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बहुत दिन से यह गाना याद आ रहा है। इसे किसी फ़िलिम में माननीया लैला जी ने गाया है। गाते हुये अनुरोध किया है- कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को। वैसे तो अगर आप पांचवीं पास हैं तो आपको पता होगा फ़िर भी बताते चले कि लैला-मजनू प्रेम के ब्रांड एम्बेसडर
थे। जिस जमाने में के ये लोग थे उस जमाने में महिलाओं की स्थिति पुरुषों
से निश्चित बेहतर रही होगी क्योंकि लैला का नाम मजनू के पहले आया है।
शीरी-फ़रहाद तक यह सिलसिला चला। इसके बाद धर्मेन्दर-हेमामालिनी,
सलमान-कैटरीना तक आते-आते मामला उलट गया। प्रेमियों का नाम पहले आने लगा और
प्रेमिकायें पीछे से सीन संचालन करने लगीं।
लैलाजी मजनू से ’लव’ करती होंगी तो बदले में मजनू को भी करना पड़ता होगा। इससे यह साबित होता है कि उस जमाने में भी लोग बदले की भावना से व्यवहार करने की आदत होती थी। तो जो लोग कहते हैं- हे प्रभो, जमाना बड़ा खराब हो गया है तो उनको समझना चाहिये कि जमाना आज से नहीं लैला-मजनू युग से खराब चल रहा है। लोग तब भी बदले की भावना से प्रेम करते थे अब भी वही आदत बरकरार है। मतलब आदमी में मौलिक सुधार कुछ नहीं हुआ।
ऐसा लगता है कि उस जमाने में भी पंचायतें प्रेम-श्रेम के खिलाफ़ होती होंगी। जहां किसी को जोड़े को प्रेम करते पकड़ लिया, निपटा दिया। इस केस में भी लगता है कि लैला-मजनू प्रेमालाप करते पकड़े गये होगे और लोगों ने उस समय की सामाजिक परंपरा के अनुसार उनको मारने का निश्चय किया होगा। लैला शायद पावरफ़ुल रही होगी या फ़िर सोचा होगा कि मजनू को निपटा लें पहले इसके बाद लैला को देखें। या फ़िर यह कि जितनी देर मजनू को निपटाने में लगेगी उत्ती देर लैला को देख ही लें। निपटना तो इसको भी है!
पत्थर से मारने की बात से ऐसा आभास होता है कि उस समय लोगों के पास समय इफ़रात में रहता होगा। वे लैला-मजनू को मारना चाहते होंगे लेकिन हड़बड़ी में नहीं। आजकल की पंचायतों की तरह नहीं कि इधर जोड़े को पकड़ा उधर लटका दिया या सुलगा दिया। चट पकड़ाया, पट निपटाया! ऐसा शायद इसलिये भी होता होगा क्योंकि उस समय इक्के-दुक्के प्रेम के हादसे होते होंगे। इसलिये आराम-आराम से मारने का इन्तजाम करते होगे। आजकल की तरह इफ़रात में अगर लोग प्रेम करते होते उस समय तो निश्चित तौर मजनू को किंचित और आधुनिक विधि से मारने का प्रमाण मिलता।
जब लोग पत्थरियाते हुये मजनू का काया-कल्प कर रहे होंगे, उसकी आत्मा का गठबंधन परमात्मा से कराने में जुटे होंगे तब ही लैला के मुंह से बोल फ़ूटे होंगे -कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को। लोग कहते हैं कि लैला ने यह फ़रियाद बाकायदा गाकर की। आइये विचार करते हैं कि लैला ने ऐसा क्यों कहा और गाकर ही क्यों कहा!
