http://web.archive.org/web/20140403052128/http://hindini.com/fursatiya/archives/512
काफ़ी दिन से इधर कुछ ठेला नहीं। सोचा आज सही।
यहां लिखने में झाम यही है कि जहां लिखने बैठो सोचना चालू हो जाता है- क्या लिखा जाये? क्यों लिखा जाये? बिना लिखे भी तो सब टनाटन चल रहा है।
लेकिन अब बताओ भैया अगर लिखने में भी कुछ सोचना पड़े त तो हो चुकी ब्लागिंग। सोचना ही होता तो ब्लाग काहे लिखते। कालजयी लेखक न बनते।
लिखना का असली मजा तो बनारसी अंदाज में हैं- गुरू एक कविता पेले हैं, सुनल जाय!
ब्लागिंग में भी चलती है ये हवा। पटक दी एक पोस्ट अपने ब्लाग पर। देखो ऐसे लिखा जाता है! दुनिया भर में ई-मेल, फ़ी-मेल से हवा उड़ा दी। अभी तक तुमने पोस्ट बांची नहीं। शाम तक पता लगता है- खुद अपने से पूछ रहे हैं- क्या भाई! ऐसे लिखा जाता?
लिखने का मजा तो यार तो तब है जब ऐसे लगे कि आमने-सामने बैठ के बतिया रहे हैं। अबे-तबे भी हो रही है और अरे-अरे, ऐसे नहीं-वैसे नहीं भी।
कोई तरतीब नहीं। एकदम बेतरतीब। मूड की बात। जैसे कोसी नदी। आज इधर कल किनारा बदल के सौ मील दूर। आज इधर डुबा रही हैं, अगले साल उधर मरणजाल डाल रही हैं। आदमी पानी के बीच पानी के लिये तरस रहा है। जल बिच मैन पियासा।
दिनेशजी हकलान है। एक औरत अपने नौकर से शादी करना चाहती है। हमारी राय पूछ रही है। जैसे सर्वे करके जायेंगे और बतायेंगे-जनता के अनुसार आपको ये हक मिला है। मीडिया टाइप सनसनाता शीर्षक लगा के मौज ले रहे हैं। मन किया एक झन्नाटेदार पोस्ट ठेला जाये। फ़िर सोचा — न भैया! दिनेशजी बुजुर्गवार हैं। जब वे वकालत शुरु किये थे(१९७८) तब हम हाफ़-पैंट पहने गुल्ली-डंडा खेलते थे कक्षा नौ में। जी.आई.सी. कानपुर में। आज उन बड़े मैदानों न जाने कित्ती बिल्डिंगे बन गयीं हैं। शहर का सबसे अच्छा स्कूल अपनी बिल्डिंग समेत गिर गया। जहां एडमिशन के लिये मारा मारी होती है वहां कोरम पूरा करने के लिये बच्चे नहीं मिलते।
ई नास्टेलजिया बहुत बाहियात चीज होती है। देखिये बहक ही गये थे।
पिछले दिनों कुछ पुरानी पोस्ट ठेलनी शुरू की। लेकिन बाद में लगा कि इन पाठकों को क्या अपराध जो पुराने माल सेल पर निकाल रहे हो? हम सोचे सही है। हम कोई विकसित देश तो हैं नहीं जो अपनी आउटडेटेड तकनीक ठेल दें विकासशील देशों को।
ऐसा नहीं है कि हमारे पास मसाला नहीं है लिखने का। या कोई विषय का टोटा है। सच्ची पूछा जाये तो हमारे दिमाग में तमाम पोस्टें मय शीर्षक पड़ी हैं। गोली नहीं दे रहे भाई। हम गिना सकते हैं अब्भी।
१. सामूहिकता का सौंदर्य (दो साल से , २६ जनवरी, २००६ से लंबित)
२.टाटपट्टी वाले लोग( पोस्ट आइडिया प्रियंकर)
३.मानस की बहाने बाजी( पोस्ट आइडिया अनिल रघुराज)
४. समाज में बदलाव /क्रांति काहे नहीं होती ( हम परेशान हैं लेकिन कुछ कर नहीं पाते)
५. हरामखोरी भ्रष्टाचार में क्यों शामिल नहीं है?
