त रहता है और चेहरा भी चमकता रहता है। कमलेश्वर जी पर आलेख जल्दी ही लिखेंगे बशर्ते जरा मुस्कराकर दिखाऒ। ऐसे नहीं सबके सामने।:)
अनूप दा और समीरलाल जी समेत देवाशिष जी, जीतू भाई आदि का मैं चेला हूँ या नहीं पर मैं उन्हें मैं उन्हें गुरु मानता हूँ और उनके लेखन से प्रेरणा लेकर अपने लेखन को सुधारने कोशिश करता हूँ।
ई-स्वामी जी ने सही कहा कि अगर विवादास्पद पोस्टें लिखीं ही नहीं होती तो यह सब सुनना नहीं पडता, मैं उनकी इस बात से सहमत होते हुऎ आगे ध्यान रखूंगा कि आगे से मैं किसी भी विवाद का निमित्त नहीं बनूं और पोस्ट लिखने या टिप्पणियाँ देने में सावधानी बरतुंगा। (एक विचार मन में फ़िर यही आता है कि अपने विचारों को प्रकट करने के लिये क्या किया जाय? यहाँ प्रकट होने पर अनावश्यक विवाद हो जाता है)
बाकी मै हिन्दी ब्लागर और आशीष जी का समर्थन करते हुए कहूँगी की आप कमलेश्वर जी पर कुछ लिखें.
@सागर:अपने विचारों को प्रकट करने का यही तरीका है कि उनको प्रकट करते रहो। समय के साथ सब एक-दूसरे को समझते जायेंगे।
@रचनाजी:आप खिन्न हुईं इसका मुझे अफसोस है। आगे से प्रयास करूंगा कि आपको खिन्न न किया जाये।जैसा मैंने कहा मैं जल्दी ही कमलेश्वरजी पर लिखूंगा।
हाथी चले बजार में, कुत्ता भोंके हजार
साधुन को दुर्भाव नहीं, जो निन्दे संसार
आपने बिना किसी दुर्भावना के साफ़गोई से अपनी बात रखी, यह निश्चय ही आपकी साधुता का परिचायक है।
कहीं पढ़ा है अंग्रेज़ी में, हिंदी कर रहा हूँ,
“संभव है कि मैं तुम्हारी बात से सहमत ना होऊँ,
संभव है कि मैं तुम्हारी बात सुनकर मेरा खून खौल उठे,
फिर भी मैं तुम्हें अपनी बात कहने देने के लिए,
अपने प्राण भी न्योछावर कर सकता हूँ,
यह तुम्हारा अधिकार है।”
खैर, यहाँ फिलहाल यह टिप्पणी न्योछावर।
और कोई भी ईंसान हो वो जहाँ कहीं भी खडा हो कहीं ना कहीं का तो हो ही जाता है, तो कहीं का नहीं कैसे रहता है? हा हा हा हा….
खैर आपकी आज्ञा का पालन मैने हमेंशा किया है, तो आगे से कोई टिका टिप्पणी नहीं होगी। पर गेरेंटी हमेशा एक ही तरफ से क्यों मिलती है? लेकिन इन फालतु के पचडों में समय व्यर्थ करने से कुछ नही होने वाला… जिसके जो जी में आए कहे… मैं अपनी राह चलता रहुंगा।
अब जबकी मदारीपने से उपर उठना पडा है, मजबुरी में.. तो यह भी सोचना है कि अब क्या लिखुं… लगता है मुझे “मेरा मोहल्ला” में फिर से जाना पडेगा।
@ अतुल, कोई भी विवाद तुम्हारी उपस्थित में उसी तरह दम तोड़ देता है जैसे आक्सीजन न मिलने से आग की लपट खलास हो जाती है। ये उमर अभी सन्यास की नहीं है। आऒ जल्दी से अपने शोध प्रबंध के साथ!
@ प्रेमेंन्द्र ,धन्यवाद!
