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‘हंस’ अक्टूबर २००५ में प्रकाशित लम्बी कहानी ‘इंतज़ार’ और ‘जागरण’ की साहित्य वाषिर्की में प्रकाशित ‘सर्वप्रिया’ ने एक बार फिर हिन्दी के पाठकों को मेरी कई कहानियों की याद दिलाई है । ‘दो औरतें’ ‘पूरी हक़ीकत पूरा फसाना’ और ‘नातूर ‘ के बाद मेरा नया कहानी संग्रह – ‘एक सिरे से दूसरे सिरे तक’ आया है । यह मेरा चौथा कहानी संग्रह
है । पांचवां और छठवां कहानी संग्रह भी प्रकाशन के लिए तैयार है । ग्यारह एकांकी नाटकों का एक संकलन भी कच्चे माल के रूप में रात दिन आंखों के सामने है । तीन उपन्यासों की पाण्डुलिपि तैयार है ।
जब हालात ऐसे हैं तो फिर मेरा लिखना किसलिए प्रश्न जितना उलझा हुआ है उत्तर उतना ही साफ है । लिखना मेरे होने का सबूत है । जब नहीं लिखूंगा़ मर चुका हूंगा । इसी के साथ यह प्रश्न भी कि लिखना क्या? यहां भी बात साफ है कि लिखना वह जिससे एक बेहतर समाज की रचना हो । एक बेहतर समाज की चिन्ता आज रचनाकार को छोड़कर किसी को नहीं है । इस दुनिया के सबसे बड़े विचारक कबीर का कहना है :-
‘मूड’ जैसी चीज़ मेरे लेखन से कतई सम्बन्धित नहीं है । जब मैं मज़बूरी में नौकरी कर सकता हूं । मज़बूरी में पारिवारिक जि़म्मेंदारियां ओढ़ सकता हूं तो अपने जीवन को बचाने के लिए लेखक क्यों नहीं हो सकता? लोग बाग काम धाम करके इन्ज्वाय करते हैं । मेरा इन्ज्वायमेण्ट लिखना है । नही लिखूंगा तो ‘रिलैक्स्ड’ नहीं होऊंगा । लिखने के लिए मुझे वैसी ही मशक्कत करनी पड़ती है जैसे जीवन के लिए । लेकिन मुझे सब सहज लगता है ।
मेरी किसी कहानी की नकारात्मक आलोचना नहीं हुई । सच कहूं तो ऐसे ऐसे पाठकों के पत्र मेरे पास हैं जिनके आगे कुबेर का खज़ाना कोई अर्थ नहीं रखता । एक दिन आप वहां पहुंच जाते या खड़े हो जाते हैं जहां से दुनिया बहुत साफ दिखाई देती है । मैं वहां पहुंचा हूं या नहीं किन्तु अब कोई गिला शिकवा किसी से नहीं है । बस़ अपने से यह शिकायत है कि अब भी बहुत कुछ लिखना बाकी है और जो अच्छा है वह अबतक तो लिखा नहीं गया । लिखने के लिए जीवन, अनुभूति और सहानुभूति के साथ साथ स्वानुभूति का होना बहुत ज़रूरी है । मैं सुने हुए पर नहीं लिखता । एक तरह से आप कह सकते हैं कि मेरा लेखन पत्रकार का लेखन है । मेरी कहानियों का पंजाबी , उर्दू और नेपाली में अनुवाद हुआ है । यह काम डा.अमरजीत ,डा.मीर सैयद ज़ाफरी और डा.कुमुद अधिकारी ने किया है । मैं इनसे अबतक मिला नहीं हूं । इनकी मुलाकात मेरी कहानियों से विभिन्न पत्रिकाओं में हुई है । मैं इनका कृतज्ञ हूं । मेरे मित्रों ने ये अनुवाद पढ़कर मुझे सुनाए । अनुवाद अच्छे हुए हैं । कथा २००३ तथा अन्य ३-४ संग्रहों में मेरी कहानियां संकलित हुई हैं ।
देय की दृष्टि से रचनाकार कभी संतुष्ट नहीं होता । उसका संतुष्ट होना ही उसकी मौत है । मैं अगर संतुष्ट हूं तो इस बात से कि रोज लिखता हूं । चाहे वह पत्र लेखन ही हो । ३५-३६ वर्षों में लिखने के कारण बहुत से सम्बन्ध बने बिगड़े हैं मगर मैंने किसी से कोई लाभ नहीं उठाया । एक यक़ीन है कि किसी का बुरा कभी किया नहीं इसलिए मेरा बुरा कोई करना चाहकर भी कर न सकेगा । हालांकि दुश्मनों की संख्या भी कम नहीं है । मेरा यह भी मानना है कि जिसके दुशमन नहीं होंगे उनका कोई सच्चा मित्र भी नहीं होगा । मैं किसी को गिफ्ट देकर छपने वाला लेखक नहीं हूं । मेरी रचनाएं ही गिफ्ट हैं उस सम्पादक के लिए जिसे मैं रचना भेजता हूं । आज की तारीख में मैं किसी सम्पादक की कृपा पर जीवित नहीं हूं । मेरे रचनाकर्म ने मुझे जीवित रखा है ।
