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मुझे आज भी गणित समझ नहीं आता
प्रत्यक्षा-जन्मदिन मुबारक
By फ़ुरसतिया on October 26, 2007
[ हिंदी ब्लाग जगत में प्रत्यक्षा के बारे में कुछ बताना तो सूरज को दिया दिखाना है या फिर ऐसा कहें कि पूरे पढ़े लेख के नीचे उसका लिंक देना है। वे कवियत्री है, कथाकार है, चित्रकार हैं, मूर्तिकार हैं, धुरंधर पाठिका हैं, संगीतप्रेमी हैं और चिट्ठाकार तो खैर हैं हीं। उनकी रुचियों और क्षमताऒं की सूची बड़ी लंबी है। वो तो कहो उनके ऊपर आलस्य का ठिठौना लगा है वर्ना मानव सभ्यता के सबसे काबिल लोगों में उनका नाम शामिल करने की मुहिम शुरू हो गयी होती। प्रत्यक्षा की कहानियां-कवितायें, लेख नेट पर तो अर्से से उपलब्ध हैं लेकिन अब पिछले माह से वे प्रिंट मीडिया की भी धाकड़ लेखिका बनने की राह पर चल डगरी हैं। संपादकगण उनसे कहानी मांगकर छाप रहे हैं यह सब प्रत्यक्षा को नया-नया और खुशनुमा लग रहा है आजकल।]
प्रत्यक्षा
यह् बात् मैंने प्रत्यक्षाजी के पिछले जन्मदिन पर लिखी थी। इस् साल भर में सब चीजे वैसे ही चलीं सिवाय इस् बात् के कि उनका अपने ब्लाग् पर् लिखना कुछ् कम हो गया जिसकी भरपाई उन्होंने पत्रिकाओं में लिख कर की। हाल् ही में नया ज्ञानोदय् में उनकी कहानी रेडिफमेल् ईमेल्-शीमेल् छपी जो कि निरंतर् में पहले ही प्रकाशित हो चुकी थी। उनकी कहानी हनीमून् भी प्रिंट मीडिया में छपी और् चर्चित् हुयी।
प्रिंट मीडिया में जो कहानी उनकी छ्पीं उन् पर् उनके पाठकों ने रोचक् प्रतिक्रियायें एस्.एम्.एम्. के जरिये दीं लेकिन् बहुत् कहने के बाद् भी उन्होंने वे प्रतिक्रियायें अपने ब्लाग् पर् नहीं डालीं। डालतीं तो जानकारी होती कि पाठकों की प्रतिक्रियायें कैसी हैं।
लिखने को उनके बारे में बहुत् कुछ् है लेकिन् वह् फिर कभी। आज् उनका जन्मदिन है। उनके जन्मदिन् पर् मैं कामना करता हूं कि वे सपरिवार् स्वस्थ्, मस्त्, वयस्त और् हर् तरह् से दुरस्त बनीं रहें। आलस्य् का ठिठौना कम करके लगातार् लिखतीं रहें।
आप यह भी पढ़ें:-
१.मरना तो सबको है,जी के भी देख लें
२. प्रत्यक्षा- जन्मदिन के बहाने बातचीत
३. सीढियों के पास वाला कमरा
४.अभिव्यक्ति में प्रत्यक्षा की कहानी
५. साथी चिट्ठाकार पर एक नजर – प्रत्यक्षा –या कहूं कि प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या
६.ब्लॉग-चर्चा : ‘प्रत्यक्षा’ का हमनाम ब्लॉग
१.मरना तो सबको है,जी के भी देख लें
२. प्रत्यक्षा- जन्मदिन के बहाने बातचीत
३. सीढियों के पास वाला कमरा
४.अभिव्यक्ति में प्रत्यक्षा की कहानी
५. साथी चिट्ठाकार पर एक नजर – प्रत्यक्षा –या कहूं कि प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या
६.ब्लॉग-चर्चा : ‘प्रत्यक्षा’ का हमनाम ब्लॉग
मेरी पसन्द्
मुझे आज भी गणित समझ नहीं आता
मुझे बचपन से गणित समझ नहीं आता
जब छोटी थी तब भी नहीं
और आज जब बड़ी हो गई हूँ
तब भी नहीं
जब छोटी थी तब भी नहीं
और आज जब बड़ी हो गई हूँ
तब भी नहीं
कक्षा में पढ़ाया जाता गणित
और मैं देखती , ब्लैकबोर्ड के ऊपर
टंगे ईसा मसीह ,सलीब पर
छोटी सी मूर्ति पर बिलकुल सानुपातिक
या फ़िर शीशे के फ़्रेम में मरियम को
दराज़ों के कतार वाले दीवार पर , ऊपर
और मैं देखती , ब्लैकबोर्ड के ऊपर
टंगे ईसा मसीह ,सलीब पर
छोटी सी मूर्ति पर बिलकुल सानुपातिक
या फ़िर शीशे के फ़्रेम में मरियम को
दराज़ों के कतार वाले दीवार पर , ऊपर
या कभी कभी बाहर खिड़कियों से
नीला आसमान , रूई के फ़ाहे से बादल
गलियारे के पार , गमलों में छोटे छोटे
बैंगनी फ़ूल ,ट्वेल्व ओ क्लॉक फ़्लावर्स !