@ अभिनव, हम किसी से भी कुट्टी नहीं करते न किसी को करने भी नहीं देते हैं।अंग्रेजी में पढ़ा है लेकिन खून मत खुलाऒ। मुस्कराते रहो।
@पंकजटीका टिप्पणी करते रहो। अपने पर आपातकाल लगाना ठीक नहीं है। सारे तालमेल समय के साथ बनते रहते हैं। थोड़ी-बहुत रगड़-घसड़ तो चलती रहती है। चलनी भी चाहिये, इससे दिल लगा रहता है।
मूल बातों को दरकिनार कर बेवजह शहीदी बाना धारण किया जा रहा है और जिनका जिक्र कहीं हाशिये पर था या नहीं भी था, उनका नाम बड़ी होशियारी से कई-कई बार लेकर ‘हुसकाया’ जा रहा है . वैसे ही जैसे बकौल अनूप सुकुल नाहर जी ने उनके शांत मन की मौज़ को उत्तेजना के वाइरस से दूषित कर दिया . अब यह अलग बात है कि पूरा लेख पढ कर लगता है कि वे तो पूंछ उठाये बैठे ही थे उत्तेजित होने के लिये. बस किसी सामान्य से उत्प्रेरक की प्रतीक्षा में टकटकी लगाये बैठे थे . बेचारे नाहर जी बिलावजह बदनाम हो गये. शिवपालगंज के वैद जी महाराज का पूरा हुनर दिख रहा है .
और वैसे भी अगर कोई दोष है तो मेरा है . अतः अनूप गुरू का आशीर्वाद भी मुझे मिलना चाहिये . बेवजह देबाशीष पर इतनी कृपा क्यों ? क्या विरोधी के समर्थन की एक भी आवाज़ इतनी तकलीफ़ देती है .
वैसे भी अनूप जी को मेरे पहले आक्षेप पर न तो कोई शिकायत है और न ही कोई ऐतराज़ . दूसरे बिंदु पर भी उन्होंने कोई खास विरोध नहीं किया सिवाय मुझे टिप्पणी का मनोविज्ञान समझने की नसीहत देने के . तीसरे बिंदु के जवाब में उन्होंने मुहं देखकर तिलक करने की अपनी प्रवृत्ति का विश्लेषण कर स्वीकार्यता की मोहर लगाई ही है .
अब उन्हें अफ़सोस हुआ है तो केवल चेंगड़ों का गुरु होने अथवा कहलाने पर . वैसे भी ऐसे चेंगड़े जिसके भी चेले-चांटे हों उसे शर्म आएगी ही . अनूप जी मना कर रहे हैं तो अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है . मैं उनकी बात पर पूरा भरोसा करता हूं और मानता हूं कि ऐसे ‘अज्ञ’ और ‘असंस्कारी’ उनके चेले होने लायक नहीं हैं . मित्र होने लायक हैं कि नहीं यह अनूप जी जानें .
हां यदि मेरी टिप्पणियों से अनूप जी को कोई तकलीफ़ पहुंची हो तो (हालांकि अपने परदुखकातर स्वभाव के कारण वे हमेशा दूसरों की तकलीफ़ से ही दुखी हो कर हथियार/लेखनी उठाते हैं) यह जरूर कहूंगा कि मेरा एकमात्र उद्देश्य सुधारात्मक ही है और यदि मेरी किसी भी टिप्पणी को प्रतिशोधात्मक समझा जायेगा तो यह मेरे प्रति घोर अन्याय होगा . और जो इसे सीन क्रियेट कर ध्यानाकर्षण का तरीका समझते हैं तो उन्हें क्या कहूं . वे न भाषा की गरिमा समझते हैं न जीवन की .मुझे तो खैर वे जानते ही नहीं हैं .
वैसे आप हैं भाग्यशाली . आप चेले मूड़ना नहीं चाहते और चेले हैं कि कहीं और जाना नहीं चाहते (संदर्भ:श्रीश शर्मा की टिप्पणी).
कानपुर आऊंगा तो बड़ी दीदी के चरण स्पर्श करना चाहूंगा . वे वास्तव में बहुत बड़ी हैं.
पता नहीं मुझे अब और हस्तक्षेप करना चाहिये कि नहीं .