http://web.archive.org/web/20140419213703/http://hindini.com/fursatiya/archives/574
नेहरू और लेनिन का सारा किया धरा का धरा रह गया। क्योंकि वे मरने के लिये उन्होंने सिफ़लिस का सहारा लिया।
वैसे हमने न नेहरूजी की पोस्टमार्टम रिपोर्ट देखी है और न ही लेनिन की। शायद उन्होंने देखी हो जो यह बात इत्ते दावे के साथ कह रहे हैं।
नेहरूजी देश के पहले प्रधानमंत्री थे। स्वप्नद्र्ष्टा, आधुनिक भारत के निर्माता। दुनिया में उनकी बात सुनी जाती थी। लेनिन के समर्थन और सम्मान में दुनिया भर में बहुत कुछ लिखा गया है। मार्क्सवाद की अवधारणा को लागू करने वाले लेनिन दुनिया भर के मार्क्सवादियों के पूज्य और अन्य लोगों के लिये भी काम भर के आदरणीय भी माने जाते हैं। लेकिन इन लोगों की सारी महानता हवा हो गयी एक ठो बीमारी सिफ़लिस के चलते।
जिसको आम तौर लोग जिसे अपना नायक मानते हों उसमें कोई खराबी देखना/सुनना पसंद नहीं करते। अगर दिखती भी है तो उसे तर्क तराजू पर तौलकर अपने मन को और फ़िर दूसरे को समझाइस दे देते हैं। कभी-कभी तर्क सच में तर्क जैसे होते हैं और जब तर्क नहीं मिलते तो कुतर्क के सहारे बात मनवाने का प्रयास होता है। इस कुतर्क का सबसे मजेदार पहलू यह होता है कि अपने नायक की कोई कमी बताये तो दूसरे के नायक की पचास ठो ठेल दो।
तुम हमारे नायक को हत्यारा बताओगे तो हम तुम्हारे नायक को सिफ़लिस से मार देंगे। एक हत्यारे से ज्यादा खराब चीज होती है सिफ़लिस से मारा जाना। सिफ़लिस माने चरित्रहीन। चरित्रहीन माने कैरेक्टरलेस। कहा भी गया है -व्हेन कैरेक्टर इस लास्ट, एवरीथिंग इज लास्ट। जब चरित्र की नहीं बचा तो कहां के महान और कहां की महानता। अपना से मुंह लिये रह जाओगे।
हम बता दें कि न तो हम नेहरूजी के भक्त हैं न लेनिन के अंधभक्त और न ही मोदीजी के अंधविरोधी। मैं अपनी सीमित जानकारी के चलते यह जानता हूं कि चाहे जैसे जोड़-तोड़ करके सत्ता में आये हॊं लेकिन नेहरूजी अपने समय के निर्विवाद जननायक थे। लेनिन के बारे में भी यही सुना है। यह भी कि अगर वे जल्दी न मरे होते तो शायद मार्क्सवाद की तस्वीर दूसरी होती आज!
परसाईजी ने एक लेख लिखा है- प्रतिमा का सिन्दूर खरोंचे। इसमें उन्होंने कवि जीवनलाल शर्मा ’विद्रोही’ की कविता का उल्लेख किया है जिसका प्रथम पद है:
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रतिभाशाली छात्र रहे चंद्रशेखर शायद इसीलिये भगतसिंह जैसी मौत चाहते थे। जल्दी निपट जायें तो कोई आरोप तो न लगें। शहीदों में इसीलिये वे ज्यादा महान माने गये जो पहले, कम उमर में निपट गये। भगतसिंह, खुदीराम बोस जैसे शहीद अगर लंबे समय तक जीते तो शायद उनके नाम भी उनकी महिमा को कम करने वाले कई किस्से जुड़ जाते।
यशपाल जी भी क्रांतिकारी थे। लेखक भी थे। काफ़ी दिन जिये। लेकिन उनको न उत्ता बड़ा क्रांतिकारी माना जाता है और न ही शायद (झूठा सच जैसा उपन्यास लिखने के बावजूद) उतना बड़ा लेखक। ज्यादा उमर तक जीना अपनी महिमा के तेज को कम करवाना है। निर्विवाद महान बने रहना है तो दुनिया से जल्दी निकल लेना चाहिये।
मुझे लगता है कि यह समय ही शायद अविश्वास और अनास्था का है। लोगों को न अपने पर विश्वास है न किसी को किसी पर करते देखना चाहते हैं। कोई किसी पर आस्था प्रकट करता है , उसकी आस्था को खंडित करने के काम में लोग मिशनरी भाव से लग जाते हैं।
यह तो भला हो नेहरू और गांधी जी जैसे लोगों का कि आज की सारी समस्याओं की जड़ में हम लोग उनके समय में लिये गये गलत निर्णयों को दोषी ठहरा के मुक्त हो लेते हैं।
हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं कि इत्ती बुरी नीतियां बना गया पहिला वाला प्रधानमंत्री कि अब हम कुछ कर ही नहीं सकते? जो नुकसान हुआ उसकी क्षतिपूर्ति हो ही नहीं सकती है।
जो लोग इस तरह की सवाल उठाते हैं उनकी बातें सही हो सकती हैं लेकिन केवल वही बातें उठाते और उनको ही पटकते रहना रघुवीर सहाय की इस कविता की तरह लगता है:
जो समय बीत गया या जो लोग असमय हमारे बीच से चले गये उनके बारे में सोचते हुये यह कहना कि अगर ऐसा होता तो ये होता वो होता कुछ इसी तरह ही है। वे लोग होते तो शायद और भी बहुत कुछ हुआ होता जो कि सब अच्छा ही नहीं होता।
आज जो लोग क्रूर/तानाशाह और जघन्य माने जाते हैं उनको भी तो उनके समय के लोगों ने जननायक मानकर ही शुरुआत की होगी। उनके दीवाने रहें होंगे। पहले से बेहतर समझकर उनको अपना नेता चुना होगा। चाहे वे हिटलर हों या माओ या स्टालिन /मुशोलिनी या फ़िर कोई और! लेकिन यह मजे की बात है कि हर जननायक की पोल उसके मरने के बाद ही खुलती है।
हम बचपन से नेहरूजी को पढ़ते आये हैं। उनके बारे में तमाम अच्छाइयां सुनने को मिलीं, तमाम बुराइयां भी। बुराइयां ज्यादातर उनकी व्यक्तिगत सुनने/पढ़ने को मिलीं। वे सिगरेट पीते थे, तमाम महिलाओं से उनके संबंध थे, जल्दी झल्ला जाते थे, महान माने जाने की मानवीय कमजोरी से ग्रस्त थे: इस बारे में परसाईजी ने लिखा भी है:
लेकिन इन सबके बावजूद जब तक जिये तब तक देश के निर्विवाद नेता बने रहे। आज भारत आधुनिक राष्ट्र कहलाने की कतार में है तो उसका भी कुछ श्रेय नेहरूजी के समय में शुरू की गयी नीतियों को जाता है। आज जब वे हमारे बीच में नहीं हैं तब उनकी व्यक्तिगत मानवीय कमजोरियों को माइक्रोस्कोप से देखने की बजाय यह देखें कि उन्होंने क्या किया? जो किया क्या हम उसके जैसा या उससे बेहतर कुछ कर सकते हैं।
मोदीजी की तारीफ़ करनी चाहिये कि वे अपने राज्य के लोगों के विकास के लिये तमाम काम किये। आगे उनको संभावित प्रधानमंत्री के रूप में देखा जाना उनके प्रशंसको सहज स्वाभाविक बात है। संभव है जल्द ही अपना देश उनको इस रूप में देखे।
लेकिन मोदीजी के समय में ही हुये गुजरात के दंगे भी अपने समय का भयावह सच हैं। हिटलर/स्टालिन के समय में तो हम थे नहीं लेकिन संयोग से इस समय हम मौजूद हैं और किसी और नहीं उस समय माननीय बाजपेयी की नसीहत को अब भी ध्यान करते हैं जो उन्होंने मोदीजी को दी थी- राजधर्म का पालन होना चाहिये।
गुजरात में हुये विकास कार्य अपने आपमें देश के लिये बहुत सुकूनदेह और आशावादी घटना हैं। शायद दूसरे राज्यों के लोग भी इससे सबक लें। लेकिन गुजरात में विकास कार्यों की चमक में वहां हुये भयावह दंगों का अंधेरा छुप नहीं सकता।
वैसे भी महान लोगों की पोलें उनके मरने के बाद ही कायदे से खुलती हैं। अभी उनके बारे में क्या परेशान होना जो महानता के पथ पर अग्रसर हैं। अभी तो उनको कई मंजिले पानी हैं, हमेशा सोने के पहले मीलों चलना है चलते हैं जैसा रावर्ड फ़्रास्ट कहते थे न! (जो कि नेहरूजी की प्रिय कविता है- माइल्स टु गो विफ़ोर आई स्लीप!)
नेहरू/लेनिन और तमाम महापुरुष तो अब चले गये। वे शायद सिफ़लिस ही से मरे होंगे। उनके जिंदगी भर में किये-धरे पर एक मुई सिफ़लिस की बीमारी भारी हो गयी। हम अब क्या कह सकते हैं। सिवाय कैलाश बाजपेयी जी की यह कविता दोहराने के -जिंदगी में कुछ करना चाहे न करना, कम से कम तुम ठीक तरह मरना!
घिर कर उतरती रात से बेखबर ,जिद्दी, थकी एक चिड़िया
अब भी लड़ रही है अपने प्रतिबिम्ब से!
