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दो दिन पहले हमारा ’हैप्पी बड्डे’ हुआ।
तमाम दोस्तों की शुभकामनायें मिलीं। जिनकी नहीं मिल पायीं उनकी हमने जबरियन ले लीं। जब कोई ऐतराज करेंगा तब निपटा जायेगा।
पिछली बार इस मौके पर हम मुम्बई में थे और ब्लाग जगत के माध्यम से जिंदगी में पहली बार अपने जन्मदिन पर केक काटते पाये गये। इस बार घर में गुलगुला खाते हुये जन्मदिन मनाया गया।
इस मौके पर पहले हमने सोचा था कि अपनी अब तक की जिन्दगी का हिसाब-किताब पेश करके आगे की योजनाओं पर विचार पेश कर दिया जाये। लेकिन सोचा कि हिसाब-किताब सब छलावा है। जो हुआ तो हुआ। जो हुआ नहीं उसका क्या करें हुआ-हुआ
मैंने देखा है कि जब हम अपने बीते हुये कल को देखते हैं तो अपने हिसाब से उसको डेंट-पेंट करके मनमाफ़िक आकार देते रहते हैं। चीजें काट-छांट के ऐसे पेश कर लेते हैं जैसी हमें मुफ़ीद लगती हैं। बीते हुये समय को कितना भी निस्संग होकर देखें लेकिन अपनी नजर तो अपनी ही नजर रहेगी। हर घटना को अपने हिसाब से कांट-छांट के मेमोरी में सुरक्षित रख लेती है। समय के साथ मेमोरी भी बुत्ता दे जाती है। न जाने कित्ते वायरस उससे आंख लड़ाते रहते हैं।
न जाने कित्ते काम बकाया हैं जिनको करने का सोचा कभी, आज भी सोचते हैं। लेकिन वे सब के सब स्थगित होते जाते हैं। बीस साल पहले समय बीतते चले जाने का अफ़सोस होता था और सोचते थे कि हाय मुआ समय हाथ से सरक रहा है। पकड़ो जाने न पाये। सोचते थे:
ऐसे में कोई ठेल देगा पाश की कविता- सबसे खतरनाक है सपनों का मर जाना । तो हम अभी से बचाव करते हैं कि सपने मरे नहीं लेकिन उनको पूरा करने के लिये जोर नहीं लगाया जाता। सब सपने अपनी बारी का इंतजार करते हुये कतार में खड़े हैं। सब कुछ कतार में हैं।
कानपुर के ही कवि ने लिखा था- कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ/उथल-पुथल मच जाये। एक और ने जब बच्चों को लपक चाटते पत्ते देखा था तो उसका भी मन किया था कि दुनिया में आग लगा दी जाये। लेकिन न दुनिया में आग लगी न बच्चों का पत्ता चाटना बंद हुआ। सोचता हूं कि जब इत्ते-इत्ते बड़े नामधारी लोग अपना सोचा न कर पाये तो हम कौन खेत की मूली हैं।
ब्लाग लिखना चार साल पहले शुरू हुआ। नेट से पांच साल पहले जुड़े। लेकिन हमको अभी भी ये अजूबा ही लगता है कि कैसे हमारे घर के एक कोने में रखा ये मुआ लैपटाप दुनिया भर से जुड़ जाता है। न जाने कहां-कहां के लोगों से कैसे -कैसे जुड़ना होता है। क्या अजब-गजब चीज है यार!
कल शिवकुमार मिश्र की पोस्ट पढ़ी। इमेजिंग के बारे में। अगर मुझे सही अन्दाजा है तो ब्लाग जगत में मेरी इमेज एक खिलन्दड़े, मौजिया और मेहनती ब्लागर की है। लोगों की खिंचाई भी करते रहने वालों में नाम है। कुछ लोग मुझे स्त्रीविरोधी और मठाधीश ब्लागर भी मानते हैं। इसके अलावा और भी इमेजें होंगी लेकिन उनके मुझे उनके बारे में अच्छी तरह पता नहीं। या पता भी होगा तो उसके बारे में हम बताना नहीं चाहते होंगे। हम भी कम काइयां नहीं हैं जी।
ये सारी इमेजें बनवाने में हमारा सक्रिय योगदान रहा होगा। बिना हमारे सहयोग के कैसे कुछ हो सकता है।
हम अपनी किसी भी इमेज से पल्ला नहीं झटकना चाहते है। लोग मेहनत करते हैं इमेज बनाने में उनकी मेहनत पर पानी फ़ेरने का हमको कोई अख्तियार नहीं है। है क्या? नही न!
ब्लागजगत से संबंधित तमाम काम करने को बकाया हैं। उनकी लिस्ट क्या बनायें लेकिन जो कुछेक जरूरी काम लगते हैं उनमें ये करने का मन है:-
आपै बताओ!
