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सोचते हैं उदास ही हो जायें
By फ़ुरसतिया on January 29, 2009
लोग क्या मैं खुद सोचता हूं कि कभी-कभी कुछ देर बैठ के सोचना चाहिये।
अब आप कह सकते हैं बैठ के क्यों लेटकर काहे नहीं?
ऊ इसलिये कि लेट के सोचने से नींद आ जाती है। और एक बार नींद आई तो फ़िर और किसी को हाथ नहीं धरने देती। बहुत पजेसिव है। कोई रकीब पसंद नहीं है उसे।
लेकिन लफ़ड़ा त ई है कि मान लीजिये हम बैठ भी गये सोचने के लिये तो सोचेंगे क्या? एजेंडा क्या होगा सोचने का। एजेंडा नहीं जानते? अरे ई वही होता है जो कि हर बैठक के पहले बनाया जाता है कि इन बिन्दुओं पर चर्चा होगी!
अच्छा फ़र्ज कीजिये हम सोचने बैठ गये और कौनो एजेंडा नहीं है पास में! तो क्या सोचना चाहिये? आप कुछ सलाह दीजिये न!
नहीं बोल रहे हैं आप भी कुछ। आप भी हमारी तरह पोस्टमार्टमियां ज्ञानी हैं जीं! कुछ बोले-बकुरेंगे नहीं! लेकिन जब हम कुछ सोच-सांच के बतायेंगे तो कहेंगे कहीं ऐसे सोचा जाता है। सोच में ई लोच है! यहां मोच हैं! सोच को निरस्त करिये कोई दूसरका सोच लाइये। झकास टाइप का।
अच्छा फ़र्ज करिये हम ये सोचें कि पेट्रोल का दाम पांच रुपया कम हुआ तो कित्ता खुश हुआ जाये? कै किलो? कोई पैमाना है इसका? हम इसी पर एक ठो लम्बी सोच बनाते हुये वाया अरब देश हुये अमेरिका-फ़मेरिका , इजराइल-फ़िजरायल होते हुये घर लौट आयें तो क्या होगा? लम्बी सोच है न!
लेकिन हम ई सोच नहीं पायेंगे। हमे पता है कि जैसे ही पैमाना शब्द लिखेंगे हमको वो वाला गाना याद आ जायेगा- ला पिला दे साकिया पैमाना , पैमाने के बाद! होश की बातें करेंगे होश में आने के बाद! बस हम इसी में अरझे रहेंगे और सोच हवा हो जायेगी।
जहां हवा हो जायेगी लिखेंगे वहां गाना याद आ जायेगा- हवा में उड़ता जाये मेरा लाल टुपट्टा मलमल का!
अल्लेव सब गड़बड़ हो गया। जहां हम लाल टुपट्टा वाली बात लिखने की बात करेंगे और उसके बाद किसी उड़ते हुये टुपट्टे वाली नायिका के बारे में सोचने का मन बनायेंगे- हमें याद आ जायेगा डा.अनुराग आर्य का कमेंट जिसमें उनको हमारे लाल स्वेटर बहुतै पसंद आया है। अब ये डा.साहब बतायें कि उनको हमारा लाल स्वेटर देखकर किसी का लाल टुपट्टा और तदनंतर कोई उड़ते हुये टुपट्टे वाली नायिका याद आई क्या?
अगर याद आई होगी तो उनकी किस्मत लेकिन दिखिये कित्ता फ़र्क पड़ता है जी एक ही रंग का दो लोगों पर। हमारा स्वेटर का रंग डा.अनुराग को किसी खूबसूरत एहसास की तरफ़ मोड़ता है और ससुर वही रंग हमें अपनी तरफ़ मोड़ रहा है। हम कोई खूबसूरत कल्पना कर ही नहीं पा रहे आगे इसके। ये लाल रंग किसी के लिये खूबसूरती से जुड़ने का पुल बना लेकिन हमारे लिये बैरियर हो गया। हम खुद से जुड़ के रह गये! हम फ़िर गाना सोच लिये -ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा!
जैसे ही स्वेटर के बहाने अपनी फोटॊ देखने लगे तो हमें भड़ से अपने साथी वासिफ़ साहब का शेर याद जाता है, शेर डरा जाता है-
इस पचड़े में क्या पड़ें? फ़ौरन एक ठो गाना और याद आ लिया- डर लगे तो गाना गा।
लेकिन इस बात से और डर गये। गाना गायेंगे तो और डर जायेंगे। आखिर हमें तो अपनी आवाज सुनाई देगी न! दूसरे का गाना तो कान बंद करके सुना जा सकता है लेकिन अपना गाना तो बहरे को भी सुनाई देता है । है न!
