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अपनी फोटो भेजिये न!
By फ़ुरसतिया on March 13, 2007
वैसे तो हमारे ज्यादातर पाठक वे हैं जो खुद ब्लागर हैं। लेकिन कुछ
पाठक ऐसे भी हैं जो स्वयं चिट्ठा नहीं लिखते लेकिन सक्रिय पाठक हैं। उनमें
से कुछ टिप्पणी भी करते हैं। कुछ हिंदी में टाइपिंग न जानने के कारण
टिप्पणी करने में शरमाते हैं।
ऐसे पाठक जो केवल पढ़ते हैं या टिप्पणी करते हैं वे देर-सबेर ब्लागिंग के मैदान में आ ही जाते हैं। रमणकौल काफ़ी दिन इधर-उधर टिपियाते रहे। फिर जब फिर अपना हिंदी में और कश्मीरी में चिट्ठा लेकर आये।
राजीव टंडनजी तो बहुत दिन टिप्पणी करते रहे, लोगों की वर्तनी सुधारते रहे , व्याकरण दुरस्त करते रहे। पहले तो मुझे पता ही नहीं था कि वे कानपुर में ही हैं आजकल। एक दिन आनलाइन मिले तो हमने पूछा तो पता लगा कि भाई जी हमसे केवल दस-पंद्रह मिनट की दूरी पर बसते हैं। फिर क्या वे आ गये हैं मैंदान में। आये हैं तो टिकेंगे भी। बीच में किसी ने उनको बता दिया कि चार से अधिक पोस्ट लिखेंगे तो ब्लागिंग छूट न पायेगी। हमने तुरन्त चार को चालीस किया और बताया कि चार नहीं चालीस पोस्ट तक लत नहीं पड़ती इसके बाद इलाज मुश्किल है। सहज विश्वासी होने के नाते उन्होंने मेरा कहा मान लिया और अपनी पांचवीं पोस्ट लिखी। आगे वे मार्च खतम होने के बाद अपनी धीमी गति को तेज करेंगे ऐसा मुझे पूरा भरोसा है।
मृणाल पहले अंग्रेजी में लिखते थे। मेरा ब्लाग पढ़ते थे लेकिन टिप्पणी अंग्रेजी में ही कर पाते थे। अब तो वे पूरे शायर हो रहे हैं आजकल। मजे की बात है कि कविता पढ़ते, समझते, आनंदियाते तो मैं उनको पहले भी देखता था लेकिन कविता लिखने के मामले में मैं उनको अपनी तरह,निल बटा सन्नाटा, समझता था। लेकिन हाल के दिनों में उन्होंने मेरी समझ को पटरा कर दिया और दनादन शायरी, कविता पोस्ट करते जा रहे हैं।
आश्चर्य तो मुझे तब भी हुआ जब मैंने देखा मृणाल की श्रीमती निधि ने भी हिंदी में लिखना शुरू कर दिया। पहले वे हिंदी को ऐसा ही मानतीं थी जैसा मुम्बई में भइयों को और दिल्ली, पंजाब में बिहारियों और पूरबियों को समझा जाता है। लेकिन मुझे पूरा भरोसा है कि निधि नियमित लेखन नहीं करेंगी। क्या सब निधि एक जैसी होती हैं।
हमारे कुछ फरमाइशी पाठक भी हैं। इनमें सबसे पहले आये भोला नाथ उपाध्याय। वे चुपचाप हमारे लेख पढ़ते रहे। एक लेख में गलती पकड़ लिये तो टिपियाये और अपने बारे में बताये। हमने अपने सजग पाठक की सजगता का इनाम दिया और उनके भैया गोविन्द उपाध्याय के लगातार तीन संस्मरण उनको पढ़वाये।
गोविंद जी सालों पहले अपने लिखना-पढ़ना छोड़ चुके थे लेकिन हमारी संगति में वे फिर से इस जंजाल में आ फंसे। अब हालत यह है कि महीने में चार-पांच कहानियां घसीट देते हैं। बाकायदा चार्ट बना रखा है कि कौन कहानी कहां भेजी,कहां से वापस आयी, किस अंक में कौन सी छप रही है। इसे मैं अपने ब्लागिंग की एक उपल्ब्धि मानता हूं कि इसके चलते एक स्थापित कहानीकार में दुबारा लिखने की ललक जगी।
एक पाठक जिसने हमसे सबसे ज्यादा मेहनत कराई वो हैं भारत भूषण तिवारी। वे परसाई जी के भक्त हैं ,हमारी ही तरह। नेट पर परसाईजी के इतने लेख मैंने डाले उसके पीछे कलात्मक अनुपात में आलस्य और अकर्मण्यता का मधुर सम्मिश्रण वाले भारत भूषण तिवारीकी उकसाऊ फरमाइसें रहीं। ये पढ़ के मजा आ गया अब वो पढ़ा दो क्या कहने! वो वाला संस्मरण मिले पढ़ने को तो मजा आये। उनकी अद्यतन बोले तो लेटेस्ट फरमाइसों में परसाईजी के अपने समकालीनों पर लिखे संस्मरण हैं। कुछ लेख मैंने टाइप भी कर लिये हैं। जल्दी ही वे भी पोस्ट करेंगे। लेकिन भारत भूषण इतने आलसी हैं कि दो शानदार कवितायें लिखकर बैठ गये।
