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गांधीजी, निरालाजी और हिंदी
By फ़ुरसतिया on January 30, 2007
निराला जी विलक्षण, स्वाभिमानी व्यक्ति थे। वे
जिन लोगों का बेहद सम्मान करते थे उनसे भी अपनी वह बात कहने में दबते न थे
जिसे वे सही मानते थे। किसी का भी प्रभामंडल उनको इतना आक्रांत न कर पाता
था कि वे अपने मन की बात कहने में हिचकें या डरें।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को निराला बहुत मानते थे। हिंदी में लिखना शुरू करने पर उनका आशीर्वाद मांगा। एक बार अपने गांव गढ़ाकोला(उन्नाव) से दौलतपुर(उन्नाव) की १६-१७ मील की दूरी पैदल तय करके द्विवेदीजी से मिलने गये।
जब निरालाजी ने ‘मतवाला’ निकालना शुरू किया तो ‘सरस्वती ‘ पत्रिका की कुछ आलोचना भी की। सरस्वती पत्रिका से द्विवेदी जी जुड़े रहे थे इसलिये स्वाभाविकत: उन्हें अच्छा न लगा। इसके बाद निरालाजी ने अपनी एक कविता द्विवेदी जी के पास सम्मति के लिये भेजी तो उन्होंने ‘मतवाला‘ का पूरा अंक रंग डाला। उसकी तमाम अशुद्दियां दिखाकर उसे निराला के पास भेज दिया।
निराला ने उनको लिखा-सरस्वती-सम्पादक के विषय म लिखै बैठेन तो हमहूं ५/६ पन्ना लिखि डारा। मुला पीछे जाना कि तुम्हार समय अकारण नष्ट होई तब फारि डारा।( सरस्वती संपादक के विषय में लिखने बैठा तो हमने भी ५/६ पन्ने लिख डाले लेकिन जब सोचा कि आपका समय बेकार मेंनष्ट होगा तो उनको फाड़ डाला)
मतलब निरालाजी ने अपने गुरुदेव को बताया कि हमने आपके प्रिय पत्र की आलोचना नहीं की इसलिये कि आपका जवाब देने में बेकार समय नष्ट होगा।
निराला नयी कविता के प्रवर्तक थे। ‘छायावाद‘ शब्द प्रसिद्ध हो गया था। उन्होंने जहां किसी को नयी कविता की नुक्ताचीनी करते पाया कि उस पर दुहत्था वार किया। लतीफे और चुटकुले उनको खूब याद थे। इनका उपयोग बड़े कौशल से करते थे। किन्हीं स्वामी नारायणानन्द सरस्वती ने छायवादी कविता का मजाक उड़ाया था। निराला ने उन्हें आड़े हाथों लिया,” ‘छायावाद‘ पर आपने जो कुछ लिखा है, उसे पढकर हमें एक देहाती कहावत याद आ गयी। किसी लड़के ने अपने पिता से कहा था, बाबूजी मैं भी ‘फफीम’ खाउंगा। पिता ने जवाब दिया, पहले नाम सीख लो, फिर ‘फफीम’ खाना।” मतलब पहले कविता सीख लो तब उसकी आलोचना करना!
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के छायावाद विरोधी कवित्त का उदाहरण देते हुये उन्होंने लिखा-”साहित्य में इस तरह की आवाज, प्रचार आदि यद्यपि इस समय असभ्यता और गंवारपन का परिचय देते हैं, परन्तु हमारे लिये इसको स्वीकार करने के सिवा दूसरा उपाय ही क्या है? अतएव शुक्लजी गद्य में लिखें, हम उन्हें उत्तर देने के लिये तैयार हैं। अवश्य पद्य में इस तरह की बकवास करन हम नहीं जानते।”
‘विशाल भारत’ के सम्पादक बनारसी दास चतुर्वेदी छायावाद के प्रखर विरोधी थे। उन्होंने लिखा- “गदर मचा हुआ है। कहां? हिंदी साहित्य में। जाने कहां-कहां के वाद ढूंढ़ निकाले हैं, छायावाद,कायावाद, मायावाद।”
जोशी बन्धुओं ने भी निराला की आलोचना की। निराला ने लेख लिखा- ‘कला के विरह में जोशी बन्धु’। उन्होंने लिखा- “जिस रोज मैंने साहित्य के खाते में नाम लिखाया, उसी रोज से हिंदी साहित्य के आचार्यों ने पाठ पढ़ाना शुरू कर दिया कि जब तक जियो, अपने हाथों अपनी नाक काट कर दूसरों का सगुन बिगाड़ते रहो, बस साहित्य सेवा के यही मायने हैं।”
निराला के विरोधी जितना ही दांत पीस रहे थे, निराला उन पर उतना ही हंस रहे थे, उन्हें और चिढ़ा रहे थे। जैसे कोई बड़ा पहलवान किसी नौसिखिये को खिला-खिलाकर अखाड़े में पटकता है, वैसे ही निराला ने जोशी बन्धुओं को उछाला फिर से पटका। उनके अनर्गल शब्दजाल को अपनी तीक्ष्ण तार्किक निगाह से छिन्न-भिन्न कर डाला।
रवीन्द्र नाथ टैगोर निराला के प्रिय कवि थे। उनके गीत वे गाते-गुनगुनाते रहते। लेकिन बात जब भाषाऒं की तुलना की आ जाये तो वे अपने को टैगोर कम नहीं मानते थे। बांगला भाषा से उनकी सहज प्रीति और टैगोरे की तारीफ की बात अलग थी लेकिन जब बात हिंदी और हिंदी कवियों से तुलना की आती तो निराला बंगाली की तमाम कमियां गिनाने लगते और गुरुदेव के आध्यात्मिक काव्य दोष गिनाने लगते।
ऐसे ही एक बार महात्मा गांधी जो कि हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे उनसे भी निराला जी भिड़ गये। महात्मा जी ने इंदौर के साहित्य सम्मेलन में अपने उदगार व्यक्त किये- “इस मौके पर अपने दुख की भी कुछ कहानी कह दूं। हिंदी भाषा राष्ट्रभाषा बने या न बने, मैं उसे छोड़ नहीं सकता। तुलसीदास का पुजारी होने के कारण हिंदी पर मेरा मोह रहेगा ही। लेकिन हिंदी बोलने वालों में रवीन्द्रनाथ कहां हैं? प्रफुल्लचन्द्र राय कहां हैं? जगदीश बोस कहां हैं? ऐसे और भी नाम मैं बता सकता हूं। मैं जानता हूं कि मेरी अथवा मेरे जैसे हजारों की इच्छा मात्र से ऐसे व्यक्ति थोड़े ही पैदा होने वाले हैं। लेकिन जिस भाषा को राष्ट्रभाषा बनना है उसमें ऐसे महान व्यक्तियों के होने की आशा रखी ही जायेगी।”
निरालाजी जगदीश चन्द्र बोस और प्रफुल्लचन्द्र राय का नाम तो जल्दी भूल गये लेकिन उनके मन में एक नाम अटका रहा-रवीन्द्रनाथ। गांधीजी पूछ रहे हैं- “हिंदी में रवीन्द्रनाथ कहां है?”