असल में जब लैला ने देखा कि लोग मजनू को पत्थर से मार रहे हैं तो उसको
लगा कि जैसे ही मजनू निपट गया इसके बाद उसका नम्बर आयेगा। इसलिये वे अपने
आशिक को पत्थर से मारने का विरोध कर रही थीं। उन्होंने शिवखेड़ा की किताब पढ़
रखी होगी कि अगर आपका प्रेमी पिट रहा है और आप चुप हैं तो समझ लीजिये अगला
नम्बर आपका है। इसलिये देखा जाये तो लैलाजी मजनू को बचाने के लिये नहीं
अपने को बचाने के लिये प्रयास कर रहीं थीं।
लोग शायद यह भी सोचते हों कि एक तरफ़ मजनू पिट रहा था दूसरी तरफ़ लैला को
गाना सूझ रहा था। उसे डरकर चिल्लाते हुये -बचाओ, बचाओ! कोई मेरे आशिक को
बचाओ!! टाइप गुहार लगानी चाहिये! इसके पीछे कारण की खोज करने पर पता चला कि
प्रेम करते हुये पकड़े जाने के बाद लैला डर सी गयी। और जब कोई डर जाता है
तो गाना अपने आप फ़ूट पड़ता है। डर लगे तो गाना गा कहावत
से भी इसकी पुष्टि होती है। आजकल भी इस बात के अनेको प्रमाण मिलते हैं।
बड़े-बड़े कवि भी डरकर गाने लगते हैं। कोई कवि मंच पर खड़ा होता है और सामने
श्रोताओं का हुजूम देखता है तो डर जाता है कि ये सब मिलकर हमें
हूटेंगे/पीटेगे। आसन्न हूटिंग/पिटाई के डर से कवि गाने लगता है। ज्यादा
डरता है तो रोने लगता है। ये जो लोग कहते हैं न कि गीत सुनकर आंसू आ गये।
वह दरासल गीत के कारण नहीं डर के कारण होता है। बड़े-बड़े कवियों की
देखा-देखी छुटभैये कवि भी गाने लगते हैं। कविगण जब जरा सी हूटिंग के डर से
गीत गाने लगते हों तो उस जमाने में लैला का डर के मारे गाना गाने लगना सहज
बात है।
लोग कहते हैं लैलाजी बहुत खूबसूरत थीं। लेकिन उनका गला बड़ा स्वाभाविक,
बेसुरा टाइप का था। जब गातीं तो लोगों के दिल दहल जाते। आवाज से डरकर
पत्थर तक पिघल जाते। बड़े-बड़े सूरमाऒं के रास्ते बदल जाते। इसके बावजूद मजनू
उससे प्यार करता था इसके पीछे कारण शायद यह रहा हो कि मजनू बहरा रहा हो।
लैलाजी की कयामती आवाज को सुन न पाने के कारण बेचारा उनके प्रेम में पगलाया
घूमता रहा। लेकिन लैला को अपने गले की ताकत का अन्दाजा रहा होगा। उसने
जहां देखा होगा कि पब्लिक मजनू को पीटने आयी है तहां उसने मोर्चा संभाल
लिया होगा और गाना गाने लगी होगी।
यह भी हो सकता है कि लैला मजनू से ऊब गयी हो। मजनू लैला को नये-नये
गिफ़्ट न लाकर दे पाता हो। वह बार-बार पीटा जाता होगा। लैलाजी की बदनामी
होती होगी कि कैसा फ़टीचर प्रेमी है कोई गिफ़्ट ही नहीं देता। हर बार
पिटकर/पत्थर खाकर फ़िर फ़िट होकर प्रेम करने लगता होगा। मजनू की दवा-दारू में
लैलाजी का पैसा अलग से लगता होगा क्योंकि मजनू तो कुछ करने से रहा ( आदमी प्रेम तभी करता है जब किसी काम का नहीं रहता)
लैला इस तरीके की असफ़लता से निराश हो गयीं होंगी। इसीलिये कहती होंगी कि
कोई सटीक तरीका निकालो इसे मारने का पत्थर से क्यॊं मारते जिसमें मरने की
कोई गारण्टी भी नहीं। ये मरता तो है नहीं ,खर्चा अलग करवाता है!
