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पं. रामेश्वर प्रसाद गुरू
By फ़ुरसतिया on July 25, 2007
[परसाई जी के संस्मरणात्मक लेखों की श्रंखला में आज प्रस्तुत है उनका एक और संस्मरण। यह संस्मरण उन्होंने जबलपुर के अध्यापक, पत्रकार रामेश्वर गुरू के बारे में लिखा था। परसाई जी के मानस निर्माण में रामेश्वर गुरू और पं भवानी प्रसाद तिवारी का काफ़ी योगदान रहा। यह लेख मैं अपने उन पाठकों के लिये पोस्ट कर रहा हूं जिनको परसाई जी का लेखन पसंद है। इससे अधिक मैं अपने लिये इसको पोस्ट कर रहा हूं ताकि जब कभी किताब इधर-उधर हो जाये तो इसे एक बार फिर से पढ़ सकूं। परसाईजी के संस्मरणात्मक लेखन से एक बात सीखने की है कि चाहे जितने आत्मीय पर लिखें लेकिन उसमें वे अपना उल्लेख उतना ही करते हैं जितना अपरिहार्य होता है वर्ना लोग तो दूसरे के बारे में लिखते-लिखते अपनी कहानी सुनाने लगते हैं। यह अनशासन सीखने की बात है, अभ्यास से आयेगा। :)]
पंडित रामेश्वर गुरू की याद करता हूं तो याद आता है कि १९४६ के लगभग मैंने उन्हें पहली बार देखा था। नाम पहले से सुन रखा था। किसी समारोह में, शायद मंत्री के भाषण के लिए, जबलपुर के स्कूलों के छात्र कतारबंद करके ले जाए जा रहे थे। मैं तब माडल हाई स्कूल में. जो अब लज्जाशंकर झा स्कूल है, अध्यापक था। गुरू जी क्राइस्ट चर्च के हाई स्कूल में अध्यापक थे। मैं अपने स्कूल के छात्रों को संभालते हुए ले जा रहा था। मेरी उम्र तो बहुत कम थी। गुरू जी भी उधर थे। पूरी रैली का इंतजाम एक शिक्षा-अधिकारी के जिम्मे था। कही कोई गड़बड़ी हो गाई तो शिक्षक-अधिकारी को गुरू जी ने डांट दिया-व्हाट इज मिस्टर सो एंड सो। इफ़ यू कांट मेनेज व्हाई डु यू टेक दि रिसपांसिबिलिटी? मुझे अचरज हुआ। प्राइवेट स्कूल का अध्यापक एक शिक्षा-अधिकारी को एस तरह कैसे डाट सकता है। कहां से यह दम आई? मेरे साथी ने कहा-गुरू जी पत्रकार भी है। ‘अम्रत बाजार पत्रिका’ दैनिक के प्रतिनिधि है। यह पत्रकार की हिम्मत हैं, अध्यापक की नहीं। मेरे साथ के एक-दो अध्यापक और शिक्षण महाविद्यालय के एक-दो व्याख्याता गुरू जी के निकट थे और उनसे मिलते थे। तब नगर मैं बौद्धिक, साहित्यिक, सास्क्रतिक गति विधियों के केंद्र दो व्यक्ति थे- पंडित भवानी प्रसाद तिवारी और पंडित रामेश्वर गुरू।