६.स्त्री-पुरुष और समाज (पोस्ट आइडिया ब्लाग जगत की तमाम पोस्टें)
७. मैं कवि क्यों नहीं बन पाता (पोस्ट आइडिया -किसको बतायें कोई कवि बुरा मान जाये सहज सम्भाव्य है)
८. अपनी यायावरी के किस्से।
लेकिन इन सब पोस्टों को लिखने की जब बात चलती है तो लगता है कि कायदे से लिखा जाये। बस यही कायदे से लिखने का चिरकुट सोच सब मामला खराब बिगाड़ देता है।
एक तो लोग भी दिमाग खराब करते रहते हैं। मिसिरजी बोले- ब्लागजगत के बादशाह अनूप जी जिनकी मैं बहुत आदर करता हूँ
अब अगर आदमी सावधान न रहे तो उसका दिन तो गया काम से। सोचेगा अब तो हम बादशाह हैं आराम से दिन भर हलवा खायेंगे। लेकिन हमको तो पता है हकीकत। सो हम तो कह भी दिये-बादशाही -वादशाही सब न जाने कौन जमाने की बात है भैया। बादशाहों के वंशज आजकल चाय बेचते हैं/पंचर बनाते हैं।
सब तरफ़ आउटडेटेड टाइटिल टिकाये जा रहे हैं। शिवकुमार मिश्र समीरलाल को टिप्पणी सम्राट कह रहे हैं, हमको मौज सम्राट। बताओ भला आजकल सम्राटों को कौन पूछता सिवाय अजायब घर वालों के। ऐसी भी नाराजगी ठीक नहीं। हमें भी किसी दिन ताव आया तो बना देंगे तीन चार चीजों का सम्राट। फ़िर लिये सम्राटी डोलते रहना इधर-उधर। न काम के न काज के , नौ मन अनाज के बने।
टिपियाने में संकोच न करें। न यहां न और कहीं। जैसा मन करे वैसा कहें। यही ब्लागिंग है। ये बड़े काम की चीज है। सुन लीजिये इसे हम अपनी मधुर आवाज में भी कह चुके हैं।
कित्ता अच्छा लग रहा है मुझे इसे पोस्ट करने में कह नहीं
सकतीसकता । अनिर्वचनीय आनन्द इसी को कहा गया है।
आपको कैसा लग रहा है। बताइये न!
ऐसे लिखा जाता है ब्लाग !
By फ़ुरसतिया on August 29, 2008
यहां लिखने में झाम यही है कि जहां लिखने बैठो सोचना चालू हो जाता है- क्या लिखा जाये? क्यों लिखा जाये? बिना लिखे भी तो सब टनाटन चल रहा है।
लेकिन अब बताओ भैया अगर लिखने में भी कुछ सोचना पड़े त तो हो चुकी ब्लागिंग। सोचना ही होता तो ब्लाग काहे लिखते। कालजयी लेखक न बनते।
लब्बो-लुआब
यह कि अच्छा और धांसू च फ़ांसू लिखने का मोह ब्लागिंग की राह का सबसे बड़ा
रोड़ा है। ये साजिश है उन लोगों द्वारा फ़ैलाई हुयी जो ब्लाग का विकास होते
देख जलते हैं और बात-बात पर कहते हैं ब्लाग में स्तरीय लेखन नहीं हो रहा
है।
जब हम लिखते हैं और जहां कुछ सोच भी जुड़ गयी उसमें तहां लगता है -गुरू
ये तो बड़ा धांसू लिख मारा। दुनिया पलट जायेगी इसे पढ़कर। होश उड़ जायेंगे
जमाने के इसे देखकर। लेकिन जब दुबार बांचते हैं तो खुद के होश उड़ जाते हैं।
ये चिरकुट लेखन हमारे कुंजी पटल का है। अभी तक जिसका उधार चुका रहे हैं।
हाय राम! या अली! वाहे गुरु! हे ईशू! (देखो ये चारो लोग आराम से अगल-बगल
बैठे हैं। शांत। हमारे ब्लाग का यही असर है)लिखना का असली मजा तो बनारसी अंदाज में हैं- गुरू एक कविता पेले हैं, सुनल जाय!
