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आतंक के असली अर्थ- भगतसिंह
By फ़ुरसतिया on November 2, 2007
[आज महेंद्र मिश्र का लिखा लेख ,क्या सरदार भगतसिह आतंकवादी थे ? पढ़कर मुझे भगतसिंह लिखा लेख आतंक के असली अर्थ याद आया। यह लेख मैंने समकालीन सृजन के प्रियंकरजी द्वारा सम्पादित धर्म, आतंकवाद और आजादी पर केंद्रित अंक में पढ़ा था। इसे पोस्ट करने का पहली बार विचार तब आया था जब संजय बेंगाणी ने शहीदे आजम भगतसिंह को याद करते हुये चिट्ठाचर्चा की थी।
अपने समय की विचारधारात्मक बहस में हिस्सा लेते हुये भगतसिंह और उनके साथियों ने 'आतंक' शब्द का अर्थ समझने की कोशिश की थी। मई, १९२८ के 'किरती' में प्रकाशित यह लेख इसी विषय पर छपा जो बंबई के अखबार 'श्रद्धानन्द' से अनुदित था। यह भगतसिंह और उनके साथियों की विचारधारात्मक विचारों का प्रतिनिधित्व करता है।]
पिछले सात-आठ सालों में जिन कुछ शब्दों ने हमारे राजनीतिक जीवन में तूफ़ान खड़ा किया है और जिसके बारे में बहुत लोगों को गलतफ़हमी रही है उनमें सबसे जरूरी शब्द ‘आतंक’ है। अब तक किसी ने भी गहन विचार कर इस शब्द का अर्थ समझने का यत्न नहीं किया। इसीलिये आजतक इस शब्द का गलत इस्तेमाल हो रहा है। पूरी कौम अपने लक्ष्य को ठीक न समझ के कारण दिन को रात और रात को दिन समझती हुई ठोकरें खा रही है।
आतंक पर बोलते ही अनुभव होने लगता है कि वह त्याज्य और बुरा शब्द है। सुनते ही यह विचार पैदा होता है कि वह दुख देने वाला, अत्याचारी,जोर-जबरदस्ती और अन्याय पूर्ण है। जिस काम के साथ ‘आतंक’ शब्द लग जाये वही काम पलीत, हानिकर और त्याज्य लगने लगता है। इस हालत में कोई शरीफ़ और नेकदिल इन्सान इससे हमेशा के लिये परे रहने का यत्न करे तो यह स्वाभाविक बात है। आतंक और जुल्म से आशय ताकत के अयोग्य ढंग से प्रयोग है। इस दोनों शब्दों से ताकत के इस्तेमाल की बू तो आती है, लेकिन ताकत के इस्तेमाल की एक सीमा है। उसी सीमा का ख्याल न रखते हुये कुछ हंगामाबाज लोगों ने ‘आतंक’ नाम दे दिया है और हिंदी भाषा में इसकी तुलना में ‘अहिंसा’ शब्द ठोंक दिया गया है। इसी कारण आज एक बड़ी खतरनाक फ़ैली हुई है।
आतंक में ताकत के इस्तेमाल भी होता है। इसीलिये कुछ घटिया दिमागवालों ने ताकत के इस्तेमाल को ही आतंक का नाम दे डाला। किसी आदमी को बुरे काम से रोकने के लिये यही कह देना काफ़ी होता है कि काम बहुत बुरा और घृणित है। ऐसे ही शब्दों में आतंक भी एक है। कांग्रेस के आदेशानुसार हजारों इंसान बिना किसी न-नकार के शांति की कसमें उठाते चले गये। बात तो ठीक थी। आतंक का अर्थ जुल्म और जबरद्स्ती करना है। ऐसा बुरा काम न करने की कसम खाने में किसी को क्या उज्र हो सकता है, लेकिन असली बात यह है कि जुल्म को नहीं, बल्कि ताकत के इस्तेमाल को ही आतंक का नाम देकर लोगों में गलतफ़हमी फ़ैला दी गई। बहुत से लोग जो कि ताकत के इस्तेमाल के हक में थे, वे आतंक का पक्ष लेने की हिम्मत न दिखा सके और उन्होंने भी चुपचाप शांतिपूर्ण आंदोलन के पक्ष में कसम उठा लीं। इसीलियें अहिंसा (नान-वायलेंस) जैसे शब्दों ने बहुत गड़बड़ी मचा दी। हजारों ही काम जो आज तक न सिर्फ़ जायज, बल्कि अच्छे माने जाते थे, वह पलक झपकते ही घृणित माने जाने लगे। वीरता, हिम्मत, शहादत, बलिदान, सैनिक कर्तव्य, शस्त्र चलाने की योग्यता, दिलेरी और अत्याचारियों का सर कुचलनेवाली बहादुरी आदि गुण बल-प्रयोग पर निर्भर थे। अब ये गुण अयोग्यता और नीचता समझे जाने लगे! आतंक शब्द के इन भ्रामक अर्थों ने कौम की समझ पर पानी फ़ेर दिया। नौबत यहां तक आ पहुंची कि हथौड़े से पत्थर का बुत तोड़ना भी आतंक के दायरे में माना गया। तो क्या बुत को हाथों से तोड़ा जाये?