पंडित रामेश्वर गुरू की याद करता हूं तो याद आता है कि १९४६ के लगभग मैंने उन्हें पहली बार देखा था। नाम पहले से सुन रखा था। किसी समारोह में, शायद मंत्री के भाषण के लिए, जबलपुर के स्कूलों के छात्र कतारबंद करके ले जाए जा रहे थे। मैं तब माडल हाई स्कूल में. जो अब लज्जाशंकर झा स्कूल है, अध्यापक था। गुरू जी क्राइस्ट चर्च के हाई स्कूल में अध्यापक थे। मैं अपने स्कूल के छात्रों को संभालते हुए ले जा रहा था। मेरी उम्र तो बहुत कम थी। गुरू जी भी उधर थे। पूरी रैली का इंतजाम एक शिक्षा-अधिकारी के जिम्मे था। कही कोई गड़बड़ी हो गाई तो शिक्षक-अधिकारी को गुरू जी ने डांट दिया-व्हाट इज मिस्टर सो एंड सो। इफ़ यू कांट मेनेज व्हाई डु यू टेक दि रिसपांसिबिलिटी? मुझे अचरज हुआ। प्राइवेट स्कूल का अध्यापक एक शिक्षा-अधिकारी को एस तरह कैसे डाट सकता है। कहां से यह दम आई? मेरे साथी ने कहा-गुरू जी पत्रकार भी है। ‘अम्रत बाजार पत्रिका’ दैनिक के प्रतिनिधि है। यह पत्रकार की हिम्मत हैं, अध्यापक की नहीं। मेरे साथ के एक-दो अध्यापक और शिक्षण महाविद्यालय के एक-दो व्याख्याता गुरू जी के निकट थे और उनसे मिलते थे। तब नगर मैं बौद्धिक, साहित्यिक, सास्क्रतिक गति विधियों के केंद्र दो व्यक्ति थे- पंडित भवानी प्रसाद तिवारी और पंडित रामेश्वर गुरू।
गुरू जी जीवन-भर पत्रकार रहे। १९४७ मे तिवारी जी और गुरू जी के संपादकत्व में ‘प्रहरी’ साप्ताहिक पत्र निकला। यह तरूण समाजवादियों का पत्र था और प्रखर था। इसी पत्र में परसाई उपनाम से मेरी पहली रचना छपी और इसी बहाने गुरू जी से मेरा परिचय हुआ। मैं उनके घर जाने लगा। उनके निकट जाने पर मालूम हुआ कि वे कितने अध्ययनशील साहित्य प्रेमी और रचनाकार थे। तब जबलपुर एक छोटा शहर था। कुल दो कालेज थे। विश्वविद्यालय नहीं था। तब साहित्य के केंद्र भवानी प्रसाद तिवारी तथा रामेश्वर गुरू थे। तीसरे व्यक्ति जो बहुत अध्ययनशील तथा रचनाशील थे, वे थे बाबू रामानुजलाल श्रीवस्तव ऊंट’। नाटककार बाबू गोविंद दास तो थे ही। तरूण लेखक तिवारी जी और गुरू जी के पास जाते थे। सुभद्रा कुमारी चौहान भी थी, जिनका बड़ा रौब-दाब था।
गुर जी साहित्य के अध्येता तो थे ही, रचनाकार भी थे। वे कविता, कहानी, नाटक, व्यंग्य, रेखाचित्र सब लिखते थे। पर वे पत्राकार भी थे और उनकी पत्रकारिता में भी रचनात्मक गुण थे। उन्होंने बच्चों के लिए नाटक लिखे थे। ‘कुमार ह्रदय’ उपनाम से वे कविता लिखते थे। उन्होंने १९४९ में सुभद्रा कुमारी चौहान पर पं.जगदीश प्रसाद व्यास के साथ एक पुस्तक लिखी थी- स्नेह, सेवा और संघंर्ष। सुभद्रा जी के व्यक्तिव और कर्म पर यह पहली पुस्तक थी। अंतिम पुस्तक उन्होंने दो साल पहले जबलपुर क्षेत्र के स्वतंत्रता-संग्राम पर लिखी।
‘प्रहरी’ में वे नियमित लिखते थे। गंभीर भी, आलोचनात्मक भी और व्यंग्यात्मक भी। उनकी भाषा बहुत प्रखर और बहुत जीवंत थी। वे ‘प्रहरी’ में इस प्रतिभा के साथ बहुत तेज-तरर्रा घातक लेख लिखते थे। उनके इसी लेखन के बारे में बाबू रामानुजलाल श्रीवास्तव ने लिखा था-
गुरू आ तो अति करू आ केरे प्रहार