हमें ऐसे पाठक बहुत कम मिले जो सामने तारीफ़ न करके ई-मेल पर वाह-वाही करें। ऐसे लोग केवल जीतू के यहां मिलते हैं जो मेल पर पूछताछ करते हैं। शुरुआती उछलकूद के बाद ही जब जीतू के ब्लागिंग में दूध के दांत भी नहीं टूटे थे तब उन्होंने एक पोस्ट में लिखा था जिसका लब्बो लुआब यह था कि तमाम मातायें-बहने उनसे कहती/ अनुरोध करती हैं कि ब्लाग में ऐसी-वैसी बातें लोग न करें। घरेलू टाइप की बातें लिखा करें। यह ध्यान रखा करें उसे मातायें/बहने भी पढ़ती हैं। ब्लाग में मां-बहन न किया करें।
हमें लगा कि सेंसर विभाग ब्लाग की आचार संहिता बनाने का काम जीतू के हाथ सौपकर खर्राटे भरने चला गया। उस पोस्ट में जीतू ने तमाम पाठकों के द्वारा पूछे गये सवालों के जवाब भी दिये थे। उन सवालों को देखकर हमें जीतू से जलन भी हुयी थी कि मातायें-बहने सारे सवाल जीतेंदर से ही काहे पूछती हैं। और यह जलन आज तक बरकरार है जब हमसे कोई कुछ्छ नहीं पूछता। सब सवाल जीतेंन्द्र से पूछते हैं। ये भी पट्ठा हम लोगों से हीपूछकर उनको बता देता है और वे लोग समझती हैं कि सब कुछ जैसे यही जानते हैं।
लेकिन हमारा सारा खेल श्वेत पत्र की तरह खुला खेल है। कोई गुपचुप प्रशंसक नहीं है। हां हमारे दो कद्रदान ऐसे हैं जो टिप्पणी तो नहीं करते लेकिन उनमें आमने-सामने मुलाकात हुयी, होती रही।
इनमें से एक हैं कॄष्णबिहारी | बिहारीजी खुद जाने-माने लेखक हैं और शुरू में हमारे लेख काफ़ी पढते रहे। वे तकनीकी तौर पर केवल इतना सक्षम हैं कि मेल पर रिप्लाई वाला ‘आप्शन’ प्रयोग करके जबाब भेज सकें। उनको हमने कानपुर में अपने आफिस में बैठाकर उनका ब्लाग भी बनवाया लेकिन वह कहानी आगे नहीं बढ़ी। अगर वे ब्लाग लेखन सीख जायें तो रोज एक पोस्ट लिखने लगेंगे लेकिन उनको इतना सक्षम बनाने के लिये लगता है मुझे अगली जुलाई की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। बिहारीजी हमसे बहुत कहते रहे कि मैं कहानियां लिखा करूं और मुख्यधारा के लेखन में आऊं। लेकिन अपन राम अपने ‘आलस्य‘ और ‘कौन झंझट में पड़े’ के शाश्वत प्रेम से बगावत न कर सके। कहानी, कविता हमसे हो नहीं सकती यह समझदारी वाला भाव हमेशा हमारे क्षणिक उत्साह से हमारी रक्षा करता रहा।
एक और हमारे पाठक हैं राकेश दुबे। वे आजकल हाई कमीशन, लंदन में हिंदी का काम-काज देखते हैं। सुदर्शन चेहरे और मधुर व्यवहार वाले राकेश भाई पिछली बार जब कानपुर आये तो हमारे घर मिलने आये। दो तीन घंटे की उस अपनापे भरी बातचीत से यह अहसास ही नहीं हुआ कि हम पहली बार मिल रहे हैं और इसके पहले हमने एक-दूसरे के फोटो भी नहीं देखे थे।
इसके अलावा हाल के कुछ पाठक मित्रों में सदानाजी भी हैं जो हमारे साइकिल यात्रा वाले संस्मरणों को पढ़कर अब मुझसे दिलीप गोलानी का पता पूछ रहे हैं। गोलानी उनका दोस्त रहा है। वे उससे मिलना चाहते हैं। अब एक दिन दिलीप गोलानी के यहां जाकर उसकी खोज-खबर लेना है।
लेकिन पिछ्ले दिनों एक प्रशंसक की चिट्ठी मिली तो हम दंग रह गये। मेल अंग्रेजी में थी जिसे कलकत्ते से किन्ही संजय कुमार जोशी ने लिखा था। मेल का लब्बो लुआब कुछ इस तरह से था।
जोशी जी ने मेरी तमाम बेजा तारीफ़ के बाद मुझसे मेरी स्वहस्ताक्षरित फोटो मांगी थी यह कहते हुये -
खैर मैंने मेल किया कि जोशी मैं आपसे बतियाना चाहता हूं आप अपना फोन नम्बर भेजिये।
फोन नम्बर उसी दिन आ गया। बात की तो पता चला कि जोशीजी को साहित्यकारों, लेखकों की हस्ताक्षरित फोटो एकत्र करने का शौक है। हमने कहा कि भाई वो तो ठीक है लेकिन आपने हमारे ऊपर लेखक, साहित्यकार होने का आरोप कैसे लगाया?