किसी भी शब्द के सुनते ही हर इन्सान के दिल में एक विचित्र ढंग की भावना पैदा हो जाती है और उसके बाद झटपट एक प्रकार का अर्थ समझ चुकने के कारण इन्सान उसकी तह तक जाने के लिये अधिक दिमाग नहीं लड़ाता। किसी अजनबी इन्सान के आते ही यदि यह कह दिया जाये कि बह बड़ा पापी है, लुच्चा है, तो सुनने वाले के दिल में उसके खिलाफ़ स्वभावत: ही एक तरह का घृणित ख्याल उत्पन्न हो जाता है। उस आदमी के सबंध् में अधिक् जांच् किये बगैर् ही राय् बना
ली जाती है। इसी तरह् शब्दों के प्रयोग् के मामले में कहा जा सकता है। वेदों और् पुराणों में इस् बात् पर् जोर् दिया गया है कि जो भी शब्द् बोले जायें, उनका सही प्रयोग् होना चाहिये, क्योंकि शाब्दिक् भ्रम् से देवाताऒं तक् के बड़े-बड़े दंगे हो गये थे और् बड़ा भारी नुकसान् हो गया था। ठीक् वही दशा पिछले सात् साल्
से हमारी हो रही है। ताकत् के योग्य् और् अयोग्य् इस्तेमाल् को बिना किसी सोच् विचार् के फ़ौरन् आतंक् का फ़तवा देकर घॄणित् होने की घोषणा कर् दी गई है।
यदि कोई डाकू कुल्हाड़ी लेकर किसी के घर में आ घुसे तो उसे आतंक( की कार्यवाही)कहा गया, लेकिन यदि घर वालों ने छुरी का इस्तेमाल कर डाकू को मार डाला तो उसे भी आतंक का काम माना गया। अर्थात जब अपने और अपने परिवार की रक्षा के लिये ताकत का योग्य और नेक इरादों से इस्तेमाल किया गया तब भी उसे आतंक ही कहा गया। रावण जोर-जबरदस्ती सीता को उठा ले गया तो वह आतंक। और सीता को छुड़ाने गये राम से रावण का सिर काट दिया तो वह भी आतंक! इटली, अमेरिका ,आयरलैंड आदि देशों पर कई प्रकार के जुल्म करने वाले अत्याचारी भी आतंक फ़ैलाने वाले समझे गये और नंगी तलवार पकड़े इन विदेशी डकैतों का छिपी हुई शमशीर से इलाज करने वालों को भी आतंक(फ़ैलाने वाले) की उपाधि दी जाती है। गैरीबाल्डी, वाशिंगटन, एमट और डी वलेरा आदि सभी इसी सूची में डाल दिये गये। क्या इसे इंसाफ़ कहा जा सकता है? आभूषण चुराने के लिये मासूम बच्चे की गर्दन काट देने वाला चोर भी घृणित और उस पत्थर-दिल को फ़ांसी पर लटका देने वाला न्यायकारी सम्राट भी आतंकवादी और घृणित! कृष्ण भी उतना ही पापी जितना कंस! शूरवीर भीम भी उतना ही गुनहगार , जितना कि उसकी धर्मात्मा पत्नी का अपमान करने वाला दु:शासन!आह कितनी गलतफ़हमी है। कितना बड़ा अन्याय है। इसीलिए कुछ सीधे-साधे लोगों ने अच्छे कामों को भी केवल बल-प्रयोग के कारण अयोग्य और आतंकवादी कह दिया। सांप डसता है,आदमी उसे मार डालता है। पर दोनों बराबर-बराबर नहीं। डंसना तो सांप की आदत है और वह इस आदत से मजबूर था, लेकिन इन्सान ने यह काम जानबूझकर किया, इसलिये उसे अधिक नीच समझा जाना चाहिये! नौबत यहां तक आ पहुंची कि देश और कौम के लिये सशस्त्र हो मैदाने-जंग में शहीद हो जाने वाले बहादुर भी पापी समझे जाने लगे। शिवाजी,राणा प्रताप और रणजीत सिंह जी को आतंक फ़ैलाने वाला कहा गया और वे पूजनीय व्यक्तित्व भी घृणा का शिकार हो गए।
उधर दुनिया के सारे देश शस्त्रधारी हैं।सभी अपने हथियारों की ताकत बढ़ाते चले जा रहे हैं। इधर हमारा यह भारतवर्ष है, जिसमें रहने वालों का शस्त्र पकड़ना पाप समझा जाता है। ‘लाठी मत पकड़ो’-यह शिक्षा देने वाले लाठी देखते ही डरपोक कायर लोगों की पीठ ठोंकने लगे। कुछ बिरले ही लोग थे जो यह दुखद स्थिति न देख सके और उन्होंने इसका खंडन करना शुरू कर दिया। लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि वे स्वयं भी इसी गड़बड़ी का शिकार हो गये और ठोस तर्कों से विरोध प्रकट करना उनके लिये कठिन हो गया। बस इसी से युग पलटने वाले लोगों ने चिढ़कर यह कहना शुरू कर दिया -’हां,हां हम आतंक फ़ैलायेंगे। हम वायलेंस ही करेंगे।’ जैसे कोई शरीफ़ आदमी अपने अच्छे काम को गुनाह ठहराये जाते देखकर और फिर तर्कसम्मत उत्तर न दे पाने के कारण हड़बड़ाकर यही कहना शुरू कर दे-’हां,हां मैं गुनाह ही करूंगा।’ ठीक यही स्थिति इन बेचारे युग पलटने वालों की हो रही है। मद्रास कांगेस के अध्यक्ष तक ने यह कह दिया कि आज यदि हम शांतिपूर्ण (तरीके) के पक्षधर हैं तो इसका अर्थ नहीं है कि हम हमेशा ऐसे ही रहेंगे। हो सकता है कि हमें कल ही आतंक के लिये तैयार हो जाना पड़े। दुख तो इस बात का है कि यह ‘आतंक’शब्द घृणित है। यह अपने गुणों व ठीक अर्थों में व्याख्यायित न होने के कारण दूसरों को अपने पक्ष में नहीं कर सका,अर्थात वे लोग जो लोग बल-प्रयोग के पक्ष में हैं वे भी जालिम या आतंकवादी कहलवाना पसंद नहीं कर सकते। इस एक शब्द ‘आतंक’के अर्थों के अनर्थ होने के कारण ही कितना बड़ा नुकसान हो रहा है।