सोचते हैं कि कुछ दुखी हो लें। दुख बहुत बड़ी नियामत है। आदमी दुखी हो लेता है बहुत सुकून सा मिलता है। लेकिन आदत नहीं है न तो पता नहीं कित्ता दुखी हुआ जाये। एकाध किलो या चवन्नी-अठन्नी। दुख का यूनिट नहीं पता। लेकिन दुख की बात करते हैं तो बहुत शरम आता है जी।
कौन बात पर दुखी हों! दुनिया में हमसे ज्यादा परेशान, बदहाल लोग हैं। फ़िर हम दुखी हों तो कित्ता तो खराब बात है जी! प्रायोजित दुख कित्ता कष्टकारी होता है।
लेकिन दुखी होने के लिये कित्ती तो चीजें हैं दुनिया में। देश /दुनिया की हालत पर दुखी हो सकते हैं, समाज पर दुखी हो सकते हैं, इसके लिये दुखी हो सकते हैं, उसके लिये दुखी हो सकते हैं, किसी के लिये भी दुखी हो सकते हैं। दुखी होने के लिये कौनौ कारण की कमी थोड़ी है- एक ढूंढो हजार मिलते हैं, बच के चलो टकरा के मिलते हैं!
सोचते हैं उदास ही हो जायें। लेकिन उदास होना भी बड़ा कठिन काम है जी। बहुत टाइम खाता है उदास होना। आदमी घॊंघा सा हो जाता है। सब काम धीरे-धीरे। आहिस्ते-आहिस्ते। आवाज को डुबा दो किसी गहरे कुयें/सागर में।
येल्लो फ़िर एक ठो तकनीकी लोचा। आवाज गहरे कुयें / सागर से आने की बात लिखी जहां तहां याद आया ससुरा सागर तो यहां से हज्जारों मील दूर है। ससुर उदास होने के लिये इत्ता दूर जाना पड़ेगा। कोई कुंआ पास दिखता नहीं। सब पटे पड़े हैं। हैंडपाइप से आवाज आ नहीं सकती जो कुयें से आती है।
बहुत लफ़ड़ा है गुरू! इत्ता टाइम बरबाद कर दिया। लेकिन कुछ सोच नहीं पाये। चलिये फ़िर कभी ट्राई मारा जायेगा। तब तक आप भी कुछ सोच डालिये। कौन पैसा खर्च होता है जी!
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
पूछना हूं स्वयं से कि मैं कौन हूं
किसलिये था मुखर किसलिये मौन हूं
प्रश्न का कोई उत्तर तो आया नहीं,
नीड़ एक आ गया सामने अधबना।
फ़िर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
चित्र उभरे कई किंतु गुम हो गये,
मैं जहां था वहां तुम ही तुम हो गये,
लौट आने की कोशिश बहुत की मगर,
याद से हो गया आमना-सामना।
फ़िर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
पंक्तियां कुछ लिखी पत्र के रूप में,
क्या पता क्या कहा, उसके प्रारूप में,
चाहता तो ये था सिर्फ़ इतना लिखूं
मैं तुम्हें बांच लूं, तुम मुझे बांचना।
फिर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
-अंसार कंबरी
अब आप कह सकते हैं बैठ के क्यों लेटकर काहे नहीं?
ऊ इसलिये कि लेट के सोचने से नींद आ जाती है। और एक बार नींद आई तो फ़िर और किसी को हाथ नहीं धरने देती। बहुत पजेसिव है। कोई रकीब पसंद नहीं है उसे।
लेकिन लफ़ड़ा त ई है कि मान लीजिये हम बैठ भी गये सोचने के लिये तो सोचेंगे क्या? एजेंडा क्या होगा सोचने का। एजेंडा नहीं जानते? अरे ई वही होता है जो कि हर बैठक के पहले बनाया जाता है कि इन बिन्दुओं पर चर्चा होगी!
अच्छा फ़र्ज कीजिये हम सोचने बैठ गये और कौनो एजेंडा नहीं है पास में! तो क्या सोचना चाहिये? आप कुछ सलाह दीजिये न!
