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अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
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कोणार्क- जहां पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है
कोणार्क जहां पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है।- रवीन्द्रनाथ टैगोर
पुरी कथा कहने के बाद हमें अगली पोस्ट में कोणार्क वर्णन करना था। छह माह से भी ज्यादा हो गये वह अगली पोस्ट न लिखी जा सकी। यह होता है यारों का वायदा निभाने का फ़ुरसतिया अंदाज!
शाम को हम पुरी की एक् धर्मशाला में ठहर् गये। सुबह-सबेरे बस पकड़कर् पुरी से 35 किमी की यात्रा करके कोणार्क पहुंचे। यह मंदिर भुवनेश्वर से 65 किमी दूर है। कहते हैं कि इसे ईसवीं 13वीं शताब्दी में राजा नरसिंहदेव ने बनवाया था। अपने स्थापत्य और शिल्प के लिए यह मंदिर दुनियाभर में जाना जाता है। यह मंदिर सूर्य देवता का है। मंदिर का नक्शा एक रथ की छवि को ध्यान में रखकर बनाया गया था। सूर्य का रथ यानी सात घोड़ों और बारह पहियों वाला एक विशालकाय रथ।
मंदिर का सबसे अधिक आकर्षक पहलू वहां उकेरी गयी मिथुन मूर्तियां हैं। तरह -तरह की भाव भंगिमाओं वाली मिथुन मूर्तियां देखकर लगता है कि आचार्य वात्स्यायन की कामसूत्र का पत्थरों पर चित्रात्मक अनुवाद किया गया है।
हम जैसे ही वहां पहुंचे हमें वहां के गाइड लोगों ने घेर् लिया। लेकिन हमें देखकर उनको जल्दी ही अहसास हो गया कि हम फोकटिये हैं। यह दिव्यज्ञान होते ही वे हमसे ऐसे दूर गये जैसे चुनाव के बाद नेता अपने चुनाव क्षेत्र से तिड़ी-बिड़ी हो जाते हैं।
गाइड से मुक्त होने के बाद हम मुक्त् भाव से मंदिर् का विचरण करने लगे। अब गाइड की फ़ीस कौन भरे। हमारा प्रतिदिन का खर्चा सौ-दो सौ होता था। उतने हम केवल गाइड को दे दें तो हो चुका भारत दर्शन।
लेकिन हमने सोचा कि शकल से फोकटिया होने का मतलब यह थोड़ी की अकल से फोकटिया हो गये। सो हम जुगाड़ी लिंक की तरह् उन समूहों के साथ चलने लगे जिन्होंने गाइड कर रखे थे।
गाइडों ने जैसा बताया उससे ऐसा लगा कि हम् आज् के समय् में कित्ता पीछे हो गये हैं वास्तु में। बकौल् गाइड सूर्य् की रोशनी मंदिर् में मौजूद सूर्य की मूर्ति पर पड़ती थी। मूर्ति नीचे और ऊपर स्थित चुम्बक की वजह से जमीन और छत् के बीच में स्थित रहती थी। बाद में आक्रमण्कारी लोग चुम्बक निकाल ले गये और् मूर्ति नीचे आ गयी।
सूर्य की रोशनी अन्दर प्रवेश करने के गाइड के वर्णन से अन्दाजा लगा कि बहुत् उन्नत् व्यवस्था रही होगी उस समय।