फिर लखनऊ में महात्मा गांधी से मुलाकात करके निरालाजी अपनी बात कहनी चाही कि हिंदी में रवीन्द्रनाथ कौन है लेकिन महात्माजी के पास समय नहीं था उनको सुनने का।
इस बातचीत का विवरण निरालाजी ने दिया है अपनी आत्मकथा में। यह विवरण पढ़िये और देखिये कि किस तरह निरालाजी ने गांधीजी को एक तरह से टोंका कि जब वे हिंदी के बारे में कुछ जानते नहीं तो उसके बारे में बयान क्यों जारी करते हैं।
यह उन दिनों बहुत बड़ी बात थी कि गांधीजी, जिनको पूरा देश अपना मसीहा मानता हो, एक हिंदी का साहित्यकार टोंके कि आपको जब हिंदी के बारे में पता नहीं तो आप फतवे क्यों जारी करते हैं।
लेकिन यह निराला ने किया। क्योंकि वे निराले थे। किसी से भी दबते नहीं थे। सम्मान अपनी जगह लेकिन स्वाभिमान अपनी जगह।
यहां निराला जी से गांधीजी से बातचीत दी जा रही है। निरालाजी के इस लेख से उस समय की स्थिति का अन्दाजा भी लगता है। इस बातचीत के बाद ही निरालाजी कविता/ पैरोडी दी जा रही है जो उन्होंने बापू के प्रति लिखी थी।
इस आवाज पर हिंदी के पात्रों ने आवाजाकशी की। इत्तिफ़ाक, लखनऊ-कांग्रेस शुरू हुई। महात्माजी आए। हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के संग्रहालय का उदघाटन था, महात्माजी दरवाजा खोलने के लिये बुलाए गए। उस वक्त उन्होंने फ़िर वैसी ही एक आवाज लगाई।
हर आवाज का अच्छा मतलब भी हासिल होता है, हम निकाल लेते हैं, लेकिन व्यवहार में भी अगर आवाजाकशी हुई, तो संभले-से-संभला आदमी भी नही संभल
सकता। चूंकि महात्माजी लखनऊ में टिके हुए थे, इसलिये पता लगाना लाजिमी हो गया, उन्होंने यह आवाज लगाई या आवाजाकशी की।
तबियत में आया, महात्माजी से बातचीत की जाय, ‘हिन्दी मे कौन है रवीन्द्रनाथ’ कहकर महात्माजी क्यों रह-रहकर चौंक उठते है; लेकिन मेरे लिये उस वक्त महात्माजी रहस्यवाद के विषय हो गए, कहीं खोजे ही नही मिले।
उनके कुछ भक्तों ने कहा, पता बताना मना है, लोग महात्माजी को परेशान करते है। कांग्रेस-आफ़िस में पूछने पर मालूम हुआ, उधर कहीं गोमती पार रहते है।
इतना विशद पता प्राप्त कर, गोमती के पुल के किनारे आकर खड़ा बाट जोह रहा था कि बापू की बकरी तांगे पर बैठाए एक आदमी लिए जा रहा था, और कुछ लखनउए लड़के ठहाका मार रहे थे। उनकी बातचीत से मुझे मालूम हुआ कि यह बापू की बकरी जा रही है। मै समझ गया, इसी रास्ते पर आगे कहीं ठहरे हैं। घर लौटा, और कपड़े बदले, फ़िर बापू के दर्शन के लिये एक्का कर के चला।युनिवर्सिटी के आगे जाते हुए रास्ते के दाई ओर एक बंगले मे महांत्माजी ठहरे थे। दिन, आठ का समय। जब गया, तब एक कमरे मे गांधीजी जवाहरलालजी और राजेन्द्रप्रसादजी आदि से बाते कर रहे थे, मालूम हुआ।
दरवाजे पर एक स्वयंसेवक पहरा दे रहा था। मैं बापू से मिलना चाहता हूं,सुनकर पहले उसी ने फ़ैसला दे दिया-’मुलाकात नही होगी।’
यद्यपि सिपाही से मजाक करना नियम नहीं, फ़िर भी मजाक का बदला चुकाने में कोई दोष भी नही,सोचकर मैने पूछा- “क्या आप महात्माजी के सिकत्तर है या पर्सनल असिस्टेंट?”
स्वयंसेवक झेंपा, और अपनी झेंप मिटाने कि लिये एक मर्तबा भीतर चला गया। मैंने एक चिट्ठी दी थी, वह उसने पहले ही वापस कर दी थी। दुबारा आने पर
मैने वह चिट्ठी फ़िर दिखाई, और कहा – “इतना तो आप पढ़े ही होंगे कि यह चिट्ठी किनके नाम. है उनके पास पहुंचा दें।”
चिट्ठी में मिलने की इच्छा जाहिर करते हुए वक्त पूछा गया था। स्वयंसेवक चिट्ठी भीतर रखकर क्षण-भर में लौटा, और कहा- “शाम को आइए। महात्माजी के
सेकेटरी महादेवजी देसाई की आज्ञा है।”
मेरे घर में कई कांग्रेस-दर्शक टिके थे। मै महात्माजी के दर्शनों के लिए उनसे बातचीत करने कि लिये शाम को जा रहा हूं, सुनकर उनमें दो साथ होने को
हुए- पं० वाचस्पतिजी पाठक और कुंवर चंद्रप्रकाशसिंह।
शाम को इन लोगो के साथ मैं चला। जब पहुंचा, तब स्त्रियों और पुरूषो का एक बड़ा दल इकट्ठा था। कुछ भीतर टहल रहे थे, कुछ रास्ते के दोनों बगल की कम
ऊंची दीवारों पर बैठे थे। मालूम हुआ, यह शाम की प्रार्थना में शरीक होने के लिये आए है।
किसी से परिचय न था। बिना परिचय के प्रवेश में सब जगह अड़चन पड़ती है। इसी समय शीतलासहाय, हिंदी के सुप्रसिद्ध निबंध-लेखक, बंगले से बाहर निकले।
इन्होंने मुझसे आने का कारण पूछा। मैंने बतलाया। इन्होंने कहा-”महात्माजी आजकल किसी से मिलते नही।”
मैंने कहा- “सुबह मैंने बहुतों से बातचीत करते देखा है।”
इन्होने- “वे बड़े-बड़े नेता हैं, उनसे सलाह लेने आते है।”
मैनें कहा- “ये जितने बड़े नेता है, मै उनसे बड़ा साहित्यिक हूं, और हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति को मुझसे मिलने में किसी तरह का संकोच न होना चाहिए।”
बाबू शीतलासहाय बहुत खुश हुए। बोले-” अभी जरा देर बाद महात्माजी बाहर प्रार्थना के लिये निकलेंगे, उस वक्त आप आइएगा, मै भी हूं, देसाईजी से आपको मिला दूंगा। अगर आज मुलाकात नहीं होगी, तो समय निर्धारित हो जायगा।”
मै बाहर आई०टी० कांलेज की तरफ़, पं० वाचस्पति पाठक और कुंअर चंद्रप्रकाशसिंह के साथ, टहलता हुआ निकल गया। रास्ते में सम्मिलित प्रार्थनार्थी कई जोड़े तपाक से बढ़ते हुए दिखे। मुझे खद्दर के वेश में देखकर उद्वेग से पूछा-”क्या प्रार्थना समाप्त हो गई।”
मैंने कहा-”नहीं।”
वे और तेज कदम बढ़े।
धीमे तिताले टहलता हुआ दोनो साहित्यिक मित्रों के साथ मैं आया कि प्रार्थनाथियो की पल्टन ध्यानावस्थित तदगतेन मनसा बैठी हुई देख पड़ी।……. मैं बैठना ही चाहता था कि एक महाशय ने जल्दबाजी करते हुए मुझे एक धक्का-सा देकर वह जगह छीन ली। वह कोई कांग्रेसी थे। मेरी इच्छा हुई कि कलाई पकड़कर घसीटूं, लेकिन महात्माजी आ गए थे. मैने शांति-भंग करना उचित नही समझा!
