Friday, March 16, 2007

मेरे समकालीन- हरिशंकर परसाई

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मेरे समकालीन- हरिशंकर परसाई

[कुछ दिन पहले हमारे 'परसाई भक्त' साथी भारत भूषण तिवारी ने परसाई जी के अपने समकालीनों के बारे में लिखे लेख पढ़वाने का आग्रह किया था। पिछ्ली पोस्ट में भी उन्होंने इसके लिये कहा। परसाईजी ने अपने समकालीनों के बारे में जो लेख लिखे हैं उनमें से कुछ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित 'जाने पहचाने लोग' में संकलित हैं। इस पुस्तक के परिचयात्मक लेख 'मेरे समकालीन' में परसाईजी ने अपने समय के प्रख्यात लेखकों को याद करते हुये उनके बारे में लिखा। आप यह लेख पढ़िये और देखिये कि परसाईजी अपने समकालीनों के बारे में क्या सोचते थे।]
‘मेरे समकालीन’ नाम से मैं कु़छ लेख लिख रहा हूं। यह आत्मकथा नहीं है। बड़े-छोटे लेखको से अपने को जोड़ने की कोशिश भी नहीं है। यह प्रथम लेख भूमिका -जैसा है। इसमें कुछ बड़े लेखकों का उल्लेख जरूर है। बाकी लेख ‘छोटे’ समकालीनों के बारे में होंगे।
सन १९४७ में जब मैने लिखना शुरू किया, भारत स्वाधीन हुआ ही था। चारों तरफ़ स्वाधीनता-संग्राम में जेल गए हुए ‘सुनामधन्य‘ , ‘प्रात: स्मरणीय’, ‘तपोपूत‘ आदि बिखरे थे। हर सड़क पर किसी तपोपूत के दर्शन हो जाते थे। किसी गली में पेशाब करने बैठते डर लगता था कि कहीं कोई प्रात: स्मरणीय न निकल पड़े। यह भावुकता, श्रद्धा, पूजा का दौर था। मैं सच्चे दिल से इन पर श्रद्धा करता था। ये त्याग की राजनीतिवाले लोग थे। बाद में सत्ता-राजनीति की छीन-झपट में इनकी क्या शर्मनाक गति हुई, इसका लेखा-जोखा मेरे अब तक के लेखन में है।
हिंदी वीणापाणि के बूढ़े पुजारी भी उन दिनों श्रद्धास्पद थे। कम-ज्यादा पूज्य वीणापाणि के चाचा, फ़ूफ़ा और बहनोई भी थे। इनके चित्र देखता था, मंचों पर इनके नाटकीय करतब देखता था। इनका सहज कुछ भी नहीं होता था। शब्द बनावटी, उन्हें बोलते वक्त ओठों के मोड़ बनावटी, स्वर बनावटी, आखों का भाव बनावटी, मुस्कान बनावटी। छायावादी भावुकता के उस दौर में ये ‘मां भारती के सपूत’ वगैरह कहलाते थे। ये अपने को समर्पित व्यक्ति मानते थे। समझते थे कि सबकुछ उनकी कविता, कहानी से हो जानेवाला है। ये प्रकाशपुंज थे। ये शहर में भी थे और बाहर से भी आते थे। मैं उन्हें देखता था, सुनता था, पर पास नहीं जाता था। इनसे बात नहीं की जा सकती थी। ये आपस में जो बातें करते थे, वे बड़ी अटपटी और बनावटी होती थीं। ये मूर्ति थे, जिन पर फ़ूल चढ़ा सकते थे, पर जिनसे बात नहीं कर सकते थे। ये अधिकतर छायावादी-रहस्यवादी कवि होते थे। पुरूष कवियों की ‘सखी‘ ,’आली‘ होती थी। इनका ‘प्रियतम‘ भी होता था। यह दूसरा रीतिकाल था, जिसमें काव्य-परिपाटी निभाई जाती थी। कंठ साधकर पुरूष रहस्यवादी कवि गाता था-‘सखी, मैं प्रियतम को कैसे पाऊं?’ कृष्ण-भक्ति की अनेक धाराओं में एक ‘सखी संप्रदाय’ भी था। इसमें साधक राधा होता था। वह स्त्री की तरह मसिक धर्म का पालन भी करता था।
पुरूष कवियों का यह ‘प्रियतम‘ रहस्यवादी सखी संप्रदाय का क्रष्ण ही होगा। वैसे इसमें परमात्मा के विरह में आत्मा की पुकार नहीं थी। मामला इस तरह का होता था कि पड़ोस की स्त्री का पति दौरे से अचानक लौट आया। रहस्यवादी कवयित्री गाती थी-अब प्रियतम तुम अंतरिक्ष में लुप्त हो गए। इसका मतलब था- पड़ोस का अविवाहित दरोगा दौरे पर चला गया है।
