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सुख के साइड इफ़ेक्ट
By फ़ुरसतिया on April 9, 2008
कल पाण्डेयजी ने सुखी जीवन के सूत्र बताये। दुखी कर दिया।
दुख हमारा बहु-आयामी है।
सबसे बड़ा दुख यह कि उनको अपनी एक पोस्ट लिखने के लिये चार-पांच घंटे मिल गये।
कैसे मिले? यह जांच का विषय है।
जब व्यस्त रहते हुये आपको चार-पांच घंटे मिल गये तो खाली में क्या हाल होता होगा।
शेर भी अर्ज कर दिया है ऊपर वाली बात पर वजन देने के लिये-
जब वो बेवफ़ा है तब उस पर दिल इतना मरता है।
या इलाही अगर अगर वो बावफ़ा होता तो क्या सितम होता।
इसका फ़ुरसतिया अनुवाद भी बांच लें-
जब वो बिजी हैं तब भी घंटो-घंटो खाली हैं
गर कहीं वे खाली होते तो क्या बबाल होता।
बात यहीं तक रहती तो ठीक था। ज्ञानजी ने अनुवाद किया तो उधर रविरतलामी ने उसे यू-ट्यूब में भर दिया। जीतेंन्द्र ने भी न उसका रूप परिवर्तन कर दिया। हम देख-देखकर दुखी हैं। कैसे ये लोग ये सब बना रहे हैं। दुखी कर दिया। अगला तबला बजा रहा है। हम दुखी हो रहे हैं।
दुख इस बात का कि हम इसमें से कुच्छ नहीं कर पाते। न पावर-प्वाइंट न हिन्दी अनुवाद न यू-ट्यूब और न जीतेन्द्र का लफ़ड़ा।
कुछ न जानने से बड़ा दुख है-कुछ जानने की इच्छा न होना। इच्छा भी नहीं हुयी कि हम भी कोई पावर-प्वांईट ठेल दें, यू-ट्यूब घुसा दें, फ़ुल स्क्रीन दिखा दें। हम नहीं चाहते कि हम भी अपने तमाम दोस्तों को -यू टू ब्रूटस कहने का मौका दें।
हम नहीं चाहते हमारे तमाम दोस्त यह सोचकर दुखी हों कि फ़ुरसतिया भी साथ छोड़ गये। तकनीकी लोगों की पार्टी ज्वाइन कर ली। बड़का इंटेलीजेन्ट बन गये।
सुख की बात नये-नये अन्दाज में पढ़ रहे हैं। दुखी हो रहे हैं।
ये सुख के साइड इफ़ेक्ट हैं।
सुख वैसे भी क्षण भंगुर है। आता है चला जाता है।
आप किसी से पूछो- सबसे ज्यादा सुखी कब हुये।
अगला अपनी जिंदगी की एकदम से कुछ फोटो छांट के दिखा देगा। ये फ़ूल , वो पत्ती , ये नदी का किनारा , ये तुम, ये हम और वो देखो वो। सब के सब अब बदल गये होंगे।
बहुत मेहनत मांगता है सुखी होना।
खुद को व्यक्त करें, निर्णय लें, समाधान खोंजे, दिखावे से बचें, स्वीकारें, विश्वास रखें, उदास होकर न जीयें।
एक चिरकुट सुख के लिये इत्ती मेहनत कैसे करें जी? जो सुख आये और नमस्ते करके चला जायेगा उसके लिये इतनी दंड पेलें। न हो पायेगा जी हमसे। हम इससे अच्छा अपने दुख में सुखी। मेरे प्यारे दुख हम तुमसे बेवफ़ाई न करेंगे। साथ जीयेंगे साथ मरेंगे।
सुख दरवाजे पर द्स्तक देता खड़ा रहेगा। हम कहेंगे- फ़िर कभी आना यार। अभी बहुत बिजी हैं।
वो पीछे के दरवाजे पर आकर दरवाजा खटखटायेगा तब तक हम आगे के दरवज्जे से निकल लेंगे। दफ़्तर के लिये।
दफ़्तर जाते हुये भी सोचते रहेंगे ये जबरिया सुख कैसे आयेगा। उस सुख की क्या भैल्यू जिसे लाने के लिये इत्ता दुख झेलना पड़ा।
खुद दुखी हुये। अब दोस्तों को दुखी कर रहे हैं।
आगे भी चैन नहीं ! लोगों को झूठ बोलने की भूमिका बनाने के लिये पोस्ट ठेल दी।
इस सुख ने हाय राम बड़ा सुख दीना।
Posted in बस यूं ही | 15 Responses
सुख तो स्मृतियों में आता है या उम्मीद में।
वर्तमान तो दुख का ही होता है।
दुख ससुरा एकैदम रीयलिस्टिक टाइप छाती पर दनदना जाता है।
अरे, ये फिलोसफराना बात हो ली।
समझ लीजिये कि व्यंग्यकार की तबीयत कुछ खराब सी है।
तुम सुखी हो तो दुखी मैं,
विश्व का अभिशाप भारी.
क्या करूं संवेदना लेकर तुम्हारी? क्या करूं?
वैसे आपने दुखमय हो कर भी बहुत बढ़िया लिखा जी। आप भी 100/100 नम्बर ले लें। नम्बरों को बचा कर हमें क्या अचार डालना है!
क्या अंधेरनगरी मचाई हुयी है आपने, उधर पाण्डेयजी कह रहे हैं कि आप दुबला रहे हैं । ये अनर्थ नहीं चलेगा । दुबले होना है तो सुबह २ मील दौडना शुरू करो, नहीं तो वजन संभाल कर रखो । अगली भारतयात्रा पर पूरा हिसाब होगा ।