जोशीजे बताया कि उन्होंने मेरे लेख हैरी का जादू बनाम हामिद का चिमटा और जहां का रावण कभी नहीं मरता पढ़ रखे हैं। इन दोनों लेखों से ही उन्होंने अन्दाजा लगा लिया कि हम कोई लेखक टाइप के आइटम होंगे। और उन्होंने हमारी फोटो मांगी संग्रह के लिये।
जोशी ने अपने बारे में बताते हुये कहा कि कपड़े का व्यापार करते हैं और मूलत: राजस्थान के रहने वाले हैं। उन्होंने यह भी अनुरोध किया कि और दूसरे साहित्यकारों बोले तो ब्लागरों के हस्ताक्षरित फोटो पाने में मैं उनका सहयोग करूं।
बातचीत करते हुये उन्होंने जानकारी दी एक अवकाशप्राप्त अधिकारी ने भारतीय नायकों पर एक साइट बनायी है।
बहरहाल, हम तो अपनी, झूठी सही चाहे जैसी हो, तारीफ़ से इतने लहालोट गये कि तुरन्त फोटो भेजने का भावुकता पूर्ण वायदा तुरन्त कर दिया। लेकिन अब समस्या यह है हम अपनी कौन सी फोटो भेजे। हमारे साथ कैमरा कभी सहयोग नहीं करता। पता नहीं क्या बात है कि वह तभी सच बोलता है जब हम सामने होते हैं। उसकी झूठ बोलने की हिम्मत ही नही हमारे सामने झूठ बोलने की। नतीजा जहां तमाम दूसरे लोग अपनी अच्छी-अच्छी फोटुयें लिये घूमते हैं वहीं हम अपनी सच्ची फोटो लिये टहलते रहते हैं।
अब अगर हम अपनी नयी फोटो भेजते हैं तो संजय जोशी समझेंगे कि इससे अच्छा वो मेरा लिखा ही पढ़ते रहते। अगर अपनी पहले की फोटो भेजूं तो शायद वे लौटती डाक से लिख भेजें- आपने गलती से अपनी जगह लगता है अपने बेटे का फोटो भेज दिया है। इसे मैं अपने पास रख ले रहा हूं और आपसे अनुरोध है कि आप अपनी फोटो तुरन्त भेज दें।
बहरहाल जो हो हमने यह तय किया है कि अपने वायदे के अनुसार मैं संजय जोशी को अपनी फोटो भेजूंगा क्योंकि लोग कहते हैं कि मर्द की जवाब और मर्दानगी दिखाने का इस तरह का अवसर अपने आप बहुत कम आता हैं।
आपसे भी अनुरोध है कि आप भी उचित समझें तो अपना स्वहस्ताक्षरित फोटोग्राफ़ निम्न पते भेज दें।
संजय कुमार जोशी,
17A,जदुलाल मलिक रोड,
कोलकता-6, भारत।
फोन: 09339455513
प्रियंकर जी और कलकत्ता शहर के दूसरे ब्लागरों से अनुरोध है कि वे कलकत्ता में संजय जोशी से फोनिया/गपियाकर उनको गौरवन्वित करें और सम्भव हो तो कभी मुलाकात करके संजय जोशी का संग्रह देखकर उसके बारे में एक पोस्ट लिखें। फोटो भेजने की आग्रह से चिट्ठाकार साथी मुक्त हैं जो व्यक्तिगत या पेशेगत सिद्धान्तगत कारणॊं की वजह से अपनी पहचान ‘नेटगत‘ ही रखना चाहते हैं। हम किसी की नकाब नहीं उतरवाना चाहते हैं।
वैसे अब यह सच भी बता दें कि इस संजय जोशी ने इसी तरह की मेल कुछ दूसरे ब्लागर साथियों को भी भेजी हैं। इनमें शायद कुछ महिला ब्लागर भी हैं जो यह सोचकर परेशान हों कि ये जोशी जी अपने बुढ़ापे तक याद रखेंगे! वहीं कुछ यह सोचकर उदासीन हैं कि जब बुढ़ापे में याद करना है तो अभी से काहे भेजें। आराम से भेजेंगे अपने बचपने का कोई फोटो। कुछ को यह सुकून होगा कि कोई तो प्रशंसक है जो बुजुर्ग होने पर भी साथ देगा।:)