मंदिर् के चारो तरफ़ काम-कला के अनुपम चित्र् पत्थरों पर् उकेरे गये थे। इनमें युगल रति दृश्यों के अलावा कुछ और मिथुन दृश्य भी हैं यानी समूह में और अप्राकृतिक रूप से सहवासरत लोग भी। उन् चित्रों को उस् समय् देखकर् लगा था कि अगर सच् में इस् तरह् के लोग् आज् होते तो भारत् हर् साल् जिम्नास्टिक् में तमाम् पदक बटोर् लाता। क्या-क्या अंदाज् में लोग् काम् पर् लगे हैं।
आज यह सोचता हूं कि अमेरिका का बहुत् बड़ा व्यापार अश्लील् चित्रों और् फिल्मों का धंधा है। अगर् उन्मुक्तजी मेहनत् करें तो अमेरिका के ऊपर दावा ठोंका जा सकता है कि उसके यहां जितना भी अश्लीलता का धंधा है वह् हमारे यहां के खजुराहो और् कोणार्क की बेतुकी नकल् है। दावा ठोंकते ही उनको अहसास् होगा कि आइडिया चोरी करना इत्ता आसान् नहीं है। पकड़ ही जाता है।
हम् जब् फोटू खींच् रहे थे तो एक् शरीफ़् से लगने वाले भाई साहब् हमारे कैमरे के सामने आने लगे और् हमसे अपनी फोटू खिंचवाने लगे। जो सफ़ेद कपड़े में शरीफ़् से लगने वाले हैं वेवही भाई जी हैं। उस् समय् भी हम् विदेशियों को ऐसे देखते थे कि गुरू देख लो वर्ना चली गयी विदेश तो देखते रह् जाओगे। हमने उन् में से एक् का फोटो भी खींच् लिया।
मंदिर् अब् काफ़ी क्षतिग्रस्त हो गयी है। लेकिन् खंडहर् बताते हैं कि इमारत् बुलन्द् थी।
हमने उस् समय् जो फोटो अपने क्लिक्-III कैमरे से खींचे थे वे वैसे ही आये जैसे आ सकते थे। उनको छोटा करके लगाया तो जगह् तो कम् घिरी लेकिन् वह् मजा न् आया। सो फिर् बड़े ही लगाये गये। शाम को हम् कोणार्क से पुरी वापस् लौट आये।उस् दिन् तारीख थी 18 जुलाई, 1983 |
वह् मेरी पहली कोणार्क यात्रा थी। अब् तक् पहली ही बनी हुयी है। पता नहीं दुबारा कब् जाना होता है। लेकिन् यह पोस्ट् लिखते समय् चौबीस् साल पहले की तमाम् यादें धुंधली ही सही सामने से गुजर् रही हैं। फोटो भी इसीलिये धुंधली ही अच्छी हैं। मैच् बन् रहा है। है न्!
बाहर से आये अध्यापकों ने अपनी जान में बहुत आसान सवाल पूछा- अगर AC मोटर को DC करेंट से चलायें तो चल जायेगी?
छात्र ने अपने दिमाग पर बहुत जोर डालने के बाद जबाब दिया- सरजी, चलने को तो चल जायेगी, लेकिन वो मजा नहीं आयेगा।
यह सुनने के बाद वो मजा न आयेगा हमारे बातचीत में शामिल हो गया। लिखने को तो लिख गये लेकिन वो मजा नही आया।
संबंधित कड़ियां:
1. कोणार्क विकीपीडिया में
2.बीबीसी में कोणार्क के बारे में
3.कोणार्क सम्पूर्ण परिचय
4.आशीष गर्ग की उड़ीसा यात्रा के चित्र
5.हमारे यायावरी के पिछले किस्से
पुरी कथा कहने के बाद हमें अगली पोस्ट में कोणार्क वर्णन करना था। छह माह से भी ज्यादा हो गये वह अगली पोस्ट न लिखी जा सकी। यह होता है यारों का वायदा निभाने का फ़ुरसतिया अंदाज!