अजब बातें ये लोग करते थे। एक प्रोफ़ेसर रहस्यवादी कवि ने कार में बैठते-बैठते मुझसे कहा- परसाई जी, हिंदी माता बहुत रंक है। उसने आपके सामने आंचल फ़ैलाया है। उसे मणियों से भर दीजिए। मुझे यह सुनकर मतली आने लगी। वे यह भी कह सकते थे कि सरस्वती की गोद सूनी हैं, इसलिए आप उसके पेट से फ़िर पैदा हो जाइए। मैं इन लोगो से मिलते डरता था। मेरे अपने नगर में अपने पुरूषार्थ से अर्जित अखिल भारतीय कीर्ति के धनी सुनामधन्य सेठ बाबू गोविंददास रहते थे, जिनके करीब सवा सौ नाटक हैं। हम दोनों एक ही शहर में चालीस साल रहे, पर मेरी उनसे एक बार भी नमस्कार नहीं हुई। इतना जरूर मैंने सुना कि वे मेरे लेखन को ‘अनैतिक‘ कहते हैं।
दूसरी तरफ़ अल्प ज्ञात-अज्ञात स्वतंत्रता की सच्ची भावना से प्रेरित अशिक्षित या अर्द्धशिक्षित स्वाधीनता-संग्राम के असंख्य सैनिक थे। इनमें से कुछ आशुकवि थे, जैसे हमारे होशंगाबाद के लाला अर्जुनसिंह। मैं कांग्रेस का स्वयंसेवक था, तब वे हमारे नेता थे। वास्तविक प्रेरक नेता और सच्चे जन कवि। भाषण करते-करते कविता बनाकर बोलते थे। मुझे अभी तक उनकी बहुत-सी पंक्तियां याद है। जैसे-

बई द्वारे तैं पूत हैं, बई द्वारे तैं मूत।
देशभक्त होय तो पूत हैं, नहीं मूत को मूत।
लाला जी सीधे-सच्चे समर्पित देशभक्त थे। विधानसभा सदस्य हुए तो वहां
समाजवाद, पूंजीवाद आदि पर बहस चलती थी। एक दिन लाला जी ने खड़े होकर कहा-अध्यक्ष महोदय! न पूंजीवाद, न समाजवाद। सबसे अच्छा हमारा होशंगाबाद। हमारे इस जिले का कुछ भला कीजिए। ऎसे बहुत-से तपस्वी सच्चे-सच्चे लोग कांग्रेस के भ्रष्ट होने से पहले मर गए। यह उनके लिए भी शुभ हुआ और हमारे लिए भी।
जबरदस्ती घुसने, अपना परिचय देने, दांत निपोरने व संबंध बनाने का स्वभाव मेरा नहीं है। फ़िर मुझमे विनोद-वृत्ति है और बनावट तथा अंतर्विरोधी को पकड़कर मुझे विरक्ति हो जाती है। इस प्रवृत्ति व स्वभाव के कारण मेरी बहुत रक्षा हुई। बहुत झंझटों से बचा। बहुत समय मेरा नष्ट होने से बचा। अनेक मेरे श्रद्धेय थे, परंतु हास्यास्पद भी थे।
मै सामान्यत: पिछले कई सालों में हर राजनैतिक पार्टी के शीर्षस्थ, मध्यम और छुटभइया नेताओं से कई बार मिला हूं। इनमें से कई के साथ कुछ मोर्चो पर
काम भी किया है। पर जबरदस्ती घुसने, अपना परिचय देने, दांत निपोरने व संबंध बनाने का स्वभाव मेरा नहीं है। फ़िर मुझमे विनोद-वृत्ति है और बनावट तथा अंतर्विरोधी को पकड़कर मुझे विरक्ति हो जाती है। इस प्रवृत्ति व स्वभाव के कारण मेरी बहुत रक्षा हुई। बहुत झंझटों से बचा। बहुत समय मेरा नष्ट होने से बचा। अनेक मेरे श्रद्धेय थे, परंतु हास्यास्पद भी थे।
साहित्य में भी अखिल भारतीय कीर्तिवाले बड़े से मैं अकारण मिलने की कोशिश नही करता था। उन दिनों साहित्य का तीर्थराज प्रयाग था। मैं वहां अक्सर जाता था। पर मेरी यह आदत नहीं है कि तीर्थ गए हैं तो हर मंदिर, और मढ़िया में जाकर नारियल फ़ोड़ूं। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ से आज तक मेरी दुआ-सलाम नहीं हुई। देखा कई बार है। इसका कारण मेरा अहंकार महीं है। संकोच है। ‘अज्ञेय’ मुझे चित्र-से और सामने भी एक उदास दार्शनिक लगते है जिनके बंद होठ है। मैं उनसे मिलने जाता और वे बाईसवीं सदी के मनुष्य की चिंता में लीन हो जाते, तो मैं क्या बात करता। वैसे भी लेखकों से बात करना मेरे लिए कठिन है। वे कविता, कहानी की ही बात करते हैं या निंदा। इस देश की हालत, दुनिया की हालत, देश-विदेश का घटना-चक्र, राजनीति, सामाजिक स्थिति आदि पर इनसे बात नहीं की जा सकती। ये विषय इनके दायरे के बाहर होते है।
