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जहां चार यार मिल जायें…
By फ़ुरसतिया on July 15, 2007
जीतेंद्र काफ़ी दिन से जम्बूदीपे भारत देशे टहल रहे थे। हमको कई बार फोनियाये कि यार मुलाकात कर लो। दर्शन दे दो। भारत आना सार्थक कर दो। हम उनको टहलाते रहे। वे मिलने के लिये कुनमुनाते रहे। एक दिन तो वे दिन भर हमारे घर के एकदम पास में दिन भर जमे रहे लेकिन हमने उनको लिफ़्ट नहीं दी। असल में उस दिन अगर हम मिलते तो तीन लोग होते। जीतू, राजीव टंडन और तीसरे हम जिसे अलिफ़, बे, पढ़ने वाले कहते हैं और तीसरा खाकसार मैं। तीन लोग जहां हुये हम उसे तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा मानकर डर जाते हैं।
बहरहाल आज मौका मिला। तीन के चार हुये। चौथे थे हमारे ज्ञानी ज्ञानदत्तजी। वे आल द वे फ़्राम एलाहाबाद ट्रेवेल करके जस्ट टु मीट अस कानपुर आये। चार लोग हो गये तो गाना गुनगुनाया गया- जहां चार यार मिल जायें वहीं टाइम हो गुलजार।
यह मुलाकात पहले इतवार को, राजधानी रिटर्न होने के बाद, होने वाली थी। लेकिन जब जीतू का कुछ पारिवारिक दायित्व के कारण शनिवार को दिल्ली जाना नहीं हो पाया तो यही सोचा गया -शुभस्य शीघ्रम। सबेरे फोन करके पता किया गया कि जीतू शशरीर कम्पू में बने हुये हैं तब पांडेयजी को सूचित किया गया। वे धड़धड़ाते हुये पधार गये। कोरम पूरा हो गया।
सबेरे पांडेयजी का फोन मिला कि वे कानपुर दोपहर को आ जायेंगे और शाम तक रहेंगे। हमने जीतू और टंडनजी को फोन पर सूचियाया और पांडेयजी से मिलने के लिये मामला सेट कर लिया। हमने राजीव जी को उनके घर से उठाया। वे बोले- चाय लड़ जाये। हमने कहा – लड़ाई के बादल हमने सब दिल्ली रवाना कर दिये। यहां तो बतरस लालच के लिये चला जाये। चाय तो वहां पांडेय जी पिलैवै करेंगे। बाद में पांडेयजी ने हमारे विश्वास के डबल रक्षा की। चाय पिलाने के पहले ठंडा भी पिलाया। आलू के चिप्स घाते में।
रास्ते भर राजीव टंडन जी और हम बतियाते हुये गये। एक फोन आया तो टंडनजी मौज लेते रहे अपने अभिन्न मित्र ,जो कि मुन्नू गुरू के खानदान के हैं, से कि भाई हम बिजी आदमी हैं। मिलने के लिये एक दिन पहले टाइम सेट कराना पड़ता है।
मौजमुक्त होने के बाद वे हमको अपने ओरछा भ्रमण का किस्सा सुनाते रहे।
बहरहाल, हम जल्द ही रेलवे स्टेशन के रिटायरिंग रूम में पहुंच गये जहां कि पांडेयजी सफ़ेद झक्क कुर्ता-पायजामा में बैठे हमारा इंतजार कर रहे थे साथ में विष्णुकान्त शास्त्री की चुनी हुयी रचनायें पढ़ रहे होंगे क्योंकि किताब उनके पास रखी थी।
