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फ़ौजियों के साथ एक दिन
By फ़ुरसतिया on December 19, 2008
हफ़्ते भर नैनीताल में कक्षा रगड़ाई के बाद इतवार को रानीखेत जाने का
कार्यक्रम था। रानीखेत में एक फ़ौजी कमान को देखने, मिलने-जुलने और
समझने-बूझने का कार्यक्रम था।
नास्ता-ऊस्ता करके निकलते-निकलते साढ़े नौ बज गये। नैना ट्रेवेल्स की बस हमको लादकर खुद को पहाड़ी रास्तों पर खुद को हिलाती बलखाती चल पड़ी। चल छैयां-छैयां वाले अंदाज में।
कुछ ही देर में हम मालरोड लांघकर शहर के बाहर आ गये। पहाड़-घाटी-नदी-आकाश का साम्राज्य शुरू हो गया। दूर-दूर तक फ़ैले पेड़ों में में से हम केवल देवदार और चीड़ के पेड़ पहचान पा रहे थे। सड़क के बगल से गुजरती नदी का नाम कोसी बताया गया। यह सवाल अभी तक सवाल ही बना रहा कि क्या यह वही कोसी है जो बिहार का शोक कही जाती है?
नैनीताल से रानीखेत का सफ़र करीब दो घंटे में पूरा हुआ। रास्ते में कुछ देर गपियाते रहे फ़िर ऊंघने लगे। कुछ लोगों ने हमसे कुछ सुनाने को कहा लेकिन आंख मूंदकर उंघने का विकल्प छोड़कर हमें और कुछ करना उचित नहीं लगा। साथ में एक मित्र अपने मोबाइल से पुराने फ़िल्मी गाने सुनाते रहे। सारे के सारे पुराने हिट फ़िल्मी गीत। सुनते हुये लगा कि किन नियामतों हम वंचित रह जाते हैं। उस दिन जितने गाने हमने सुने उतने पहले कभी एक साथ नहीं सुने। आते-जाते करीब चारे घंटे। कुछ लोग तो गाने की धुन बजी नहीं , टप से उसके बोल दोहराने लगते थे।
उसी समय मुझे यह याद आया कि कुछ लोग हैं जो जबसे भारतीय सिनेमा शुरू हुआ है उस समय से लेकर आज तक के सभी गानों के संकलन का काम कर रहे हैं। उनमें से एक कानपुर के ही हैं। कुछ दिन पहले ही उनसे बात हुयी थी। दस-दस साल के गीतों का संकलन किया है उन्होंने। उनके पास उपलब्ध गीतों के संकलन की फोटोकापी ८००-९०० रुपये में उपलब्ध हैं।
रानीखेत पहुंचने पर पता चला कि वहां ब्रिगेडियर साहब हमारा इंतजार कर रहे थे। एक घंटा लेट हो गये थे हम। रानीखेत में धूप खिली हुई थी। फ़ौजी संस्थान की सबसे बड़ी खूबी वहां की साफ़-सफ़ाई और अनुशासन दिखा। मेज पर नास्ता लगा था। बहुत दिन बाद जलेबी खाने का मजा ही कुछ और था।
नास्ते के बाद हम बटालियन घूमने निकले। फ़ौज के लोगों ने अपनी यूनिट की कार्यप्रणाली और हथियारों के बारे में विस्तार से बताया। पावर प्वाइंट पेजेन्टेशन रोमन हिंदी में था। (Is hathiyar kaa prog lambi dooree tak maar karane ke liye hota hai टाइप) साफ़ उच्चारण। ऊंची आवाज।
मजे की बात कि फ़ौज के लोगों को पता ही नहीं था कि जो हथियार वे हमें दिखा रहे थे उनमें से ज्यादातर हम ही बनाते हैं। कुछ हथियारों में जो समस्यायें उन्होंने बतायीं उनकी समस्या का निराकरण भी किया। फ़ौज के जवानों को सबसे ज्यादा समस्या उनकी सप्लाई की जाने वाली वर्दी से होती है। समय के साथ सबके साइज बदल जाते हैं। लेकिन जो मांग और आपूर्ति होती है वह उसी साइज के हिसाब से होती है जो उनको शुरू में दिया जाता है। इस चक्कर में भी जो वर्दी उनको मिलती है उसका साइज दुबारा ठीक करवाना पड़ता है। सप्लाई चेन की गड़बड़ियां सालों से बदस्तूर जारी हैं। पिछले कुछ सालों से हमारे यहां से आफ़िसर लोग फ़ौजी संस्थानों में जाकर उनकी समस्या का निराकरण करने का काम करने लगे हैं।