लैला अपने आशिक को निपटाने के लिये कोई मार्डन तरीका खोजने की हिमायती
रहीं होंगी। उस समय उनके दिमाग में न जाने क्या-क्या तरीके हों लेकिन आज
होतीं तो जो वैकल्पिक तरीके जो वे सुझा सकती थीं उनमें से कुछ निम्न हैं:
१. मजनू को किसी बैंक से खेती का लोन दिला देतीं। मरने का इंतजाम अपने आप हो जाता।
२.वे मजनू को किसी अमेरिकन बैंक का शेयर दिला देतीं। बाजार की हालत देखकर मजनू अपने आप परमात्मा की सेवा में जाकर लग लेता।
३.मजनू को एक लैपटाप खरीदकर दे देतीं और कहती कि सारे कवियों की कविता पढ़कर सुनाओ/समझाओ। पढ़कर सुनाने का काम तो कलेजे पर पत्थर रखकर कर लेता ले्किन समझाने का प्रयास करते हुये उसकी दिमाग की नसें फ़ट जातीं और वह लम्बी यात्रा पर निकल लेता।
४.लैला मजनू को इंडियन पीनल कोड बना देती। रोज चीथड़े उड़ते-उड़ते मजनू न जाने कित्ती बार निपट गया होता।
५.लैला मजनू को नैनो प्रोजेक्ट बना देती। धक्के खा-खाकर मजनू मियां निपट जाते।
हो सकता है कि लैलाजी को फ़िजूलखर्ची से नफ़रत हो। उनको यह भी पता है
रहा हो कि मजनू ने अपना दिल कई जगह दे रखा है। अमेरिकन बैकों की तरह इत्ती
जगह बंटा दिल बैठने ही वाला हो। इसलिये उन्होंने लोगों को पत्थर की
फ़िजूलखर्ची को रोकने के लिये समझाते हुये कहना चाहा होगा- कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को, बस चंद घड़ियां बची हैं इसके जाने को। इससे
यह भी एहसास होता है कि लैलाजी कोई मेडिकल सुन्दरी रहीं होंगी। उनकी नजरों
में ईसीजी मशीन फ़िट रहती होगी। उन्होंने मजनू के दिल का हाल पढ़कर उसके
रुसखत होने की बात जान ली होगी इसीलिये लोगों को फ़ालतू की मेहनत से बचाने
का प्रयास करते हुये गाना गाया होगा।
हो तो यह भी सकता है कि लैलाजी मजनू से बोर हो गयीं होंगी। मजनू के
किसी रकीब उनका कांटा भिड़ गया होगा। वह शायद मजनू से ज्यादा बौड़म हो।
इसीलिये वह मजनू को निपटाने का मौका उसी को देना चाहती होंगी। मजनू भी निपट
जाये और दूसरा आशिक भी इल जाये। इसीलिये वे गा उठीं होंगी- कोई पत्थर से न
मारे मेरे दीवाने को/ उसका रकीब आता ही होगा, उसे ठिकाने लगाने को।
हमें इस बात का एहसास है कि आपको इन तमाम बातों में से कुछ खराब और कुछ
नागवार लगीं होंगी। आपको जो भी लगा लेकिन हमें पता है कि आप अपने गुस्से का
इजहार ऐसी नफ़ासत से करेंगे कि हमें लगे कि आपको ये हमारी बातें (ऊटपटांग
हमारे लिये हैं भाई! आपके लिये तो मास्टरपीस लेख है न!
) बेइंतहा पसन्द आईं होंगी। अगर आप के मन में हूटिंग करने जैसे ऐसे विचार
उठें जो कि आपको कुछ ऐसा-वैसा करने-कहने को उकसायें तो मुलाहिजा फ़र्मा लें
कि हमारे पास ये मसाला मौजूद है जिसे हम गाकर भी पढ़ सकते हैं। यह तो आपको बता ही चुके हैं कि हमारी आवाज किसी से कम खराब नहीं। फ़िर न कहियेगा बताया नहीं!
कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को,
मुफ़्तखोरी की लत बहुत है, उसको निपटाने को।
उसे बस कर्ज दिला दो!
मुफ़्त की खायेगा, इठलायेगा, पलट के सो जायेगा,
बेखुदी के आलम में डूबेगा,उसका दीवाला खुद पिट जायेगा।
उसे बस ऐश करा दो!
पलकें उसकी सेंन्सेक्स की तरह फ़ड़फ़ड़ायेंगी, मुंद जायेंगी,
हवा हवाई फ़िजा है जो इसकी, सब कुछ हवा हो जायेगी।
उसे बस कैश दिला दो!
मेरे आशिक को निपटना है, मुझे इसका कोई गम भी तो नहीं,
इसके लिये पत्थर क्यों लुटाते हो, उनकी कीमत भी कम तो नहीं।
उसे बस शेयर खरीदवा दो!
संगसारी का तरीका जालिम है, चीखों सुनकर दुख होता है,
निपटाना ही है तो किसी आसान तरीके से ही निपटा दो।
उसे बस क्रेडिट कार्ड थमा दो!
कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को,
उसका रकीब आता ही होगा, उसे ठिकाने लगाने को।
उसे बस मजनू से मिलवा दो!
कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को
By फ़ुरसतिया on October 20, 2008
लैलाजी मजनू से ’लव’ करती होंगी तो बदले में मजनू को भी करना पड़ता होगा। इससे यह साबित होता है कि उस जमाने में भी लोग बदले की भावना से व्यवहार करने की आदत होती थी। तो जो लोग कहते हैं- हे प्रभो, जमाना बड़ा खराब हो गया है तो उनको समझना चाहिये कि जमाना आज से नहीं लैला-मजनू युग से खराब चल रहा है। लोग तब भी बदले की भावना से प्रेम करते थे अब भी वही आदत बरकरार है। मतलब आदमी में मौलिक सुधार कुछ नहीं हुआ।
ऐसा लगता है कि उस जमाने में भी पंचायतें प्रेम-श्रेम के खिलाफ़ होती होंगी। जहां किसी को जोड़े को प्रेम करते पकड़ लिया, निपटा दिया। इस केस में भी लगता है कि लैला-मजनू प्रेमालाप करते पकड़े गये होगे और लोगों ने उस समय की सामाजिक परंपरा के अनुसार उनको मारने का निश्चय किया होगा। लैला शायद पावरफ़ुल रही होगी या फ़िर सोचा होगा कि मजनू को निपटा लें पहले इसके बाद लैला को देखें। या फ़िर यह कि जितनी देर मजनू को निपटाने में लगेगी उत्ती देर लैला को देख ही लें। निपटना तो इसको भी है!