यह जानकर कि संजय जोशी के आदर्श हम अकेले नहीं हैं, हमारे तमाम रकीब हैं, हमारा सीना ‘जैसे थे’ वाली मुद्रा में वापस आ गया। प्रशंसातिरेक की कपोल-लालिमा किसी बेवफ़ा प्रेमी सी दगा दे गयी है। अब हम सामान्य, शान्तचित्त होकर फोटो खोजने में लगे हैं। मिले तो संजय जोशी को भेज दें।
आप क्या कर रहे हैं? आप भी भेज दीजिये न फोटो।
आज मेरी पसंद में कानपुर के लोकप्रिय गीतकार विनोद श्रीवास्तव का गीत पोस्ट कर रहे हैं। गीत को सीधे सुनने के लिये यहां ‘क्लिक’ करें। डाउनलोड करके सुनने के लिये (डायल अप कनेक्शन वाले साथी खासकर)
यहां से डाउनलोड करें। यह पहली आवाजी कड़ी अनुराग मिश्र के सहयोग से लगायी गयी।
मेरी पसंद
विनोद श्रीवास्तव
ऐसे पाठक जो केवल पढ़ते हैं या टिप्पणी करते हैं वे देर-सबेर ब्लागिंग के मैदान में आ ही जाते हैं। रमणकौल काफ़ी दिन इधर-उधर टिपियाते रहे। फिर जब फिर अपना हिंदी में और कश्मीरी में चिट्ठा लेकर आये।
राजीव टंडनजी तो बहुत दिन टिप्पणी करते रहे, लोगों की वर्तनी सुधारते रहे , व्याकरण दुरस्त करते रहे। पहले तो मुझे पता ही नहीं था कि वे कानपुर में ही हैं आजकल। एक दिन आनलाइन मिले तो हमने पूछा तो पता लगा कि भाई जी हमसे केवल दस-पंद्रह मिनट की दूरी पर बसते हैं। फिर क्या वे आ गये हैं मैंदान में। आये हैं तो टिकेंगे भी। बीच में किसी ने उनको बता दिया कि चार से अधिक पोस्ट लिखेंगे तो ब्लागिंग छूट न पायेगी। हमने तुरन्त चार को चालीस किया और बताया कि चार नहीं चालीस पोस्ट तक लत नहीं पड़ती इसके बाद इलाज मुश्किल है। सहज विश्वासी होने के नाते उन्होंने मेरा कहा मान लिया और अपनी पांचवीं पोस्ट लिखी। आगे वे मार्च खतम होने के बाद अपनी धीमी गति को तेज करेंगे ऐसा मुझे पूरा भरोसा है।
मृणाल पहले अंग्रेजी में लिखते थे। मेरा ब्लाग पढ़ते थे लेकिन टिप्पणी अंग्रेजी में ही कर पाते थे। अब तो वे पूरे शायर हो रहे हैं आजकल। मजे की बात है कि कविता पढ़ते, समझते, आनंदियाते तो मैं उनको पहले भी देखता था लेकिन कविता लिखने के मामले में मैं उनको अपनी तरह,निल बटा सन्नाटा, समझता था। लेकिन हाल के दिनों में उन्होंने मेरी समझ को पटरा कर दिया और दनादन शायरी, कविता पोस्ट करते जा रहे हैं।
आश्चर्य तो मुझे तब भी हुआ जब मैंने देखा मृणाल की श्रीमती निधि ने भी हिंदी में लिखना शुरू कर दिया। पहले वे हिंदी को ऐसा ही मानतीं थी जैसा मुम्बई में भइयों को और दिल्ली, पंजाब में बिहारियों और पूरबियों को समझा जाता है। लेकिन मुझे पूरा भरोसा है कि निधि नियमित लेखन नहीं करेंगी। क्या सब निधि एक जैसी होती हैं।
हमारे कुछ फरमाइशी पाठक भी हैं। इनमें सबसे पहले आये भोला नाथ उपाध्याय। वे चुपचाप हमारे लेख पढ़ते रहे। एक लेख में गलती पकड़ लिये तो टिपियाये और अपने बारे में बताये। हमने अपने सजग पाठक की सजगता का इनाम दिया और उनके भैया गोविन्द उपाध्याय के लगातार तीन संस्मरण उनको पढ़वाये।