पूरी गलतफ़हमी की जड़ तो इस एक शब्द ‘आतंक’ की गलत व्याख्या है, क्योंकि आतंक व जुल्म भी बल-प्रयोग से ही होते हैं, इसलिये बल प्रयोग से बहुत सारे अच्छे व बुरे काम होते हैं। जुल्म इनमें से एक है। एक पुरुष चोरी से किसी के घर में आग लगाता है, वह भी आग लगाने वाला है और दूसरी ओर रसोइया भी आग लगाता है,लेकिन रसोइया अपराधी नहीं कहला सकता है और न ही आग लगाने का काम बुरा कहा जा सकता है। इसी तरह अपने देश की रक्षा के लिये या देश की आजादी की प्राप्ति के लिये शस्त्र लेकर मैदान में उतरने वाला देशभक्त जब जालिम और बलशाली की गर्दन तलवार से उतार लेता है या जालिम से किसी मजलूम का बदला लेता हुआ फ़ांसी पर चढ़ जाता है, वह या कोई और शूरवीर ,जो अपने सगे-संबंधियों ,अपनी पत्नी या घर-बार की रक्षा के लिये हथियार लेकर लुच्चे जालिमों का मुकाबला करने के लिये निकलता है तो वह बल-प्रयोग तो जरूर करता है लेकिन आतंक नहीं फ़ैलाता,अर्थात इनके किये काम,आतंक के कामों में नहीं गिने जा सकते,बल्कि वे अच्छे और नेक कहे जाते हैं।
वह बल-प्रयोग जिससे निर्दोषों को बिना किसी कारण से सताया जाये या दूसरों को किसी नीच इच्छा से नुकसान पहुंचाया जाये या दूसरों को किसी नीच इच्छा से नुकसान पहुंचाया जाये, केवल ऐसे ही बेहूदा कामों के लिये(किये गये) बल-प्रयोग को आतंक कहा जा सकता है। लेकिन जब इसी ताकत को किसी गरीब अनाथ की मदद के लिये या ऐसे ही किसी और काम के लिये इस्तेमाल किया जाये तो वह आतंक नहीं बल्कि पुण्य और परोपकार कहलाता है। या फिर इससे यह सिद्ध हुआ कि बल-प्रयोग करना कोई जुल्म नहीं, बल्कि बल प्रयोग करने वाले की नीयत पर निर्भर करता है। यदि उसने किसी भले और नेक काम के लिये बल- प्रयोग किया है तो उसे आतंक का दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, लेकिन यदि उसने अपने व्यक्तिगत हित या निर्दोषों को दुख देने की खातिर अपने बल का प्रयोग किया है तो उसे नि:सन्देह, निर्भय होकर आतंकवादी कहा जा सकता है। बल प्रयोग को आतंक कहा जा सकता है, लेकिन जब इसी ताकत को किसी गरीब अनाथ की मदद के लिये या ऐसे ही किसी काम के लिये इस्तेमाल किया जाये तो वह आतंक नहीं पुण्य और परोपकार कहलाता है। या फ़िर इससे यह सिद्ध हुआ कि बल प्रयोग करना कोई जुल्म ,अत्याचार या आतंक नहीं, बल्कि यह बल प्रयोग करने वाले की नीयत पर निर्भ्रर करता है। यदि उसने किसी भले व नेक काम के लिये बल-प्रयोग किया है तो उसे आतंक का दोषी नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन यदि उसने अपने व्यक्तिगत हित या निर्दोषों को दुख देने की खातिर अपने बल का गलत प्रयोग किया है तो उसे नि:सन्देह, निर्भय होकर ‘आतंकवादी’ कहा जा सकता है। आतंक हमेशा ही घॄणायोग्य है।आतंक ताकत का ऐसा इस्तेमाल है, जिससे बिना अपराध के किसी को दुख दिया जाये। लेकिन जहां जालिमों और गुंडई रोकने के लिये बल-प्रयोग किया जाये , वह आतंक नहीं बल्कि अच्छा व भला काम है, क्योंकि दुनिया के अच्छे कामों की परख की एक ही कसौटी है -यह कि वे काम दुनिया को सुख व आराम देने वाले हों। किसी को दुख देना आतंक है लेकिन दुख देने वाले जालिम का खुरा-खोज मिटाना पुण्य है। जालिम कंस जब जुल्म की तलवार पकड़ देवकी के घर में जा घुसता है उसका उस समय का काम घृणित आतंक है, लेकिन जब इसी जालिम के पंजे से जनता को छुटकारा दिलाने के लिये श्रीकॄष्ण तलवार लेकर उसके दरबार में घुस जाते हैं और तलवार से उसका सिर गर्दन से अलग कर देते हैं, उस समय की उनकी कार्रवाई अभिनंदनीय है। दोनों तलवारे हैं ,दोनों हथियार हैं ,दोनों कामों में बल बल-प्रयोग किया गया है, लेकिन एक काम जुल्मों से भरा है और दूसरा काम नेक है। वह एक जालिम और अत्याचारी की हस्ती को , गलत अक्षर की तरह, मिटा कर लोगों पर परोपकार करता है। इसलिये वह नेक और सम्माननीय है। पर यदि हमारी मौजूदा फ़िलासफ़ी के हिसाब से देखा जाये तो दोनों ही काम आतंककारी और घॄणित हैं। लोगों को दुख देने वाला जालिम भीआतंककारी और लोगों को जालिम के पंजे से छुटकारा दिलाने वाला भी आतंककारी। यदि हमारे देश में यही स्थिति रही तो अच्छे-बुरे की पहचान कैसे होगी और सम्माननीय कामों और घॄणित कामों के फ़र्क का कैसे पता चलेगा?