पत्थर से मारने की बात से ऐसा आभास होता है कि उस समय लोगों के पास समय इफ़रात में रहता होगा। वे लैला-मजनू को मारना चाहते होंगे लेकिन हड़बड़ी में नहीं। आजकल की पंचायतों की तरह नहीं कि इधर जोड़े को पकड़ा उधर लटका दिया या सुलगा दिया। चट पकड़ाया, पट निपटाया! ऐसा शायद इसलिये भी होता होगा क्योंकि उस समय इक्के-दुक्के प्रेम के हादसे होते होंगे। इसलिये आराम-आराम से मारने का इन्तजाम करते होगे। आजकल की तरह इफ़रात में अगर लोग प्रेम करते होते उस समय तो निश्चित तौर मजनू को किंचित और आधुनिक विधि से मारने का प्रमाण मिलता।
जब लोग पत्थरियाते हुये मजनू का काया-कल्प कर रहे होंगे, उसकी आत्मा का गठबंधन परमात्मा से कराने में जुटे होंगे तब ही लैला के मुंह से बोल फ़ूटे होंगे -कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को। लोग कहते हैं कि लैला ने यह फ़रियाद बाकायदा गाकर की। आइये विचार करते हैं कि लैला ने ऐसा क्यों कहा और गाकर ही क्यों कहा!
२.वे मजनू को किसी अमेरिकन बैंक का शेयर दिला देतीं। बाजार की हालत देखकर मजनू अपने आप परमात्मा की सेवा में जाकर लग लेता।
३.मजनू को एक लैपटाप खरीदकर दे देतीं और कहती कि सारे कवियों की कविता पढ़कर सुनाओ/समझाओ। पढ़कर सुनाने का काम तो कलेजे पर पत्थर रखकर कर लेता ले्किन समझाने का प्रयास करते हुये उसकी दिमाग की नसें फ़ट जातीं और वह लम्बी यात्रा पर निकल लेता।
४.लैला मजनू को इंडियन पीनल कोड बना देती। रोज चीथड़े उड़ते-उड़ते मजनू न जाने कित्ती बार निपट गया होता।
५.लैला मजनू को नैनो प्रोजेक्ट बना देती। धक्के खा-खाकर मजनू मियां निपट जाते।
कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को,
मुफ़्तखोरी की लत बहुत है, उसको निपटाने को।
उसे बस कर्ज दिला दो!
मुफ़्त की खायेगा, इठलायेगा, पलट के सो जायेगा,
बेखुदी के आलम में डूबेगा,उसका दीवाला खुद पिट जायेगा।
उसे बस ऐश करा दो!
पलकें उसकी सेंन्सेक्स की तरह फ़ड़फ़ड़ायेंगी, मुंद जायेंगी,
हवा हवाई फ़िजा है जो इसकी, सब कुछ हवा हो जायेगी।
उसे बस कैश दिला दो!
मेरे आशिक को निपटना है, मुझे इसका कोई गम भी तो नहीं,
इसके लिये पत्थर क्यों लुटाते हो, उनकी कीमत भी कम तो नहीं।
उसे बस शेयर खरीदवा दो!
संगसारी का तरीका जालिम है, चीखों सुनकर दुख होता है,
निपटाना ही है तो किसी आसान तरीके से ही निपटा दो।
उसे बस क्रेडिट कार्ड थमा दो!
कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को,
उसका रकीब आता ही होगा, उसे ठिकाने लगाने को।
उसे बस मजनू से मिलवा दो!