हम कुछ देर बतियाते रहे। हमने कनपुरिया होने के नाते कुछ राजीव टंडनजी की तारीफ़ झाड़ी। इसके बाद जब जीतेंन्द्र आये तो उन्होंने भी नये सिरे से राजीव टंडन के शान में कसीदे काढ़े। वैसे बता दें कि टंडन जी ने हमारे उकसावे पर ब्लाग तो बना लिया लेकिन लिखने के मामले में न्यूटन के भक्त हैं। जड़त्व के अधीन। बाह्य बल एकाध बार लगाया भी तो मेल लिखी कि हमारा ब्लाग नारद से हटा दिया जाये। उनको जबाव दिया गया- इस रूट की सारी लाइनें व्यस्त है। तब तक आप कोई काम की बात करिये। बेकार की बातों में समय मत बरबाद करें।
जीतेंन्द्र आये तो पहली मंजिल से फिर फोन किया अरे भाई आप लोग कहां हैं? पांडेयजी समझे कि शायद बालक रास्ता भटक गया और गलती से नीचे की मंजिल में पहुंच गया। जबकि असलियत से हम वाकिफ़ थे। जीतेंन्द्र पहली मंजिल पर सुस्ताने के लिये वहां से फोन कर रहे थे। थोड़ी देर हांफ़ने के बाद वे घटनास्थल पर अवतरित हुये।
जिस समय दिल्ली में जीतेंन्द्र के नाम पर तमाम लोग उछल-कूद कर रहे होंगे उस समय पांडेयजी उनसे गले मिलने के बाद उनको अपने हाथ से पानी पिला रहे थे।
वैसे जीतू का दिल्ली जाना तय था लेकिन अपनी भतीजी के एड्मिशन के चलते उनको कानपुर में स्कूल के प्रबंधक से मिलना था इसलिये वे जा नहीं पाये और दिल्ली वाले एक महान हस्ती के दर्शन से वंचित रह गये। जरूर दिल्ली के ब्लागरों से पूर्व जन्म में कुछ पुण्य किये होंगे।
हम लोग जब सोफ़ासीन हो गये तो पांडेयजी के सौजन्य से ठंडा-उंडा आ गया। हम उसे गर्माते हुये पीते रहे और चाय के लिये भी पांडेयजी ने आदेश पारित कर दिया।
हम ब्लागर-ब्लागिंग के बारे में बतियाते इसके पहले पांडेयजी ने बड़े सच्चेपन से बताया कि जिंदगी में ऐसा पहला या दूसरा मौका है जब वे इस तरह ऐसे लोगों से मिलने दूसरे शहर आये जिनके बारे में केवल जानते हैं और जिनसे वे पहले कभी नहीं मिले। हम जीतेंन्द्र से दूसरी बार मिल रहे थे। बाकी सब लोग आपस में पहली बार मिल रहे थे।
बातें न जाने क्या-क्या हुयीं। सब याद भी नहीं। लेकिन आम तौर पर ब्लागजगत की प्रवत्तियों पर हुयी। पांडेयजी ने मुझसे मौज लेते हुये कहा- भैया, आप तो इतना लम्बा खर्रा लिखते हो। उन्होंने मौज ले ली, हमने दे दी। एक बार फिर हमने सफ़ाई पेश की कि हम इतने बुरे शुरू से नहीं थे। हमारी पहली पोस्ट में कुल जमा नौ शब्द हैं। तमाम ब्लागरों को पर्याप्त समय दिया गया। बुराई भलाई को भी तव्व्जो दी गयी। अब वह सब क्या बतायें! सब लोग जानते ही हैं कि किसकी तारीफ़ हम लोगों ने की थी होगी और किसकी बुराई। हमने सब कुछ किया लेकिन अदब के साथ। भदेस भाषा हमने पीठ पीछे भी किसी के लिय इस्तेमाल नहीं की। रिटायरिंग रूम की खिड़कियां, दरवाजे, सोफ़ा,मेज और पचास-साठ लीटर का वहां मौजूद पुराना फ़्रिज इस बात के गवाह हैं।