हम लोगों की तरफ़ से पं० वाचस्पति पाठक एक अच्छी जगह डट कर बैठे थे। मैं जमीन पर बैठा। अधिक-से-अधिक पांच मिनट वक्त लगा होगा, प्रार्थना समाप्त
हो गई। महात्माजी उठे और भीतर चले गए।
एक तो दुर्भाग्य से उस समय तक मैंने देसाईजी को देखा नही था, दूसरे ,मुंह-अंधेरे मुझे मालूम दे रहा था, यह आर०एस० पंडित है, तब भी शंका होती थी कि यह उनसे ज्यादा तगड़े है। इसी समय बाबू शीतलासहाय आए। मैने गर्जमंद की आवाज में उनसे कहा-”मै देसाईजी को पहचानता नही, आप मिला दीजिए।”
शीतलासहायजी मुझे देसाईजी के पास ले चले, और कुछ शब्दों में उनसे मेरी तरीफ़ की-जैसा कि कहते है- ये बड़े होनहार हैं। इसी समय श्रीमती कस्तूरी बाई उधर से गुजरी । मैं खड़ा था। उनका सिर मेरी कमर के कुछ ही ऊपर था, लेकिन भक्ति-भाव से हाथ जोड़कर मैंने उन्हें प्रणाम किया।
देसाईजी से बाते होने लगी। देसाईजी को यह मालूम होने पर कि मैं सुबह आया था, एक चिट्ठी दी थी, और स्वयंसेवक के कथनुसार देसाईजी ने शाम को मुझे
आने की आज्ञा दी है, देसाईजी को बड़ा आश्चर्य हुआ।
उन्होंने कहा- “न मुझे आपको कोई चिट्ठी मिली है, और न मैंने आपको आने को कहा है।”
इसके बाद उन्होंने पूछा-”आप महात्माजी से क्यों मिलना चाहते है?”
मैने कहां-”मै राजनीतिक महात्माजी से नही मिलना चाहता, मैं तो हिंदी-साहित्य के सभापति गांधीजी से मिलना चाहता हूं।”
इससे बातचीत का विषय स्पष्ट हो गया। देसाईजी एक शिष्ट, सभ्य, शिक्षित मनुष्य की तरह मुझे बंगले के भीतर प्रतीक्षा करने कि लिये कहकर महात्माजी
के कमरे की तरफ़ गए।
मै बंगले के बीचवाले कमरे में एक कोच पर बैठा प्रतीक्षा कर रहा था। तब मेरे बाल बड़े-बड़े थे, कवि की वेश-भूषा। नौजवान और नवयुवतियां मुझे सहर्ष
देख-देख जाने लगी। वायुमंडल, मनोमंडल, बदन-मंडल और भावमंडल मुझे बड़ा अच्छा लगा। महात्माजी की लोगों पर, युवक-युवतियों पर, जो छाप थी, उसकी
ह्रादिनी शक्ति ज्ञात हो गई।
महादेवजी देसाई आए, और कहा-”महात्माजी आपसे मिलेगे, बीस मिनट आपको वक्त दिया है, जाइए।”
मै भीतर चला, मेरे साथ पं० वाचस्पति पाठक और कुं० चंद्रप्रकाश। उत्तर तरफ़ के कमरे में महात्माजी थे, पास बाबू शिवप्रसादजी गुप्त, उनके सेक्रेटरी हास्य-रस के प्रसिद्ध लेखक अन्नपूर्णानंदजी मंगलाप्रसाद-पारितोषिक-प्रदाता स्व०मंगलाप्रसादजी के लड़के बैठे थे। उस समय तक व्यक्तिगत रूप से केवल बाबू शिवप्रसादजी को जानता था। महात्माजी सूक्ष्म मन के तार से इन लोगों से मिले, आगंतुक के लिये कुछ अपने में खिंचे, तैयार होते हुए-से दिखे।
कमरे के भीतर जाने के साथ मेरी निगाह महात्माजी की आंखो पर पड़ी। देखा, पुतलियों में बड़ी चालाकी है। हर्डल रेस, कुश्ती और फ़ुटबाल से मेरे दोनों पैरो मे गहरी चोटें आ चुकी है,इसलिये एकाएक घुटने तोड़कर भूमिष्ट प्रणाम नहीं कर सकता, फ़िर उन दिनों से अब तक बाएं पैर में वात या सायिटका। मैंने खड़े-ही-खड़े महात्माजी को हाथ जोड़कर प्रणाम किया।
प्रणाम-संबंध में मेरे साथियों ने मेरा अनुसरण किया। प्रणाम कर मैं महात्माजी के सामने बैठ गया। मेरे साथी भी बैठे। महात्माजी ने, मेरे बैठ जाने पर, उसी तरह हाथ जोड़कर मुझे प्रति नमस्कार किया। आंखों मे दिव्यता, जो बड़े आदमी में ही देखती है-बड़े धार्मिक आदमी में लेकिन द्रष्टि आधी बाहर-दुनिया को दी हुई जैसे, आधी भीतर- अपनी समझ की नाप के लिये। मेरा पहनावा विशुद्ध बंगाली, पंजाबी कुर्ता, धोती कोंछीदार, ऊपर से चद्दर खद्दर की।
महात्माजी ने पूछा-”आप किस प्रांत के रहनेवाले है?”
इस प्रश्न का गूढ़ संबंध बहुत दूर तक आदमी को ले जाता है। यहां नेता,राजनीति और प्रांतीयता की मनोवैज्ञानिक बातें रहने देता हूं, केवल इतना ही बहुत है, हिंदी का कवि हिंदी-विरोधी बंगली की वेश-भूषा में क्यों?
मैने जवाब दिया-” जी मैं यहीं उन्नाव जिले का रहनेवाला हूं।”
महात्माजी पर ताज्जुब की रेखाएं देखकर मैने कहा-”मै बंगाल मे पैदा हुआ हूं और बहुत दिन रह चुका हू।”
महात्माजी की शंका को पूरा समाधान मिला। वह स्थितप्रज्ञ हुए, लेकिन चुप रहे; क्योकि बातचीत मुझे करनी थी, प्रश्न मेरी तरफ़ से उठना था।
मैनें कहा-”आप जानते हैं, हिंदीवाले अधिकांश मे रूढ़िग्रस्त हैं। वे जड़ रूप ही समझते है, तत्त्व नही,। जो कथाएं पुराणों में आई हैं, उनके स्थूल रूप में सूक्ष्मतम तत्त्व भी है। संपादक और साहित्यिक भी, अधिक संख्या में, इनसे अज्ञ है। वे समझने की कोशिश भी नही करते, उल्टे मुखलिफ़त करते है। हम लोगों के भाव इसीलिए प्रचलित नही हो पाए। देश की स्वतंत्रता के लिये पहले समझ की स्वतंत्रता जरूरी है। मैं आपसे निवेदन करने आया हूं कि आप हिंदी की इन चीजों का कुछ हिस्सा सुने।”
महात्माजी-”मै गुजराती बोलता हूं. लेकिन गुजराती का साहित्य भी बहुत कुछ मेरी समझ में नहीं आता।”
“मैंने गीता पर लिखी आपकी टीका देखी है। आप गहरे जाते है और दूर की पकड़ आपको मालूम है, आपने उसमें समझाने की कोशिश की है।”
महात्माजी- “मैं तो बहुत उथला आदमी हूं।”
मैं-”हम लोग उथले में रहे हुए को गहरे में रहा हुआ साबित करने की ताकत रखते हैं।”
महात्माजी चुप रहे।
मैने कहा-”आपके सभापति के अभिभाषण मे हिंदी के साहित्य और साहित्यिकों के संबंध में, जहां तक मुझे स्मरण है, आपने एकाधिक बार पं० बनारसीदास चतुर्वेदी का नाम सिर्फ़ लिया है। इसका हिंदी के साहित्यिको पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, क्या आपने सोचा था?”