और कविता वाकई मेँ एकदम नये उपमान लिये पसँद आई ~~~
(पलकें उसकी सेंन्सेक्स की तरह फ़ड़फ़ड़ायेंगी, मुंद जायेंगी,
हवा हवाई फ़िजा है जो इसकी, सब कुछ हवा हो जायेगी।
– लावण्या
hameshaa ki tarah jabardast maujun post…aaj Laila Majnu ko hi lapet liye? excellent maujun poem, and deep thinking …….mere naam mein aaj bhi anita (feminine) pahle aataa hai aur kumar(masculine) baad mein aataa hai toh kya mein Shiri-Farhaad ke zamaane ki ho gayi?…:)
मुझे भी यही कारण सही लगता है, बहुत ही सुंदर लिखा है आप ने मै तो पढते समय हंसता ही रहा, चलिये टिपण्णी से निपट कर फ़िर से पढता हू.
धन्यवाद एक बहुत अच्छॆ लेख के लिये
वैसे तो डिमांड बिना डरे की थी मगर डर के ही सही..यही वाला, गाइये तो!!
बहुत बेहतरीन सन्नाट अलेख. बनाये रहिये माहौल..हम तो रिझाये से गये.
लैला पर शोध केंद्रित है, मजनू को ज़रा झ़ाड़ कर दूर खड़ा रखा है आपने :)))
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ऎ अनूप भाई, आपका शोधप्रबंध मध्ययुगीन संदर्भों को लेकर लिख गया प्रतीत होता है ।
बेचारी लैला, मज़नूँ के कच्च-बच्च से इतनी कुपित थी, कि वह गा गाकर गुहार लगाती रही कि
इसको पत्थर से न मारो ,कमीने को आग में ज़िन्दा जला दो या सूली पर चढ़ा कर तड़पती मौत दो..
रसिक शायरों में किसी मौज़ लेने वाले ने ईश्टोरी को दूसरा ही ट्विस्ट दे दिया ।
अपुन होते तो सच्ची की बात बता देते..
‘जब दे ही नहीं सकता पेट भर भात-दाल खाने को
इसलिये कोई पत्थर से न मारो मेरे दीवाने को’
इसका खटोला यहीं बिछा दो..
आप ऐसे ही पोस्ट लिखा करें। बड़ी मेडिसिनल वैल्यू है उसमें।
बहुत अच्छा और सच्चा लिखा है…..लैला की इत्ती सच्ची बातें आप को कहाँ से पता चली…..काफी हंसा दिया आपने
अच्छी पोस्ट के लिए बधाई
हवा हवाई फ़िजा है जो इसकी, सब कुछ हवा हो जायेगी।
उसे बस कैश दिला दो!
शुक्ल जी गजब कर दिया आपने तो ! सही में मेडिसनल वेल्यु है इसकी ! शाम को आकर आपकी स्टाइल में यानी फुर्सत से वापस पढ़ना पडेगा ! और इसको खींच कर ब्लॉग पर भी ले जाना पडेगा ! ये शायद, लगता है आपकी तरफ़ से पाठको को दीपावली का अग्रिम तोहफा है ! बहुत २ बहुत शुभकामनाए
मुफ़्तखोरी की लत बहुत उसको निपटाने को।
उसे बस कर्ज दिला दो!
“ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha laila ke kisse pdh kr dil khush aa gya, behtreen”
Regards
लैला को चाहिए था कि मजनूं को ब्लोगिंग के गलत रास्ते पर डाल देती….
पढ़कर हमारा भी मूड कुछ बदल गया है ।
आपकी ये ऊटपटांग बातें ही सही मगर हम तो आपकी इन ऊटपटांग बातों के मुरीद हैं जिसमे सच्चाई और खुलापन होता है। हां गीत (या) कविता बहुत अच्छा लगा।
उम्मीद है इस गाने को आप अपनी आवाज़ मे गाकर उसका रिकार्ड भी सुनाएंगे
कोई पत्थर से ना मारे मेरे दिवाने को
कोई पत्थर से ना मारे मेरे दिवाने को
बम से उडा दो इस पैजामे को !!
अगर बेसुरा भी क्यों ना गाया हो, हम आपकी हिम्मत की दाद ज़रूर देंगे
जो मजनू पत्थरों से बच जाता है वह भी क्रेडिट कार्ड और बाज़ार से नहीं बच पाता . नुस्खे कारगर प्रतीत होते हैं . आपकी नायिका लैला ज्यादा स्मार्ट प्रतीत होती है बजाय मजनू के .
‘लविता’ लाजवाब है . इस लैला को भारत का वित्त मंत्री/आरबीआई का गवर्नर या सेबी का चेयरपर्सन बना दिया जाय तो शेयर बाजार की समस्याएं मिनटों में सुलझ सकती हैं .
विश्ववि़द्यालयों को बख्श दिया आपने, अगर पीएचडी के लिए एनरोल होते तो आपके सुपरवाइजर मजनूं की जगह लेने के लिए दौड़ पड़ते