पांडेयजी एक साइट बनाना चाहते हैं। इसमें सिर में चोट लगने के उपचार से संबंधित सामान्य जानकारी को हिंदी में उपलब्ध कराने की योजना है। करीब अस्सी-नब्बे पेज का अनुवाद है। हमने अपने निरंतर के पुराने दिनों को याद करते हुये बताया कि कैसे हम लोग पांच-पांच, छह-छह पेज के अनुवाद चार-पांच भाग में करके एक दो दिन में कर लेते थे। उसी रफ़्तार से काम करेंगे तो अंग्रेजी के अस्सी-नब्बे पेज को हफ़्ते भर में हिंदिया के नेट पर विराजमान कर देंगे। जीतेंन्द्र बोले इसकी साइट ऐसे बनायेंगे, वैसे बनायेंगे। ये फ़्रंट होगा वो बैक होगा। अनुवाद ये लोग कर देंगे। हम बड़े इम्प्रेस्ड टाइप का हो गये। लेकिन बाद में घरवापसी के समय राजीव जी ने जब बताया कि इसमें मुख्य काम तो अनुवाद का ही है। बकिया तो हो जायेगा। हम एक बार फिर जीतेंन्द्र की अपना काम पीछे पड़कर दूसरों से करवाने की कला के मुरीद हो गये। बंदा अपने बारे में खुद कहता है कि ये गंजो को कंघा बेच लेता है।
ब्लागिंग के पुराने दिनों को याद किया गया। जब जीतेंन्द्र सबसे ज्यादा लिखते थे।उनके बउवा, छुट्टन, मिर्जा, पप्पू और वर्माजी की बिटिया को याद किया गया। ये सब जीतेंन्द्र के मोहल्ला पुराण के चरित्र हैं। हमने अनुरोध किया कि यार वर्माजी की बिटिया की उमर हो गयी अब उसकी शादी करा दो। नारद का काम एकाध दिन चाहे छोड़ दो। वैसे भी तमाम ब्लाग संकलन आ गये हैं। कुछ दिन तफ़री कर लो।
ब्लाग संकलक की बात चली तो यह भी पता चला कि आज दिल्ली में दोस्तों ने बड़ी बहादुरी दिखाई और नारद की तमाम लानत-मलानत की। दूसरे ब्लाग संकलक के गुण गाये गये होंगे। यह बहुत अच्छी बात है कि नये-नये उपाय आ रहे हैं और चिट्ठाजगत में प्रगति हो रही है। लेकिन यह बात सबको ध्यान में रखनी होगी कि संकलक का महत्व तभी है जब ब्लाग हैं। ब्लाग के लिये संकलक है न कि संकलक के लिये ब्लाग।
पांडेयजी विषयांतर के लिये टोंकेगे जरूर लेकिन उसके लिये क्षमा मांगते हुये एक सच्चा किस्सा संक्षेप में। हम बीएचयू में पढ़ते थे। एम टेक में स्कालरशिप मिलती थी। एक बार कुछ देर हो गयी। हमारे ऊपर उधार और बेचैनी सवार होती गयी। एक दिन हम अपने विभाग के बाबू की मिजाज पुर्सी कर रहे थे कि जल्दी पैसा मिल जाये। क्लर्क ने कहा कर देंगे। हमने अनुरोध किया और पर्याप्त मिनमिनाते हुये इसे तुरंत करने के लिये कहा। क्लर्क के क्लर्कोचित ठसके से कहा – हम तुम्हारे नौकर नहीं हैं जो तुम्हारी मर्जी से कर दें। जब समय होगा करेंगे। इस पर हमारे एक साथी, हू हेल्ड फ़्राम बलिया, ने युवकोचित रोष और तीखेपन से कहा- सुनो, तुम हमारे नौकर हो और ये जो तुम्हारे हेड बैठे सामने वाले कमरे में वो भी हमारे नौकर हैं। क्लर्क को हतभ्रम होने का ज्यादा मौका दिये बगैर उसको संचाद का हिंदी अनुवाद भी समझाया गया। हम यहां इसलिये नहीं पढ़ने आते हैं कि तुम यहां नौकरी करते हो। तुमको यहां इसलिये नौकरी इसलिये मिली है क्योंकि हम यहां पढ़ने आते हैं।
