हम ने फ़ुरसत से बाँचा तो समझ में आया कि आप ने फ़ुरसत से नहीं लिखा..फ़ुरसतिया टाइम्स पहले के मुकाबले बहुत छोटा निकला.. फिर भी तेवर वही है.. और आलोक पुराणिक की बात सही है.. इसे जारी रखिये..
मजा नही आया,आप के नाम के अनुरूप नही है. कृपया अपना लेखन खुद करे,ठेके(या प्रोक्सी) पर करवाये काम की गुण वेत्ता घटिया होती है. चाहे तो ज्ञान जी से भी राय लेकर देखले .
जल्दबाजी मे निकला फुरसत का फुरसतिया टाईम्स…जरा विस्तार दो भाई. एक पन्ना का अखबार…फुरसतिया जी को बदनाम करोगे क्या? जता बढ़ाओ विस्तार…वैसे जितना परोसा वो तो पसंद आया. बधाई.
pramod singhJuly 14, 2007 at 9:23 am | Permalink | Reply
ये तो अख़बार के नाम पर हाथ में पंप्लेट रखाना हुआ.. और ऊपर से कह रहे हैं फ़ुरसत से बांचो? फ़ुरसत से बांचते हुए भी तीन मिनट में बंचा जाता है! फिर अलग से तकनीक बताना चाहिए था न कि सपरियाये हुए फ़ुरसत में बांचने का उचित तरीका क्या है? फिर इतने समय से आपको राह दिखा रहे हैं मगर देख रहे हैं कि अभी तक पतनशीलता का आपपर वाज़िब प्रभाव नहीं पड़ा है.. हमेशा से ऐसे ही कमज़ोर स्टूडेंट रहे हैं आप?.. हद है.. पतनशीलता में भी आप सफ़ेद कुर्ता-पैजामा पहनकर उतरना चाहते हैं?
आपकी हैंडराइटिंग सचमुच इतनी ही खराब है? फिर भी आपको नौकरी मिल गई? ताजुब्ब है! फिर लगता है कलम के नाम पर भी आप पैसा बचा रहे हैं.. अच्छी रंगदार कलम नहीं मिली आपको? और अगली मर्तबा अच्छा पोस्टर पेपर लेकर लिखने बैठिएगा. अख़बार निकाल रहे हैं और कागज़ तक का पैसा बचा रहे हैं! कोई तरीका है?
इसे साप्ताहिक तो बना ही दीजिये जी
हफ्ते भर की घटनाओं पर वन वन लाइनर हो, तो क्या बात है।
सादर
आलोक पुराणिक
कृपया अपना लेखन खुद करे,ठेके(या प्रोक्सी) पर करवाये काम की गुण वेत्ता घटिया होती है.
चाहे तो ज्ञान जी से भी राय लेकर देखले .
हल्ला बोल करते हैं
वाह वाह वाह वाह!!!