जिस युनिट में हम थे वह २२ ग्रेनेडियर्स के नाम से जानी जाती है। १५० साल से पुरानी इस बटालियन का अपना गीत है । गौरवपूर्ण इतिहास है। कई लोग वीरता के सर्वोच्च पदक से सम्मानित हो चुके हैं। वीरता के लिये सम्मानित हुये फ़ौजी लोगों के चित्र परिचय उनकी मेस में लगे हुये थे। वहीं दूसरी फ़ौजों के साथ हुये युद्धाभ्यास के बाद उनकी द्वारा दिये गये उपहार भी लगे थे। एक स्मृतिचिन्ह पाकिस्तान की फ़ौज द्वारा भी दिया गया था। अमेरिकी फ़ौजों के साथ हुये युद्धाभ्यास के किस्से भी सुनाये गये हमें।
फ़ायरिंग रेंज तक जाते हुये हमने उन जगहों को देखा जहां फ़ौज के लोग नियमित तरह-तरह के अभ्यास करते हैं। खाई-खंदक, नाले-पहाड़ पार करने के अभ्यास का इंतजाम था।
दोपहर बाद हम फ़ायरिंग रेंज पहुंचे। हम सबने पांच-पांच राउंड फ़ायरिंग की। हमें शुरू में त ससुर निशाना ही न दिखाई दे रहा था। फ़िर जब पोजीशन लिये तो डर लगा कि कहीं कंधा न उखड़ जाये। लेकिन फ़िर जरा नजरों से कह दो कि निशाना चूक न जाये दोहराते हुये पांचो फ़ायर कर डाले।
बाद में जाकर देखा कि पांच में से केवल एक निशाना ठीक लगा था।
निशानेबाजी के बाद फ़िर पास से हिमालय की सब चोटियां देखीं।
लौटकर मेस में खाना खाया और लौट चले। रास्ते में कुछ दोस्तों से युद्ध विधवा संस्थान द्वारा चलाये जा रहे शापिंग स्टोर से तमाम खरीदारी की।
नैनीताल लौटते हुये रात हो गयी थी।
अगले दिन हम लोग नैनीताल की आर्यभट्ट वेधशाला देखने गये। वह दिन शायद ऐतिहासिक था जब चांद शुक्र शायद सबसे नजदीक आये थे। चांद की सतह देखने पर ऐसा लगा कि कोई सफ़ेद ढोकला देख रहे हों।
नैनीताल के किस्से और भी बहुत सारे हैं लेकिन वह फ़िर कभी। समय-समय पर आते रहें शायद।
नैनीताल प्रवास के दौरान वहां के ब्लागर्स से मिलने का मन था। तरुण ने बताया भी था कि शिरीष कुमार मौर्य वहीं रहते हैं। कई बार फ़ोन करने के बावजूद उनसे मिलना न हो पाया। शिरीष कुछ काम में फ़ंसे रह गये। बाद में सिद्धेश्वरजी ने कहा भी कि मैं उनसे मिले बिना चला गया। लेकिन हमें शिरीष के अलावा और किसी का संपर्क नहीं पता था। उनसे ही लप्पूझन्ना वाले अशोक पाण्डेयजी के बारे में जानकारी हुई। वे हल्द्वानी में हैं। उन दिनों अपने बीमार पिताजी की सेवा में लगे थे। अब शायद उनको कुछ आराम हो।
पिछली पोस्ट में कुछ दोस्तों ने हमारी जैकेट-फोटो देखने की फ़रमाइश की है। यह झांसा देते हुये कि हम उसमें इस्मार्ट दिखेंगे। लेकिन सच तो यह है कि सब कैमरे साजिशन हमारी नेचुरल फोटॊ ही खींचते हैं। कोई स्मार्ट नहीं दिखाता। एक ब्लागर और एक कैमरे में यही अंतर होता है। कैमरा मनदेखी और मुंहदेखी नहीं करता।
वैसे फोटो हम पहले ही सटा चुके थे। एक बार और सही।
नैनीताल का दस दिन का प्रवाह मजेदार रहा। जब गये थे तो कुल जमा तीन-चार लोगों से परिचित थे। लौटे तो तमाम लोगों से परिचित होकर और ढेर सारी खुशनुमा यादें लेकर लौटे।
सबसे बड़ी बात कि घर लौटना और खुशनुमा तथा सुकूनदेह लग रहा था।
नास्ता-ऊस्ता करके निकलते-निकलते साढ़े नौ बज गये। नैना ट्रेवेल्स की बस हमको लादकर खुद को पहाड़ी रास्तों पर खुद को हिलाती बलखाती चल पड़ी। चल छैयां-छैयां वाले अंदाज में।
कुछ ही देर में हम मालरोड लांघकर शहर के बाहर आ गये। पहाड़-घाटी-नदी-आकाश का साम्राज्य शुरू हो गया। दूर-दूर तक फ़ैले पेड़ों में में से हम केवल देवदार और चीड़ के पेड़ पहचान पा रहे थे। सड़क के बगल से गुजरती नदी का नाम कोसी बताया गया। यह सवाल अभी तक सवाल ही बना रहा कि क्या यह वही कोसी है जो बिहार का शोक कही जाती है?