अब क्या यह भी बतायें कि इस ज्ञानामृत का पान करते ही श्रोता ने क्लकोचित ठ्सक त्याग कर बाबुओचित विनम्रता से हमारे पैसे अगले दिन दे दिये।
अब क्या यह भी बतायें कि इस ज्ञानामृत का पान करते ही श्रोता ने क्लकोचित ठ्सक त्याग कर बाबुओचित विनम्रता से हमारे पैसे अगले दिन दे दिये।
इस विषयांतर वार्ता का हिदी अनुवाद यह है कि ब्लाग संकलक का महत्व ब्लाग के कारण है न कि संकलक के कारण ब्लाग का महत्व है। जो लोग संकलक-संजीवनी (चाहे वह नारद हो, या ब्लाग वाणी या चिट्ठाजगत या अपने आगरे के स्मार्टी प्रतीक का हिंदी ब्लाग) से अपने ब्लाग में फिर से ताकत और स्फूर्ति का अहसास जगाने के विचार में हैं वे यह ख्याल रखें कि ब्लाग के चलते ही ब्लाग संकलक की औकात है। ब्लाग बिना सब सूना।
इस फ़ीड, संकलक के जमाने में भी कम से कम दस ब्लाग ऐसे हैं जिनको देखने के लिये मैं सीधा उनका पता टाइप करके पता करता हूं कि कोई नयी पोस्ट आयी या पुरानी पर कोई कमेंट जुड़ा क्या।
पांडेयजी से भाषा के विषय पर बात हुयी। वे बोले -हमारी सोचने की प्रक्रिया अंग्रेजी में होती है। इसलिये अक्सर अंग्रेजी के शब्दों के लिये उपयुक्त हिंदी शब्द नहीं मिलते। सो ज्यादा सोचने के बजाय जैसा अंग्रेजी का शब्द याद आता है वैसा ही ठेल देते हैं।
पांडेयजी जिस तरह नये-नये हिंदी के शब्द गढ़ते रहते हैं उससे मेरी उनके धारणा है कि हिंदी उनसे इतने दिन छूटी रही। इसलिये ऐसा लगता है उनको कि उनका ‘थाट प्रोसेस‘ अंग्रेजी में चलता है। लेकिन जल्द ही उनके हिंदी के शब्द का प्रयोग बढ़ता जायेगा। मैं मजाक में कहता हूं-पांडेयजी आपकी हिंदी सोती सुंदरी की तरह है जिसे सालॊं बाद जगाने के लिये कोई राजकुमार झाड़-झंखाड़ काटते हुये, रास्ता बनाते हुये उसके पास तक पहुंचने का प्रयास कर रहा है।
कोलकता यात्रा के बहाने प्रियंकरजी से मुलाकात, विमल मित्र की प्रसिद्ध किताब खरीदी कौड़ियों के मोल का जिक्र भी हुआ। यह भी माना गया कि स्कूल,कालेज के दिनों के पढ़े हुये किताब, कहानी, उपन्यास बहुत दिन तक याद रहते हैं।
हम बतियाते रहते अगर पांडेयजी के विभाग के लोग यह न बताते कि साहब का सैलून लग गया है। पांडेयजी को इलाहाबाद जाना था। हम चलते-चलते भी उनसे बतियाते रहे। पांडेयजी भी बेचारे बने चर्चा में शामिल बने रहे। हमने जब उनको छोड़ा तब गाड़ी छूटने में केवल पांच मिनट बचे थे।
हमने जीतेंन्द से कहा – अरे वो सब कहो बड़ा अच्छा लगा। मजा आया। आदि-आदि। लेकिन वे बोले कि इसमें कोई नाटक थोड़ी है। कहने की क्या यह महसूस करने की बात है।
हम जब आये थे तब हाथ मिलाकर बातचीत की शुरुआत हुयी थी। विदा हुये तो गले मिलकर विदा हुये। मात्र दो घंटे में सीधे सम्पर्क क्षेत्रफल १५ वर्ग सेमी से बढ़कर लगभग ३०० वर्ग सेमी हो गया था। बीस गुना बढ़ोत्तरी।