महात्माजी-”मै तो हिंदी कुछ भी नही जानता।”
मै-”तो आपको क्या अधिकार है कि आप कहें कि हिंदी मे रवींद्रनाथ ठाकुर कौन हैं?
महात्माजी- “मेरे कहने का मतलब कुछ और था”।
मैं-” यानी आप रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जैसा साहित्यिक हिंदी मे नही देखना चाहते, प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर का नाती या बोबुल-पुरस्कार-प्राप्त मनुष्य देखना चाहते है, यह?”
कुल सभा सन्न हो गई। लोग ताज्जुब से मेरी तरफ़ देखने लगे। कुं० चंद्रप्रकाश से पहले मै कह चुका था कि महात्माजी की बातें लिख लें, लेकिन वह इस समय तक तन्मय होकर केवल सुन रहे थे। मैंने उनकी तरफ़ देखा, तो वह समझकर लिखने लगे। साथ ही महादेव देसाई के हाथ में जैसे बिजली की बैटरी लगा दी गई, वह भी झपाटे से लिखने लगे। बाबू शिवप्रसाद गुप्त का दल जैसे दलदल मे फ़ंस गया हो। शिवप्रसाद हैरान होकर मुझे देख लेते थे। उनके सेकेटरी बाबू अन्नपूर्णानंद मुझे देख-देखकर जैसे बहुत परेशान हो रहे हो।
मैंने स्वस्थ-चित्त हो महात्माजी से कहा-”बंगला मेरी वैसी ही मात्र-भाषा है, जैसे हिंदी। रवींद्रनाथ का पूरा साहित्य मैने पढ़ा है। मैं आपसे आधा घंटा समय चाहता हूं। कुछ चीजें चुनी हुई रवीद्रनाथ की सुनाऊंगा, उनकी कला का विवेचन करूंगा, साथ कुछ हिंदी की चीजें सुनाऊंगा।”
महात्माजी-”मेरे पास समय नही है।”
मै हैरान होकर हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति को देखता रहा, जो राजनीतिक रूप से देश के नेताओं को रास्ता बतलाता है, बेमतलब पहरों तकली चलाता है, प्रार्थना में मुर्दे गाने सुनता है, हिंदी -साहित्य-सम्मेलन का सभापति है, लेकिन हिंदी के कवि को आधा घंटा वक्त नही देता- अपरिणामदर्शी की तरह जो जी में आता है, खुली सभा में कह जाता है, सामने बंगले झांकता है!
मैनें अपना उल्लिखित मनोभाव दबा लिया। नम्र होकर कहा- “महात्माजी, मेरी चीजों की आम जनता में कद्र नही हुई। इसकी वजह है। आप अगर कुछ सुन लेते,
तो मुमकिन, अच्छा होता।”
महात्माजी -”आप अपनी किताबें मेरे पास भेज दीजिएगा।”
जैसे किसी ने चांटा मारा। अब किसी की आलोचना से, किसी की तारीफ़ से आगे आने की अपेक्षा मुझे नहीं रही। मैं खुद तमाम मुश्किलों को झेलता हुआ,
अड़चनो को पार करता हुआ, सामने आ चुका हूं।
मैने मजाक में कहा- “आप अपने यहां के हिंदी के जानकारों के नाम बतलाइए, जो मेरी किताबों पर राय देगे। आपको हिंदी अच्छी नही आती, आप कह ही चुके हैं।” कहकर मैं हंसा।
महात्माजी भी खूब खुलकर हंसे।
मैने कहा-” एक है पं० वनारसीदास चतुर्वेदी, विशाल भारत के संपादक, पत्र के साथ जिनका नाम शायद आपने दो बार लिया है। यह कुछ दिन रहे हैं आपके पास और कुछ दिन रवींद्रनाथ के यहां। विशाल भारत के संपादक के लिये यही उनकी सबसे बड़ी योग्यता ठहरी!”
महात्मा गांधी- “हां”
मैं-”अगर मैं भूलता नही तो, कवि श्री मैथिलीशरणजी गुप्त के साकेत की भाषा को आपने मुश्किल कहा।”
महात्माजी-”हां”।
मै-” फ़िर मेरे तुलसीदास की भाषा का क्या हाल होगा?”
महात्माजी कुछ दुचित्ते-से हुए। तुलसीदास के नाम पर मुमकिन, भ्रम हुआ हो, मैं तुलसीदास की भाषा का जिक्र कर रहा हूं।
अब तक बीस मिनट पूरे हो चुके थे। महात्माजी मौन हो गए। मैंने कहा- “महात्माजी, अगर वक्त हो गया हो तो मै प्रणाम कर विदा होऊं?”
महात्माजी ने कहा- “हां, मै तो पहले ही कह चुका हूं।”
उठकर, मैंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया, और शिवप्रसादजी से फ़िर दर्शन करने के लिये कहकर बाहर निकला।
घर आने पर महात्माजी की रायवाली बात पर मुझे एक लोकोक्ति याद आई। सोचा, इस लोकोक्ति से महात्माजी को पत्र लिखूं। लोकोक्ति यह है-
किसी महाजन के एक घोड़ा था। वह उसकी बड़ी देख-भाल रखते थे। एक दिन उनके किसी पड़ोसी को कहीं जाना था। वह महाजन के यहां गए, और कहा- “सवारी के लिये मुझे आप अपना घोड़ा दे दीजिए।”
महाजन ने कहा-” घोड़ा नहीं है।”
पड़ोसी को विश्वास न हुआ। वह वही खड़े रहे। कुछ देर बाद घोड़ा हिनहिनाया।
पड़ोसी ने कहा -” आप कहते थे, घोड़ा नही है, घोड़ा तो है।”
महाजन ने कहा-” तुम हमारी आवाज नही समझे, घोड़े की आवाज समझे।”
पत्र में मै इतना और लिखता- “महात्माजी, मैं आप ही की आवाज पहचान गया। किताब भेजकर आपके घोड़े की आवाज नही पहचानना चाहता”।
कवि सियारामशरणजी को अपने पत्र का मजबून सुनाया, तो उन्होंने कहा-” महात्माजी का स्वास्थ्य आजकल अच्छा नही हैं, आप ऎसा न लिखे।”
मेरी पसन्द
विचार, साप्ताहिक, कलकत्ता, में १४ जुलाई, १९४० को प्रकाशित
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को निराला बहुत मानते थे। हिंदी में लिखना शुरू करने पर उनका आशीर्वाद मांगा। एक बार अपने गांव गढ़ाकोला(उन्नाव) से दौलतपुर(उन्नाव) की १६-१७ मील की दूरी पैदल तय करके द्विवेदीजी से मिलने गये।
जब निरालाजी ने ‘मतवाला’ निकालना शुरू किया तो ‘सरस्वती ‘ पत्रिका की कुछ आलोचना भी की। सरस्वती पत्रिका से द्विवेदी जी जुड़े रहे थे इसलिये स्वाभाविकत: उन्हें अच्छा न लगा। इसके बाद निरालाजी ने अपनी एक कविता द्विवेदी जी के पास सम्मति के लिये भेजी तो उन्होंने ‘मतवाला‘ का पूरा अंक रंग डाला। उसकी तमाम अशुद्दियां दिखाकर उसे निराला के पास भेज दिया।
निराला ने उनको लिखा-सरस्वती-सम्पादक के विषय म लिखै बैठेन तो हमहूं ५/६ पन्ना लिखि डारा। मुला पीछे जाना कि तुम्हार समय अकारण नष्ट होई तब फारि डारा।( सरस्वती संपादक के विषय में लिखने बैठा तो हमने भी ५/६ पन्ने लिख डाले लेकिन जब सोचा कि आपका समय बेकार मेंनष्ट होगा तो उनको फाड़ डाला)
मतलब निरालाजी ने अपने गुरुदेव को बताया कि हमने आपके प्रिय पत्र की आलोचना नहीं की इसलिये कि आपका जवाब देने में बेकार समय नष्ट होगा।
निराला नयी कविता के प्रवर्तक थे। ‘छायावाद‘ शब्द प्रसिद्ध हो गया था। उन्होंने जहां किसी को नयी कविता की नुक्ताचीनी करते पाया कि उस पर दुहत्था वार किया। लतीफे और चुटकुले उनको खूब याद थे। इनका उपयोग बड़े कौशल से करते थे। किन्हीं स्वामी नारायणानन्द सरस्वती ने छायवादी कविता का मजाक उड़ाया था। निराला ने उन्हें आड़े हाथों लिया,” ‘छायावाद‘ पर आपने जो कुछ लिखा है, उसे पढकर हमें एक देहाती कहावत याद आ गयी। किसी लड़के ने अपने पिता से कहा था, बाबूजी मैं भी ‘फफीम’ खाउंगा। पिता ने जवाब दिया, पहले नाम सीख लो, फिर ‘फफीम’ खाना।” मतलब पहले कविता सीख लो तब उसकी आलोचना करना!