यदि इतना जान लिया जाये कि ताकत का गलत इस्तेमाल अर्थात गरीबों ,अनाथों को सताना आतंक कहलाता है और इन सबको रोकना अच्छा काम समझा जाता है तो वे आतंक करते हैं। चोर, डाकू और हत्यारे जब हथियारों का इस्तेमाल करते हैं तो वे आतंक करते हैं। लेकिन जब घर का मालिक समय पाकर उस डाकू या हत्यारे की छाती में छुरी घोंप देता है या डाकू को कोई न्यायप्रिय शासक फ़ांसी की सजा देता है तो वह अच्छा काम होता है। इसीलिये हिंदू शास्त्र के कर्ता मनु जी लिखते हैं-’जालिम ,हत्यारेअपराधी को खुफ़िया ढंग से या खुले मैदान में चुनौती देकर या किसी और ढंग से छापा मारकर जान से मार डालने वाला दिलेर इन्सान पापी या गुनहगार नहीं ,बल्कि सम्माननीय इंसान कहलाता है। ” पुराने से पुराने और नये से नये कानून के अनुसार आत्मरक्षा के लिये बल प्रयोग को कभी भी आतंक के नाम से नहीं पुकारा गया। यहां तक कि हिंदू दंड विधान में भी उसे आतंक नहीं कहा गया। आतंक फ़ैलाना दंडनीय है, लेकिन आत्म-रक्षा में बल प्रयोग कानूनी ताकत समझी जाती है।
ठीक वही बात राजनीति की है।इटली पर उस देश की इच्छा के विरुद्ध आस्ट्रिया सिर्फ़ तलवार के जोर से राज करता था, इसलिये इटली को जबरदस्ती अधीन रखने का उसका काम आतंक था, घृणित था और खतम करने योग्य था। लेकिन जब गैरीबाल्डी और मैजिनी ने इसके खिलाफ़ तलवार उठाई और उस जालिम बादशाहत को उलट दिया त्ब उनका काम घॄणा के लायक नहीं ,बल्कि पूजनीय माना गया। ठीक यही बात हम 1857 में हिन्दुस्तान की आजादी के लिये लड़ी लड़ाई के संबंध में कह सकते हैं, क्योंकि वह हमारे पहले बताये अनुसार आतंक नहीं था। इस लेख से अर्थ निकालना कि हम हथियार बंद बगावत की प्रेरणा दे रहे हैं, बिल्कुल झूठ और बेकार होगा। आज हम हथियार बंद बगावत करने या न करने के संबंध में कुछ नहीं लिखते। हथियारबंद बगावत का समर्थन या विरोध अलग-अलग देशों के अलग-अलग समाचारों के कारण होते हैं। जो लोग इस समय हथियारबंद बगावत को कठिन या समयपूर्व मानते हों, वे ‘आतंक’ शब्द की ऒट लेकर उस विचार को ही ‘त्याज्य’न बनायें। इस विचार से ही आतंक शब्द की उक्त व्याख्या की गयी है, ताकि लोग फ़िर वैसी ही खतरनाक और ठीक न हो सकने वाली भूल न करें।
भगत सिंह
अपने समय की विचारधारात्मक बहस में हिस्सा लेते हुये भगतसिंह और उनके साथियों ने 'आतंक' शब्द का अर्थ समझने की कोशिश की थी। मई, १९२८ के 'किरती' में प्रकाशित यह लेख इसी विषय पर छपा जो बंबई के अखबार 'श्रद्धानन्द' से अनुदित था। यह भगतसिंह और उनके साथियों की विचारधारात्मक विचारों का प्रतिनिधित्व करता है।]
पिछले सात-आठ सालों में जिन कुछ शब्दों ने हमारे राजनीतिक जीवन में तूफ़ान खड़ा किया है और जिसके बारे में बहुत लोगों को गलतफ़हमी रही है उनमें सबसे जरूरी शब्द ‘आतंक’ है। अब तक किसी ने भी गहन विचार कर इस शब्द का अर्थ समझने का यत्न नहीं किया। इसीलिये आजतक इस शब्द का गलत इस्तेमाल हो रहा है। पूरी कौम अपने लक्ष्य को ठीक न समझ के कारण दिन को रात और रात को दिन समझती हुई ठोकरें खा रही है।
आतंक पर बोलते ही अनुभव होने लगता है कि वह त्याज्य और बुरा शब्द है। सुनते ही यह विचार पैदा होता है कि वह दुख देने वाला, अत्याचारी,जोर-जबरदस्ती और अन्याय पूर्ण है। जिस काम के साथ ‘आतंक’ शब्द लग जाये वही काम पलीत, हानिकर और त्याज्य लगने लगता है। इस हालत में कोई शरीफ़ और नेकदिल इन्सान इससे हमेशा के लिये परे रहने का यत्न करे तो यह स्वाभाविक बात है। आतंक और जुल्म से आशय ताकत के अयोग्य ढंग से प्रयोग है। इस दोनों शब्दों से ताकत के इस्तेमाल की बू तो आती है, लेकिन ताकत के इस्तेमाल की एक सीमा है। उसी सीमा का ख्याल न रखते हुये कुछ हंगामाबाज लोगों ने ‘आतंक’ नाम दे दिया है और हिंदी भाषा में इसकी तुलना में ‘अहिंसा’ शब्द ठोंक दिया गया है। इसी कारण आज एक बड़ी खतरनाक फ़ैली हुई है।