शाम को हम पुरी की एक् धर्मशाला में ठहर् गये। सुबह-सबेरे बस पकड़कर् पुरी से 35 किमी की यात्रा करके कोणार्क पहुंचे। यह मंदिर भुवनेश्वर से 65 किमी दूर है। कहते हैं कि इसे ईसवीं 13वीं शताब्दी में राजा नरसिंहदेव ने बनवाया था। अपने स्थापत्य और शिल्प के लिए यह मंदिर दुनियाभर में जाना जाता है। यह मंदिर सूर्य देवता का है। मंदिर का नक्शा एक रथ की छवि को ध्यान में रखकर बनाया गया था। सूर्य का रथ यानी सात घोड़ों और बारह पहियों वाला एक विशालकाय रथ।
मंदिर का सबसे अधिक आकर्षक पहलू वहां उकेरी गयी मिथुन मूर्तियां हैं। तरह -तरह की भाव भंगिमाओं वाली मिथुन मूर्तियां देखकर लगता है कि आचार्य वात्स्यायन की कामसूत्र का पत्थरों पर चित्रात्मक अनुवाद किया गया है।
हम जैसे ही वहां पहुंचे हमें वहां के गाइड लोगों ने घेर् लिया। लेकिन हमें देखकर उनको जल्दी ही अहसास हो गया कि हम फोकटिये हैं। यह दिव्यज्ञान होते ही वे हमसे ऐसे दूर गये जैसे चुनाव के बाद नेता अपने चुनाव क्षेत्र से तिड़ी-बिड़ी हो जाते हैं।
गाइड से मुक्त होने के बाद हम मुक्त् भाव से मंदिर् का विचरण करने लगे। अब गाइड की फ़ीस कौन भरे। हमारा प्रतिदिन का खर्चा सौ-दो सौ होता था। उतने हम केवल गाइड को दे दें तो हो चुका भारत दर्शन।
लेकिन हमने सोचा कि शकल से फोकटिया होने का मतलब यह थोड़ी की अकल से फोकटिया हो गये। सो हम जुगाड़ी लिंक की तरह् उन समूहों के साथ चलने लगे जिन्होंने गाइड कर रखे थे।
गाइडों ने जैसा बताया उससे ऐसा लगा कि हम् आज् के समय् में कित्ता पीछे हो गये हैं वास्तु में। बकौल् गाइड सूर्य् की रोशनी मंदिर् में मौजूद सूर्य की मूर्ति पर पड़ती थी। मूर्ति नीचे और ऊपर स्थित चुम्बक की वजह से जमीन और छत् के बीच में स्थित रहती थी। बाद में आक्रमण्कारी लोग चुम्बक निकाल ले गये और् मूर्ति नीचे आ गयी।
सूर्य की रोशनी अन्दर प्रवेश करने के गाइड के वर्णन से अन्दाजा लगा कि बहुत् उन्नत् व्यवस्था रही होगी उस समय।
मंदिर् के चारो तरफ़ काम-कला के अनुपम चित्र् पत्थरों पर् उकेरे गये थे। इनमें युगल रति दृश्यों के अलावा कुछ और मिथुन दृश्य भी हैं यानी समूह में और अप्राकृतिक रूप से सहवासरत लोग भी। उन् चित्रों को उस् समय् देखकर् लगा था कि अगर सच् में इस् तरह् के लोग् आज् होते तो भारत् हर् साल् जिम्नास्टिक् में तमाम् पदक बटोर् लाता। क्या-क्या अंदाज् में लोग् काम् पर् लगे हैं।
आज यह सोचता हूं कि अमेरिका का बहुत् बड़ा व्यापार अश्लील् चित्रों और् फिल्मों का धंधा है। अगर् उन्मुक्तजी मेहनत् करें तो अमेरिका के ऊपर दावा ठोंका जा सकता है कि उसके यहां जितना भी अश्लीलता का धंधा है वह् हमारे यहां के खजुराहो और् कोणार्क की बेतुकी नकल् है। दावा ठोंकते ही उनको अहसास् होगा कि आइडिया चोरी करना इत्ता आसान् नहीं है। पकड़ ही जाता है।