सांची को कह दे या दाढ़ीजार॥
इन लेखों में कुछ में गहरी संवेदना होती थी। वे गरीबों, शोषितों के पक्षधर थे। इस वर्ग के लोगों पर उनके रेखाचित्र बहुत संवेदनपूर्ण और बहुत मार्मिक है। दूसरी तरफ़ वे सत्ता और उच्चवर्ग के विरोधी थे। सत्ता चाहें राजनैतिक हो या आर्थिक या साहित्यिक- उस पर वे प्रहार करते थे। घातक प्रव्रत्तियों में लिप्त बड़े व्यक्तियों पर वे बहुत कटु प्रहार करते थे।
‘प्रहरी’ में वे व्यंग्य काव्य लिखते थे जिसका शीर्षक था- बीवी चिम्पो का पत्र। यह हर अंक में छपता था और लोग इसका इंतजार करते थे। उसी पत्र में ‘रासम के मुख से’ कटाक्ष भी वे लिखते थे। ‘प्रहरी’ में एक प्रष्ठ बच्चों के लिए होता था। उसे गुरू जे संपादित करते थे और इसमें लिखते भी थे। यह प्रष्ठ सुदन और मुल्लू के नाम से जाता था। सुदन तिवारी जी का घर का नाम था और मुल्लू गुरू जी का। गुरू जी बाल साहित्य में बहुत रूचि लेते थे और उन्होंने बच्चों के लिएनाटक लिखे थे। ‘प्रहरी’ की फ़ाइलों में उनका लिखा ढेर सारा बाल साहित्य है, जिसके संकलन तैयार हो सकते है।
गुरू जी बौद्धिक भी थे और भावुक भी। वे छायावादी युग के थे, मगर छायावादी कविताएं उन्होंने नहीं लिखी। वे दूसरे प्रकार के कवि थे। माखनलाल चतुर्वेदी का प्रभाव उन पर था, पर वह प्रभाव प्यार, मनुहार, राग का नहीं, राष्ट्र्वाद का था। भाषा श्री माखनलाल जी से प्रभावित थीं। कवि भवानी प्रसाद मिश्र उनके अभिन्न मित्र थे। कुछ प्रभाव उनका भी रहा होगा। गुरू जी की कविताओं पर न निराला का प्रभाव है, न पंत का। इस मामले में सर्वथा स्वतंत्र थे। उनकी कविताओं में देश प्रेम, सुधारवादिता, जनवादिता है। वे संवेदनशील थे और गरीब शोषित वर्ग के प्रति उनकी सहानुभूति थी। वे इस वर्ग के संघर्ष, अभाव और दुख पर कविताएं लिखते थे। वे उदबोधन काव्य भी लिखते थे। तरूणों का, मजदूरों का, संघर्ष और परिवर्तन के लिए आवहान अपनी कविताओं में वे करते थे। वे छंद बद्ध था।उनके विषय भी चकबस्त जैसे ही थे। मैं उनसे कहता भी था कि आप चकबस्त हैं। भाषा उनकी बहुत प्रांजल और प्रवहमान थी। उनकी शब्द-सामर्थ्य बहुत थी और वे मुहावरों के उस्ताद थे। वे बहुत अच्छी बुंदेली जानते थे और उनकी बुंदेली कविताएं बहुत अच्छी है। व्यंग्य काव्य अकसर वे बुंदेली में लिखते थे।