नहीं बोल रहे हैं आप भी कुछ। आप भी हमारी तरह पोस्टमार्टमियां ज्ञानी हैं जीं! कुछ बोले-बकुरेंगे नहीं! लेकिन जब हम कुछ सोच-सांच के बतायेंगे तो कहेंगे कहीं ऐसे सोचा जाता है। सोच में ई लोच है! यहां मोच हैं! सोच को निरस्त करिये कोई दूसरका सोच लाइये। झकास टाइप का।
अच्छा फ़र्ज करिये हम ये सोचें कि पेट्रोल का दाम पांच रुपया कम हुआ तो कित्ता खुश हुआ जाये? कै किलो? कोई पैमाना है इसका? हम इसी पर एक ठो लम्बी सोच बनाते हुये वाया अरब देश हुये अमेरिका-फ़मेरिका , इजराइल-फ़िजरायल होते हुये घर लौट आयें तो क्या होगा? लम्बी सोच है न!
लेकिन हम ई सोच नहीं पायेंगे। हमे पता है कि जैसे ही पैमाना शब्द लिखेंगे हमको वो वाला गाना याद आ जायेगा- ला पिला दे साकिया पैमाना , पैमाने के बाद! होश की बातें करेंगे होश में आने के बाद! बस हम इसी में अरझे रहेंगे और सोच हवा हो जायेगी।
जहां हवा हो जायेगी लिखेंगे वहां गाना याद आ जायेगा- हवा में उड़ता जाये मेरा लाल टुपट्टा मलमल का!
अल्लेव सब गड़बड़ हो गया। जहां हम लाल टुपट्टा वाली बात लिखने की बात करेंगे और उसके बाद किसी उड़ते हुये टुपट्टे वाली नायिका के बारे में सोचने का मन बनायेंगे- हमें याद आ जायेगा डा.अनुराग आर्य का कमेंट जिसमें उनको हमारे लाल स्वेटर बहुतै पसंद आया है। अब ये डा.साहब बतायें कि उनको हमारा लाल स्वेटर देखकर किसी का लाल टुपट्टा और तदनंतर कोई उड़ते हुये टुपट्टे वाली नायिका याद आई क्या?
अगर याद आई होगी तो उनकी किस्मत लेकिन दिखिये कित्ता फ़र्क पड़ता है जी एक ही रंग का दो लोगों पर। हमारा स्वेटर का रंग डा.अनुराग को किसी खूबसूरत एहसास की तरफ़ मोड़ता है और ससुर वही रंग हमें अपनी तरफ़ मोड़ रहा है। हम कोई खूबसूरत कल्पना कर ही नहीं पा रहे आगे इसके। ये लाल रंग किसी के लिये खूबसूरती से जुड़ने का पुल बना लेकिन हमारे लिये बैरियर हो गया। हम खुद से जुड़ के रह गये! हम फ़िर गाना सोच लिये -ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा!
जैसे ही स्वेटर के बहाने अपनी फोटॊ देखने लगे तो हमें भड़ से अपने साथी वासिफ़ साहब का शेर याद जाता है, शेर डरा जाता है-
साफ़ आईनों चेहरे भी नजर आते हैं साफ़अब जब डर गये तो गब्बर डायलाग याद आया -डर गया सो मर गया। लेकिन हम मरे तो हैं नहीं तो क्या डायलाग झूठा है?
धुंधला चेहरा हो तो आईना भी धुंधला चाहिये।
इस पचड़े में क्या पड़ें? फ़ौरन एक ठो गाना और याद आ लिया- डर लगे तो गाना गा।
लेकिन इस बात से और डर गये। गाना गायेंगे तो और डर जायेंगे। आखिर हमें तो अपनी आवाज सुनाई देगी न! दूसरे का गाना तो कान बंद करके सुना जा सकता है लेकिन अपना गाना तो बहरे को भी सुनाई देता है । है न!