मैथिलीशरण गुप्त से भी कभी नहीं मिला। उनके बारे में कहा जाता था कि जब कोई लेखक उनसे मिलने जाता था तो बाहर उनका कोई भाई या भतीजा मिलता था। वह लेखक से पूछता था- हिंदी का सर्वश्रेषठ महाकाव्य कौन-सा है? यदि लेखक ‘कामायनी‘ का नाम ले देता और ‘साकेत‘ का नहीं, तो उससे वहां अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था। सुमित्रानंदन पंत से एक बार मेरी बातचीत हुई- मुक्तिबोध जी के संबंध में प्रयाग में एक श्रद्धांजलि- सभा में। महादेवी जी से कई बार भेट हुई। वे खुलकर बात करती हैं और खुली हंसी हंसती है। प्रयाग मे ‘अश्क’ जी से मिलना एक विशिष्ट अनुभव है- अपने को कुछ नहीं बोलना पड़ता। वे ही बोलते हैं और अपने बारे में बोलते हैं। पूरी किताब सुना जाते है। उनके पास बैठने से सबसे बड़ी प्राप्ति यह होती है कि सारे लेखकों की बुराई मालूम हो जाती है, और उनकी नई से नई कलंक-कथा आप जान जाते है। ‘अश्क’ बड़े प्रेमी, मेहमाननवाज आदमी हैं, पर मेहमान पर एहसान का बोझ नहीं छोड़ते। मेहमान के जाने के बाद उसकी निंदा व उपहास करके ‘पेमेंट’ वसूल कर लेते हैं। वैसे प्रयाग में मैं कमलेश्वर, मार्कडेय, अम्रतराय तथा अनेक दूसरे मित्रों से मिलता ही था।
जैनेंद्र जी से चार-पांच बार की मुलाकात है। उनसे मजेदार नोक-झोंक होती है। एक बार दिल्ली में अफ़्रो-एशियाई शांति सम्मेलन में गया था। बाहर निकल रहा था कि जैनेद्र जी चादर सम्हालते मिले। हम लोग बाहर आए। मैने कहा- जैनेंद्र जी, आप यहां कैसे? उन्होंने जवाब किया- अरे भई, सुना कि तुम लोग आए हो तो मैं भी आ गया। मैंने कहा- आपकी कार कहां है? वे बोले- मेरे पास कार कहां है? मैंने कहा ‘अज्ञेय’ के पास तो है। उन्होंने कहा- कहां अज्ञेय कहां मैं। मैं तो गरीब आदमी हूं। उस समय जैनेंद्र रिषि दुर्वासा की तरह लग रहे थे। सामने ‘अज्ञेय’ होते तो भस्म हो जाते। फ़िर जैनेंद्र संत की कुटिल मुद्रा से बोले- इस सम्मेलन में आने के लिए तुम्हें रूस से बहुत पैसा मिला होगा। मैंने कहा- जी हां, इस सम्मेलन को बिगाड़ने के लिए जितना पैसा सी. आई. ए. से आपको मिला है। जैनेंद्र हंसे। कहने लगे- तुम्हारी कटाक्ष क्षमता अद्भुत है। तुमने ‘कल्पना’ में मुझ पर काफ़ी कटाक्ष किए। कलकत्ता के सम्मेलन में भी तुमने मुझ पर ही प्रहार किए।
पर मैं बुरा नहीं मानता, क्योकिं इसमें तुम्हारा कोई निहित स्वार्थ नहीं है। लेकिन तुम्हारे तीन-चार लुच्चे कहानीकार दोस्त हैं। ‘लुच्चे’ शब्द से जैनेंद्र ने किन लेखकों को विभूषित किया, ये वे लोग जान जाएंगे, सभी जान जाएंगे।
माखनलाल चतुर्वेदी ने भाषा को ओज दिया, कोमलता दी, मुहावरे को तेवर दिया और अभिव्यक्ति को ऎंठ दी। वे शक्तिशाली रूमानी कवि, ओजस्वी लेखक तथा वक्ता थे। ‘निराला’ के बाद वही थे, जिन्होंने काव्य-परिपाटी तोड़ी। उनमें विद्रोह और वैष्णव समर्पण एक साथ थे।
बुजुर्गों व महानों में मेरे प्रदेश के भी दो साहित्यकार थे- माखनलाल चतुर्वेदी और पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी। माखनलाल चतुर्वेदी ने भाषा को ओज दिया, कोमलता दी, मुहावरे को तेवर दिया और अभिव्यक्ति को ऎंठ दी। वे शक्तिशाली रूमानी कवि, ओजस्वी लेखक तथा वक्ता थे। ‘निराला’ के बाद वही थे, जिन्होंने काव्य-परिपाटी तोड़ी। उनमें विद्रोह और वैष्णव समर्पण एक साथ थे। एक तरह से वे ‘मधुर-साधना’ वाले कवि थे। परंतु ‘कर्मवीर’ में उनके संपादकेय लेख व टिप्पणियां आज पढ़ते हैं तो चौंक जाते है। उनमें वर्ग-चेतना प्रखर थी। अगर कहीं उनका वैज्ञानिक समाजवाद का अध्ययन हो गया होता तो बड़ा कमाल होता। पर वे मोहक किंतु अर्थहीन भी लिखते थे। रंगीन, रेशमी पर्दे के पीछे कभी-कभी कुछ नहीं होता था। उनके लेखन के कुछ ‘मैनेरिज्म‘ थे। उनके पहले ही दो पैराग्राफ़ में ‘तरूणाई’, ‘पीढ़ियां’,मनुहार’,बलिपथ,’कल्पना के पंख’ आदि शब्द आ जाते थे। मेरी उनसे एक बार भेंट हुई थी, कुछ भाषण सुने थे। अंतिम बार मैने उन्हें गोदिया में मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के३ अधिवेशन में देखा। इसमें अध्यक्षता के लिए हमारे उम्मीदवार प्रखर समाजवादी पंडित भवानीप्रसाद तिवारी थे। मुक्तिबोध भी आए हुए थे। परंतु प्रदेश के अर्थमंत्री ब्रजलाल बियाणी भी अध्यक्ष बनना चाहते थे। उनकी तरफ़ से पूरी शासकीय मशीनरी और व्यापारी वर्ग