मैंने देखा कि काव्य में उनके कुछ mannrisms हैं। माखनलाल जी के mannrism मैंने ‘वसुधा’ में लिखे भी थे। वे पीढ़ियां, ईमान, बलिपंथी, मनुहार आदि शब्दों का बहुत प्रयोग करते थे। कुछ मुहावरे भी उनके रूढ़ हो गए थे। मैंने देखा कि गुरू जी की हर कविता में ‘काश’ शब्द आ जाता है। मैंने उनसे कहा भी और वे सचेत हो गए। बोले-अब मैं सावधान रहूंगा। ‘काश’ नहीं आएगा। उन्होंने एक कविता लिखी जो मैंने ‘वसुधा’ में छपने के लिए दे दी। जब उसका प्रूफ़ आया, तो उसमें ‘काश’ नहीं था। मुझे मजाक सूझा। मैने उसमें एक पंक्ति में ‘काश’ जोड़ दिया। जब ‘वसुधा’ का अंक प्रेस से आया तब गुरू जी ने वह कविता देखी। मुझसे बोले-मैंने इन कविता में ‘काश’ नहीं लिखा था। यह कैसे आ गया? मैंने कहा-वह मैंने जोड़ा है। ‘काश’ नही होता तो लोग मानते ही नहीं कि यह गुरू जी कीकविता है।
रचनात्मक लेखन के सिवा उन्होंने ज्ञानात्मक लेखन भी किया। वे खुद एक ज्ञानकोश थे। उन्हें समसामयिक घटानाओं की जानकारी तो रहती थी, ऎतिहासिक जानकारी भी उनके पास बहुत थी। ज्ञान, विज्ञान, समाज, साहित्य, संस्क्रति, राजनीति आदि का ऎतिहासिक और समकालीन ज्ञान उनके पास था। वे कुछ वर्ष तक छात्रों के लिए ज्ञान-कोश तैयार करके प्रकाशित कराते रहे। उनके पास ज्ञान-भंडार बहुत था। बहुत अच्छा उनका पुस्तकालय है। पत्रिकाओं की फ़ाइलें है। दुर्लभ ग्रंथ है। वे फ़ाइलिंग के उस्ताद थे। कोई भी महत्वपूर्ण बात अखबार में आती, वे उसे काटकर फ़ाइल में रख लेते। वे पत्र-व्यवहार बहुत करते थे। बहुत-से पत्र वे छोड़ गए हैं।
साहित्यिक, सास्क्रतिक, सामाजिक गतिविधियों में हमेशा संलग्न रहे। वे ‘वीर पूजा’ में विश्वास करते थे और अक्सर कार्लाइल की पुस्तक ‘Heroes and Hero Worship’ का जिक्र करते थे। उन्होंने सुभद्राकुमारी चौहान की प्रतिमा की स्थापना नगर निगम कार्यालय के सामनेवाले लान मे कराई। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के अभिनंदन में समारोह आयोजित किया। चिकित्सक और राजनीतिज्ञ डा. डिसिल्वा की स्म्रति में उन्होंने डिसिल्वा रतन श्री माध्यमिक विद्यालय की स्थापना की स्थापना कराई। वे जब शहर के मेयर थे, तब महात्मा गांधी और पंडित मदनमोहन मालवीय की आदमकद प्रतिमाओं की स्थापना कराई। अपने मित्र प्रसिद्धपत्रकार हुकुचंद नारद की स्म्रति में उन्होंने विक्टोरिया अस्पताल में विश्राम-कक्ष बनवाया।
उनका बहुत महत्वपूर्ण साहित्यिक कार्य ‘वसुधा’ मासिक पत्रिका का पौने तीन वर्षों तक प्रकाशन था। इस पत्रिका में सहयोग सबका था, पर ‘वसुधा’ तब बिखरे हुए प्रगतिशील साहित्यकारों की पत्रिका थी। ‘वसुधा’ में ही मुक्तबोध ने धारावाहिक रूप से ‘एक साहित्यिक की डायरी’ लिखी थी, जो सौंदर्यशास्त्री और रचना-कर्म के संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ के रूप में बाद में पुस्तकाकार छपी।
आज जब गुरू जी संसार में नहीं है, तब हमें उनकी साहित्य-रचना, पत्रकारिता तथा साहित्य-कर्म की याद ताजा हो जाती है।
-हरिशंकर परसाई
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