आतंक में ताकत के इस्तेमाल भी होता है। इसीलिये कुछ घटिया दिमागवालों ने ताकत के इस्तेमाल को ही आतंक का नाम दे डाला। किसी आदमी को बुरे काम से रोकने के लिये यही कह देना काफ़ी होता है कि काम बहुत बुरा और घृणित है। ऐसे ही शब्दों में आतंक भी एक है। कांग्रेस के आदेशानुसार हजारों इंसान बिना किसी न-नकार के शांति की कसमें उठाते चले गये। बात तो ठीक थी। आतंक का अर्थ जुल्म और जबरद्स्ती करना है। ऐसा बुरा काम न करने की कसम खाने में किसी को क्या उज्र हो सकता है, लेकिन असली बात यह है कि जुल्म को नहीं, बल्कि ताकत के इस्तेमाल को ही आतंक का नाम देकर लोगों में गलतफ़हमी फ़ैला दी गई। बहुत से लोग जो कि ताकत के इस्तेमाल के हक में थे, वे आतंक का पक्ष लेने की हिम्मत न दिखा सके और उन्होंने भी चुपचाप शांतिपूर्ण आंदोलन के पक्ष में कसम उठा लीं। इसीलियें अहिंसा (नान-वायलेंस) जैसे शब्दों ने बहुत गड़बड़ी मचा दी। हजारों ही काम जो आज तक न सिर्फ़ जायज, बल्कि अच्छे माने जाते थे, वह पलक झपकते ही घृणित माने जाने लगे। वीरता, हिम्मत, शहादत, बलिदान, सैनिक कर्तव्य, शस्त्र चलाने की योग्यता, दिलेरी और अत्याचारियों का सर कुचलनेवाली बहादुरी आदि गुण बल-प्रयोग पर निर्भर थे। अब ये गुण अयोग्यता और नीचता समझे जाने लगे! आतंक शब्द के इन भ्रामक अर्थों ने कौम की समझ पर पानी फ़ेर दिया। नौबत यहां तक आ पहुंची कि हथौड़े से पत्थर का बुत तोड़ना भी आतंक के दायरे में माना गया। तो क्या बुत को हाथों से तोड़ा जाये?
किसी भी शब्द के सुनते ही हर इन्सान के दिल में एक विचित्र ढंग की भावना पैदा हो जाती है और उसके बाद झटपट एक प्रकार का अर्थ समझ चुकने के कारण इन्सान उसकी तह तक जाने के लिये अधिक दिमाग नहीं लड़ाता। किसी अजनबी इन्सान के आते ही यदि यह कह दिया जाये कि बह बड़ा पापी है, लुच्चा है, तो सुनने वाले के दिल में उसके खिलाफ़ स्वभावत: ही एक तरह का घृणित ख्याल उत्पन्न हो जाता है। उस आदमी के सबंध् में अधिक् जांच् किये बगैर् ही राय् बना
ली जाती है। इसी तरह् शब्दों के प्रयोग् के मामले में कहा जा सकता है। वेदों और् पुराणों में इस् बात् पर् जोर् दिया गया है कि जो भी शब्द् बोले जायें, उनका सही प्रयोग् होना चाहिये, क्योंकि शाब्दिक् भ्रम् से देवाताऒं तक् के बड़े-बड़े दंगे हो गये थे और् बड़ा भारी नुकसान् हो गया था। ठीक् वही दशा पिछले सात् साल्
से हमारी हो रही है। ताकत् के योग्य् और् अयोग्य् इस्तेमाल् को बिना किसी सोच् विचार् के फ़ौरन् आतंक् का फ़तवा देकर घॄणित् होने की घोषणा कर् दी गई है।
यदि कोई डाकू कुल्हाड़ी लेकर किसी के घर में आ घुसे तो उसे आतंक( की कार्यवाही)कहा गया, लेकिन यदि घर वालों ने छुरी का इस्तेमाल कर डाकू को मार डाला तो उसे भी आतंक का काम माना गया। अर्थात जब अपने और अपने परिवार की रक्षा के लिये ताकत का योग्य और नेक इरादों से इस्तेमाल किया गया तब भी उसे आतंक ही कहा गया। रावण जोर-जबरदस्ती सीता को उठा ले गया तो वह आतंक। और सीता को छुड़ाने गये राम से रावण का सिर काट दिया तो वह भी आतंक! इटली, अमेरिका ,आयरलैंड आदि देशों पर कई प्रकार के जुल्म करने वाले अत्याचारी भी आतंक फ़ैलाने वाले समझे गये और नंगी तलवार पकड़े इन विदेशी डकैतों का छिपी हुई शमशीर से इलाज करने वालों को भी आतंक(फ़ैलाने वाले) की उपाधि दी जाती है। गैरीबाल्डी, वाशिंगटन, एमट और डी वलेरा आदि सभी इसी सूची में डाल दिये गये। क्या इसे इंसाफ़ कहा जा सकता है? आभूषण चुराने के लिये मासूम बच्चे की गर्दन काट देने वाला चोर भी घृणित और उस पत्थर-दिल को फ़ांसी पर लटका देने वाला न्यायकारी सम्राट भी आतंकवादी और घृणित! कृष्ण भी उतना ही पापी जितना कंस! शूरवीर भीम भी उतना ही गुनहगार , जितना कि उसकी धर्मात्मा पत्नी का अपमान करने वाला दु:शासन!आह कितनी गलतफ़हमी है। कितना बड़ा अन्याय है। इसीलिए कुछ सीधे-साधे लोगों ने अच्छे कामों को भी केवल बल-प्रयोग के कारण अयोग्य और आतंकवादी कह दिया। सांप डसता है,आदमी उसे मार डालता है। पर दोनों बराबर-बराबर नहीं। डंसना तो सांप की आदत है और वह इस आदत से मजबूर था, लेकिन इन्सान ने यह काम जानबूझकर किया, इसलिये उसे अधिक नीच समझा जाना चाहिये! नौबत यहां तक आ पहुंची कि देश और कौम के लिये सशस्त्र हो मैदाने-जंग में शहीद हो जाने वाले बहादुर भी पापी समझे जाने लगे। शिवाजी,राणा प्रताप और रणजीत सिंह जी को आतंक फ़ैलाने वाला कहा गया और वे पूजनीय व्यक्तित्व भी घृणा का शिकार हो गए।
