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अपनी आदत, चुप रहते हैं…
By फ़ुरसतिया on May 12, 2008
पिछले दिनों कई गीत-कवितायें पढ़ने का मौका मिला। एक पत्रिका में
तमाम गीतकारों की चुनिंदा पंक्तियां पढ़ने को मिलीं। कभी समय मिलने पर आपको
पढ़वाउंगा।
फिलहाल ये कविता देखिये। फ़र्रुखाबाद के कवि शिवओम अम्बरजी हमारी समझ में आज के सबसे अच्छे मंच संचालकों में हैं। उनकी कई कविताओं में सबसे अच्छी कविता मुझे ये लगती है। ये कविता हमारे मित्र विनोद त्रिपाठी अक्सर दोहराते हैं -लेकिन आधी-अधूरी। वे खरी बात कहते हैं लेकिन अक्सर चुप भी हो जाते हैं क्योंकि लोग कभी-कभी उनसे खफ़ा भी हो जाते हैं।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के 1984 के परास्नातक विनोद ने इतिहास और हिंदी विषय लेकर भारतीय सिविल सेवा परीक्षा पास की और आजकल हमारे यहां प्रशासनिक अधिकारी हैं। अपने सहज देशज गद्य के साथ अगर वे लिखना शुरू करें तो तमाम लोग उनके मुरीद हो जायें लेकिन वे फिलहाल चुप हैं। देखना है कब तक? कभी कविता लिखने की आदत आजकल स्थगित सी है। शायद इसे बांचकर फिर से कुछ कहने-लिखने का उनका मन बने।
अपनी आदत , चुप रहते हैं,
या फिर बहुत खरा कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
आंसू नहीं छलकने देंगे
ऐसी कसम उठा रखी है
होंठ नहीं दाबे दांतों से
हमने चीख दबा रखी है।
माथे पर पत्थर सहते हैं,
छाती पर खंजर सहते हैं
पर कहते पूनम को पूनम
मावस को मावस कहते हैं।
अपनी आदत , चुप रहते हैं,
या फिर बहुत खरा कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
हमने तो खुद्दार जिंदगी के
माने इतने ही माने
जितनी गहरी चोट अधर पर
उतनी ही गहरी मुस्कानें।
फ़ाके वाले दिन को, पावन
एकादशी समझते हैं
पर मुखिया की देहरी पर
जाकर आदाब नहीं कहते हैं।
अपनी आदत , चुप रहते हैं,
या फिर बहुत खरा कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
हम स्वर हैं झोपड़पट्टी के
रंगमहल के राग नहीं हैं
आत्मकथा बागी लहरों की
गंधर्वों के फ़ाग नहीं हैं।
हम चिराग हैं, रात-रात भर
दुनिया की खातिर जलते हैं
अपनी तो धारा उलटी है
धारा में मुर्दे बहते हैं।
अपनी आदत , चुप रहते हैं,
या फिर बहुत खरा कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
-शिवओम ‘अम्बर’
फ़र्रुखाबाद
फिलहाल ये कविता देखिये। फ़र्रुखाबाद के कवि शिवओम अम्बरजी हमारी समझ में आज के सबसे अच्छे मंच संचालकों में हैं। उनकी कई कविताओं में सबसे अच्छी कविता मुझे ये लगती है। ये कविता हमारे मित्र विनोद त्रिपाठी अक्सर दोहराते हैं -लेकिन आधी-अधूरी। वे खरी बात कहते हैं लेकिन अक्सर चुप भी हो जाते हैं क्योंकि लोग कभी-कभी उनसे खफ़ा भी हो जाते हैं।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के 1984 के परास्नातक विनोद ने इतिहास और हिंदी विषय लेकर भारतीय सिविल सेवा परीक्षा पास की और आजकल हमारे यहां प्रशासनिक अधिकारी हैं। अपने सहज देशज गद्य के साथ अगर वे लिखना शुरू करें तो तमाम लोग उनके मुरीद हो जायें लेकिन वे फिलहाल चुप हैं। देखना है कब तक? कभी कविता लिखने की आदत आजकल स्थगित सी है। शायद इसे बांचकर फिर से कुछ कहने-लिखने का उनका मन बने।
अपनी आदत , चुप रहते हैं,
या फिर बहुत खरा कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
आंसू नहीं छलकने देंगे
ऐसी कसम उठा रखी है
होंठ नहीं दाबे दांतों से
हमने चीख दबा रखी है।
माथे पर पत्थर सहते हैं,
छाती पर खंजर सहते हैं
पर कहते पूनम को पूनम
मावस को मावस कहते हैं।
अपनी आदत , चुप रहते हैं,
या फिर बहुत खरा कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
हमने तो खुद्दार जिंदगी के
माने इतने ही माने
जितनी गहरी चोट अधर पर
उतनी ही गहरी मुस्कानें।
फ़ाके वाले दिन को, पावन
एकादशी समझते हैं
पर मुखिया की देहरी पर
जाकर आदाब नहीं कहते हैं।
अपनी आदत , चुप रहते हैं,
या फिर बहुत खरा कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
हम स्वर हैं झोपड़पट्टी के
रंगमहल के राग नहीं हैं
आत्मकथा बागी लहरों की
गंधर्वों के फ़ाग नहीं हैं।
हम चिराग हैं, रात-रात भर
दुनिया की खातिर जलते हैं
अपनी तो धारा उलटी है
धारा में मुर्दे बहते हैं।
अपनी आदत , चुप रहते हैं,
या फिर बहुत खरा कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
-शिवओम ‘अम्बर’
फ़र्रुखाबाद
Posted in कविता, मेरी पसंद | 20 Responses
अपनी तो धारा उलटी है
धारा में मुर्दे बहते हैं।
इन पंक्तियों के बाद मैं अपना यथार्थ जांचने लगा क्योंकि लोग कहते रहे हैं कि तुम हमेशा धारा के साथ बहते रहे हो, हाथ-पैर मारने के बावजूद…
उनसे कहिये,
” एकादशी भले करेँ, धारा से उल्टा भी बह लेँ ”
पर,
खरी खरी, अब सुना ही दीजिये.
आप ने ओजस्वी कविता सुनवाई उसके लिये शुक्रिया अनुप भाई — – लावण्या
माथे पर पत्थर सहते हैं,
छाती पर खंजर सहते हैं
पर कहते पूनम को पूनम
मावस को मावस कहते हैं।
मुझे तो ऐसे ही लोग पसंद है
लेकिन भाई जी ने चुप रहते हुये भी इतना कुछ कह दिया है
कि उनकी इस आदत पर सदके जावाँ
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या फिर बहुत खरा कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
bahut barhiya ..maja aa gaya
सतीश