ब्लागिंग में भी चलती है ये हवा। पटक दी एक पोस्ट अपने ब्लाग पर। देखो ऐसे लिखा जाता है! दुनिया भर में ई-मेल, फ़ी-मेल से हवा उड़ा दी। अभी तक तुमने पोस्ट बांची नहीं। शाम तक पता लगता है- खुद अपने से पूछ रहे हैं- क्या भाई! ऐसे लिखा जाता?
लिखने का मजा तो यार तो तब है जब ऐसे लगे कि आमने-सामने बैठ के बतिया रहे हैं। अबे-तबे भी हो रही है और अरे-अरे, ऐसे नहीं-वैसे नहीं भी।
कोई तरतीब नहीं। एकदम बेतरतीब। मूड की बात। जैसे कोसी नदी। आज इधर कल किनारा बदल के सौ मील दूर। आज इधर डुबा रही हैं, अगले साल उधर मरणजाल डाल रही हैं। आदमी पानी के बीच पानी के लिये तरस रहा है। जल बिच मैन पियासा।
दिनेशजी हकलान है। एक औरत अपने नौकर से शादी करना चाहती है। हमारी राय पूछ रही है। जैसे सर्वे करके जायेंगे और बतायेंगे-जनता के अनुसार आपको ये हक मिला है। मीडिया टाइप सनसनाता शीर्षक लगा के मौज ले रहे हैं। मन किया एक झन्नाटेदार पोस्ट ठेला जाये। फ़िर सोचा — न भैया! दिनेशजी बुजुर्गवार हैं। जब वे वकालत शुरु किये थे(१९७८) तब हम हाफ़-पैंट पहने गुल्ली-डंडा खेलते थे कक्षा नौ में। जी.आई.सी. कानपुर में। आज उन बड़े मैदानों न जाने कित्ती बिल्डिंगे बन गयीं हैं। शहर का सबसे अच्छा स्कूल अपनी बिल्डिंग समेत गिर गया। जहां एडमिशन के लिये मारा मारी होती है वहां कोरम पूरा करने के लिये बच्चे नहीं मिलते।
ई नास्टेलजिया बहुत बाहियात चीज होती है। देखिये बहक ही गये थे।
पिछले दिनों कुछ पुरानी पोस्ट ठेलनी शुरू की। लेकिन बाद में लगा कि इन पाठकों को क्या अपराध जो पुराने माल सेल पर निकाल रहे हो? हम सोचे सही है। हम कोई विकसित देश तो हैं नहीं जो अपनी आउटडेटेड तकनीक ठेल दें विकासशील देशों को।
ऐसा नहीं है कि हमारे पास मसाला नहीं है लिखने का। या कोई विषय का टोटा है। सच्ची पूछा जाये तो हमारे दिमाग में तमाम पोस्टें मय शीर्षक पड़ी हैं। गोली नहीं दे रहे भाई। हम गिना सकते हैं अब्भी।
१. सामूहिकता का सौंदर्य (दो साल से , २६ जनवरी, २००६ से लंबित)
२.टाटपट्टी वाले लोग( पोस्ट आइडिया प्रियंकर)
३.मानस की बहाने बाजी( पोस्ट आइडिया अनिल रघुराज)
४. समाज में बदलाव /क्रांति काहे नहीं होती ( हम परेशान हैं लेकिन कुछ कर नहीं पाते)
५. हरामखोरी भ्रष्टाचार में क्यों शामिल नहीं है?