उधर दुनिया के सारे देश शस्त्रधारी हैं।सभी अपने हथियारों की ताकत बढ़ाते चले जा रहे हैं। इधर हमारा यह भारतवर्ष है, जिसमें रहने वालों का शस्त्र पकड़ना पाप समझा जाता है। ‘लाठी मत पकड़ो’-यह शिक्षा देने वाले लाठी देखते ही डरपोक कायर लोगों की पीठ ठोंकने लगे। कुछ बिरले ही लोग थे जो यह दुखद स्थिति न देख सके और उन्होंने इसका खंडन करना शुरू कर दिया। लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि वे स्वयं भी इसी गड़बड़ी का शिकार हो गये और ठोस तर्कों से विरोध प्रकट करना उनके लिये कठिन हो गया। बस इसी से युग पलटने वाले लोगों ने चिढ़कर यह कहना शुरू कर दिया -’हां,हां हम आतंक फ़ैलायेंगे। हम वायलेंस ही करेंगे।’ जैसे कोई शरीफ़ आदमी अपने अच्छे काम को गुनाह ठहराये जाते देखकर और फिर तर्कसम्मत उत्तर न दे पाने के कारण हड़बड़ाकर यही कहना शुरू कर दे-’हां,हां मैं गुनाह ही करूंगा।’ ठीक यही स्थिति इन बेचारे युग पलटने वालों की हो रही है। मद्रास कांगेस के अध्यक्ष तक ने यह कह दिया कि आज यदि हम शांतिपूर्ण (तरीके) के पक्षधर हैं तो इसका अर्थ नहीं है कि हम हमेशा ऐसे ही रहेंगे। हो सकता है कि हमें कल ही आतंक के लिये तैयार हो जाना पड़े। दुख तो इस बात का है कि यह ‘आतंक’शब्द घृणित है। यह अपने गुणों व ठीक अर्थों में व्याख्यायित न होने के कारण दूसरों को अपने पक्ष में नहीं कर सका,अर्थात वे लोग जो लोग बल-प्रयोग के पक्ष में हैं वे भी जालिम या आतंकवादी कहलवाना पसंद नहीं कर सकते। इस एक शब्द ‘आतंक’के अर्थों के अनर्थ होने के कारण ही कितना बड़ा नुकसान हो रहा है।
पूरी गलतफ़हमी की जड़ तो इस एक शब्द ‘आतंक’ की गलत व्याख्या है, क्योंकि आतंक व जुल्म भी बल-प्रयोग से ही होते हैं, इसलिये बल प्रयोग से बहुत सारे अच्छे व बुरे काम होते हैं। जुल्म इनमें से एक है। एक पुरुष चोरी से किसी के घर में आग लगाता है, वह भी आग लगाने वाला है और दूसरी ओर रसोइया भी आग लगाता है,लेकिन रसोइया अपराधी नहीं कहला सकता है और न ही आग लगाने का काम बुरा कहा जा सकता है। इसी तरह अपने देश की रक्षा के लिये या देश की आजादी की प्राप्ति के लिये शस्त्र लेकर मैदान में उतरने वाला देशभक्त जब जालिम और बलशाली की गर्दन तलवार से उतार लेता है या जालिम से किसी मजलूम का बदला लेता हुआ फ़ांसी पर चढ़ जाता है, वह या कोई और शूरवीर ,जो अपने सगे-संबंधियों ,अपनी पत्नी या घर-बार की रक्षा के लिये हथियार लेकर लुच्चे जालिमों का मुकाबला करने के लिये निकलता है तो वह बल-प्रयोग तो जरूर करता है लेकिन आतंक नहीं फ़ैलाता,अर्थात इनके किये काम,आतंक के कामों में नहीं गिने जा सकते,बल्कि वे अच्छे और नेक कहे जाते हैं।
वह बल-प्रयोग जिससे निर्दोषों को बिना किसी कारण से सताया जाये या दूसरों को किसी नीच इच्छा से नुकसान पहुंचाया जाये या दूसरों को किसी नीच इच्छा से नुकसान पहुंचाया जाये, केवल ऐसे ही बेहूदा कामों के लिये(किये गये) बल-प्रयोग को आतंक कहा जा सकता है। लेकिन जब इसी ताकत को किसी गरीब अनाथ की मदद के लिये या ऐसे ही किसी और काम के लिये इस्तेमाल किया जाये तो वह आतंक नहीं बल्कि पुण्य और परोपकार कहलाता है। या फिर इससे यह सिद्ध हुआ कि बल-प्रयोग करना कोई जुल्म नहीं, बल्कि बल प्रयोग करने वाले की नीयत पर निर्भर करता है। यदि उसने किसी भले और नेक काम के लिये बल- प्रयोग किया है तो उसे आतंक का दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, लेकिन यदि उसने अपने व्यक्तिगत हित या निर्दोषों को दुख देने की खातिर अपने बल का प्रयोग किया है तो उसे नि:सन्देह, निर्भय होकर आतंकवादी कहा जा सकता है। बल प्रयोग को आतंक कहा जा सकता है, लेकिन जब इसी ताकत को किसी गरीब अनाथ की मदद के लिये या ऐसे ही किसी काम के लिये इस्तेमाल किया जाये तो वह आतंक नहीं पुण्य और परोपकार कहलाता है। या फ़िर इससे यह सिद्ध हुआ कि बल प्रयोग करना कोई जुल्म ,अत्याचार या आतंक नहीं, बल्कि यह बल प्रयोग करने वाले की नीयत पर निर्भ्रर करता है। यदि उसने किसी भले व नेक काम के लिये बल-प्रयोग किया है तो उसे आतंक का दोषी नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन यदि उसने अपने व्यक्तिगत हित या निर्दोषों को दुख देने की खातिर अपने बल का गलत प्रयोग किया है तो उसे नि:सन्देह, निर्भय होकर ‘आतंकवादी’ कहा जा सकता है। आतंक हमेशा ही घॄणायोग्य है।