नीला आसमान , रूई के फ़ाहे से बादल
गलियारे के पार , गमलों में छोटे छोटे
बैंगनी फ़ूल ,ट्वेल्व ओ क्लॉक फ़्लावर्स !
स्कूल की आया , गोडलीपा और उर्सुला
लंबे लकड़ी वाले पोछे से
गलियारा चमकाते हुये
गमले और फ़ूलों का प्रतिबिम्ब
चमकते गलियारे के फ़र्श पर
उड़ती हुई तितली ,दोपहर के सन्नाटे में
एक फ़ूल से दूसरे फ़ूल पर
लंबे लकड़ी वाले पोछे से
गलियारा चमकाते हुये
गमले और फ़ूलों का प्रतिबिम्ब
चमकते गलियारे के फ़र्श पर
उड़ती हुई तितली ,दोपहर के सन्नाटे में
एक फ़ूल से दूसरे फ़ूल पर
टीचर की आवाज़ अचानक मेरे सन्नाटे को
तोड़ देती है
दो और दो क्या होते हैं ?
मैं घबड़ा जाती , हड़बड़ा कर कहती , बाईस
पूरी कक्षा हँस देती
मेरी हड़बड़ाहट , टीचर के गुस्से और मेरी बेचारगी पर
तोड़ देती है
दो और दो क्या होते हैं ?
मैं घबड़ा जाती , हड़बड़ा कर कहती , बाईस
पूरी कक्षा हँस देती
मेरी हड़बड़ाहट , टीचर के गुस्से और मेरी बेचारगी पर
अब मैं बड़ी हो गई हूँ
घर सँभालती हूँ , ऑफ़िस देखती हूँ
फ़ाईलों को निपटाती हूँ , अंकों से खेलती हूँ
स्वादिष्ट पकवान पकाती हूँ , मेहमाननवाज़ी में
कुशल हूँ
वित्तीय मसलों पर गँभीरता से चर्चा करती हूँ
पर आज भी गणित मेरी समझ में नहीं आता है
किसी चर्चा के बीच कोई अगर पूछ बैठे
दो और दो क्या होते हैं ?
अब मैं आत्मविश्वास से जवाब देती हूँ, चार
घर सँभालती हूँ , ऑफ़िस देखती हूँ
फ़ाईलों को निपटाती हूँ , अंकों से खेलती हूँ
स्वादिष्ट पकवान पकाती हूँ , मेहमाननवाज़ी में
कुशल हूँ
वित्तीय मसलों पर गँभीरता से चर्चा करती हूँ
पर आज भी गणित मेरी समझ में नहीं आता है
किसी चर्चा के बीच कोई अगर पूछ बैठे
दो और दो क्या होते हैं ?
अब मैं आत्मविश्वास से जवाब देती हूँ, चार
पर सब हँस पड़ते हैं
आप भी श्रीमति जी ….?
दो और दो कभी चार हुये हैं
बाईस होते हैं बाईस
मैं हड़बड़ा जाती हूँ
मेरे चेहरे पर वही बेचारगी होती है
मैं बदल गई हूँ या गणित के
नियम बदल गये हैं ?
मुझे आज भी गणित समझ नहीं आता।
आप भी श्रीमति जी ….?
दो और दो कभी चार हुये हैं
बाईस होते हैं बाईस
मैं हड़बड़ा जाती हूँ
मेरे चेहरे पर वही बेचारगी होती है
मैं बदल गई हूँ या गणित के
नियम बदल गये हैं ?
मुझे आज भी गणित समझ नहीं आता।
Posted in सूचना | 23 Responses
और आपका आभार जो हम सभी को ये याद दीलवाया आपने !
स्नेह,
– लावण्या