नैनीताल से रानीखेत का सफ़र करीब दो घंटे में पूरा हुआ। रास्ते में कुछ देर गपियाते रहे फ़िर ऊंघने लगे। कुछ लोगों ने हमसे कुछ सुनाने को कहा लेकिन आंख मूंदकर उंघने का विकल्प छोड़कर हमें और कुछ करना उचित नहीं लगा। साथ में एक मित्र अपने मोबाइल से पुराने फ़िल्मी गाने सुनाते रहे। सारे के सारे पुराने हिट फ़िल्मी गीत। सुनते हुये लगा कि किन नियामतों हम वंचित रह जाते हैं। उस दिन जितने गाने हमने सुने उतने पहले कभी एक साथ नहीं सुने। आते-जाते करीब चारे घंटे। कुछ लोग तो गाने की धुन बजी नहीं , टप से उसके बोल दोहराने लगते थे।
उसी समय मुझे यह याद आया कि कुछ लोग हैं जो जबसे भारतीय सिनेमा शुरू हुआ है उस समय से लेकर आज तक के सभी गानों के संकलन का काम कर रहे हैं। उनमें से एक कानपुर के ही हैं। कुछ दिन पहले ही उनसे बात हुयी थी। दस-दस साल के गीतों का संकलन किया है उन्होंने। उनके पास उपलब्ध गीतों के संकलन की फोटोकापी ८००-९०० रुपये में उपलब्ध हैं।
रानीखेत पहुंचने पर पता चला कि वहां ब्रिगेडियर साहब हमारा इंतजार कर रहे थे। एक घंटा लेट हो गये थे हम। रानीखेत में धूप खिली हुई थी। फ़ौजी संस्थान की सबसे बड़ी खूबी वहां की साफ़-सफ़ाई और अनुशासन दिखा। मेज पर नास्ता लगा था। बहुत दिन बाद जलेबी खाने का मजा ही कुछ और था।
नास्ते के बाद हम बटालियन घूमने निकले। फ़ौज के लोगों ने अपनी यूनिट की कार्यप्रणाली और हथियारों के बारे में विस्तार से बताया। पावर प्वाइंट पेजेन्टेशन रोमन हिंदी में था। (Is hathiyar kaa prog lambi dooree tak maar karane ke liye hota hai टाइप) साफ़ उच्चारण। ऊंची आवाज।
मजे की बात कि फ़ौज के लोगों को पता ही नहीं था कि जो हथियार वे हमें दिखा रहे थे उनमें से ज्यादातर हम ही बनाते हैं। कुछ हथियारों में जो समस्यायें उन्होंने बतायीं उनकी समस्या का निराकरण भी किया। फ़ौज के जवानों को सबसे ज्यादा समस्या उनकी सप्लाई की जाने वाली वर्दी से होती है। समय के साथ सबके साइज बदल जाते हैं। लेकिन जो मांग और आपूर्ति होती है वह उसी साइज के हिसाब से होती है जो उनको शुरू में दिया जाता है। इस चक्कर में भी जो वर्दी उनको मिलती है उसका साइज दुबारा ठीक करवाना पड़ता है। सप्लाई चेन की गड़बड़ियां सालों से बदस्तूर जारी हैं। पिछले कुछ सालों से हमारे यहां से आफ़िसर लोग फ़ौजी संस्थानों में जाकर उनकी समस्या का निराकरण करने का काम करने लगे हैं।
जिस युनिट में हम थे वह २२ ग्रेनेडियर्स के नाम से जानी जाती है। १५० साल से पुरानी इस बटालियन का अपना गीत है । गौरवपूर्ण इतिहास है। कई लोग वीरता के सर्वोच्च पदक से सम्मानित हो चुके हैं। वीरता के लिये सम्मानित हुये फ़ौजी लोगों के चित्र परिचय उनकी मेस में लगे हुये थे। वहीं दूसरी फ़ौजों के साथ हुये युद्धाभ्यास के बाद उनकी द्वारा दिये गये उपहार भी लगे थे। एक स्मृतिचिन्ह पाकिस्तान की फ़ौज द्वारा भी दिया गया था। अमेरिकी फ़ौजों के साथ हुये युद्धाभ्यास के किस्से भी सुनाये गये हमें।
फ़ायरिंग रेंज तक जाते हुये हमने उन जगहों को देखा जहां फ़ौज के लोग नियमित तरह-तरह के अभ्यास करते हैं। खाई-खंदक, नाले-पहाड़ पार करने के अभ्यास का इंतजाम था।