६.स्त्री-पुरुष और समाज (पोस्ट आइडिया ब्लाग जगत की तमाम पोस्टें)
७. मैं कवि क्यों नहीं बन पाता (पोस्ट आइडिया -किसको बतायें कोई कवि बुरा मान जाये सहज सम्भाव्य है)
८. अपनी यायावरी के किस्से।
तमाम
पोस्टे हैं जो हमारे दिमाग में अधलिखी पड़ी हैं। लंबी लाइन लगी है। इस लाइन
को धता बता के न जाने कहां से कोई दूसरी पोस्ट आती है। मुस्कराते हुये
ब्लाग पर टंग जाती है।
ऐसी ही और भी तमाम पोस्टे हैं जो हमारे दिमाग में अधलिखी पड़ी हैं। लंबी
लाइन लगी है। इस लाइन को धता बता के न जाने कहां से कोई दूसरी पोस्ट आती
है। मुस्कराते हुये ब्लाग पर टंग जाती है। जैसे कि कल हमने देखा कि रेलवे
स्टेशन पर लम्बी लाइन लगी थी। आदमी लोग उचक-उचक के गाड़ी देख रहे थे। लंबी
लाइन को देखते जान निकल रही थी उनकी। उनके ऐन बगल से महिलायें, बच्चियां आ
रही थीं, टिकट ले के जा रही थीं। लेकिन इन सब पोस्टों को लिखने की जब बात चलती है तो लगता है कि कायदे से लिखा जाये। बस यही कायदे से लिखने का चिरकुट सोच सब मामला खराब बिगाड़ देता है।
एक तो लोग भी दिमाग खराब करते रहते हैं। मिसिरजी बोले- ब्लागजगत के बादशाह अनूप जी जिनकी मैं बहुत आदर करता हूँ
अब अगर आदमी सावधान न रहे तो उसका दिन तो गया काम से। सोचेगा अब तो हम बादशाह हैं आराम से दिन भर हलवा खायेंगे। लेकिन हमको तो पता है हकीकत। सो हम तो कह भी दिये-बादशाही -वादशाही सब न जाने कौन जमाने की बात है भैया। बादशाहों के वंशज आजकल चाय बेचते हैं/पंचर बनाते हैं।
सब तरफ़ आउटडेटेड टाइटिल टिकाये जा रहे हैं। शिवकुमार मिश्र समीरलाल को टिप्पणी सम्राट कह रहे हैं, हमको मौज सम्राट। बताओ भला आजकल सम्राटों को कौन पूछता सिवाय अजायब घर वालों के। ऐसी भी नाराजगी ठीक नहीं। हमें भी किसी दिन ताव आया तो बना देंगे तीन चार चीजों का सम्राट। फ़िर लिये सम्राटी डोलते रहना इधर-उधर। न काम के न काज के , नौ मन अनाज के बने।
जैसा मन में आये वैसा ठेल दीजिये। लेख लिखें तो ठेल दें, कविता लिखें तो पेल दें।
तो भैया लब्बो-लुआब यह कि अच्छा और धांसू च फ़ांसू लिखने का मोह ब्लागिंग
की राह का सबसे बड़ा रोड़ा है। ये साजिश है उन लोगों द्वारा फ़ैलाई हुयी जो
ब्लाग का विकास होते देख जलते हैं और बात-बात पर कहते हैं ब्लाग में स्तरीय
लेखन नहीं हो रहा है। इस साजिश से बचने के लिये चौकन्ना रहना होगा। जैसा
मन में आये वैसा ठेल दीजिये। लेख लिखें तो ठेल दें, कविता लिखें तो पेल
दें। टिपियाने में संकोच न करें। न यहां न और कहीं। जैसा मन करे वैसा कहें। यही ब्लागिंग है। ये बड़े काम की चीज है। सुन लीजिये इसे हम अपनी मधुर आवाज में भी कह चुके हैं।
कित्ता अच्छा लग रहा है मुझे इसे पोस्ट करने में कह नहीं
आपको कैसा लग रहा है। बताइये न!
ये जेंडर परिवर्तन कैसे हो गया ….पढ़ते पढ़ते अचानक मैं अटक गया .अब मैंने आपको तहे दिल से सम्मान दिया जिसके आप मेरी दृष्टि में हकदार हैं तो आप इतराने लग गए …शुकुल लोगों में यही गडबडी होती है .
bahut khoob….
