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जम्हूरियत तानाशाहों के लिये विकिपीडिया होती है
By फ़ुरसतिया on November 5, 2007
[जब संसथान खोखले और लोग चापलूस हो जायें तो जनतंत्र धीरे-धीरे
डिक्टेटरशिप को रास्ता देता जाता है। फिर कोई डिक्टेटर देश को कुपित आंखों
से देखने लगता है। तीसरी दुनिया के किसी भी देश के हालात पर दृष्टिपात
कीजिये। डिक्टेटर स्वयं नहीं आता, लाया और बुलाया जाता है और जब आ जाता है
तो प्रलय उसके साथ-साथ आती है।- खोया पानी ]
और मियां मुशर्रफ़ ने पाकिस्तान में इमरजेंसी लगा दी। दीवाली के अवसर पर बम्पर इनाम।
वैसे इमरजेंसी की अफ़वाह पहले से ही थी। इसलिये इसमें मुशर्रफ़जी को दोष भी नहीं क्योंकि बकौल मुस्ताक साहब- पाकिस्तान की अफ़वाहों की सबसे बड़ी खराबी ये है कि सच निकलती हैं।
जो बात देश का रिवाज हो गयी हो उसमें एक अदना डिक्टेटर कैसे दखल दे सकता है।
वैसे भी पाकिस्तान में फ़ौज का तख्ता पलट इतनी आम बात है कि खराब भली कही जाये, अटपटी नहीं लगती। अटपटा तो तब लगता है जब जम्हूरियत की पारी लंबी खिंच जाये। बोरियत होने लगती है फ़ौजियों को। और पाकिस्तान में फ़ौजी जब बोर तो जम्हूरियत का तख्ता उलट-पुलट देते हैं।
पाकिस्तान में लोकतंत्र की मशीन अक्सर खराब हो जाती है। वहां पर फ़ौजियों के साथ मेन्टीनेंस कान्ट्रैक्ट है। जहां मशीन की हालत खराब होती है मेंटिनेन्स करने वाले उसे अपने कब्जे में ले लेते हैं। हर बार जब ठीक करके देते हैं तो वह पहले से और बिगड़ी हुयी हालात में होती है।
वहां का फ़ौजी हुक्मरान अपने नियम कायदे कानून अपने हिसाब से बनाता है। अपना मेंटिनेन्स मैनुअल की प्रोग्रामिंग खुद करता है। संविधान अपना, नियम अपने, नियम लागू करने के अंदाज अपने।
पाकिस्तान के लिये फ़ौजी शासन और मार्शल आत्मा-परमात्मा के मिलन की तरह शाश्वत है। पवित्र रूहों का मिलन है।
मुझे तो ऐसा लगता है कि पाकिस्तान की जम्हूरियत उनके फ़ौजी शासकों के लिये विकिपीडिया की तरह होता है। हर डिक्टेटर अपने हिसाब से उसमें सुधार करता रहता है जो कि कभी खतम होने का नाम लेते। मुशर्रफ़ ने भी यही किया तो क्या गुनाह किया?
बेचारा कई बार मरते-मरते बचा। जान हथेली में लिये देश की सेवा करता रहा। देश वाले फिर भी देशसेवा ही न करने दें तो कित्ता खराब लगता है। तानाशाह के लिये तो तख्ते पर बैठे रहना देशसेवा की सबसे सच्ची मिशाल है। अब जड़ से ही काटोगे किसी को तो उससे जो बन सकेगा करेगा। आखिर देश से उसे प्यार जो है। कोई सच्चा देश सेवक तानाशाह अपने जीते-जी कैसे तख्त छोड़ सकता है। छोड़ देगा तो उसे लोग क्या कहेंगे?