दोपहर बाद हम फ़ायरिंग रेंज पहुंचे। हम सबने पांच-पांच राउंड फ़ायरिंग की। हमें शुरू में त ससुर निशाना ही न दिखाई दे रहा था। फ़िर जब पोजीशन लिये तो डर लगा कि कहीं कंधा न उखड़ जाये। लेकिन फ़िर जरा नजरों से कह दो कि निशाना चूक न जाये दोहराते हुये पांचो फ़ायर कर डाले।
बाद में जाकर देखा कि पांच में से केवल एक निशाना ठीक लगा था।
निशानेबाजी के बाद फ़िर पास से हिमालय की सब चोटियां देखीं।
लौटकर मेस में खाना खाया और लौट चले। रास्ते में कुछ दोस्तों से युद्ध विधवा संस्थान द्वारा चलाये जा रहे शापिंग स्टोर से तमाम खरीदारी की।
नैनीताल लौटते हुये रात हो गयी थी।
अगले दिन हम लोग नैनीताल की आर्यभट्ट वेधशाला देखने गये। वह दिन शायद ऐतिहासिक था जब चांद शुक्र शायद सबसे नजदीक आये थे। चांद की सतह देखने पर ऐसा लगा कि कोई सफ़ेद ढोकला देख रहे हों।
नैनीताल के किस्से और भी बहुत सारे हैं लेकिन वह फ़िर कभी। समय-समय पर आते रहें शायद।
नैनीताल प्रवास के दौरान वहां के ब्लागर्स से मिलने का मन था। तरुण ने बताया भी था कि शिरीष कुमार मौर्य वहीं रहते हैं। कई बार फ़ोन करने के बावजूद उनसे मिलना न हो पाया। शिरीष कुछ काम में फ़ंसे रह गये। बाद में सिद्धेश्वरजी ने कहा भी कि मैं उनसे मिले बिना चला गया। लेकिन हमें शिरीष के अलावा और किसी का संपर्क नहीं पता था। उनसे ही लप्पूझन्ना वाले अशोक पाण्डेयजी के बारे में जानकारी हुई। वे हल्द्वानी में हैं। उन दिनों अपने बीमार पिताजी की सेवा में लगे थे। अब शायद उनको कुछ आराम हो।
पिछली पोस्ट में कुछ दोस्तों ने हमारी जैकेट-फोटो देखने की फ़रमाइश की है। यह झांसा देते हुये कि हम उसमें इस्मार्ट दिखेंगे। लेकिन सच तो यह है कि सब कैमरे साजिशन हमारी नेचुरल फोटॊ ही खींचते हैं। कोई स्मार्ट नहीं दिखाता। एक ब्लागर और एक कैमरे में यही अंतर होता है। कैमरा मनदेखी और मुंहदेखी नहीं करता।
वैसे फोटो हम पहले ही सटा चुके थे। एक बार और सही।
नैनीताल का दस दिन का प्रवाह मजेदार रहा। जब गये थे तो कुल जमा तीन-चार लोगों से परिचित थे। लौटे तो तमाम लोगों से परिचित होकर और ढेर सारी खुशनुमा यादें लेकर लौटे।
सबसे बड़ी बात कि घर लौटना और खुशनुमा तथा सुकूनदेह लग रहा था।
सुन्दर यात्रा वर्णन, फोटो भी फब रही है।
महाशक्ति
वैसे जैकिट तो अच्छा है . जैकिट पहनने वाले वाले के बारे में क्या कहें . फ़ोटू में आपके ऊपर बर्फ सी जमी लगती है . काफी देर से बैठे हैं लगता है
” अरे वाह का का करतब दिखाई रहे आप ….”
regards
जैकेट बडी जंच रही है ! ये ब्लागर की नजर से नही कैमरे की कि नजर से बोल रहे हैं !:)
वैसे आप सोच रहे होंगे कि ताऊ १२ बजे आता है आज सुबह सबेरे कैसे टपक गया ? तो राज की बात ये है कि ताऊ की नजर कमजोर हो चली है ! आपका टाईटल है – फ़ौजियों के साथ एक दिन — और हमको दिखा.. फ़ौजिया के साथ एक दिन… अब हम इसी चक्कर मे दुसरे ब्लाग छोड के आपके यहां टपक लिये कि शुकल जी ने ये क्या गुल खिला दिये ! पर यहां तो भाई करनलसिन्ह और जनरलसिन्ह दिखे सो चुपचाप वापस जा रहे हैं !