वैसे मेरा सवाल केवल मानसिकता पर था, और लोगों का रेस्पोंस वैसा ही आया जैसा प्रत्यक्ष बातचीत में यहाँ मिला था। हाँ, एक बहुत ही झन्नाटेदार मसले पर अमरीका से अँग्रेजी में एक पोस्ट पढ़ी थी। जिस पर वहाँ भी कोमा, पूर्णविराम थे। कभी उस के बारे में लिखूंगा। शायद उस पर झन्नाटा आ जाए।
अरे बाप रे!! इतनी बार और कितनी लम्बी पोस्टॆं झेलनी होगीं भईया किसक लो यहाँ से
आप अपने शब्द का लिंग बदल सकते और हम अपना बदलने का प्रयास नहीं कर सकते।
कल आपने बादशाह बताया आज कह दिया- तो आप इतराने लग गए । मतलब कि हमारी बादशाही गई। हम इसीलिये सम्राट-फ़म्राट, बादशाही-फ़ादशाही के झांसे में नहीं आते। न जाने कब गद्दी छिन जाये। गद्दी से उतार के लोग बेइज्जती खराब कर दें।
- सुनावल जाय मालिक !
यायावरी के किस्से सुनाइए… थोड़ा मजा आए. और जो मन में आए बिंदास पेलिए ! और हाँ “कित्ता अच्छा लग रहा है मुझे इसे पोस्ट करने में कह नहीं सकती।” ये सकता से सकती कुछ पल्ले नहीं पड़ा… स्पष्टीकरण भी ठेलना पड़ेगा अगली पोस्ट में
ऎ भाई, जरा देख के चलो..
लोग इसी सकता.. सकती.. पर सकते में आ गये ?
अउर आप अभी भी सुधरे नहीं,
आँय बाँय शाँय बता रहे हो.. टाइपो की ख़ामी गिना रहे हो !
अरे, इस हम्माम में सभी नंगे हैं, भाई !
अच्छा, मैं ही गमछा खोले देता हूँ…
तो, भाईयों और आने वाली संभावित बहनों,
कल पूरा दिन श्रीमान जी पोडकास्टबाजी में बिताय दिये..
टेंशन भी था, कि शाम को चिट्ठाचर्चा पर क्या सफ़ाई देंगे..
समीर भाई की मोटी ऊँगली से भी घबड़ाहट हो रही थी,
और वह 5.45 पर हाज़िर हो गये..’ शाम हो गयी..लाओ चिट्ठाचर्चा ’
दिन झल्लाते बीता, रात कुंजी खटखटाते बीती.. कई जगह जाकर हाज़िरी बजायी,
सुबह फिर बैठ गये, यह अमर कुमारिया पोस्ट लिखने..
अब भाभी ने खींच कर मारा नहीं, तो झल्ला तो सकती ही थीं…
सो, हड़बड़ाहट की समेटा समेटी में अपने को सकती लिख ही गये,
तो इतना ज़वाब-तलब क्यों ?
दूसरा पहलू देखिये.. कि हम तो,
तब से अनूप भाई को अनूप बहन के रूप में कल्पना कर कर के मुदित हुये जा रहें हैं,
अउर आप लोग हल्ला मचा रहे हो, नाइंसाफ़ी है भाई नाइंसाफ़ी !
आपका अमल कायम रहे…
हां, ऐसे ही लिखी जाती है पोस्ट…
आपकी बादशाहत कायम रहे
सकतीसकता ।अच्छा यह किससे लिखवाया है लेख!
- लावण्या
बेहतरीन ठेलमठाई मचाई है, जारी रहिये.
वैसे हवें तो आपहि बादशाह!! काहे संकोच खा रहे हैं.
हा हा हा सही…
वैसे आप चाहे कुछ भी कह लो इस सच से तो इंकार नही किया जा सकता कि आप मौज सम्राट भी है ब्लोग जगत के बादशाह भी है।
चढ़ल रहा ज्योति बसु मतीन,
लजात काहे बाड़ा.
कोसी नदी जइसन तोहार ब्रीड़ना देख के हमरो मन खिल्खिलाय गयल.
ya aho roopam aho dhwani wale bandhuon se irshya ka fal hai
वैसे ही टिपण्णी करने वाले पढ़ते पढ़ते लिंकसे दूसरे पर कमेन्ट रेल देते हैं
प्रशांत प्रियदर्शी की हालिया प्रविष्टी..केछू पप्प!!