लगा था। पर पलड़ा भारी तिवारी जी का था और बियाणी जी हार भी गए थे। पर तभी परम श्रद्धेय पंडित माखनलाल चतुर्वेदी को पूरी नाटकीयता के साथ मंच पर
लाया गया। दोनों तरफ़ से दो आदमी उन्हें सहारा दे रहे थे। माखनलाल जी को अभ्यास था कि अब और कैसे बीमार दिखना, कितने पांव डगमगाना, कितने हाथ
कंपाना, कितनी गर्दन डुलाना, चेहरे पर कितनी पीड़ा लाना। उन्हें कुर्सी पर बिठाकर उनके सामने माइक लाया गया। उन्होंने कांपती आवाज में कहा- मैं चालीस वर्षों की साधना के नाम पर यह चादर आपके सामने फ़ैलाकर आपसे भीख मांगता हूं कि बियाणी जी को अध्यक्ष बनाएं। वे सम्मेलन का भवन बनवा देंगे और बहुत रचनात्मक कार्य करेगें। हम लोग क्या करते? हमने अर्थमंत्री बियाणी को अपमान के साथ अध्यक्ष बन जाने दिया और माखनलाल जी का कर्ज पूरा उतार दिया। मुक्तिबोध ने नागपुर लौटकर ‘नया खून’ में एक तीखा लेख लिखा, जिसका शीर्षक था- ‘साहित्य के काठमांडू का नया राजा’
यह संतत्व भी बड़ी रहस्यमय चीज है। सबको अच्छा कहना और आशीर्वाद देना, यह कोई विवेक का काम नहीं है। संत की पहचान इससे होती है कि वह किन मूल्यों के लिए लड़ता है और किन चीजों से नफ़रत करता है। सही नफ़रत करना संत के लिए जरूरी गुण है। जो बुराई से ही नफ़रत नहीं करता, वह संत कैसे हो सकता है।
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के आसपास सरलता, दैन्य और संतत्व का महिमा-मंडल निर्मित किया गया था। वे ‘सरस्वती’ के संपादक रहे थे और विश्व कथा-साहित्य का अध्ययन उनके बराबर तब शायद किसी का नही था। उन्होंने मेरी पहली पुस्तक पर सही टिप्पणी लिखी थी। फ़िरवे खैरागढ़ आ गए और अध्यापक हो गए। खैरागढ़ की सुंदरी रानी पदमावती की उन पर कृपा थी और उन्हें गुरू मानती थी। जब वे राजनीति में आई, फ़िर मंत्रिमंडल में गई, तब बख्शी जी उनके लिए बहुत कुछ लिखते थे। हम लोगों का अनुमान था कि बक्शी जी मन में उनके प्रति बहुत कोमल भाव थे। आचार्यों के शब्दों में ‘मधुमती भूमिका’ थी, जो भूमिका ही रह गई। मामला शायद ‘प्लेटानिक’ था। उन्हीं बख्शी जी को रानी पदमावती ने उस मकान से निकाल दिया, जिसे वे उन्हें लगभग दे चुकी थीं। तब वे मध्यप्रदेश के मंत्रिमंडल में थीं। हम लोगों की योजना थी कि रानी के बंगले के सामने हम लोग धरना देगें। तभी बख्शी जी ने अखबारों में बयान दे दिया कि रानी पदमावती मेरे
लिए साक्षात लक्ष्मी हैं। हम लोग ठंडे पड़ गए। भवानीप्रसाद तिवारी ने कहा- यारो, कमजोर आदमी के लिए लड़ने से अपनी ही दुर्गति होती है। मेरा ख्याल है कि बख्शी जी के मन में रानी के आतंक के साथ जो रसात्मक भाव था, उसने उन्हें लड़खड़ा दिया। वे समर्पण कर गए। उनके समर्थक कहने लगे कि भाई, बख्शी जी संत हैं। वे किसी का बुरा करना नहीं चाहते। यह संतत्व भी बड़ी रहस्यमय चीज है। सबको अच्छा कहना और आशीर्वाद देना, यह कोई विवेक का काम नहीं है। संत की पहचान इससे होती है कि वह किन मूल्यों के लिए लड़ता है और किन चीजों से नफ़रत करता है। सही नफ़रत करना संत के लिए जरूरी गुण है। जो बुराई से ही नफ़रत नहीं करता, वह संत कैसे हो सकता है। जहां तक किसा का बुरा न करने की बात है, किसी का बुरा करने कि लिए कुछ करना पड़ता है। कुछ क्रिया करनी होती है। कुछ लोग इतने अलाल होते हैं कि वे बुरे का बुरा करने की क्रिया नहीं करते और उनकी निष्क्रियता संतत्व मान ली जाती है।