राम रम !
बाद में जाकर देखा कि पांच में से केवल एक निशाना ठीक लगा था। देख लो कैसे हथियार बनाते हो . वो तो हमारे फ़ौजी है जो इन हथ्यारो से सही निशाना लगा लेते है . तुरंत कम से कम गुणवत्ता तो सुधार ही लो जनाबे आली
कानपुर से बाहर निकलें तो सूचना यहां ब्लॉग पर देना बेहतर होगा, दूसरे शहर में किस-किस ब्लॉगर से मिलेंगे? जहां रुकें, वहां का पता दे दें तो उस शहर के ब्लॉगर ही आपसे मिल लेंगे, अब आप तो सेलेब्रिटी ब्लॉगर हैं ना. शायद कभी हमें भी आपके दर्शन का सौभाग्य मिल जाए.
सर्दियां अपने शबाब की ओर अग्रसर हैं, ताऊ के साथ हमारी ओर से भी रम रम!
सुन्दर लिखा है – सतत लिखते रहें!
बहरहाल, निरापद यात्रा के लिए बधाइयां और यात्रा वृतान्त निरन्तर उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद ।
और रास्ते मेँ फिल्मी गाने सुनकर आपको सही गीत याद आया
“जरा नज़रोँ से कह दो जी, निशाना चूक ना जाये ”
और ५/१ = ४ चूक गये !
कोई बात नहीँ -
अगली बारी, पाँचोँ ” बुल्ज़ आइ ” / रहेँगेँ
और हाँ इस स्टोर का पता या वेब साइट हो सके तो बतलाइयेगा -
हम भी खरीदारी करेँगेँ -
अग्रिम, धन्यवाद सहित,
(” युद्ध विधवा संस्थान द्वारा चलाये जा रहे शापिंग स्टोर से तमाम खरीदारी की। “)
स स्नेह,
- लावण्या
ये सबसे achhaa huaa की इसी बहाने fauziyon kee कुछ dikkaton kaa pataa to चला.
सुन्दर यात्रा वर्णन, फोटो भी गजब !!
‘लपूझन्ना वाले अशोक पांडेय’ ????
बताने वाले को समझना चाहिए था कि फुरसतिया बातों को पचा जाने में कोई यकीन नहीं रखते बजाने में करते हैं। जब वे लपूझन्ना रहना चाहते हैं तो काहे आप उन्हें अशोक बनाने पर तुले हैं
वाह चहरे से लगता ही नहीं कि बंदूक़ थामे ज़रा भी डर खौफ़ मेहसूस नही हुआ आपको।
आपकी ज़िन्दगी के ये यादगार दिन बहुत बहुत मुबारक हो।
नया वर्ष जीवन, संघर्ष और सृजन के नाम
नया वर्ष नयी यात्रा के लिए उठे पहले कदम के नाम, सृजन की नयी परियोजनाओं के नाम, बीजों और अंकुरों के नाम, कोंपलों और फुनगियों के नाम
उड़ने को आतुर शिशु पंखों के नाम
नया वर्ष तूफानों का आह्वान करते नौजवान दिलों के नाम जो भूले नहीं हैं प्यार करना उनके नाम जो भूले नहीं हैं सपने देखना,
संकल्पों के नाम जीवन, संघर्ष और सृजन के नाम!!!
नया वर्ष जीवन, संघर्ष और सृजन के नाम
नया वर्ष नयी यात्रा के लिए उठे पहले कदम के नाम, सृजन की नयी परियोजनाओं के नाम, बीजों और अंकुरों के नाम, कोंपलों और फुनगियों के नाम
उड़ने को आतुर शिशु पंखों के नाम
नया वर्ष तूफानों का आह्वान करते नौजवान दिलों के नाम जो भूले नहीं हैं प्यार करना उनके नाम जो भूले नहीं हैं सपने देखना,
संकल्पों के नाम जीवन, संघर्ष और सृजन के नाम!!!
( pehchan kaun)
dr rawat
hindi officer
iit khargpur
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्र