संबंधित कड़ियां:१.फ़ुरसतिया की आँखों से छलकता खून
2. अथ मुंबई मिलन कथा
जितना खिड़की से दिखता है
बस उतना ही सावन मेरा है।
निर्वसना नीम खड़ी बाहर
जब धारोधार नहाती है
यह देह न जाने कब,कैसे
पत्ती-पत्ती बिछ जाती है।
मन से जितना छू लेती हूं
बस उतना ही घन मेरा है।
श्रंगार किये गहने पहने
जिस दिन से घर में उतरी हूं
पायल बजती ही रहती है
कमरों-कमरों में बिखरी हूं।
कमरे से चौके तक फ़ैला,
बस इतना ही आंगन मेरा है।
जगमग पैरों से बूटों को
हर रात खोलना मजबूरी
बिन बोले देह सौंप देना
मन से हो कितनी भी दूरी।
हैं जहां नहीं नीले निशान
बस उतना ही तन मेरा है।
जितना खिड़की से दिखता है
बस उतना ही सावन मेरा है।
अवध बिहारी श्रीवास्तव,
कानपुर
जन्मदिन के बहाने एक पोस्ट
By फ़ुरसतिया on September 18, 2008
तमाम दोस्तों की शुभकामनायें मिलीं। जिनकी नहीं मिल पायीं उनकी हमने जबरियन ले लीं। जब कोई ऐतराज करेंगा तब निपटा जायेगा।
पिछली बार इस मौके पर हम मुम्बई में थे और ब्लाग जगत के माध्यम से जिंदगी में पहली बार अपने जन्मदिन पर केक काटते पाये गये। इस बार घर में गुलगुला खाते हुये जन्मदिन मनाया गया।
इस मौके पर पहले हमने सोचा था कि अपनी अब तक की जिन्दगी का हिसाब-किताब पेश करके आगे की योजनाओं पर विचार पेश कर दिया जाये। लेकिन सोचा कि हिसाब-किताब सब छलावा है। जो हुआ तो हुआ। जो हुआ नहीं उसका क्या करें हुआ-हुआ
मैंने देखा है कि जब हम अपने बीते हुये कल को देखते हैं तो अपने हिसाब से उसको डेंट-पेंट करके मनमाफ़िक आकार देते रहते हैं। चीजें काट-छांट के ऐसे पेश कर लेते हैं जैसी हमें मुफ़ीद लगती हैं। बीते हुये समय को कितना भी निस्संग होकर देखें लेकिन अपनी नजर तो अपनी ही नजर रहेगी। हर घटना को अपने हिसाब से कांट-छांट के मेमोरी में सुरक्षित रख लेती है। समय के साथ मेमोरी भी बुत्ता दे जाती है। न जाने कित्ते वायरस उससे आंख लड़ाते रहते हैं।
न जाने कित्ते काम बकाया हैं जिनको करने का सोचा कभी, आज भी सोचते हैं। लेकिन वे सब के सब स्थगित होते जाते हैं। बीस साल पहले समय बीतते चले जाने का अफ़सोस होता था और सोचते थे कि हाय मुआ समय हाथ से सरक रहा है। पकड़ो जाने न पाये। सोचते थे:
लेकिन अब यह समय के बीतते जाने का एहसास भी ऐसे झेलते जाते हैं जैसे यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। -सुबह होती है शाम होती है, जिन्दगी तमाम होती है टाइप।
सबेरा
अभी हुआ नहीं है
लेकिन
लगता है यह दिन भी सरक गया हाथ से
हथेली में जकड़ी बालू की तरह। अब सारा दिन
फ़िर इसी अहसास से जूझना होगा।
ऐसे में कोई ठेल देगा पाश की कविता- सबसे खतरनाक है सपनों का मर जाना । तो हम अभी से बचाव करते हैं कि सपने मरे नहीं लेकिन उनको पूरा करने के लिये जोर नहीं लगाया जाता। सब सपने अपनी बारी का इंतजार करते हुये कतार में खड़े हैं। सब कुछ कतार में हैं।
कानपुर के ही कवि ने लिखा था- कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ/उथल-पुथल मच जाये। एक और ने जब बच्चों को लपक चाटते पत्ते देखा था तो उसका भी मन किया था कि दुनिया में आग लगा दी जाये। लेकिन न दुनिया में आग लगी न बच्चों का पत्ता चाटना बंद हुआ। सोचता हूं कि जब इत्ते-इत्ते बड़े नामधारी लोग अपना सोचा न कर पाये तो हम कौन खेत की मूली हैं।
ब्लाग लिखना चार साल पहले शुरू हुआ। नेट से पांच साल पहले जुड़े। लेकिन हमको अभी भी ये अजूबा ही लगता है कि कैसे हमारे घर के एक कोने में रखा ये मुआ लैपटाप दुनिया भर से जुड़ जाता है। न जाने कहां-कहां के लोगों से कैसे -कैसे जुड़ना होता है। क्या अजब-गजब चीज है यार!