अपने बुजुर्ग लेखको में दो की चर्चा और करूंगा। इनकी कृतियां ‘क्लासिक’ मानी जाएंगी। पर इन दोंनो के पास जाकर साधारण लेखक आश्वस्त होता था,आतंकित नहीं। एक पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी थे और दूसरे यशपाल। द्विवेदी जी में अगाध पांडित्य, इतिहास-बोध, सांस्कृतिक समझ, तर्क-क्षमता और विकट रचनात्मक प्रतिभा थी। उनकी चिंता ऎतिहासिक चिंता थी, वे सभ्यता के संकट को समझते थे और मनुष्य की नियति को हस्तामलकवत देखते थे। कबीर की तरह फ़क्कड़ थे। बहुत विनोदी भी। वे मजाक करते थे और ठहाका लगाते जाते थे। लगता था, वे कह रहे हैं- ‘साधो, देखो जग बौराना!” मुझसे मिलकर वे खुश होते थे।
मुझे अचरज और हर्ष होता था, जब वे मेरी कहानियों का उल्लेख करते थे। उन्हें मेरे निबंधो के पैराग्राफ़ याद थे। उनके पास बैठकर लगता था कि इनकी ज्ञान-गरिमा कितनी सहज और कितनी विश्वासदायिनी है। जब भी उनसें भेंट होती, हंसी और ठहाको का लंबा दौर चलता। एक बार वे हमारे विश्वविद्यालय आए। मुझे हिंदी विभागाध्यक्ष डां. उदयनारायण तिवारी का संदेश मिला कि द्विवेदी जी ने कहा है कि शाम को परसाई को जरूर बुला लेना। मैं शाम को पहुंचा। उनका भाषण शुरू हो चुका था। विषय था- ‘वाणी और विनायक धर्म’। डेढ़ घंटे के पांडित्यपूर्ण भाषण के बाद बाहर, निकले, तो मैं मिला। उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा-’ज्ञान से दुनिया का काफ़ी नाश कर चुके। चलो कहीं बैठकर गप्प ठोकेंगे।’ हम लोग डां. उदयनारायण तिवारी के घर बैठे, जहां डां. राजबली पांडेय और चार-पांच और आचार्य आ गए और लगभग दो घंटे अट्टहास होता रहा।
द्विवेदी जी में अगाध पांडित्य, इतिहास-बोध, सांस्कृतिक समझ, तर्क-क्षमता और विकट रचनात्मक प्रतिभा थी। उनकी चिंता ऎतिहासिक चिंता थी, वे सभ्यता के संकट को समझते थे और मनुष्य की नियति को हस्तामलकवत देखते थे। कबीर की तरह फ़क्कड़ थे। बहुत विनोदी भी। वे मजाक करते थे और ठहाका लगाते जाते थे। लगता था, वे कह रहे हैं- ‘साधो, देखो जग बौराना!”
द्विवेदी जी के पास लतीफ़ों का भंडार था। वास्तविक घटनाओं में वे विनोद-तत्व ढूंढ लेते थे। उनके मुख से सुने हुए लतीफ़े शायद बहुत प्रचलित हैं, फ़िर भी एक-दो मैं यहां लिखता हूं।
द्विवेदी जी की ही जबानी- मैं एम. ए. की मौखिक परीक्षा ले रहा था। मैंने एक छात्र से पूछा कि हिंदी के सबसे बड़े कवि कौन हैं, तो उसने जवाब दिया-सूरदास। मैंने पूछा-उनके बाद? उसने जवाब दिया- तुलसीदास। मैंने पूछा-तुलसीदास के बाद? उसने जवाब दिया- उडुगन। इसके बाद ठहाका लगा। उस लड़के ने आचार्यों की निर्णायक आलोचना का यह दोहा सुन रखा था-
सूर सूर तुलसी ससि, उडुगन केसवदास।
अब के कवि खद्योत सम, जंह-तंह करहिं प्रकाश।
दूसरा वाकया। कहने लगे। मैं और धीरेंद्र वर्मा मौखिक परीक्षा ले रहे थे। एक लड़की घबड़ाती हुई आई। धीरेंद्र वर्मा ने उससे कहा- मीरा की विरह-वेदना का वर्णन करो। लड़की ने एक-दो वाक्य बोलने की कोशिश की और फ़िर रोने लगी। हमने उसे जाने के लिए कह दिया। धीरेंद्र जी ने कहा कि इसे तो कुछ नहीं आता। मैने कहा- नहीं भाई, आपने इससे हास्यरस नहीं पूछा था, बल्कि मीरा की
वेदना पूछी थी। वेदना का वर्णन इस लड़की से अच्छा और कौन कर सकता है! धीरेंद्र जी ने उसे पास कर दिया।
अंतिम विनोद द्विवेदी जी के मुख से १९७६ में राजमहल प्रकाशन में सुना। शीला संधु, नामवरसिंह, तथा एक-दो और लेखक बैठे थे। पंडित जी ने कहा- यह
विदेशी छात्राएं भी बड़ा गड़बड़ करती है। पोलैंड की एक छात्रा मुझसे मिलने वाराणसी गई। मैं लखनऊ गया हुआ था। उसने दिल्ली लौटकर मुझे पत्र लिखा- मैं
आपके दर्शन हेतु वाराणसी गई थी। आपके दर्शन तो नहीं हो सके किंतु आपकी ‘सुपत्नी’ से भेंट हो गई। पंडित जी ने ठहाका लगाते हुए कहा- ये विदेशी समझते हैं कि भारत में ‘सुपुत्र’ होता है तो सुपत्नी भी होती होगी। बताइए शीला जी, इस देश में कोई एक भी पत्नी कभी ‘सुपत्नी’ हुई है।
यशपाल जी से मेरी मुलाकात इलाहाबाद में कराई गई तो मैं अचकचा गया। मैं हाथ जोड़कर बहुत झुका उनके सामने, परंतु यशपाल ने और भी झुककर मेरे हाथ