मुशर्रफ़ ने जो किया वो लोग वहां पहले ही कर चुके हैं। उन्होंने केवल महान लोगों की परम्पराओं का पालन किया है। जो रास्ता याह्या खान, जियाहुलहक ने दिखाया उसी पाक रास्ते पर उन्होंने कदम बढाये। महाजनो येन गत: स: पन्था।
राजनीति वाले अपने चश्मे से इसे देखेंगे लेकिन मैं जब इसे सोचता हूं तो यह पाकिस्तान के जम्हूरियत के हुक्मरानों की बचकानी हरकतों का अपरिहार्य बाई-प्राडक्ट है। चाहे पाकिस्तान हो या हिन्दुस्तान यहां नौकरशाही आमतौर पर सीनियारिटी से चलती है। नवाज शरीफ़ को मुशर्रफ़ में
इतना काबिलियत दिखी कि उन्होंने उनको कई अफ़सरान को नजरन्दाज करके सेनाध्यक्ष बना दिया। जब बन गये तो उनको भी अपनी काबिलियत दिखानी ही थी।
एशियाई देशों में नौकरशाह की काबिलियत का पैमाना उसके बास की नजर होती है। अगर उसके बास की नजरों में वह काबिल है तो फ़िर उसके लिये सब आसान। अब यह विडम्बना है कि बास के काबिलियत नापने के अन्दाज ये होते हैं कि वह उसके कहने पर कितने काम कर देता है। जायज-नाजायज, उचित-अनुचित, करणीय-अकरणीय का विचार न करते हुये अपने बास की इच्छा पूर्ति करना ही काबिलियत कहलाती है।
यह भी एक विडम्बना है कि यहां हुक्मरान अपनी राजतंत्रात्मक मनोवृत्ति से ऊपर नहीं उठ पाये हैं। जो उनके लिये भला है उसमें ही जनता का भला देखते हैं
जब बास को खुश करना ही आगे बढ़ने के लिये सबसे जरूरी हो जाता है तो स्वाभाविक है कि नौकरशाह उसी रास्ते को अपने लिये आदर्श मान लेता है। बास को भी लगता है कि इससे अच्छा अधीनस्थ तो दुनिया भर में फ़्लड लाइट लगवाने से भी न मिलेगा। यही नवाज शरीफ़ को भी लगा और उन्होंने मुशर्रफ़ को सबसे काबिल मानते हुये आगे बढ़ा दिया। बाद में उसी काबिलियत के सहारे मुशर्रफ़ ने नजज को किनारे कर दिया।
हाल ही में नवाज शरीफ़ ने माना कि उनसे कि उनसे गलती हुयी। लेकिन अब तो खेत भी न रहे जिसे चिड़िया चुग गयी थी। अब वे केवल पछता ही सकते हैं।
यह भी खुलाशा हुआ कि नवाज शरीफ़ मामले की तह न जाते थे। ऊपर से ही देखकर नतीजे निकाल लेते थे। इसीलिये वे मुशर्रफ़ की तह में भी न गये और उन्होंने उसे तहा कर रख दिया।
जो लोग काबिलियत और तमाम दूसरी बातों के चलते नौकरशाही में उन्नति की वकालत करते हैं उनको समझना चाहिये कि सरकारी नौकरों को तन्खाहे भले ठीक-ठाक ही मिलें लेकिन सेवा के लिये उनके हाथ में असीमित अधिकार होते हैं। जहां नौकरशाहों को यह पता चला कि वे काबिलियत के सहारे और आगे बढ़ सकते हैं तो फ़िर से अपना सारा काम-धाम छोड़कर सारी ताकत और हुनर अपनी काबिलियत साबित करने में लगा देते हैं। वे हर वह हरकत जी हां हरकत चाहे वह सही हो या गलत करते हैं जो उनके सक्षम अधिकारी की नजरों में काबिलियत मानी जाये।
एक बार काबिलियत के बूते छलांग लगा लेने के बाद फिर तो छ्लांग लगाते रहना काबिल नौकरशाह की फ़ितरत और आदत बन जाती है। वह बंदरों की तरह जहां-तहां अपनी काबिलियत का मुजाहिरा करता रहता है।