नितान्त अनजान व्यक्ति से मात्र दो घंटे में इतने हो जायें कि घंटों बाद भी उन क्षणों को फिर-फिर याद करने का मन करे यह अपने आप में उपलब्धि है।
पांडेयजी को छोड़ने के बाद हम वापस चल दिये। स्टेशन पर ही हमारी श्रीमतीजी मिल गयीं जो फ़तेहगढ़ से अपना स्कूल निपटा के आयीं थीं। जीतेंन्द्र से उनसे उनका मोबाइल नम्बर लिया ताकि वो समय-समय पर हमारी शिकायत कर सकें।
रास्ते में जीतेंन्द्र से बताया कि उनको दिन में कभी-कभी दो-तीन सौ लोगों की मेल के जबाब देने पड़ते हैं। उनमें ज्यादातर मेरी पोस्ट नारद पर नहीं आयी, पोस्ट दिख नहीं रही क्या बात है टाइप की होती हैं। इसके बाद लोगों की धमकियां अलग से। कभी-कभी मन करता है कि, जीतेंन्द्र रोटी पकाने वाले अंदाज में एक -हाथ को दूसरे पर पलटते/पटकते हुये बोले, सब तहा के अलग रख दें और अपना काम करें।
हमने सोचा कहें- न जीतू ऐसे मत करना,कभी मत करना। लेकिन यह सोचकर कि उसकी बात को गम्भीरता से लेना बेकार है. हम चुपा गये।
शाम होते-होते हमने जीतेंन्द्र को बड़े चौराहे पर छोड़ दिया जहां उनके घर वाले उनका इंतजार कर रहे थे। हम अपने घर आ गये।
मुझे नहीं मालूम कि दिल्ली में कैसे क्या रहा मुलाकात का समां। लेकिन जैसे मसिजीवी ने लिखा-हिंदी ब्लॉगिंग का साधुवाद युग अब बीत गया उससे ऐसा लगता है कि मानो अब हिंदी ब्लाग जगत का कलयुग आ गया।
लेकिन मुझे ऐसा कुछ नहीं लगता। असल में व्यक्ति जैसा होता है वैसी ही उसे दुनिया दीखती है। हिंदी ब्लाग जगत में मेरे ख्याल में मैं सबसे ज्यादा लोगों से मिला हूं। और मुझे हर मुलाकात के बाद वे लोग और प्यारे नजर आये हैं। वे लोग भी जो मेरे प्रसंशक रहे और वे भी जिनसे मेरी यादगार भिडंत, बहस-मुबाहिसा हुआ।
यह सोचना खामख्याली है हिंदी ब्लागिंग के सारे साधुमना लोग गो, वेंट, गान हो गये और अब यहां केवल दुष्टात्मायें बचीं। अगर ऐसी बात होती तो देश के कोने-कोने से अलग-अलग सोच वाले अनजान लोग मिलनातुर होकर दिल्ली में न जमा होते। केवल अपनी दुष्टता प्रदर्शित करने और लड़ने-भिड़ने के लिये लोग लोग अपने जेब से पैसे करके नहीं आते।
हिंदी ब्लागिंग का न अभी साधुयुग समाप्त हुआ है, न समीरलाल अप्रसांगिक हुये है। बल्कि अब उनकी प्रासंगिकता और बढ़ गयी है कि इस तरह के आदतन खुराफ़ात मना साथियों को अपनी उड़नतश्तरी में थोड़ा-मोड़ा घुमाकर मन बहलाव करा दिया करें। ताजी हवा से मन हल्का हो जायेगा।
आपका क्या कहना है?
हिंदी ब्लागिंग का न अभी साधुयुग समाप्त हुआ है, न समीरलाल अप्रसांगिक हुये है। बल्कि अब उनकी प्रासंगिकता और बढ़ गयी है कि इस तरह के आदतन खुराफ़ात मना साथियों को अपनी उड़नतश्तरी में थोड़ा-मोड़ा घुमाकर मन बहलाव करा दिया करें। ताजी हवा से मन हल्का हो जायेगा।
आपका क्या कहना है?