पकड़ लिए और बोले- अरे महाराज, महाराज! मैं कब से आपसे मिलने को उत्सुक हूं। मैं सचमुच कृतज्ञ हूं कि आप मिले। मैं संकट में पड़ गया। मुझे पता नहीं, शायद वे हर एक को ‘महाराज’ कहते हों। खैर, यह भ्रम तो हुआ नहीं कि यशपाल मेरी प्रतिभा के सामने इतने झुक गए हैं। इतना बेवकूफ़ मैं कभी नहीं रहा। इसके पहले मुझे कई लोग बाल्टेयर, बर्नाड शां, मोलियर, चेखव आदि कह चुके थे और मैं उल्लू नहीं बना था। उल्लू बन जाता तो लिखने-पढ़ने में इतनी मेहनत न करता। मुझे इतना जरूर लगा कि यशपाल मेरा लिखा हुआ पढ़ते हैं और उस पर ध्यान देते हैं और उसका मूल्य भी आंकते हैं। उन्होंने लगभग आधा-पौन
घंटे मेरी कहानियों के बारे में चर्चा की। यशपाल जब भी मिलते, यही कहते- अरे महाराज, अरे महाराज! वे तमाम विषयों पर बातें करते थे- इतिहास पर,
राजनीति पर। अंतिम भेंट उनसे भी मेरी १९७९ में हुई। यह घटना याद रखने लायक हैं।
बेचन शर्मा ‘उग्र’ फ़क्कड़ ‘लीजेंड’ थे। अक्खड़, फ़क्कड़ और बहुत बदजबान। जीवन से अंधेरे कोने में वे घुसे थे और वहां से अनुभव लाए थे। व्यापक गहन अनुभव उन्होंने बहुत ताकतवर भाषा में लिखे हैं। वे महान गद्य लेखक थे। अति यथार्थवादी थे। मगर उनका यथार्थ इतिहास से जुड़ा नही था। विद्रोही थे, मगर वह दिशाहीन विद्रोह था।
उत्तर प्रदेश हिंदी परिषद का पुरस्कार लेने लखनऊ गया था। यशपाल भी पुरस्कार लेने आए। विशाल हाल में संयोग से मेरी उनकी कुर्सी साथ लगी हुई थी। मैं बैठा तो उन्होंने कहा- अरे महाराज, आ गए। फ़िर बातचीत शुरू हो गई। हाल पूरा भरा था। करीब पांच सौ लेखक और सरकारी अधिकारी होंगे। माइक से घोषणा होने लगी-अब राज्यपाल महामहिम डा. रेड्डी पधार रहे हैं। सारे लोग खड़े हो गए। पर संयोग से एक-सी भावना के कारण यशपाल और मैं बैठे रहे। आसपास के लोग खड़े होने कि लिए कहते रहे, पर हम नहीं उठे। राज्यपाल हमारे बगल से निकलकर मंच पर पहुंच गए। यशपाल ने कहा- बहुत ठीक किया महाराज! आखिर हम
क्यों खड़े हों। होगा कोई गवर्नर। बहुत-से होते हैं। निकल जाएगा। इसके बाद राष्ट्रगीत शुरू हुआ तो यशपाल ने खड़े होते हुए कहा- अब खड़े होंगे। यह राष्ट्रगीत है।
बेचन शर्मा ‘उग्र’ फ़क्कड़ ‘लीजेंड’ थे। अक्खड़, फ़क्कड़ और बहुत बदजबान। जीवन से अंधेरे कोने में वे घुसे थे और वहां से अनुभव लाए थे। व्यापक गहन अनुभव उन्होंने बहुत ताकतवर भाषा में लिखे हैं। वे महान गद्य लेखक थे। अति यथार्थवादी थे। मगर उनका यथार्थ इतिहास से जुड़ा नही था। विद्रोही थे, मगर वह दिशाहीन विद्रोह था। उनसे मेरी एक बार चिट्ठी-पत्री हो गई। एक प्रकाशक ने मुझे एक कहानी-संग्रह तैयार करने को कहा। उसमें मैने उग्र की कहानी ‘उसकी मां’ लेना तय किया। उग्र को लिख दिया कि प्रकाशक सौ रूपए आपको भेजेगा। उन्होंने स्वीकृत्ति दे दी। पर प्रकाशक ने संग्रह छापने का विचार छोड़ दिया। करीब पांच महीने बाद मुझे ‘उग्र’ का पत्र मिला, जिसमें लिखा था- वह पुस्तक छपकर कोर्स में लग गई होगी, खूब बिक रहा होगा। प्रकाशक और तुम खूब पैसे कमा रहे होगे। पर मुझे सौ रूपए नहीं भेजे। मैं तुम जैसे हरामजादे, कमीने, बेईमान, लुच्चे लेखकों को जानता हूं, जो प्रकाशक से मिलकर लेखक का शोषण करते हैं। मैंने जवाब में उन्हें लिखा- प्रकाशक ने वह पुस्तक नही छापी, यह सच है इसीलिए आपको पैसे नहीं भेजे गए। जहां तक मुझे दी गई आपकी गालियों का सवाल है, मैंने काफ़ी गालियां आपसे ही सीखी हैं और अपनी प्रतिभा से कुछ और गालियां जोड़कर काफ़ी बड़ा भंडार कर लिया है। मैं आपसे श्रेष्ठ गालियों का नमूना इसी पत्र में पेश कर सकता हूं। पर इस बार आपको छोड़ रहा हूं। इसके जवाब में उनका एक कार्ड आया, जिस पर सिर्फ़ इतना लिखा था- शाबाश पट्ठे!