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के छायावाद विरोधी कवित्त का उदाहरण देते हुये उन्होंने लिखा-”साहित्य में इस तरह की आवाज, प्रचार आदि यद्यपि इस समय असभ्यता और गंवारपन का परिचय देते हैं, परन्तु हमारे लिये इसको स्वीकार करने के सिवा दूसरा उपाय ही क्या है? अतएव शुक्लजी गद्य में लिखें, हम उन्हें उत्तर देने के लिये तैयार हैं। अवश्य पद्य में इस तरह की बकवास करन हम नहीं जानते।”
‘विशाल भारत’ के सम्पादक बनारसी दास चतुर्वेदी छायावाद के प्रखर विरोधी थे। उन्होंने लिखा- “गदर मचा हुआ है। कहां? हिंदी साहित्य में। जाने कहां-कहां के वाद ढूंढ़ निकाले हैं, छायावाद,कायावाद, मायावाद।”
जोशी बन्धुओं ने भी निराला की आलोचना की। निराला ने लेख लिखा- ‘कला के विरह में जोशी बन्धु’। उन्होंने लिखा- “जिस रोज मैंने साहित्य के खाते में नाम लिखाया, उसी रोज से हिंदी साहित्य के आचार्यों ने पाठ पढ़ाना शुरू कर दिया कि जब तक जियो, अपने हाथों अपनी नाक काट कर दूसरों का सगुन बिगाड़ते रहो, बस साहित्य सेवा के यही मायने हैं।”
निराला के विरोधी जितना ही दांत पीस रहे थे, निराला उन पर उतना ही हंस रहे थे, उन्हें और चिढ़ा रहे थे। जैसे कोई बड़ा पहलवान किसी नौसिखिये को खिला-खिलाकर अखाड़े में पटकता है, वैसे ही निराला ने जोशी बन्धुओं को उछाला फिर से पटका। उनके अनर्गल शब्दजाल को अपनी तीक्ष्ण तार्किक निगाह से छिन्न-भिन्न कर डाला।
रवीन्द्र नाथ टैगोर निराला के प्रिय कवि थे। उनके गीत वे गाते-गुनगुनाते रहते। लेकिन बात जब भाषाऒं की तुलना की आ जाये तो वे अपने को टैगोर कम नहीं मानते थे। बांगला भाषा से उनकी सहज प्रीति और टैगोरे की तारीफ की बात अलग थी लेकिन जब बात हिंदी और हिंदी कवियों से तुलना की आती तो निराला बंगाली की तमाम कमियां गिनाने लगते और गुरुदेव के आध्यात्मिक काव्य दोष गिनाने लगते।
ऐसे ही एक बार महात्मा गांधी जो कि हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे उनसे भी निराला जी भिड़ गये। महात्मा जी ने इंदौर के साहित्य सम्मेलन में अपने उदगार व्यक्त किये- “इस मौके पर अपने दुख की भी कुछ कहानी कह दूं। हिंदी भाषा राष्ट्रभाषा बने या न बने, मैं उसे छोड़ नहीं सकता। तुलसीदास का पुजारी होने के कारण हिंदी पर मेरा मोह रहेगा ही। लेकिन हिंदी बोलने वालों में रवीन्द्रनाथ कहां हैं? प्रफुल्लचन्द्र राय कहां हैं? जगदीश बोस कहां हैं? ऐसे और भी नाम मैं बता सकता हूं। मैं जानता हूं कि मेरी अथवा मेरे जैसे हजारों की इच्छा मात्र से ऐसे व्यक्ति थोड़े ही पैदा होने वाले हैं। लेकिन जिस भाषा को राष्ट्रभाषा बनना है उसमें ऐसे महान व्यक्तियों के होने की आशा रखी ही जायेगी।”
निरालाजी जगदीश चन्द्र बोस और प्रफुल्लचन्द्र राय का नाम तो जल्दी भूल गये लेकिन उनके मन में एक नाम अटका रहा-रवीन्द्रनाथ। गांधीजी पूछ रहे हैं- “हिंदी में रवीन्द्रनाथ कहां है?”