गोविंद जी सालों पहले अपने लिखना-पढ़ना छोड़ चुके थे लेकिन हमारी संगति में वे फिर से इस जंजाल में आ फंसे। अब हालत यह है कि महीने में चार-पांच कहानियां घसीट देते हैं। बाकायदा चार्ट बना रखा है कि कौन कहानी कहां भेजी,कहां से वापस आयी, किस अंक में कौन सी छप रही है। इसे मैं अपने ब्लागिंग की एक उपल्ब्धि मानता हूं कि इसके चलते एक स्थापित कहानीकार में दुबारा लिखने की ललक जगी।
एक पाठक जिसने हमसे सबसे ज्यादा मेहनत कराई वो हैं भारत भूषण तिवारी। वे परसाई जी के भक्त हैं ,हमारी ही तरह। नेट पर परसाईजी के इतने लेख मैंने डाले उसके पीछे कलात्मक अनुपात में आलस्य और अकर्मण्यता का मधुर सम्मिश्रण वाले भारत भूषण तिवारीकी उकसाऊ फरमाइसें रहीं। ये पढ़ के मजा आ गया अब वो पढ़ा दो क्या कहने! वो वाला संस्मरण मिले पढ़ने को तो मजा आये। उनकी अद्यतन बोले तो लेटेस्ट फरमाइसों में परसाईजी के अपने समकालीनों पर लिखे संस्मरण हैं। कुछ लेख मैंने टाइप भी कर लिये हैं। जल्दी ही वे भी पोस्ट करेंगे। लेकिन भारत भूषण इतने आलसी हैं कि दो शानदार कवितायें लिखकर बैठ गये।
हमें ऐसे पाठक बहुत कम मिले जो सामने तारीफ़ न करके ई-मेल पर वाह-वाही करें। ऐसे लोग केवल जीतू के यहां मिलते हैं जो मेल पर पूछताछ करते हैं। शुरुआती उछलकूद के बाद ही जब जीतू के ब्लागिंग में दूध के दांत भी नहीं टूटे थे तब उन्होंने एक पोस्ट में लिखा था जिसका लब्बो लुआब यह था कि तमाम मातायें-बहने उनसे कहती/ अनुरोध करती हैं कि ब्लाग में ऐसी-वैसी बातें लोग न करें। घरेलू टाइप की बातें लिखा करें। यह ध्यान रखा करें उसे मातायें/बहने भी पढ़ती हैं। ब्लाग में मां-बहन न किया करें।
हमें लगा कि सेंसर विभाग ब्लाग की आचार संहिता बनाने का काम जीतू के हाथ सौपकर खर्राटे भरने चला गया। उस पोस्ट में जीतू ने तमाम पाठकों के द्वारा पूछे गये सवालों के जवाब भी दिये थे। उन सवालों को देखकर हमें जीतू से जलन भी हुयी थी कि मातायें-बहने सारे सवाल जीतेंदर से ही काहे पूछती हैं। और यह जलन आज तक बरकरार है जब हमसे कोई कुछ्छ नहीं पूछता। सब सवाल जीतेंन्द्र से पूछते हैं। ये भी पट्ठा हम लोगों से हीपूछकर उनको बता देता है और वे लोग समझती हैं कि सब कुछ जैसे यही जानते हैं।
लेकिन हमारा सारा खेल श्वेत पत्र की तरह खुला खेल है। कोई गुपचुप प्रशंसक नहीं है। हां हमारे दो कद्रदान ऐसे हैं जो टिप्पणी तो नहीं करते लेकिन उनमें आमने-सामने मुलाकात हुयी, होती रही।
इनमें से एक हैं कॄष्णबिहारी | बिहारीजी खुद जाने-माने लेखक हैं और शुरू में हमारे लेख काफ़ी पढते रहे। वे तकनीकी तौर पर केवल इतना सक्षम हैं कि मेल पर रिप्लाई वाला ‘आप्शन’ प्रयोग करके जबाब भेज सकें। उनको हमने कानपुर में अपने आफिस में बैठाकर उनका ब्लाग भी बनवाया लेकिन वह कहानी आगे नहीं बढ़ी। अगर वे ब्लाग लेखन सीख जायें तो रोज एक पोस्ट लिखने लगेंगे लेकिन उनको इतना सक्षम बनाने के लिये लगता है मुझे अगली जुलाई की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। बिहारीजी हमसे बहुत कहते रहे कि मैं कहानियां लिखा करूं और मुख्यधारा के लेखन में आऊं। लेकिन अपन राम अपने ‘आलस्य‘ और ‘कौन झंझट में पड़े’ के शाश्वत प्रेम से बगावत न कर सके। कहानी, कविता हमसे हो नहीं सकती यह समझदारी वाला भाव हमेशा हमारे क्षणिक उत्साह से हमारी रक्षा करता रहा।