मैंने अपने बुजुर्ग लेखकों के बारे में लिखा। जिन्हें कुछ बुरा लगा हो, क्षमा करें।
इनके सिवा मेरे साथ लिखना शुरू करनेवाले या मुझसे कुछ पहले या कुछ बाद ऎसे सैकड़ो लेखक हैं, जिनके मेरे नजदीकी संबंध हैं। मैं स्वभाव से बहुत मिलने-जुलनेवाला आदमी हूं। मेरे संबंध सैकड़ो राजनीतिज्ञों, समाजसेवकों, आंदोलनकरियों से हैं। भगवदभक्तों से भी मेरे संबंध हैं, व्यापारियों से भी, सजायाफ़्ता लोगों से भी।
कितने ही अंतर्विरोधी से ग्रस्त है यह विशाल देश, और कोई देश अब अकेले अपनी नियति तय नहीं कर सकता। सब कुछ अंतर्राष्ट्रीय हो गया है। ऎसे में देश और दुनिया से जुड़े बिना, एक कोने में बैठे कविता और कहानी में ही डूबे रहोगे, तो निकम्मे, घोंचू, बौड़म हो जाओगे।
मेरे बाद की और उसके भी बाद की ताजा, तेजस्वी, तरूण पीढ़ी से भी मेरे संबंध हैं। नए से नए लेखक के साथ मेरी दोस्ती है। मैं जानता हूं, इनमें से कुछ काफी हाऊस में बैठकर काफ़ी के कप में सिगरेट बुझाते हुए कविता, कविता और कविता की बात करते है। मैं इन तरूणों से कहता हूं कि अपने बुजुर्गों की तरह अपनी दुनिया को छोटी मत करो। यह मत भूलो कि इन बुजुर्ग साहित्यकारों में अनेक ने अपनी जिंदगी दे सबसे अच्छे वर्ष जेल में गुजारे। बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, माखनलाल चतुर्वेदी तथा दर्जनों ऎसे कवि थे। वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़े। रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ और अशफ़ाक उल्ला खां, जो फ़ांसी चढ़े, कवि थे। लेखक को कुछ हद तक ‘एक्टिविस्ट’ भी होना चाहिए। सुब्रहमण्यम भारती कवि और ‘एक्टिविस्ट’ थे। दूसरी बात यह कि कितने ही अंतर्विरोधी से ग्रस्त है यह विशाल देश, और कोई देश अब अकेले अपनी नियति तय नहीं कर सकता। सब कुछ अंतर्राष्ट्रीय हो गया है। ऎसे में देश और दुनिया से जुड़े बिना, एक कोने में बैठे कविता और कहानी में ही डूबे रहोगे, तो निकम्मे, घोंचू, बौड़म हो जाओगे।
‘मेरे समकालीन’ जो यह लेख और चरित्रमाला लिखने की योजना है, तो सवाल है- ‘मेरे समकालीन’ कौन? क्या सिर्फ़ लेखक? डाक्टर के समकालीन डाक्टर और चमार के समकालीन चमार। इसी तरह लेखक के समकालीन क्या सिर्फ़ लेखक? नहीं। जिस पानवाले के ठेले पर मैं लगातार २५-३० वर्ष रोज बैठता रहा हूं, वह पानवाला मित्र भी मेरा समकालीन है। अपने मुहल्ले का वह रिक्शावाला जो मुझे २५-३० साल ढोता रहा है, वह भी मेरा समकालीन है। जिस नाई से ३० साल दाढ़ी बनवाता रहा, बाल कटवाता रहा और घंटो गपशप करता रहा, वह भी मेरा समकालीन हैं। मेरे ‘घर’ में काम करनेवाले ढीमर को मैं, लंबे दौरों पर जाता, तो घर की एक चाबी दे जाता। वह मेरी डाक संभालकर रखता। घर साफ़ करता। लोगों को मेरी तरफ़ से जवाब देता, वह भी मेरा समकालीन है। हम सब साथ- साथ बढ़े हैं। सहयोगी रहे हैं। एक-दूसरे की मदद की है। साथ ही विकास किया है।
तो लेखकों बुद्धिजीवी मित्रों से सिवा ये ‘छोटे’ कहलानेवाले लोग भी मेरे समकालीन है। मैं इन पर भी लिखूंगा।
-हरिशंकर परसाई

16 responses to “मेरे समकालीन- हरिशंकर परसाई”

  1. समीर लाल
    परसाई जी को बार बार पढ़ने पर भी हर बार एक नया आनन्द होता है भले ही वो लेख कितनी बार भी क्यूँ न पढ़ चुके हों.