फिर लखनऊ में महात्मा गांधी से मुलाकात करके निरालाजी अपनी बात कहनी चाही कि हिंदी में रवीन्द्रनाथ कौन है लेकिन महात्माजी के पास समय नहीं था उनको सुनने का।
इस बातचीत का विवरण निरालाजी ने दिया है अपनी आत्मकथा में। यह विवरण पढ़िये और देखिये कि किस तरह निरालाजी ने गांधीजी को एक तरह से टोंका कि जब वे हिंदी के बारे में कुछ जानते नहीं तो उसके बारे में बयान क्यों जारी करते हैं।
यह उन दिनों बहुत बड़ी बात थी कि गांधीजी, जिनको पूरा देश अपना मसीहा मानता हो, एक हिंदी का साहित्यकार टोंके कि आपको जब हिंदी के बारे में पता नहीं तो आप फतवे क्यों जारी करते हैं।
लेकिन यह निराला ने किया। क्योंकि वे निराले थे। किसी से भी दबते नहीं थे। सम्मान अपनी जगह लेकिन स्वाभिमान अपनी जगह।
यहां निराला जी से गांधीजी से बातचीत दी जा रही है। निरालाजी के इस लेख से उस समय की स्थिति का अन्दाजा भी लगता है। इस बातचीत के बाद ही निरालाजी कविता/ पैरोडी दी जा रही है जो उन्होंने बापू के प्रति लिखी थी।
हिंदी बनाम हिंदुस्तानी : बापू से दो बातें
कौन है हिंदी में रवीद्रनाथ ठाकुर, जगदीशचंद्र बसु, प्रफ़ुल्लचंद्र राय?”इस आवाज पर हिंदी के पात्रों ने आवाजाकशी की। इत्तिफ़ाक, लखनऊ-कांग्रेस शुरू हुई। महात्माजी आए। हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के संग्रहालय का उदघाटन था, महात्माजी दरवाजा खोलने के लिये बुलाए गए। उस वक्त उन्होंने फ़िर वैसी ही एक आवाज लगाई।
हर आवाज का अच्छा मतलब भी हासिल होता है, हम निकाल लेते हैं, लेकिन व्यवहार में भी अगर आवाजाकशी हुई, तो संभले-से-संभला आदमी भी नही संभल
सकता। चूंकि महात्माजी लखनऊ में टिके हुए थे, इसलिये पता लगाना लाजिमी हो गया, उन्होंने यह आवाज लगाई या आवाजाकशी की।
तबियत में आया, महात्माजी से बातचीत की जाय, ‘हिन्दी मे कौन है रवीन्द्रनाथ’ कहकर महात्माजी क्यों रह-रहकर चौंक उठते है; लेकिन मेरे लिये उस वक्त महात्माजी रहस्यवाद के विषय हो गए, कहीं खोजे ही नही मिले।
उनके कुछ भक्तों ने कहा, पता बताना मना है, लोग महात्माजी को परेशान करते है। कांग्रेस-आफ़िस में पूछने पर मालूम हुआ, उधर कहीं गोमती पार रहते है।
इतना विशद पता प्राप्त कर, गोमती के पुल के किनारे आकर खड़ा बाट जोह रहा था कि बापू की बकरी तांगे पर बैठाए एक आदमी लिए जा रहा था, और कुछ लखनउए लड़के ठहाका मार रहे थे। उनकी बातचीत से मुझे मालूम हुआ कि यह बापू की बकरी जा रही है। मै समझ गया, इसी रास्ते पर आगे कहीं ठहरे हैं। घर लौटा, और कपड़े बदले, फ़िर बापू के दर्शन के लिये एक्का कर के चला।युनिवर्सिटी के आगे जाते हुए रास्ते के दाई ओर एक बंगले मे महांत्माजी ठहरे थे। दिन, आठ का समय। जब गया, तब एक कमरे मे गांधीजी जवाहरलालजी और राजेन्द्रप्रसादजी आदि से बाते कर रहे थे, मालूम हुआ।
दरवाजे पर एक स्वयंसेवक पहरा दे रहा था। मैं बापू से मिलना चाहता हूं,सुनकर पहले उसी ने फ़ैसला दे दिया-’मुलाकात नही होगी।’
यद्यपि सिपाही से मजाक करना नियम नहीं, फ़िर भी मजाक का बदला चुकाने में कोई दोष भी नही,सोचकर मैने पूछा- “क्या आप महात्माजी के सिकत्तर है या पर्सनल असिस्टेंट?”
स्वयंसेवक झेंपा, और अपनी झेंप मिटाने कि लिये एक मर्तबा भीतर चला गया। मैंने एक चिट्ठी दी थी, वह उसने पहले ही वापस कर दी थी। दुबारा आने पर
मैने वह चिट्ठी फ़िर दिखाई, और कहा – “इतना तो आप पढ़े ही होंगे कि यह चिट्ठी किनके नाम. है उनके पास पहुंचा दें।”
चिट्ठी में मिलने की इच्छा जाहिर करते हुए वक्त पूछा गया था। स्वयंसेवक चिट्ठी भीतर रखकर क्षण-भर में लौटा, और कहा- “शाम को आइए। महात्माजी के
सेकेटरी महादेवजी देसाई की आज्ञा है।”
मेरे घर में कई कांग्रेस-दर्शक टिके थे। मै महात्माजी के दर्शनों के लिए उनसे बातचीत करने कि लिये शाम को जा रहा हूं, सुनकर उनमें दो साथ होने को
हुए- पं० वाचस्पतिजी पाठक और कुंवर चंद्रप्रकाशसिंह।
शाम को इन लोगो के साथ मैं चला। जब पहुंचा, तब स्त्रियों और पुरूषो का एक बड़ा दल इकट्ठा था। कुछ भीतर टहल रहे थे, कुछ रास्ते के दोनों बगल की कम
ऊंची दीवारों पर बैठे थे। मालूम हुआ, यह शाम की प्रार्थना में शरीक होने के लिये आए है।
किसी से परिचय न था। बिना परिचय के प्रवेश में सब जगह अड़चन पड़ती है। इसी समय शीतलासहाय, हिंदी के सुप्रसिद्ध निबंध-लेखक, बंगले से बाहर निकले।
इन्होंने मुझसे आने का कारण पूछा। मैंने बतलाया। इन्होंने कहा-”महात्माजी आजकल किसी से मिलते नही।”
मैंने कहा- “सुबह मैंने बहुतों से बातचीत करते देखा है।”
इन्होने- “वे बड़े-बड़े नेता हैं, उनसे सलाह लेने आते है।”
मैनें कहा- “ये जितने बड़े नेता है, मै उनसे बड़ा साहित्यिक हूं, और हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति को मुझसे मिलने में किसी तरह का संकोच न होना चाहिए।”
बाबू शीतलासहाय बहुत खुश हुए। बोले-” अभी जरा देर बाद महात्माजी बाहर प्रार्थना के लिये निकलेंगे, उस वक्त आप आइएगा, मै भी हूं, देसाईजी से आपको मिला दूंगा। अगर आज मुलाकात नहीं होगी, तो समय निर्धारित हो जायगा।”
मै बाहर आई०टी० कांलेज की तरफ़, पं० वाचस्पति पाठक और कुंअर चंद्रप्रकाशसिंह के साथ, टहलता हुआ निकल गया। रास्ते में सम्मिलित प्रार्थनार्थी कई जोड़े तपाक से बढ़ते हुए दिखे। मुझे खद्दर के वेश में देखकर उद्वेग से पूछा-”क्या प्रार्थना समाप्त हो गई।”
मैंने कहा-”नहीं।”
वे और तेज कदम बढ़े।
धीमे तिताले टहलता हुआ दोनो साहित्यिक मित्रों के साथ मैं आया कि प्रार्थनाथियो की पल्टन ध्यानावस्थित तदगतेन मनसा बैठी हुई देख पड़ी।……. मैं बैठना ही चाहता था कि एक महाशय ने जल्दबाजी करते हुए मुझे एक धक्का-सा देकर वह जगह छीन ली। वह कोई कांग्रेसी थे। मेरी इच्छा हुई कि कलाई पकड़कर घसीटूं, लेकिन महात्माजी आ गए थे. मैने शांति-भंग करना उचित नही समझा!
हम लोगों की तरफ़ से पं० वाचस्पति पाठक एक अच्छी जगह डट कर बैठे थे। मैं जमीन पर बैठा। अधिक-से-अधिक पांच मिनट वक्त लगा होगा, प्रार्थना समाप्त
हो गई। महात्माजी उठे और भीतर चले गए।
एक तो दुर्भाग्य से उस समय तक मैंने देसाईजी को देखा नही था, दूसरे ,मुंह-अंधेरे मुझे मालूम दे रहा था, यह आर०एस० पंडित है, तब भी शंका होती थी कि यह उनसे ज्यादा तगड़े है। इसी समय बाबू शीतलासहाय आए। मैने गर्जमंद की आवाज में उनसे कहा-”मै देसाईजी को पहचानता नही, आप मिला दीजिए।”
शीतलासहायजी मुझे देसाईजी के पास ले चले, और कुछ शब्दों में उनसे मेरी तरीफ़ की-जैसा कि कहते है- ये बड़े होनहार हैं। इसी समय श्रीमती कस्तूरी बाई उधर से गुजरी । मैं खड़ा था। उनका सिर मेरी कमर के कुछ ही ऊपर था, लेकिन भक्ति-भाव से हाथ जोड़कर मैंने उन्हें प्रणाम किया।
देसाईजी से बाते होने लगी। देसाईजी को यह मालूम होने पर कि मैं सुबह आया था, एक चिट्ठी दी थी, और स्वयंसेवक के कथनुसार देसाईजी ने शाम को मुझे
आने की आज्ञा दी है, देसाईजी को बड़ा आश्चर्य हुआ।
उन्होंने कहा- “न मुझे आपको कोई चिट्ठी मिली है, और न मैंने आपको आने को कहा है।”
इसके बाद उन्होंने पूछा-”आप महात्माजी से क्यों मिलना चाहते है?”