एक और हमारे पाठक हैं राकेश दुबे। वे आजकल हाई कमीशन, लंदन में हिंदी का काम-काज देखते हैं। सुदर्शन चेहरे और मधुर व्यवहार वाले राकेश भाई पिछली बार जब कानपुर आये तो हमारे घर मिलने आये। दो तीन घंटे की उस अपनापे भरी बातचीत से यह अहसास ही नहीं हुआ कि हम पहली बार मिल रहे हैं और इसके पहले हमने एक-दूसरे के फोटो भी नहीं देखे थे।
इसके अलावा हाल के कुछ पाठक मित्रों में सदानाजी भी हैं जो हमारे साइकिल यात्रा वाले संस्मरणों को पढ़कर अब मुझसे दिलीप गोलानी का पता पूछ रहे हैं। गोलानी उनका दोस्त रहा है। वे उससे मिलना चाहते हैं। अब एक दिन दिलीप गोलानी के यहां जाकर उसकी खोज-खबर लेना है।
लेकिन पिछ्ले दिनों एक प्रशंसक की चिट्ठी मिली तो हम दंग रह गये। मेल अंग्रेजी में थी जिसे कलकत्ते से किन्ही संजय कुमार जोशी ने लिखा था। मेल का लब्बो लुआब कुछ इस तरह से था।
विनम्रता और आदर के साथ आपका ध्यान खींचना चाहता हूं कि आपसे सम्पर्क के अनगिनत प्रयासों में से यह एक और प्रयास है। यह कहना फिजूल है कि मैं आपका अनन्य प्रशंसक हूं और आपके साहित्य का मुरीद हो गया हूं।इतना पढ़कर हम दंग रह गये। ये क्या हो गया है दुनिया वालों को। लोग हमारे इतने प्रशंसक हो गये और हमें पता ही नहीं चला। लेकिन आगे लिखा था-
लेकिन अब लगता है कि आपने तय कर लिया है आप मेरे पत्रों का जवाब नहीं देंगे। लेकिन आप बतायें कि क्या यह उचित है कि आप उस दिल को तोड़ें जिस पर आप राज करते हैं। यह बहुत खराब बात है। वास्तव में आप मेरे प्रेरणा के श्रोत हैं।आगे हमारी तारीफ़ में जो लिखा था वह पढ़कर हम मारे शरम के लाल हो गये और सीना शर्ट का अतिक्रमण करने का प्रयास करने लगा। हमने सोचा कि हो न हो यह जीतू की नयी शरारत हो और वो हमसे अमेरिकन महिला के भेष में एक बार मौज ले चुका अब शायद पुरुष बनकर कुछ गुल खिलाना चाहता हो। लेकिन आगे जब मैंने पढ़ा तो इस आशंका को खारिज कर दिया।
जोशी जी ने मेरी तमाम बेजा तारीफ़ के बाद मुझसे मेरी स्वहस्ताक्षरित फोटो मांगी थी यह कहते हुये -
जब मैं इतना बूढ़ा हो जाउंगा कि सपने देखने लायक न रहूं तो आपकी फोटो मेरे लिये एक खुशनुमा यादगार के रूप में रहेगी। आप अपना ख्याल रखें। आदर सहित आपका संजय कुमार जोशी,जब मैंने पता देखा तो मैंने सारी आशंकाऒं को निर्मूल मानकर अपने स्मृति पटल पर सारे जोशियों की परेड करवा दी। हमें भुवन चन्द्र जोशी मिले, गिरिराज जोशी मिले, हमारे दो सीनियर जोशी मिले लेकिन हमारी यादों के डैशबोर्ड पर किसी संजय कुमार जोशी का बल्ब नहीं टिमटिमाया।
17A,जदुलाल मलिक रोड, कोलकता-6, भारत।
खैर मैंने मेल किया कि जोशी मैं आपसे बतियाना चाहता हूं आप अपना फोन नम्बर भेजिये।
फोन नम्बर उसी दिन आ गया। बात की तो पता चला कि जोशीजी को साहित्यकारों, लेखकों की हस्ताक्षरित फोटो एकत्र करने का शौक है। हमने कहा कि भाई वो तो ठीक है लेकिन आपने हमारे ऊपर लेखक, साहित्यकार होने का आरोप कैसे लगाया?