सोचते हैं कि कुछ दुखी हो लें। दुख बहुत बड़ी नियामत है। आदमी दुखी हो लेता है बहुत सुकून सा मिलता है। लेकिन आदत नहीं है न तो पता नहीं कित्ता दुखी हुआ जाये। एकाध किलो या चवन्नी-अठन्नी। दुख का यूनिट नहीं पता। लेकिन दुख की बात करते हैं तो बहुत शरम आता है जी।
कौन बात पर दुखी हों! दुनिया में हमसे ज्यादा परेशान, बदहाल लोग हैं। फ़िर हम दुखी हों तो कित्ता तो खराब बात है जी! प्रायोजित दुख कित्ता कष्टकारी होता है।
लेकिन दुखी होने के लिये कित्ती तो चीजें हैं दुनिया में। देश /दुनिया की हालत पर दुखी हो सकते हैं, समाज पर दुखी हो सकते हैं, इसके लिये दुखी हो सकते हैं, उसके लिये दुखी हो सकते हैं, किसी के लिये भी दुखी हो सकते हैं। दुखी होने के लिये कौनौ कारण की कमी थोड़ी है- एक ढूंढो हजार मिलते हैं, बच के चलो टकरा के मिलते हैं!
सोचते हैं उदास ही हो जायें। लेकिन उदास होना भी बड़ा कठिन काम है जी। बहुत टाइम खाता है उदास होना। आदमी घॊंघा सा हो जाता है। सब काम धीरे-धीरे। आहिस्ते-आहिस्ते। आवाज को डुबा दो किसी गहरे कुयें/सागर में।
येल्लो फ़िर एक ठो तकनीकी लोचा। आवाज गहरे कुयें / सागर से आने की बात लिखी जहां तहां याद आया ससुरा सागर तो यहां से हज्जारों मील दूर है। ससुर उदास होने के लिये इत्ता दूर जाना पड़ेगा। कोई कुंआ पास दिखता नहीं। सब पटे पड़े हैं। हैंडपाइप से आवाज आ नहीं सकती जो कुयें से आती है।
बहुत लफ़ड़ा है गुरू! इत्ता टाइम बरबाद कर दिया। लेकिन कुछ सोच नहीं पाये। चलिये फ़िर कभी ट्राई मारा जायेगा। तब तक आप भी कुछ सोच डालिये। कौन पैसा खर्च होता है जी!
मेरी पसंद
फ़िर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
पूछना हूं स्वयं से कि मैं कौन हूं
किसलिये था मुखर किसलिये मौन हूं
प्रश्न का कोई उत्तर तो आया नहीं,
नीड़ एक आ गया सामने अधबना।
फ़िर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
चित्र उभरे कई किंतु गुम हो गये,
मैं जहां था वहां तुम ही तुम हो गये,
लौट आने की कोशिश बहुत की मगर,
याद से हो गया आमना-सामना।
फ़िर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
पंक्तियां कुछ लिखी पत्र के रूप में,
क्या पता क्या कहा, उसके प्रारूप में,
चाहता तो ये था सिर्फ़ इतना लिखूं
मैं तुम्हें बांच लूं, तुम मुझे बांचना।
फिर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
-अंसार कंबरी
Regards
(10×100)+(10*10)=1000+100=1100
अब ई मिनटवा को घंटवा में बदलते हैं..
1100/60=18.33
अब एक आदमी एक दिन में औसत ८ घंटा काम करता है.. सो इसको ८ से भागा देते हैं..
18.33/8=2.29
एक बिलोगर का एक पोस्ट २.२९ आदमी के बराबर काम का हर्जा करता है तो सोचिये कि एतना पोस्ट हर दिन पोस्ट होता है, ऊ केतना हर्जा करता होगा?
हम तो कहते हैं कि खाली ई बिलोगर्वा के चलते भारत में आर्थिक संकट है.. सब कोई पोस्ट पढ़े लिखे में मस्त है.. कोई काम धाम करता नहीं है.. तो और का होगा?
क्या पता क्या कहा, उसके प्रारूप में,
चाहता तो ये था सिर्फ़ इतना लिखूं
मैं तुम्हें बांच लूं, तुम मुझे बांचना।
फिर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
अंसार कंबरी जी द्वारा रचित ये कविता पढवाने का आभार….कितने सारे भावो और विचारों ने घेर लिया मन को….अती सुंदर…
Regards
काफी दिन ऐसे ही आलतू फालतू लिखने में जाया कर दिए .
वैसे प्रशांत ने जो समय जाया करने वाली बात कही उसमें लोचा है . पूछिए का ?
नहीं पूछा ? चलिए हम फिर भी बता डालते हैं . आपके ऊपर तो प्रशांत का जोर नहीं चला . पर अपना टाइम तो इतनी बडी टिप्पणी लिखने में जाया होने से बचा सकते थे .
हमारी बात अलग है . हम तो चाहते हैं कि टाइम जाया हो .