मैने कहां-”मै राजनीतिक महात्माजी से नही मिलना चाहता, मैं तो हिंदी-साहित्य के सभापति गांधीजी से मिलना चाहता हूं।”
इससे बातचीत का विषय स्पष्ट हो गया। देसाईजी एक शिष्ट, सभ्य, शिक्षित मनुष्य की तरह मुझे बंगले के भीतर प्रतीक्षा करने कि लिये कहकर महात्माजी
के कमरे की तरफ़ गए।
मै बंगले के बीचवाले कमरे में एक कोच पर बैठा प्रतीक्षा कर रहा था। तब मेरे बाल बड़े-बड़े थे, कवि की वेश-भूषा। नौजवान और नवयुवतियां मुझे सहर्ष
देख-देख जाने लगी। वायुमंडल, मनोमंडल, बदन-मंडल और भावमंडल मुझे बड़ा अच्छा लगा। महात्माजी की लोगों पर, युवक-युवतियों पर, जो छाप थी, उसकी
ह्रादिनी शक्ति ज्ञात हो गई।
महादेवजी देसाई आए, और कहा-”महात्माजी आपसे मिलेगे, बीस मिनट आपको वक्त दिया है, जाइए।”
मै भीतर चला, मेरे साथ पं० वाचस्पति पाठक और कुं० चंद्रप्रकाश। उत्तर तरफ़ के कमरे में महात्माजी थे, पास बाबू शिवप्रसादजी गुप्त, उनके सेक्रेटरी हास्य-रस के प्रसिद्ध लेखक अन्नपूर्णानंदजी मंगलाप्रसाद-पारितोषिक-प्रदाता स्व०मंगलाप्रसादजी के लड़के बैठे थे। उस समय तक व्यक्तिगत रूप से केवल बाबू शिवप्रसादजी को जानता था। महात्माजी सूक्ष्म मन के तार से इन लोगों से मिले, आगंतुक के लिये कुछ अपने में खिंचे, तैयार होते हुए-से दिखे।
कमरे के भीतर जाने के साथ मेरी निगाह महात्माजी की आंखो पर पड़ी। देखा, पुतलियों में बड़ी चालाकी है। हर्डल रेस, कुश्ती और फ़ुटबाल से मेरे दोनों पैरो मे गहरी चोटें आ चुकी है,इसलिये एकाएक घुटने तोड़कर भूमिष्ट प्रणाम नहीं कर सकता, फ़िर उन दिनों से अब तक बाएं पैर में वात या सायिटका। मैंने खड़े-ही-खड़े महात्माजी को हाथ जोड़कर प्रणाम किया।
प्रणाम-संबंध में मेरे साथियों ने मेरा अनुसरण किया। प्रणाम कर मैं महात्माजी के सामने बैठ गया। मेरे साथी भी बैठे। महात्माजी ने, मेरे बैठ जाने पर, उसी तरह हाथ जोड़कर मुझे प्रति नमस्कार किया। आंखों मे दिव्यता, जो बड़े आदमी में ही देखती है-बड़े धार्मिक आदमी में लेकिन द्रष्टि आधी बाहर-दुनिया को दी हुई जैसे, आधी भीतर- अपनी समझ की नाप के लिये। मेरा पहनावा विशुद्ध बंगाली, पंजाबी कुर्ता, धोती कोंछीदार, ऊपर से चद्दर खद्दर की।
महात्माजी ने पूछा-”आप किस प्रांत के रहनेवाले है?”
इस प्रश्न का गूढ़ संबंध बहुत दूर तक आदमी को ले जाता है। यहां नेता,राजनीति और प्रांतीयता की मनोवैज्ञानिक बातें रहने देता हूं, केवल इतना ही बहुत है, हिंदी का कवि हिंदी-विरोधी बंगली की वेश-भूषा में क्यों?
मैने जवाब दिया-” जी मैं यहीं उन्नाव जिले का रहनेवाला हूं।”
महात्माजी पर ताज्जुब की रेखाएं देखकर मैने कहा-”मै बंगाल मे पैदा हुआ हूं और बहुत दिन रह चुका हू।”
महात्माजी की शंका को पूरा समाधान मिला। वह स्थितप्रज्ञ हुए, लेकिन चुप रहे; क्योकि बातचीत मुझे करनी थी, प्रश्न मेरी तरफ़ से उठना था।
मैनें कहा-”आप जानते हैं, हिंदीवाले अधिकांश मे रूढ़िग्रस्त हैं। वे जड़ रूप ही समझते है, तत्त्व नही,। जो कथाएं पुराणों में आई हैं, उनके स्थूल रूप में सूक्ष्मतम तत्त्व भी है। संपादक और साहित्यिक भी, अधिक संख्या में, इनसे अज्ञ है। वे समझने की कोशिश भी नही करते, उल्टे मुखलिफ़त करते है। हम लोगों के भाव इसीलिए प्रचलित नही हो पाए। देश की स्वतंत्रता के लिये पहले समझ की स्वतंत्रता जरूरी है। मैं आपसे निवेदन करने आया हूं कि आप हिंदी की इन चीजों का कुछ हिस्सा सुने।”
महात्माजी-”मै गुजराती बोलता हूं. लेकिन गुजराती का साहित्य भी बहुत कुछ मेरी समझ में नहीं आता।”
“मैंने गीता पर लिखी आपकी टीका देखी है। आप गहरे जाते है और दूर की पकड़ आपको मालूम है, आपने उसमें समझाने की कोशिश की है।”
महात्माजी- “मैं तो बहुत उथला आदमी हूं।”
मैं-”हम लोग उथले में रहे हुए को गहरे में रहा हुआ साबित करने की ताकत रखते हैं।”
महात्माजी चुप रहे।
मैने कहा-”आपके सभापति के अभिभाषण मे हिंदी के साहित्य और साहित्यिकों के संबंध में, जहां तक मुझे स्मरण है, आपने एकाधिक बार पं० बनारसीदास चतुर्वेदी का नाम सिर्फ़ लिया है। इसका हिंदी के साहित्यिको पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, क्या आपने सोचा था?”
महात्माजी-”मै तो हिंदी कुछ भी नही जानता।”
मै-”तो आपको क्या अधिकार है कि आप कहें कि हिंदी मे रवींद्रनाथ ठाकुर कौन हैं?
महात्माजी- “मेरे कहने का मतलब कुछ और था”।
मैं-” यानी आप रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जैसा साहित्यिक हिंदी मे नही देखना चाहते, प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर का नाती या बोबुल-पुरस्कार-प्राप्त मनुष्य देखना चाहते है, यह?”