आतंक ताकत का ऐसा इस्तेमाल है, जिससे बिना अपराध के किसी को दुख दिया जाये। लेकिन जहां जालिमों और गुंडई रोकने के लिये बल-प्रयोग किया जाये , वह आतंक नहीं बल्कि अच्छा व भला काम है, क्योंकि दुनिया के अच्छे कामों की परख की एक ही कसौटी है -यह कि वे काम दुनिया को सुख व आराम देने वाले हों। किसी को दुख देना आतंक है लेकिन दुख देने वाले जालिम का खुरा-खोज मिटाना पुण्य है। जालिम कंस जब जुल्म की तलवार पकड़ देवकी के घर में जा घुसता है उसका उस समय का काम घृणित आतंक है, लेकिन जब इसी जालिम के पंजे से जनता को छुटकारा दिलाने के लिये श्रीकॄष्ण तलवार लेकर उसके दरबार में घुस जाते हैं और तलवार से उसका सिर गर्दन से अलग कर देते हैं, उस समय की उनकी कार्रवाई अभिनंदनीय है। दोनों तलवारे हैं ,दोनों हथियार हैं ,दोनों कामों में बल बल-प्रयोग किया गया है, लेकिन एक काम जुल्मों से भरा है और दूसरा काम नेक है। वह एक जालिम और अत्याचारी की हस्ती को , गलत अक्षर की तरह, मिटा कर लोगों पर परोपकार करता है। इसलिये वह नेक और सम्माननीय है। पर यदि हमारी मौजूदा फ़िलासफ़ी के हिसाब से देखा जाये तो दोनों ही काम आतंककारी और घॄणित हैं। लोगों को दुख देने वाला जालिम भीआतंककारी और लोगों को जालिम के पंजे से छुटकारा दिलाने वाला भी आतंककारी। यदि हमारे देश में यही स्थिति रही तो अच्छे-बुरे की पहचान कैसे होगी और सम्माननीय कामों और घॄणित कामों के फ़र्क का कैसे पता चलेगा?
यदि इतना जान लिया जाये कि ताकत का गलत इस्तेमाल अर्थात गरीबों ,अनाथों को सताना आतंक कहलाता है और इन सबको रोकना अच्छा काम समझा जाता है तो वे आतंक करते हैं। चोर, डाकू और हत्यारे जब हथियारों का इस्तेमाल करते हैं तो वे आतंक करते हैं। लेकिन जब घर का मालिक समय पाकर उस डाकू या हत्यारे की छाती में छुरी घोंप देता है या डाकू को कोई न्यायप्रिय शासक फ़ांसी की सजा देता है तो वह अच्छा काम होता है। इसीलिये हिंदू शास्त्र के कर्ता मनु जी लिखते हैं-’जालिम ,हत्यारेअपराधी को खुफ़िया ढंग से या खुले मैदान में चुनौती देकर या किसी और ढंग से छापा मारकर जान से मार डालने वाला दिलेर इन्सान पापी या गुनहगार नहीं ,बल्कि सम्माननीय इंसान कहलाता है। ” पुराने से पुराने और नये से नये कानून के अनुसार आत्मरक्षा के लिये बल प्रयोग को कभी भी आतंक के नाम से नहीं पुकारा गया। यहां तक कि हिंदू दंड विधान में भी उसे आतंक नहीं कहा गया। आतंक फ़ैलाना दंडनीय है, लेकिन आत्म-रक्षा में बल प्रयोग कानूनी ताकत समझी जाती है।
ठीक वही बात राजनीति की है।इटली पर उस देश की इच्छा के विरुद्ध आस्ट्रिया सिर्फ़ तलवार के जोर से राज करता था, इसलिये इटली को जबरदस्ती अधीन रखने का उसका काम आतंक था, घृणित था और खतम करने योग्य था। लेकिन जब गैरीबाल्डी और मैजिनी ने इसके खिलाफ़ तलवार उठाई और उस जालिम बादशाहत को उलट दिया त्ब उनका काम घॄणा के लायक नहीं ,बल्कि पूजनीय माना गया। ठीक यही बात हम 1857 में हिन्दुस्तान की आजादी के लिये लड़ी लड़ाई के संबंध में कह सकते हैं, क्योंकि वह हमारे पहले बताये अनुसार आतंक नहीं था। इस लेख से अर्थ निकालना कि हम हथियार बंद बगावत की प्रेरणा दे रहे हैं, बिल्कुल झूठ और बेकार होगा। आज हम हथियार बंद बगावत करने या न करने के संबंध में कुछ नहीं लिखते। हथियारबंद बगावत का समर्थन या विरोध अलग-अलग देशों के अलग-अलग समाचारों के कारण होते हैं। जो लोग इस समय हथियारबंद बगावत को कठिन या समयपूर्व मानते हों, वे ‘आतंक’ शब्द की ऒट लेकर उस विचार को ही ‘त्याज्य’न बनायें। इस विचार से ही आतंक शब्द की उक्त व्याख्या की गयी है, ताकि लोग फ़िर वैसी ही खतरनाक और ठीक न हो सकने वाली भूल न करें।
भगत सिंह
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बाकी सब तो अच्छा ही है….प्रियंकर जी ने समकालीन सृजन का सम्पादन किया है।
वर्तमान में पुलिस अगर गेंगस्टर को मारे तो ठीक मगर धनपति के इशारे पर सामान्य नागरीक को मारे तो यह अपराध ही होगा.