मैं बहुत दूर तक यथाथर्वादी हूं लेकिन समस्याऒं के हल के लिए पहले सांस्कृतिक परम्परावादी की तरह समझौते का सहारा लेता हूं लेकिन समझौते को खींचने का पक्षधर नहीं हूं । लेखक होने के कारण समस्या की ओर इशारा मेरा धर्म है । मैं न्यायाधीश नहीं हूं कि उनका निपटारा करूं । किसी भी रचना का असर तुरन्त नहीं होता । इसके परिणाम दूरगामी होते हैं । मुझे देशी विदेशी कई लेखक पसन्द हैं पर मेरा उनसे प्रभावित होना ज़रूरी तो नहीं ।
कृष्ण बिहारी
 
लिखने के लिये स्वानुभूति होना जरूरी है- कृष्ण बिहारी
By फ़ुरसतिया on June 26, 2008 
कृष्णबिहारी

[आपने कॄष्णबिहारी का परिचय, इंटरव्यू और उनके बारे में गोविन्द उपाध्याय का लेख पढ़ा। अब आप अपने खुद के लेखन के बारे में बिहारीजी का आत्मकथ्य भी देखिये। ]
‘हंस’ अक्टूबर २००५ में प्रकाशित लम्बी कहानी ‘इंतज़ार’ और ‘जागरण’ की साहित्य वाषिर्की में प्रकाशित ‘सर्वप्रिया’ ने एक बार फिर हिन्दी के पाठकों को मेरी कई कहानियों की याद दिलाई है । ‘दो औरतें’ ‘पूरी हक़ीकत पूरा फसाना’ और ‘नातूर ‘ के बाद मेरा नया कहानी संग्रह – ‘एक सिरे से दूसरे सिरे तक’ आया है । यह मेरा चौथा कहानी संग्रह
है । पांचवां और छठवां कहानी संग्रह भी प्रकाशन के लिए तैयार है । ग्यारह एकांकी नाटकों का एक संकलन भी कच्चे माल के रूप में रात दिन आंखों के सामने है । तीन उपन्यासों की पाण्डुलिपि तैयार है ।
हिन्दुस्तान में किसी भाषा के लेखक का जीवन उसके मसिजीवी होने से नहीं चल सकता  ।
लिखना मेरा शौक नहीं है  । इससे मेरी रोजी रोटी भी नहीं चलती ।  जीवन और
 परिवार के लिए मैं तबसे नौकरी करता आया हूं जबसे लिखना शुरू किया  ।  
हिन्दुस्तान में किसी भाषा के लेखक का जीवन उसके मसिजीवी होने से नहीं चल 
सकता  ।  विदेश में यानी  कि योरप और अमेरिका में लेखक एक किताब लिखकर जीवन
 की सभी सुविधाएं पा जाता है  ।  उस देश की सरकार भी उसके जीवन यापन का 
इंतज़ाम करती है मगर भारत में केवल लेखक ही नहीं अन्य क्षेत्रों की 
प्रतिभाएं भी बहुत उपेक्षित जीवन जीने को मज़बूर हैं  ।जब हालात ऐसे हैं तो फिर मेरा लिखना किसलिए प्रश्न जितना उलझा हुआ है उत्तर उतना ही साफ है । लिखना मेरे होने का सबूत है । जब नहीं लिखूंगा़ मर चुका हूंगा । इसी के साथ यह प्रश्न भी कि लिखना क्या? यहां भी बात साफ है कि लिखना वह जिससे एक बेहतर समाज की रचना हो । एक बेहतर समाज की चिन्ता आज रचनाकार को छोड़कर किसी को नहीं है । इस दुनिया के सबसे बड़े विचारक कबीर का कहना है :-
‘ सुखिया सब संसार है खाए अरु सोवै,रचनाकार के जि़म्में जागना ही उसकी किस्मत है । मैं शौकिया लेखन नहीं करता अतः अपनी किस्मत पर न तो इतराता हूं और न दुखी हूं । अपना-अपना भाग्य है और मेरे हिस्से जो आया है मुझे उससे निपटना है । इन दिनों मैं अपनी आत्मकथा के चार भागों (अमार्पुर से अबूधाबी तक ) के दूसरे भाग ‘सागर के इस पार से ,उस पार से’ और खाड़ी के देशों में कायर्रत श्रमिकों के जीवन पर आधारित उपन्यास ‘दोज़ख’ के साथ जी रहा हूं ।
दुखिया दास कबीर है जागे अरू रोवै’
‘मूड’ जैसी चीज़ मेरे लेखन से कतई सम्बन्धित नहीं है । जब मैं मज़बूरी में नौकरी कर सकता हूं । मज़बूरी में पारिवारिक जि़म्मेंदारियां ओढ़ सकता हूं तो अपने जीवन को बचाने के लिए लेखक क्यों नहीं हो सकता? लोग बाग काम धाम करके इन्ज्वाय करते हैं । मेरा इन्ज्वायमेण्ट लिखना है । नही लिखूंगा तो ‘रिलैक्स्ड’ नहीं होऊंगा । लिखने के लिए मुझे वैसी ही मशक्कत करनी पड़ती है जैसे जीवन के लिए । लेकिन मुझे सब सहज लगता है ।