.वैसे हमारे एक मित्र ओर थे कही भी किसी भी अवस्था में सोचने लगते थे ….स्कूटर चलाते वक़्त भी…..ओर देखिये जी आपका ये लाल स्वेटर जो है इसे अच्छे ड्राई क्लीनर से धुलवा कर अगली सर्दी के लिए रखियेगा ..ताकि इसका रेशा रेशा ठीक रहे…..अगले साल फ़िर दूसरी फोटो का भी तो मजा लेना है …शायद कुश का ही ब्याह हो जाए …सर्दियों में…..
कविता वाकई खूबसूरत अहसास दे गयी है.
क्या पता क्या कहा, उसके प्रारूप में,
चाहता तो ये था सिर्फ़ इतना लिखूं
मैं तुम्हें बांच लूं, तुम मुझे बांचना।
लाजवाब है जी. आज है असली फ़ुरसतिया पोस्ट का मजा. अब हम क्या करें? हमारे पास तो टाईंम ही टाईम है.:)
रामराम.
अब उदास हो लिए हो तो कुछ खुश होने की बात भी हो जाए ।
कौनो एजेंडा की जरुरत नही है ।
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
पूछना हूं स्वयं से कि मैं कौन हूं
किसलिये था मुखर किसलिये मौन हूं
प्रश्न का कोई उत्तर तो आया नहीं,
नीड़ एक आ गया सामने अधबना।
फ़िर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
चित्र उभरे कई किंतु गुम हो गये,
मैं जहां था वहां तुम ही तुम हो गये,
लौट आने की कोशिश बहुत की मगर,
याद से हो गया आमना-सामना।
फ़िर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
पंक्तियां कुछ लिखी पत्र के रूप में,
क्या पता क्या कहा, उसके प्रारूप में,
चाहता तो ये था सिर्फ़ इतना लिखूं
मैं तुम्हें बांच लूं, तुम मुझे बांचना।
फिर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
poori kavita hi achchhi thi…kis line ko quote karti
कस्सम से, उदास हुए भी नहीं. बस सोचा ही था की हो लें, और इत्ते सारे लोगों का टाइम खोटी कर डाला. जब सहिये में उदास होएँगे तो ब्लाग-ट्रेफिके बंद हो जायेगा..
पीडी भाई इस बूर्ज्वा मानसिकता के ख़िलाफ़ संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं…
धुंधला चेहरा हो तो आईना भी धुंधला चाहिये..
सुंदर अभिव्यक्ति है …..
पढा तो पहली बार आपका ब्लॉग…………..पर अलग अलग ब्लोग्स पर आप का ज़िक्र बहुर फुर्सत से आता है.
मजा अ गया आपके कलम की धार देख कर………..
हम तो तेरह घंटे से सोच रहे हैं,जी ।
टिप्पणी को सही शब्द सोच ही नहीं पा रहे हैं ।
किसी कंदरा में या वटवृक्ष के तले बैठ के सोचता हूँ,
फिर, वापस लौटता हूँ ।
जब आहिस्ता से पीछे छूट जाती है
तब सच मानिये
खुशियाँ मुस्कुराकर और दिल लुभातीँ हैँ
- लावण्या
अरे चले तो टिप्पणी लिखने थे लेकिन गडबड में फ़ुरसतीय़ टिप्पणी लिख गये। चलो अगली पोस्ट में इसका बदला चुका देंगे कविता बहुत जोरदार रही, हमने सहेज ली है अपने कई मित्रों को जरूर पढवायेंगे।
रामराम.
धुंधला चेहरा हो तो आईना भी धुंधला चाहिये..
एकदम सही और कविता बेमिसाल्। आज की ये बिना एजेंडा वाली पोस्त पढ़ कर तो सच में हम उदास हो लिए, अब उदास किए हैं तो हंसाने की जिम्मेदारी आप की है न
अब और क्या सोचें ?
सरपराइज़िंगली, आज पढ़ा, तो आज भी वहीं पहुँची। उदास होने की कोशिश के नाम ‘ सोचते है उदास हो जाएँ’ वस्तुत: ‘लगता है उदास हैं’ है।
गीत की पंक्तियाँ बड़ी मधुरिम किन्तु पीड़ा में डूबी हैं। श्रॄंगार रस को इसलिए भी उज्ज्वल रस कहा जाता होगा।
किस्सागोई के सारे सूत्र यहाँ साफ़ साफ़ दिखाई देते हैं।