भारत के तमाम भ्रष्ट माने जाने वाले नौकरशाह अपने समय के सबसे काबिल नौकरशाह माने जाते रहे। नेता/बास के लिये इससे बड़ी सुकून की बात क्या हो सकती है कि उसका नीचे वाला उसके मन की इच्छा के अनुसार सारे काम कर रहा है। नियम कानून उनके हिसाब से परिभाषित कर रहा है। वैसे भी नियम कानून सफ़ल लोगों के लिये नहीं होते। वे अपना रास्ता खुद बनाते हैं।
मेरे एक दोस्त का कहना है कि नौकरशाही में काम में उन्नीस और बीस का अन्तर होता है जबकि प्रदर्शन में दस और सौ का अन्तर होता है।
उनका यह भी कहना है कि डायनामिक माने जाने वाले लोगों के लिये अपना लक्ष्य पाने की अंदाज उस डायनासोर की चाल की तरह होता है जिस एक जगह से दूसरी जगह जाने में कितनी भी इमारतें तोड़नी पड़ें कोई फ़र्क नहीं पड़ता। काबिल अफ़सर डायनासोर की तरह अपनी मंजिल हासिल करता है। भले ही कितने ही नियम कानून टूटें। काबिल लोग अपना काम करते समय नियम कानून को या तो मेकअप करके अपनी मनमाफिक शक्ल दे देते हैं या फ़िर उसे अपने काम करने की अवधि में तेल लेने भेज देते हैं।
मुशर्रफ़ भी बेचारे एक अदना अफ़सर हैं। अब अगर वे कबिल हैं और देशभक्त भी तो इसमें उसका क्या दोष?
मुशर्रफ़ को कोसना एक निरीह काबिल अफ़सर को अपनी काबिलियत दिखाने से रोकना है। यह किस नजर से जायज कहलायेगा भाई। हरेक सच्चे देशभक्त को अपने हिसाब से देशसेवा करने का हक है।
है कि नहीं आपै बताओ।
और मियां मुशर्रफ़ ने पाकिस्तान में इमरजेंसी लगा दी। दीवाली के अवसर पर बम्पर इनाम।
वैसे इमरजेंसी की अफ़वाह पहले से ही थी। इसलिये इसमें मुशर्रफ़जी को दोष भी नहीं क्योंकि बकौल मुस्ताक साहब- पाकिस्तान की अफ़वाहों की सबसे बड़ी खराबी ये है कि सच निकलती हैं।
जो बात देश का रिवाज हो गयी हो उसमें एक अदना डिक्टेटर कैसे दखल दे सकता है।
वैसे भी पाकिस्तान में फ़ौज का तख्ता पलट इतनी आम बात है कि खराब भली कही जाये, अटपटी नहीं लगती। अटपटा तो तब लगता है जब जम्हूरियत की पारी लंबी खिंच जाये। बोरियत होने लगती है फ़ौजियों को। और पाकिस्तान में फ़ौजी जब बोर तो जम्हूरियत का तख्ता उलट-पुलट देते हैं।
पाकिस्तान में लोकतंत्र की मशीन अक्सर खराब हो जाती है। वहां पर फ़ौजियों के साथ मेन्टीनेंस कान्ट्रैक्ट है। जहां मशीन की हालत खराब होती है मेंटिनेन्स करने वाले उसे अपने कब्जे में ले लेते हैं। हर बार जब ठीक करके देते हैं तो वह पहले से और बिगड़ी हुयी हालात में होती है।
वहां का फ़ौजी हुक्मरान अपने नियम कायदे कानून अपने हिसाब से बनाता है। अपना मेंटिनेन्स मैनुअल की प्रोग्रामिंग खुद करता है। संविधान अपना, नियम अपने, नियम लागू करने के अंदाज अपने।
पाकिस्तान के लिये फ़ौजी शासन और मार्शल आत्मा-परमात्मा के मिलन की तरह शाश्वत है। पवित्र रूहों का मिलन है।
मुझे तो ऐसा लगता है कि पाकिस्तान की जम्हूरियत उनके फ़ौजी शासकों के लिये विकिपीडिया की तरह होता है। हर डिक्टेटर अपने हिसाब से उसमें सुधार करता रहता है जो कि कभी खतम होने का नाम लेते। मुशर्रफ़ ने भी यही किया तो क्या गुनाह किया?