हम् जब् फोटू खींच् रहे थे तो एक् शरीफ़् से लगने वाले भाई साहब् हमारे कैमरे के सामने आने लगे और् हमसे अपनी फोटू खिंचवाने लगे। जो सफ़ेद कपड़े में शरीफ़् से लगने वाले हैं वेवही भाई जी हैं। उस् समय् भी हम् विदेशियों को ऐसे देखते थे कि गुरू देख लो वर्ना चली गयी विदेश तो देखते रह् जाओगे। हमने उन् में से एक् का फोटो भी खींच् लिया।
मंदिर् अब् काफ़ी क्षतिग्रस्त हो गयी है। लेकिन् खंडहर् बताते हैं कि इमारत् बुलन्द् थी।
हमने उस् समय् जो फोटो अपने क्लिक्-III कैमरे से खींचे थे वे वैसे ही आये जैसे आ सकते थे। उनको छोटा करके लगाया तो जगह् तो कम् घिरी लेकिन् वह् मजा न् आया। सो फिर् बड़े ही लगाये गये। शाम को हम् कोणार्क से पुरी वापस् लौट आये।उस् दिन् तारीख थी 18 जुलाई, 1983 |
वह् मेरी पहली कोणार्क यात्रा थी। अब् तक् पहली ही बनी हुयी है। पता नहीं दुबारा कब् जाना होता है। लेकिन् यह पोस्ट् लिखते समय् चौबीस् साल पहले की तमाम् यादें धुंधली ही सही सामने से गुजर् रही हैं। फोटो भी इसीलिये धुंधली ही अच्छी हैं। मैच् बन् रहा है। है न्!
वो मजा नहीं आयेगा
जो लोग छात्रावासों में रहे हैं उनके लिये यह किस्सा किसी न किसी रूप में सुन चुके हैं टाइप होगा। लेकिन अन्य साथियों के लिये इसे लिख रहा हूं। एक इंजीनियरिंग कालेज में एकाध बार फ़ेल हो चुके इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के छात्र को से फ़ाइनल ईयर में पास कराने की मंशा से कालेज के टीचरों ने बाहर से आये अध्यापकों से वाइवा में सरल सवाल पूछने को कहा।बाहर से आये अध्यापकों ने अपनी जान में बहुत आसान सवाल पूछा- अगर AC मोटर को DC करेंट से चलायें तो चल जायेगी?
छात्र ने अपने दिमाग पर बहुत जोर डालने के बाद जबाब दिया- सरजी, चलने को तो चल जायेगी, लेकिन वो मजा नहीं आयेगा।
यह सुनने के बाद वो मजा न आयेगा हमारे बातचीत में शामिल हो गया। लिखने को तो लिख गये लेकिन वो मजा नही आया।
संबंधित कड़ियां:
1. कोणार्क विकीपीडिया में
2.बीबीसी में कोणार्क के बारे में
3.कोणार्क सम्पूर्ण परिचय
4.आशीष गर्ग की उड़ीसा यात्रा के चित्र
5.हमारे यायावरी के पिछले किस्से
Posted in जिज्ञासु यायावर, संस्मरण | 13 Responses
आपने होनहार बिजली इंजीनियरिंग के छात्र पर लिखा है। हम जब पढ़ते थे तो एक और किस्सा था। एसी मोटर कैसे चलती है? के उत्तर में मि. होनहार – “हूंउउउउउउउउउउउउउउउउउउउउउउउउ”। झल्ला कर इंटरव्यूअर – “स्टॉप -इट!”। तब होनहार जी का उत्तर – “हूंउउहप्प”। क्या दिन थे पढ़ाई के वे भी!
शुक्रिया कोणार्क भ्रमण करवाने का!
बेहतरीन आनन्द आया जी ! आपकी भाषा शैली लाजवाब है ! हमारे यहां इसे कहते हैं लच्छेदार भाषा जिसे पढते २ मन ना भरे ! बहुत शुभकामनाएं आपको !
रामराम !