    आपका आभार इस लेख को पढ़वाने का!!
  2. abhay tiwari
    मज़ा आया..जैसा कि आता है हमेशा परसाई जी को पढ़कर..शुक्रिया..
  3. Pratik Pandey
    अति उत्तम। परसाई जी के चुटीले अन्दाज़ में उनके समकालीनों पर पढ़कर अच्छा लगा।
  4. eswami
    जहां तक किसा का बुरा न करने की बात है, किसी का बुरा करने कि लिए कुछ करना पड़ता है। कुछ क्रिया करनी होती है। कुछ लोग इतने अलाल होते हैं कि वे बुरे का बुरा करने की क्रिया नहीं करते और उनकी निष्क्रियता संतत्व मान ली जाती है।
    जो बात मैं १००० शब्दों में नही कह पाता हूं वो दो लाईन में खत्म कर दी!
  5. Manish
    इतनी मेहनत से इतने अच्छे लेख को हम सब तक पहुँचाने का बहुत बहुत शुक्रिया !
  6. सागर चन्द नाहर
    अश्क’ बड़े प्रेमी, मेहमाननवाज आदमी हैं, पर मेहमान पर एहसान का बोझ नहीं छोड़ते। मेहमान के जाने के बाद उसकी निंदा व उपहास करके ‘पेमेंट’ वसूल कर लेते हैं।
    इस लेख को पढ़ने से पता चलता है कि परसाई जी भी काफी मेहमाननवाज थे :)
    परसाई जी कि बहुत सुन्दर रचना हमें पढ़वाने के लिये धन्यवाद
  7. मृणाल कान्त
    परसाई जी के इस लेख के बारे मे आज ही पता चला। आपको धन्यवाद, इसे प्रस्तुत करने के लिए। पढ़ा और पढ़ कर सुनाया भी। और मेल करके कुछ मित्रों को भी बताया। हम सब की ओर से शुक्रिया।
  8. मैथिली
    पहले भी कई बार पढ़ा था आज सुबह से तीन बार पढ़ चुका हूं.
    परसाई अद्वितीय हैं. आपका शुक्रिया
  9. Abhyudaya Shrivastava
    आपको धन्यवाद इतने अच्छे लेख को हम सब को पढ़वाने के लिए।
  10. भारत भूषण तिवारी
    धन्यवाद!
  11. विजेन्द्र एस. विज
    परसाई पर जितना पढा जाये उतना कम है..आपके माध्यम से एक और लेख पढने को मिला बहुत बहुत शुक्रिया.
  12. फुरसतिया » चिरऊ महाराज
    [...] [परसाईजी ने ‘मेरे समकालीन’ नाम से एक् लेख और् चरित्र माला लिखी है। इसके बारे में बताते हुये उन्होंने लिखा -‘मेरे समकालीन’ जो यह लेख और चरित्रमाला लिखने की योजना है, तो सवाल है- ‘मेरे समकालीन’ कौन? क्या सिर्फ़ लेखक? डाक्टर के समकालीन डाक्टर और चमार के समकालीन चमार। इसी तरह लेखक के समकालीन क्या सिर्फ़ लेखक? नहीं। जिस पानवाले के ठेले पर मैं लगातार २५-३० वर्ष रोज बैठता रहा हूं, वह पानवाला मित्र भी मेरा समकालीन है। अपने मुहल्ले का वह रिक्शावाला जो मुझे २५-३० साल ढोता रहा है, वह भी मेरा समकालीन है। जिस नाई से ३० साल दाढ़ी बनवाता रहा, बाल कटवाता रहा और घंटो गपशप करता रहा, वह भी मेरा समकालीन हैं। मेरे ‘घर’ में काम करनेवाले ढीमर को मैं, लंबे दौरों पर जाता, तो घर की एक चाबी दे जाता। वह मेरी डाक संभालकर रखता। घर साफ़ करता। लोगों को मेरी तरफ़ से जवाब देता, वह भी मेरा समकालीन है। हम सब साथ- साथ बढ़े हैं। सहयोगी रहे हैं। एक-दूसरे की मदद की है। साथ ही विकास किया है। [...]
  13. परसाई- विषवमन धर्मी रचनाकार (भाग 1)
    [...] मेरे समकालीन- हरिशंकर परसाई [...]
  14. हरिशंकर परसाई- विषवमन धर्मी रचनाकार (भाग 2)
    [...] मेरे समकालीन- हरिशंकर परसाई [...]
  15. जनता को अधिकार होता है कि वह लेखक का मजाक उड़ाये : चिट्ठा चर्चा
    [...] के बारे में संस्मरण लिखते परसाईजी ने लिखा था: माखनलाल चतुर्वेदी ने भाषा को ओज [...]
  16. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176

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