कुल सभा सन्न हो गई। लोग ताज्जुब से मेरी तरफ़ देखने लगे। कुं० चंद्रप्रकाश से पहले मै कह चुका था कि महात्माजी की बातें लिख लें, लेकिन वह इस समय तक तन्मय होकर केवल सुन रहे थे। मैंने उनकी तरफ़ देखा, तो वह समझकर लिखने लगे। साथ ही महादेव देसाई के हाथ में जैसे बिजली की बैटरी लगा दी गई, वह भी झपाटे से लिखने लगे। बाबू शिवप्रसाद गुप्त का दल जैसे दलदल मे फ़ंस गया हो। शिवप्रसाद हैरान होकर मुझे देख लेते थे। उनके सेकेटरी बाबू अन्नपूर्णानंद मुझे देख-देखकर जैसे बहुत परेशान हो रहे हो।
मैंने स्वस्थ-चित्त हो महात्माजी से कहा-”बंगला मेरी वैसी ही मात्र-भाषा है, जैसे हिंदी। रवींद्रनाथ का पूरा साहित्य मैने पढ़ा है। मैं आपसे आधा घंटा समय चाहता हूं। कुछ चीजें चुनी हुई रवीद्रनाथ की सुनाऊंगा, उनकी कला का विवेचन करूंगा, साथ कुछ हिंदी की चीजें सुनाऊंगा।”
महात्माजी-”मेरे पास समय नही है।”
मै हैरान होकर हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति को देखता रहा, जो राजनीतिक रूप से देश के नेताओं को रास्ता बतलाता है, बेमतलब पहरों तकली चलाता है, प्रार्थना में मुर्दे गाने सुनता है, हिंदी -साहित्य-सम्मेलन का सभापति है, लेकिन हिंदी के कवि को आधा घंटा वक्त नही देता- अपरिणामदर्शी की तरह जो जी में आता है, खुली सभा में कह जाता है, सामने बंगले झांकता है!
मैनें अपना उल्लिखित मनोभाव दबा लिया। नम्र होकर कहा- “महात्माजी, मेरी चीजों की आम जनता में कद्र नही हुई। इसकी वजह है। आप अगर कुछ सुन लेते,
तो मुमकिन, अच्छा होता।”
महात्माजी -”आप अपनी किताबें मेरे पास भेज दीजिएगा।”
जैसे किसी ने चांटा मारा। अब किसी की आलोचना से, किसी की तारीफ़ से आगे आने की अपेक्षा मुझे नहीं रही। मैं खुद तमाम मुश्किलों को झेलता हुआ,
अड़चनो को पार करता हुआ, सामने आ चुका हूं।
मैने मजाक में कहा- “आप अपने यहां के हिंदी के जानकारों के नाम बतलाइए, जो मेरी किताबों पर राय देगे। आपको हिंदी अच्छी नही आती, आप कह ही चुके हैं।” कहकर मैं हंसा।
महात्माजी भी खूब खुलकर हंसे।
मैने कहा-” एक है पं० वनारसीदास चतुर्वेदी, विशाल भारत के संपादक, पत्र के साथ जिनका नाम शायद आपने दो बार लिया है। यह कुछ दिन रहे हैं आपके पास और कुछ दिन रवींद्रनाथ के यहां। विशाल भारत के संपादक के लिये यही उनकी सबसे बड़ी योग्यता ठहरी!”
महात्मा गांधी- “हां”
मैं-”अगर मैं भूलता नही तो, कवि श्री मैथिलीशरणजी गुप्त के साकेत की भाषा को आपने मुश्किल कहा।”
महात्माजी-”हां”।
मै-” फ़िर मेरे तुलसीदास की भाषा का क्या हाल होगा?”
महात्माजी कुछ दुचित्ते-से हुए। तुलसीदास के नाम पर मुमकिन, भ्रम हुआ हो, मैं तुलसीदास की भाषा का जिक्र कर रहा हूं।
अब तक बीस मिनट पूरे हो चुके थे। महात्माजी मौन हो गए। मैंने कहा- “महात्माजी, अगर वक्त हो गया हो तो मै प्रणाम कर विदा होऊं?”
महात्माजी ने कहा- “हां, मै तो पहले ही कह चुका हूं।”
उठकर, मैंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया, और शिवप्रसादजी से फ़िर दर्शन करने के लिये कहकर बाहर निकला।
घर आने पर महात्माजी की रायवाली बात पर मुझे एक लोकोक्ति याद आई। सोचा, इस लोकोक्ति से महात्माजी को पत्र लिखूं। लोकोक्ति यह है-
किसी महाजन के एक घोड़ा था। वह उसकी बड़ी देख-भाल रखते थे। एक दिन उनके किसी पड़ोसी को कहीं जाना था। वह महाजन के यहां गए, और कहा- “सवारी के लिये मुझे आप अपना घोड़ा दे दीजिए।”
महाजन ने कहा-” घोड़ा नहीं है।”
पड़ोसी को विश्वास न हुआ। वह वही खड़े रहे। कुछ देर बाद घोड़ा हिनहिनाया।
पड़ोसी ने कहा -” आप कहते थे, घोड़ा नही है, घोड़ा तो है।”
महाजन ने कहा-” तुम हमारी आवाज नही समझे, घोड़े की आवाज समझे।”
पत्र में मै इतना और लिखता- “महात्माजी, मैं आप ही की आवाज पहचान गया। किताब भेजकर आपके घोड़े की आवाज नही पहचानना चाहता”।
कवि सियारामशरणजी को अपने पत्र का मजबून सुनाया, तो उन्होंने कहा-” महात्माजी का स्वास्थ्य आजकल अच्छा नही हैं, आप ऎसा न लिखे।”
मेरी पसन्द
“बापू, तुम मुर्गी खाते यदि,
तो क्या भजते होते तुमको
ऎरे-गैरे नत्थू खैरे;
सर के बल खड़े हुए होते
हिंदी के इतने लेखक-कवि?
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि? बापू,तुम मुर्गी खाते यदि,
तो लोकमान्य से क्या तुमने
लोहा भी कभी लिया होता,
दक्खिन में हिंदी चलवाकर
लखते हिंदुस्तानी की छवि?
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?
तो क्या अवतार हुये होते
कुल-के-कुल कायथ बनियों के?
दुनिया के सबसे बड़े पुरुष
आदम-भेड़ों के होते भी!
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि,
तो क्या पटेल, राजन, टण्डन,
गोपालाचारी भी भजते?-
भजता होता तुमको मैं औ’
मेरी प्यारी अल्लारक्खी,
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?
विचार, साप्ताहिक, कलकत्ता, में १४ जुलाई, १९४० को प्रकाशित
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निरालाजी के व्यक्तित्व के कई पहलू जानने को मिले. सच्चे दिल का आदमी ही किसी के आभा-मण्डल से चुंधियाता नहीं, तथा सही बात कहने से हिचकता भी नहीं.
गाँधीजी स्वभाव से महात्मा थे. जब हम स्वभाव से बाहर के काम में हाथ डालते हैं तो बंटाधार होना तय होता है.
@पंकज, हमारे साथ रहोगे तो ऐसे ही मजे करोगे|:)
@संजय, निरालाजी के व्यक्तित्व के और भी पहलू लिखेंगे। कविता पंक्तियों के दुहराव की गलती ठीक कर ली है।
@लक्ष्मीजी,हां ,कविता निरालाजी की है। पूरी कविता विवरण समेत दे दी है!
बचपन में एक कविता पढी थी, “जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना, अन्धेरा जहां पर कहीं रह न जाये”
काफी समय से इस कविता को खोज रहा हू परन्तु अभी तक असफलता ही हाथ लगी है. क्या आप इस संदर्भ में मेरी कुछ सहायता कर सकते हैं, जैसे कि कवि का नाम जिससे कि कविता खोजने में कुछ सहायता मिले.
साभार,
नीरज
कविता का लिंक देने के लिये आपका धन्यवाद.
लगे हाथों मैने इस कविता का यूनिकोड में टंकण करके विकिपीडिया पर कविता कोश में दर्ज कर दिया है.
साभार,
नीरज