Jolly Uncle
काले अंग्रेजों के विरुद्ध जारी संघर्ष को आगे बढाने के लिये, यह टिप्पणी प्रदर्शित होती रहे, आपका इतना सहयोग मिल सके तो भी कम नहीं होगा।
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उक्त शीर्षक पढकर अटपटा जरूर लग रहा होगा, लेकिन सच में इस देश को कुछ जिन्दा लोगों की तलाश है। सागर की तलाश में हम सिर्फ सिर्फ बूंद मात्र हैं, लेकिन सागर बूंद को नकार नहीं सकता। बूंद के बिना सागर को कोई फर्क नहीं पडता हो, लेकिन बूंद का सागर के बिना कोई अस्तित्व नहीं है।
आग्रह है कि बूंद से सागर में मिलन की दुरूह राह में आप सहित प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति का सहयोग जरूरी है। यदि यह टिप्पणी प्रदर्शित होगी तो निश्चय ही विचार की यात्रा में आप भी सारथी बन जायेंगे।
हम ऐसे कुछ जिन्दा लोगों की तलाश में हैं, जिनके दिल में भगत सिंह जैसा जज्बा तो हो, लेकिन इस जज्बे की आग से अपने आपको जलने से बचाने की समझ भी हो, क्योंकि जोश में भगत सिंह ने यही नासमझी की थी। जिसका दुःख आने वाली पीढियों को सदैव सताता रहेगा। गौरे अंग्रेजों के खिलाफ भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, असफाकउल्लाह खाँ, चन्द्र शेखर आजाद जैसे असंख्य आजादी के दीवानों की भांति अलख जगाने वाले समर्पित और जिन्दादिल लोगों की आज के काले अंग्रेजों के आतंक के खिलाफ बुद्धिमतापूर्ण तरीके से लडने हेतु तलाश है।
इस देश में कानून का संरक्षण प्राप्त गुण्डों का राज कायम हो चुका है। सरकार द्वारा देश का विकास एवं उत्थान करने व जवाबदेह प्रशासनिक ढांचा खडा करने के लिये, हमसे हजारों तरीकों से टेक्स वूसला जाता है, लेकिन राजनेताओं के साथ-साथ अफसरशाही ने इस देश को खोखला और लोकतन्त्र को पंगु बना दिया गया है।
अफसर, जिन्हें संविधान में लोक सेवक (जनता के नौकर) कहा गया है, हकीकत में जनता के स्वामी बन बैठे हैं। सरकारी धन को डकारना और जनता पर अत्याचार करना इन्होंने कानूनी अधिकार समझ लिया है। कुछ स्वार्थी लोग इनका साथ देकर देश की अस्सी प्रतिशत जनता का कदम-कदम पर शोषण एवं तिरस्कार कर रहे हैं।
अतः हमें समझना होगा कि आज देश में भूख, चोरी, डकैती, मिलावट, जासूसी, नक्सलवाद, कालाबाजारी, मंहगाई आदि जो कुछ भी गैर-कानूनी ताण्डव हो रहा है, उसका सबसे बडा कारण है, भ्रष्ट एवं बेलगाम अफसरशाही द्वारा सत्ता का मनमाना दुरुपयोग करके भी कानून के शिकंजे बच निकलना।
शहीद-ए-आजम भगत सिंह के आदर्शों को सामने रखकर 1993 में स्थापित-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)-के 17 राज्यों में सेवारत 4300 से अधिक रजिस्टर्ड आजीवन सदस्यों की ओर से दूसरा सवाल-
सरकारी कुर्सी पर बैठकर, भेदभाव, मनमानी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, शोषण और गैर-कानूनी काम करने वाले लोक सेवकों को भारतीय दण्ड विधानों के तहत कठोर सजा नहीं मिलने के कारण आम व्यक्ति की प्रगति में रुकावट एवं देश की एकता, शान्ति, सम्प्रभुता और धर्म-निरपेक्षता को लगातार खतरा पैदा हो रहा है! हम हमारे इन नौकरों (लोक सेवकों) को यों हीं कब तक सहते रहेंगे?
जो भी व्यक्ति स्वेच्छा से इस जनान्दोलन से जुडना चाहें, उसका स्वागत है और निःशुल्क सदस्यता फार्म प्राप्ति हेतु लिखें :-
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, राष्ट्रीय अध्यक्ष
भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यालय
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फोन : 0141-2222225 (सायं : 7 से 8) मो. 098285-02666
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