Posted in बस यूं ही, सूचना | 21 Responses
3. जीतेन्द्र तो बड़ी लाइव पर्सनालिटी लगे. ऐसे लोग तो हर स्थिति में, अपनी मनमौजी पन से wriggle out कर लेते हैं.
4. 15 वर्ग सेमी में मजा नहीं आया था, पर 300 वर्ग सेमी का इमोशनल बैंक अकाउण्ट ले कर लौटा तो बहुत अच्छा लग रहा था.
5. यह जरूर कह सकता हूं कि किसी से मिलने यत्न कर दूसरे शहर गया होऊं, ऐसा पहले नहीं हुआ.
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और हॉं साधुवाद युग की समाप्ति का मतलब साधुमना लोगों की समाप्ति नहीं था, तुम भी अच्छे…तुम भी अच्छे की अनर्गल पुकार था…अब बुरे को लोगों ने बुरा कहना शुरू कर दिया है।
जीतू भाई ने निराश किया उन सब को जो यहा दिल्ली मेँ उन की प्रतीक्षा कर रहे थे शायद कोई खुल कर न कह सके. सब से निराशा जनक रहा आयोजकोँ का १०.३० का समय दे कर १२.०० बजे पहुँचना…. साथ ही यह भी सिद्ध हो गया कि लोगोँ की आशँका निर्मूल नही थी की आयोजन स्थल उपयुकत नही है… अगर मैथिली जी के आफिस मेँ सब जमा न होते तो ये एक फ्लाप शो होता.
हमें तो सिर्फ काला धब्बा ही दिख रहा है।
@ ज्ञानदत्तजी, आपसे मिलना एक उपलब्धि रही। आशा है जल्दी ही फ़िर मिलना होगा।
@मसिजीवी,दिल्ली के ब्लागर ने हमारी मुलाकात को ‘इग्नोर’ किया लेकिन हमने आपकी ‘इग्नोरेन्स‘ को स्वीकार किया। वैसे भाई मसिजीवी, अगर हिंदी के एक अध्यापक को अपने लिखे का मतलब समझाना पड़े तो उसे यह सोचने के लिये फ़ुरसत निकालनी चाहिये कि उसकी अभिव्यक्ति में कहीं खोट-खामी तो नहीं है। ‘साधुवाद का अंत’ जैसी टिप्पणी के साथ समीरलाल के बेरोजगार होने की बात संवेदनशील है। इसे इतनी हड़बड़ी से कहने से बचना चाहिये। और सच तो यह है कि दुनिया में हमेशा से तमाम तरह के युग एक साथ विचरते हैं। दूसरी प्रवत्तियां भले आती जायें, छा जायें, लेकिन साधुवाद युग और समीरलाल जैसे लोगों की प्रासंगिकता कभी कम नहीं होती, होगी।
@सृजनशिल्पी,जीतू से कल मुलाकात तो ‘भागे भूत से लंगोटी भली‘ टाइप रही। वो दिल्ली न जा पाया तो कानपुर में मिल लिये। वैसे यहां भी मिलना ही था जाने के पहले कभी न कभी। ज्ञानजी मिलने के मामले में सेलेक्टिव हैं यह कहने की बजाय हरेक की अपनी प्राथमिकतायें होती हैं कहना ज्यादा उचित होगा। जैसे जीतू यहां कई दिन से हैं। हमारे घर के बगल में बने रहे लेकिन मिलना कल हो पाया। आज भी अभी मेरी कालोनी के गेट से होकर एक जगह गये। शायद लौटकर आयें या न आ पायें।