बेचारा कई बार मरते-मरते बचा। जान हथेली में लिये देश की सेवा करता रहा। देश वाले फिर भी देशसेवा ही न करने दें तो कित्ता खराब लगता है। तानाशाह के लिये तो तख्ते पर बैठे रहना देशसेवा की सबसे सच्ची मिशाल है। अब जड़ से ही काटोगे किसी को तो उससे जो बन सकेगा करेगा। आखिर देश से उसे प्यार जो है। कोई सच्चा देश सेवक तानाशाह अपने जीते-जी कैसे तख्त छोड़ सकता है। छोड़ देगा तो उसे लोग क्या कहेंगे?
मुशर्रफ़ ने जो किया वो लोग वहां पहले ही कर चुके हैं। उन्होंने केवल महान लोगों की परम्पराओं का पालन किया है। जो रास्ता याह्या खान, जियाहुलहक ने दिखाया उसी पाक रास्ते पर उन्होंने कदम बढाये। महाजनो येन गत: स: पन्था।
राजनीति वाले अपने चश्मे से इसे देखेंगे लेकिन मैं जब इसे सोचता हूं तो यह पाकिस्तान के जम्हूरियत के हुक्मरानों की बचकानी हरकतों का अपरिहार्य बाई-प्राडक्ट है। चाहे पाकिस्तान हो या हिन्दुस्तान यहां नौकरशाही आमतौर पर सीनियारिटी से चलती है। नवाज शरीफ़ को मुशर्रफ़ में
इतना काबिलियत दिखी कि उन्होंने उनको कई अफ़सरान को नजरन्दाज करके सेनाध्यक्ष बना दिया। जब बन गये तो उनको भी अपनी काबिलियत दिखानी ही थी।
एशियाई देशों में नौकरशाह की काबिलियत का पैमाना उसके बास की नजर होती है। अगर उसके बास की नजरों में वह काबिल है तो फ़िर उसके लिये सब आसान। अब यह विडम्बना है कि बास के काबिलियत नापने के अन्दाज ये होते हैं कि वह उसके कहने पर कितने काम कर देता है। जायज-नाजायज, उचित-अनुचित, करणीय-अकरणीय का विचार न करते हुये अपने बास की इच्छा पूर्ति करना ही काबिलियत कहलाती है।
यह भी एक विडम्बना है कि यहां हुक्मरान अपनी राजतंत्रात्मक मनोवृत्ति से ऊपर नहीं उठ पाये हैं। जो उनके लिये भला है उसमें ही जनता का भला देखते हैं
जब बास को खुश करना ही आगे बढ़ने के लिये सबसे जरूरी हो जाता है तो स्वाभाविक है कि नौकरशाह उसी रास्ते को अपने लिये आदर्श मान लेता है। बास को भी लगता है कि इससे अच्छा अधीनस्थ तो दुनिया भर में फ़्लड लाइट लगवाने से भी न मिलेगा। यही नवाज शरीफ़ को भी लगा और उन्होंने मुशर्रफ़ को सबसे काबिल मानते हुये आगे बढ़ा दिया। बाद में उसी काबिलियत के सहारे मुशर्रफ़ ने नजज को किनारे कर दिया।
हाल ही में नवाज शरीफ़ ने माना कि उनसे कि उनसे गलती हुयी। लेकिन अब तो खेत भी न रहे जिसे चिड़िया चुग गयी थी। अब वे केवल पछता ही सकते हैं।
यह भी खुलाशा हुआ कि नवाज शरीफ़ मामले की तह न जाते थे। ऊपर से ही देखकर नतीजे निकाल लेते थे। इसीलिये वे मुशर्रफ़ की तह में भी न गये और उन्होंने उसे तहा कर रख दिया।