लिखने के लिए जीवन, अनुभूति और सहानुभूति के साथ
साथ स्वानुभूति का होना बहुत ज़रूरी है।
मैं किसी घटना पर एकदम से लिखने नहीं बैठ जाता  ।  यदि ऐसा लेखन किया है
 तो ज़रूर उस घटना ने बहुत बेचैन किया होगा  ।  अन्यथा मैं किसी बात के साथ
 जीने लगता हूं ।  हरसमय कोई न कोई बात मेरे साथ मेरे भीतर जीती रहती है । 
 या यूं कहूं कि मेरा  खून तबतक पीती हैजबतक मैं उसे अपने भीतर से निकाल 
नहीं देता ।  उसे निकालना  ही मेरी रचनात्मकता है  ।  जीने की कोशिश में 
फिर फिर लिखना ही एक रास्ता बचता है  ।  आलोचना से मैं पहले चिढ़ता था 
लेकिन अब नहीं चिढ़ता  ।  कहानियां बहुत लिखीं  ।  लगभग डेढ़ सौ के आसपास  ।साथ स्वानुभूति का होना बहुत ज़रूरी है।
मेरी किसी कहानी की नकारात्मक आलोचना नहीं हुई । सच कहूं तो ऐसे ऐसे पाठकों के पत्र मेरे पास हैं जिनके आगे कुबेर का खज़ाना कोई अर्थ नहीं रखता । एक दिन आप वहां पहुंच जाते या खड़े हो जाते हैं जहां से दुनिया बहुत साफ दिखाई देती है । मैं वहां पहुंचा हूं या नहीं किन्तु अब कोई गिला शिकवा किसी से नहीं है । बस़ अपने से यह शिकायत है कि अब भी बहुत कुछ लिखना बाकी है और जो अच्छा है वह अबतक तो लिखा नहीं गया । लिखने के लिए जीवन, अनुभूति और सहानुभूति के साथ साथ स्वानुभूति का होना बहुत ज़रूरी है । मैं सुने हुए पर नहीं लिखता । एक तरह से आप कह सकते हैं कि मेरा लेखन पत्रकार का लेखन है । मेरी कहानियों का पंजाबी , उर्दू और नेपाली में अनुवाद हुआ है । यह काम डा.अमरजीत ,डा.मीर सैयद ज़ाफरी और डा.कुमुद अधिकारी ने किया है । मैं इनसे अबतक मिला नहीं हूं । इनकी मुलाकात मेरी कहानियों से विभिन्न पत्रिकाओं में हुई है । मैं इनका कृतज्ञ हूं । मेरे मित्रों ने ये अनुवाद पढ़कर मुझे सुनाए । अनुवाद अच्छे हुए हैं । कथा २००३ तथा अन्य ३-४ संग्रहों में मेरी कहानियां संकलित हुई हैं ।
देय की दृष्टि से रचनाकार कभी संतुष्ट नहीं होता । उसका संतुष्ट होना ही उसकी मौत है । मैं अगर संतुष्ट हूं तो इस बात से कि रोज लिखता हूं । चाहे वह पत्र लेखन ही हो । ३५-३६ वर्षों में लिखने के कारण बहुत से सम्बन्ध बने बिगड़े हैं मगर मैंने किसी से कोई लाभ नहीं उठाया । एक यक़ीन है कि किसी का बुरा कभी किया नहीं इसलिए मेरा बुरा कोई करना चाहकर भी कर न सकेगा । हालांकि दुश्मनों की संख्या भी कम नहीं है । मेरा यह भी मानना है कि जिसके दुशमन नहीं होंगे उनका कोई सच्चा मित्र भी नहीं होगा । मैं किसी को गिफ्ट देकर छपने वाला लेखक नहीं हूं । मेरी रचनाएं ही गिफ्ट हैं उस सम्पादक के लिए जिसे मैं रचना भेजता हूं । आज की तारीख में मैं किसी सम्पादक की कृपा पर जीवित नहीं हूं । मेरे रचनाकर्म ने मुझे जीवित रखा है ।
मैं बहुत दूर तक यथाथर्वादी हूं लेकिन समस्याऒं के हल के लिए पहले सांस्कृतिक परम्परावादी की तरह समझौते का सहारा लेता हूं लेकिन समझौते को खींचने का पक्षधर नहीं हूं । लेखक होने के कारण समस्या की ओर इशारा मेरा धर्म है । मैं न्यायाधीश नहीं हूं कि उनका निपटारा करूं । किसी भी रचना का असर तुरन्त नहीं होता । इसके परिणाम दूरगामी होते हैं । मुझे देशी विदेशी कई लेखक पसन्द हैं पर मेरा उनसे प्रभावित होना ज़रूरी तो नहीं ।
कृष्ण बिहारी
मैं कतरा सही मेरा वजूद तो है,
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है।