पांडेयजी को पढ़ना अपने में उपलब्धि है। भाषा के स्तर पर अभी वे सही में अपनी बिसर गयी भाषा सम्पदा को हासिल कर रहे हैं। जल्द ही कर लेंगे। मसिजीवी की पोस्ट पर गलतफ़हमी जैसी कोई बात नहीं है। साधुवाद युग और समीरलाल जैसे लोगों का समय कभी नहीं समाप्त होता। सच कहना चाहिये लेकिन सच्चाई भी प्रोत्साहित करते हुये बयान की जा सकती है। भाषा से जुड़े लोगों के हुनर की यही परीक्षा है कि कैसे वे अप्रिय सच बिना ठेस लगाये बता सकें। :)कोई भी सनसनी, अगर उसमें तत्व नहीं है तो वह अल्पजीवी होती है। एक झाग की तरह जो जितनी जल्द उछलती है उतनी ही तेजी से बैठ जाती है। अपनी योजनाऒं पर अमल के लिये प्रयास करते रहो।:)
@ प्रतीक, आते हैं आगरा भी एक दिन।:)
@श्रीश, जीतू की मजबूरी बतायी मैंने। फोटू का रोना भी। जो है उसी में मौज लो भाई।:)
@अमित, हमारी सारी रोशनी तो तुम ले उड़े इसीलिये कुठरिया में अंधेरा हो गया। जल्द ही शायद कैमरे से फोटॊ लेना सीख जाऊं। वैसे जीतू के पास हैं साफ़ फोटो।
@संजीत त्रिपाठी, शुक्रिया।
@मोहिंदर कुमार, जीतेंद्र के बारे में मैंने बताया। बाकी दिल्ली में आयोजन के बारे में क्या कहें। वैसे इत्ते अनौपचारिक आयोजन में ऐसा हो ही जाता है। आयोजकों को क्या कोसें? वैसे बाद में शो तो ही गया न! अंत भला तो सब भला।
@सागर, काले धब्बे में ही काम की चीज तलाशो। वैसे पढ़ने में तो आ रहा है कि नहीं!
जीतू भाई के इंतजार में हम भी बहुत आतुर थे उन्से निवेदन है कि अगले सप्ताह जब दिल्ली आयें हमसे जरूर मिलें।
जो लोग साधूवाद युग के समाप्त होने की घोषणा कर रहे हैं वास्तव में वही इस साधुवादिता से दिल्ली मीट में काफी परेशान दिखे कि यह साधूवाद क्या होता है और सब लोग ऐसा ही क्यों लिखते हैं
हमेशा जैसी फ़ुरसतिया पोस्ट ।एक एक विवरण ।जीतू जी ने तो बहुत राह तकवाई । हिसाब भी चुकता करने के आसार नही
(मान ना मान मैं तेरा मेहमान) ही ही ही!!
@सुजाताजी, फोटो के बारे में हम पहले ही रोना रो चुके। जीतू से मिलें तो साफ़ दिखायेंगे। रपट पसंद करने का शुक्रिया।
@डा.प्रभात टंडन, आते तो अच्छा रहता। चलिये दीपावली में सही। मिलना होगा।
@विजय वडनेरे, आपने सही कहा। हम देखते रहते हैं कि विजय नें कुछ लिख तो नहीं दिया।:)
@भुवनेश, धैर्य धारण करो। उजाला भी होगा।
@प्रियंकरजी, आप अपने इस अद्भुभुत गद्य की ताकत पहचानिये। इसे कुछ लिफ़्ट दीजिये। इतना लालित्य आपके लेखन में है उससे हमें वंचित कर रहे हैं। बहुत अच्छा लगा आपकी टिप्पणी पढ़कर।
@समीरलाल, हम क्षमा-वमा नहीं करेंगे। मुंह फ़ुलाये हैं। आप यहां सादुवाद कहने के बजाय वहां अपने ब्लाग पर रोना-गाना कर रहे थे। यह अच्छी बात नहीं है।:)
@राजीव टंडन, रिपोर्ट की तारीफ़ के लिये शुक्रिया। जड़्त्व के आरोप का खंडन कहां हुआ? वह तो पुष्टि हुयी कि जहां बाह्य उकसावे का बल लगा आप चल पड़े।