कल शिवकुमार मिश्र की पोस्ट पढ़ी। इमेजिंग के बारे में। अगर मुझे सही अन्दाजा है तो ब्लाग जगत में मेरी इमेज एक खिलन्दड़े, मौजिया और मेहनती ब्लागर की है। लोगों की खिंचाई भी करते रहने वालों में नाम है। कुछ लोग मुझे स्त्रीविरोधी और मठाधीश ब्लागर भी मानते हैं। इसके अलावा और भी इमेजें होंगी लेकिन उनके मुझे उनके बारे में अच्छी तरह पता नहीं। या पता भी होगा तो उसके बारे में हम बताना नहीं चाहते होंगे। हम भी कम काइयां नहीं हैं जी।
ये सारी इमेजें बनवाने में हमारा सक्रिय योगदान रहा होगा। बिना हमारे सहयोग के कैसे कुछ हो सकता है।
हम अपनी किसी भी इमेज से पल्ला नहीं झटकना चाहते है। लोग मेहनत करते हैं इमेज बनाने में उनकी मेहनत पर पानी फ़ेरने का हमको कोई अख्तियार नहीं है। है क्या? नही न!
ब्लागजगत से संबंधित तमाम काम करने को बकाया हैं। उनकी लिस्ट क्या बनायें लेकिन जो कुछेक जरूरी काम लगते हैं उनमें ये करने का मन है:-
१. ब्लाग लिखना बंद करने की घोषणा।ये सारे काम आपको पता हो या न पता हो लेकिन हमें पता है कि बहुत कठिन काम हैं। लेकिन एजेंडा बनाने में क्या जाता है। कुछ जाता है क्या?
२. सबके प्यार और अनुरोध पर वापस आने की घोषणा।
३.किसी का दिल दुखाने वाली पोस्ट न लिखना।
४. बड़े-बुजुर्गों (ज्ञानजी, समीरलाल,शास्त्रीजी आदि-इत्यादि) से अतिशय मौज लेने से परहेज करना।
५. नारी ब्लागरों की पोस्टों को खिलन्दड़े अन्दाज से देखने से परहेज करना।
६. नये ब्लागरों का केवल उत्साह बढ़ाना, उनसे मौज लेने से परहेज करना।
७.किसी आरोप का मुंह तोड़ जबाब देने से बचना।
८. अपने आपको ब्लाग जगत का अनुभवी/तीसमारखां ब्लागर बताने वाली पोस्टें लिखने से परहेज करना।
९. अपने लेखन से लोगों को चमत्कृत कर देने की मासूम भावना से मुक्ति का प्रयास।
१०. तमाम नई-नई चीजें सीखना और उन पर अमल करना।
११. जिम्मेदारी के साथ अपने तमाम कर्तव्य निबाहना।
आपै बताओ!
संबंधित कड़ियां:१.फ़ुरसतिया की आँखों से छलकता खून
2. अथ मुंबई मिलन कथा
मेरी पसंद
[समीरलालजी की खास पेशकश पर यह कविता पेश है। अवधबिहारी श्रीवास्तव जी की यह कविता मैंने साल भर पहले सुनी थी। शुरू और आखिरी की दो लाइने याद थीं। किसी पोस्ट में लिखीं तो समीरजी ने कहा पूरी पढ़वाओ। कल विनोद श्रीवास्तवजी के पास गया। उनके आफ़िस में अवधबिहारी श्रीवास्तव जी का गीत संकलन हल्दी के छापे मिला लेकिन उसमें यह कविता न थी। फ़िर रात में उनको फ़ोनिया के कविता नोट की और उसे यहां पेश कर रहा हूं। समीरलाल जी का आभार कि उनके इसरार के चलते यह कविता नोट हो गयी। :)]बस उतना ही सावन मेरा है।
निर्वसना नीम खड़ी बाहर
जब धारोधार नहाती है
यह देह न जाने कब,कैसे
पत्ती-पत्ती बिछ जाती है।
मन से जितना छू लेती हूं
बस उतना ही घन मेरा है।
जिस दिन से घर में उतरी हूं
पायल बजती ही रहती है
कमरों-कमरों में बिखरी हूं।
कमरे से चौके तक फ़ैला,
बस इतना ही आंगन मेरा है।
जगमग पैरों से बूटों को
हर रात खोलना मजबूरी
बिन बोले देह सौंप देना
मन से हो कितनी भी दूरी।
हैं जहां नहीं नीले निशान
बस उतना ही तन मेरा है।
जितना खिड़की से दिखता है
बस उतना ही सावन मेरा है।
अवध बिहारी श्रीवास्तव,
कानपुर
इससे बढिया भी कुछ मिला?
51 responses to “जन्मदिन के बहाने एक पोस्ट”
: फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176 June 21, 2011 at 9:32 pm | Permalink
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