जोशीजे बताया कि उन्होंने मेरे लेख हैरी का जादू बनाम हामिद का चिमटा और जहां का रावण कभी नहीं मरता पढ़ रखे हैं। इन दोनों लेखों से ही उन्होंने अन्दाजा लगा लिया कि हम कोई लेखक टाइप के आइटम होंगे। और उन्होंने हमारी फोटो मांगी संग्रह के लिये।
जोशी ने अपने बारे में बताते हुये कहा कि कपड़े का व्यापार करते हैं और मूलत: राजस्थान के रहने वाले हैं। उन्होंने यह भी अनुरोध किया कि और दूसरे साहित्यकारों बोले तो ब्लागरों के हस्ताक्षरित फोटो पाने में मैं उनका सहयोग करूं।
बातचीत करते हुये उन्होंने जानकारी दी एक अवकाशप्राप्त अधिकारी ने भारतीय नायकों पर एक साइट बनायी है।
बहरहाल, हम तो अपनी, झूठी सही चाहे जैसी हो, तारीफ़ से इतने लहालोट गये कि तुरन्त फोटो भेजने का भावुकता पूर्ण वायदा तुरन्त कर दिया। लेकिन अब समस्या यह है हम अपनी कौन सी फोटो भेजे। हमारे साथ कैमरा कभी सहयोग नहीं करता। पता नहीं क्या बात है कि वह तभी सच बोलता है जब हम सामने होते हैं। उसकी झूठ बोलने की हिम्मत ही नही हमारे सामने झूठ बोलने की। नतीजा जहां तमाम दूसरे लोग अपनी अच्छी-अच्छी फोटुयें लिये घूमते हैं वहीं हम अपनी सच्ची फोटो लिये टहलते रहते हैं।
अब अगर हम अपनी नयी फोटो भेजते हैं तो संजय जोशी समझेंगे कि इससे अच्छा वो मेरा लिखा ही पढ़ते रहते। अगर अपनी पहले की फोटो भेजूं तो शायद वे लौटती डाक से लिख भेजें- आपने गलती से अपनी जगह लगता है अपने बेटे का फोटो भेज दिया है। इसे मैं अपने पास रख ले रहा हूं और आपसे अनुरोध है कि आप अपनी फोटो तुरन्त भेज दें।
बहरहाल जो हो हमने यह तय किया है कि अपने वायदे के अनुसार मैं संजय जोशी को अपनी फोटो भेजूंगा क्योंकि लोग कहते हैं कि मर्द की जवाब और मर्दानगी दिखाने का इस तरह का अवसर अपने आप बहुत कम आता हैं।
आपसे भी अनुरोध है कि आप भी उचित समझें तो अपना स्वहस्ताक्षरित फोटोग्राफ़ निम्न पते भेज दें।
संजय कुमार जोशी,
17A,जदुलाल मलिक रोड,
कोलकता-6, भारत।
फोन: 09339455513
प्रियंकर जी और कलकत्ता शहर के दूसरे ब्लागरों से अनुरोध है कि वे कलकत्ता में संजय जोशी से फोनिया/गपियाकर उनको गौरवन्वित करें और सम्भव हो तो कभी मुलाकात करके संजय जोशी का संग्रह देखकर उसके बारे में एक पोस्ट लिखें। फोटो भेजने की आग्रह से चिट्ठाकार साथी मुक्त हैं जो व्यक्तिगत या पेशेगत सिद्धान्तगत कारणॊं की वजह से अपनी पहचान ‘नेटगत‘ ही रखना चाहते हैं। हम किसी की नकाब नहीं उतरवाना चाहते हैं।
वैसे अब यह सच भी बता दें कि इस संजय जोशी ने इसी तरह की मेल कुछ दूसरे ब्लागर साथियों को भी भेजी हैं। इनमें शायद कुछ महिला ब्लागर भी हैं जो यह सोचकर परेशान हों कि ये जोशी जी अपने बुढ़ापे तक याद रखेंगे! वहीं कुछ यह सोचकर उदासीन हैं कि जब बुढ़ापे में याद करना है तो अभी से काहे भेजें। आराम से भेजेंगे अपने बचपने का कोई फोटो। कुछ को यह सुकून होगा कि कोई तो प्रशंसक है जो बुजुर्ग होने पर भी साथ देगा।:)
यह जानकर कि संजय जोशी के आदर्श हम अकेले नहीं हैं, हमारे तमाम रकीब हैं, हमारा सीना ‘जैसे थे’ वाली मुद्रा में वापस आ गया। प्रशंसातिरेक की कपोल-लालिमा किसी बेवफ़ा प्रेमी सी दगा दे गयी है। अब हम सामान्य, शान्तचित्त होकर फोटो खोजने में लगे हैं। मिले तो संजय जोशी को भेज दें।
आप क्या कर रहे हैं? आप भी भेज दीजिये न फोटो।
आज मेरी पसंद में कानपुर के लोकप्रिय गीतकार विनोद श्रीवास्तव का गीत पोस्ट कर रहे हैं। गीत को सीधे सुनने के लिये यहां ‘क्लिक’ करें। डाउनलोड करके सुनने के लिये (डायल अप कनेक्शन वाले साथी खासकर)