जो लोग काबिलियत और तमाम दूसरी बातों के चलते नौकरशाही में उन्नति की वकालत करते हैं उनको समझना चाहिये कि सरकारी नौकरों को तन्खाहे भले ठीक-ठाक ही मिलें लेकिन सेवा के लिये उनके हाथ में असीमित अधिकार होते हैं। जहां नौकरशाहों को यह पता चला कि वे काबिलियत के सहारे और आगे बढ़ सकते हैं तो फ़िर से अपना सारा काम-धाम छोड़कर सारी ताकत और हुनर अपनी काबिलियत साबित करने में लगा देते हैं। वे हर वह हरकत जी हां हरकत चाहे वह सही हो या गलत करते हैं जो उनके सक्षम अधिकारी की नजरों में काबिलियत मानी जाये।
एक बार काबिलियत के बूते छलांग लगा लेने के बाद फिर तो छ्लांग लगाते रहना काबिल नौकरशाह की फ़ितरत और आदत बन जाती है। वह बंदरों की तरह जहां-तहां अपनी काबिलियत का मुजाहिरा करता रहता है।
भारत के तमाम भ्रष्ट माने जाने वाले नौकरशाह अपने समय के सबसे काबिल नौकरशाह माने जाते रहे। नेता/बास के लिये इससे बड़ी सुकून की बात क्या हो सकती है कि उसका नीचे वाला उसके मन की इच्छा के अनुसार सारे काम कर रहा है। नियम कानून उनके हिसाब से परिभाषित कर रहा है। वैसे भी नियम कानून सफ़ल लोगों के लिये नहीं होते। वे अपना रास्ता खुद बनाते हैं।
मेरे एक दोस्त का कहना है कि नौकरशाही में काम में उन्नीस और बीस का अन्तर होता है जबकि प्रदर्शन में दस और सौ का अन्तर होता है।
उनका यह भी कहना है कि डायनामिक माने जाने वाले लोगों के लिये अपना लक्ष्य पाने की अंदाज उस डायनासोर की चाल की तरह होता है जिस एक जगह से दूसरी जगह जाने में कितनी भी इमारतें तोड़नी पड़ें कोई फ़र्क नहीं पड़ता। काबिल अफ़सर डायनासोर की तरह अपनी मंजिल हासिल करता है। भले ही कितने ही नियम कानून टूटें। काबिल लोग अपना काम करते समय नियम कानून को या तो मेकअप करके अपनी मनमाफिक शक्ल दे देते हैं या फ़िर उसे अपने काम करने की अवधि में तेल लेने भेज देते हैं।
मुशर्रफ़ भी बेचारे एक अदना अफ़सर हैं। अब अगर वे कबिल हैं और देशभक्त भी तो इसमें उसका क्या दोष?
मुशर्रफ़ को कोसना एक निरीह काबिल अफ़सर को अपनी काबिलियत दिखाने से रोकना है। यह किस नजर से जायज कहलायेगा भाई। हरेक सच्चे देशभक्त को अपने हिसाब से देशसेवा करने का हक है।
है कि नहीं आपै बताओ।
Posted in बस यूं ही | 13 Responses
जम्हूरियत वो तर्जे हुकूमत है;
जहां बन्दे तोले नहीं जाते, गिने जाते हैं।
बेचारे तानाशाह को तंग करेंगे, तो और क्या करेगा?…अच्छा हुआ ‘दीवाली बम्पर’ दिया है जनाब ने…’ईद बम्पर’ नहीं दिया, यही एहसान किया अपने देश पर….लेकिन जम्हूरियत से ही लिया गया पाठ है, इसमे कोई दो राय नहीं.
काबिल के लिये भ्रष्ट न होना दृढ़ संकल्प का प्रश्न है – वर्ना चापलूस इतने मिलते हैं कि अच्छे-अच्छे को भ्रष्ट बना दें।
काबलियत में 19 प्रदर्शन में सौ के ग्रेड से; काबिल में 20 वाले से ऊपर होते हैं – यह निर्विवाद है!
मस्त!!
-बिल्कुल-और मुशर्रफ वही कर रहे हैं फिर भी न जाने क्यूँ लोग उन पर ऊँगलियां उठाते हैं.
-गजब लिखे हैं आज आप, बधाई.