यहां से डाउनलोड करें। यह पहली आवाजी कड़ी अनुराग मिश्र के सहयोग से लगायी गयी।
मेरी पसंद
पहले हमें नदी का सपना
आते-आते आया था,
लेकिन अब मरुथल का कंपन
जाते-जाते जायेगा।
जब सांसो में आग नहीं थी
बादल तुम तो यहीं रहे,
अब छाया की पड़ी जरूरत
आंचल तुम भी नहीं रहे।
पहले हमें नाम का जपना
आते आते आया था
लेकिन अब परिचय का बंधन
जाते -जाते जायेगा।
हमें बताया कि मेला
मन की सारी पीर हरे
लेकिन उत्सव में होना तो
मन को और उदास करे
पहले हमें गंध में बहना
आते आते आया था
लेकिन अब प्राणों का चंदन
जाते जाते जायेगा।
अब न डोलती घर आंगन में
महकी धूप महावर सी
इन आंखों में तैर रही है
कोई शाम सरोवर सी।
पहले हमें गीत में रहना
आते-आते आया था
लेकिन अब सुधियॊं का दंशन
जाते-जाते जायेगा।
पहले हमें नदी का सपना
आते-आते आया था,
लेकिन अब मरुथल का कंपन
जाते-जाते जायेगा।
विनोद श्रीवास्तव
Posted in बस यूं ही | 18 Responses
लो भाई, हम तो यहाँ भी टपते रह गये. कभी मैथली भाई हमारा दिल दुखाते हैं और कभी संजय भाई. रमण भाई से पूछा, बात समझे. फुरसतिया जी से पूछा, वो भी समझे…कई दूसरों से भी पूछा वो भी समझे…मगर हमसे पूछा तक नहीं, वो नहीं समझ पाये. लगता उनको अभी पुरुस्कारों की जानकारी नहीं मिल पाई है. एक बार फिर से दोनों पुरुस्कारों की धन्यवाद ज्ञापन वाली पोस्ट लिख देता हूँ.
-बड़ी नाइन्साफी है भाई. अरे, कोई है…कोई भी मांग लो यार फोटू…दस्खत करके धरे हैं, भेज देंगे…थोड़ा दिल रह जायेगा हमारा भी!!
–बहुत खूब फुरसतिया जी..आपका यह लेख पढ़कर मजा आ गया. वाह वाह!!
हम्म इस बात से हम भी परेशान है, हमे भी अपनी फोटो भेजने के रोज निवेदन आ रहे है ! और हमे फोटो खिंचवाने के लिये फुरसत नही है
पहले हमें नदी का सपना
आते-आते आया था,
लेकिन अब मरुथल का कंपन
जाते-जाते जायेगा।
बहुत सु्दर ! अच्छी लगी विनोद श्रीवास्तव जी की ये कविता !
हां! पंडित जी, संजय जोशी से ज़रूर बात करूंगा . देखें वे अपने शौक में कितनी गंभीरता से लगे हैं . उनकी ज़रूर मदद करेंगे . इसी इक्कीस को विश्व कविता दिवस के उपलक्ष्य में परिषद में काव्य पाठ का कार्यक्रम है . यह नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती,कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह जैसे दिग्गजों के साथ काव्य पाठ का अवसर होगा .
हमारे पास संजय जोशी का तो नही, अलबत्ता इटली से किसी लिंडा का इमेल आया था, बोली (इटली मे बनने वाली,वो वाली
) फिल्मों मे काम करना है? अगर हाँ तो फोटो भेज दो, तो हमने प्रतीक का फोटो भेज दिया (काहे? अबे वही तो सबसे सुन्दर है।)
अब प्रतीक तो गया काम से।
शुकुल तुम्हारा फोटो भी भेज दें का?
कविता बहुत अच्छी रही, अब आडियो का सिलसिला शुरु हो गया। अच्छा है, लगे रहो।
अब कोई जाकर इन अविनाश भाईसाहब को बताए कि देखिए यह चिट्ठाकारी की दुनिया इतनी दुतरफा ट्रैफिक वाली है इसे अपनी मीडिया दुनिया की तरफ वन वे न मानें।
पूरा लेख पड़ा और मजा लिया।
बढ़िया!!
समय नहीं मिल पाया था
अब पढ़ ली, उन्माद गीत का
कभी नहीं जा पायेगा
धूप महावर हुई याकि चढ़
मस्तक पर टीका बनती
संध्या के सरु में पिघली है
भावों की उर्वर धरती
जिसकी रचना को सस्वर यों
गया आज सुनवाया था
पूछ रहा हूँ उसका अगला
गीत यहाँ कब आयेगा
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