तुम, जो कांच और छाया से जन्मे दर्द को समझते हो
तरस नहीं खाना, न तिरस्कार करना
बस जुड़े रहना इस चिड़िया की जूझन के दृश्य से।
वक्त कुछ कहने का खत्म हो चुका है
जिन्दगी जोड़ है ताने-बाने का लम्बा हिसाब
बुरा भी उतना बुरा नहीं यहां
न भला है एकदम निष्पाप।
अथक सिलसिला है कीचड़ से पानी से
कमल तक जाने का
पाप में उतरता है आदमी फिर पश्चाताप से गुजरता है
मरना आने के पहले हर कोई कई तरह मरता है
यह और बात है कि इस मरणधर्मा संसार में
कोई ही कोई सही मरता है।
कम से कम तुम ठीक तरह मरना।
नदी में पड़ी एक नाव सड़ रही है
और एक लावारिश लाश किसी नाले में
दोनों ही दोनों से चूक गये
यह घोषणा नहीं है, न उलटबांसी,
एक ही नशे के दो नतीजे हैं
तुम नशे में डूबना या न डूबना
डुबे हुओं से मत ऊबना।
कैलाश बाजपेयी
कम से कम तुम ठीक तरह मरना
By फ़ुरसतिया on January 25, 2009
लेकिन मरे तो वे सिफ़लिस से
अनिल रघुराज के ब्लाग पर रोचक बहस छिड़ी दिखी। वहीं पता चला कि लोगों ने बताया कि नेहरू / लेनिन बहुत महान थे लेकिन मरे तो सिफ़लिस से। सिफ़लिस यौन रोग जनित एक बीमारी होती है जो शायद अनेक लोगों से यौन संसर्ग या प्रदूषणयुक्त इंजेक्शन के उपयोग के कारण होती है ।नेहरू और लेनिन का सारा किया धरा का धरा रह गया। क्योंकि वे मरने के लिये उन्होंने सिफ़लिस का सहारा लिया।
वैसे हमने न नेहरूजी की पोस्टमार्टम रिपोर्ट देखी है और न ही लेनिन की। शायद उन्होंने देखी हो जो यह बात इत्ते दावे के साथ कह रहे हैं।
नेहरूजी देश के पहले प्रधानमंत्री थे। स्वप्नद्र्ष्टा, आधुनिक भारत के निर्माता। दुनिया में उनकी बात सुनी जाती थी। लेनिन के समर्थन और सम्मान में दुनिया भर में बहुत कुछ लिखा गया है। मार्क्सवाद की अवधारणा को लागू करने वाले लेनिन दुनिया भर के मार्क्सवादियों के पूज्य और अन्य लोगों के लिये भी काम भर के आदरणीय भी माने जाते हैं। लेकिन इन लोगों की सारी महानता हवा हो गयी एक ठो बीमारी सिफ़लिस के चलते।
जिसको आम तौर लोग जिसे अपना नायक मानते हों उसमें कोई खराबी देखना/सुनना पसंद नहीं करते। अगर दिखती भी है तो उसे तर्क तराजू पर तौलकर अपने मन को और फ़िर दूसरे को समझाइस दे देते हैं। कभी-कभी तर्क सच में तर्क जैसे होते हैं और जब तर्क नहीं मिलते तो कुतर्क के सहारे बात मनवाने का प्रयास होता है। इस कुतर्क का सबसे मजेदार पहलू यह होता है कि अपने नायक की कोई कमी बताये तो दूसरे के नायक की पचास ठो ठेल दो।
तुम हमारे नायक को हत्यारा बताओगे तो हम तुम्हारे नायक को सिफ़लिस से मार देंगे। एक हत्यारे से ज्यादा खराब चीज होती है सिफ़लिस से मारा जाना। सिफ़लिस माने चरित्रहीन। चरित्रहीन माने कैरेक्टरलेस। कहा भी गया है -व्हेन कैरेक्टर इस लास्ट, एवरीथिंग इज लास्ट। जब चरित्र की नहीं बचा तो कहां के महान और कहां की महानता। अपना से मुंह लिये रह जाओगे।
हम बता दें कि न तो हम नेहरूजी के भक्त हैं न लेनिन के अंधभक्त और न ही मोदीजी के अंधविरोधी। मैं अपनी सीमित जानकारी के चलते यह जानता हूं कि चाहे जैसे जोड़-तोड़ करके सत्ता में आये हॊं लेकिन नेहरूजी अपने समय के निर्विवाद जननायक थे। लेनिन के बारे में भी यही सुना है। यह भी कि अगर वे जल्दी न मरे होते तो शायद मार्क्सवाद की तस्वीर दूसरी होती आज!
प्रतिमा का सिन्दूर खरोंचे
काकभुशुण्ड गरुड़ से बोलेपरसाईजी ने लिखा है:
आओ कुछ लड़ जायें चोंचे
चलो किसी मन्दिर के अन्दर
प्रतिमा का सिन्दूर खरोंचे।
कविता में जो कागभुशुन्ड है वह कौआ है। पशुओं में जितना निन्दित सियार है, पक्षियों में उतना ही निन्दित कौआ है। एक आंख का कनवा, कर्कश आवाज, हमेशा कीड़े मकोड़े खोजता है। यह कौआ है, जो कहता है कि चलो मन्दिर में प्रतिमा का सिन्दूर खरोंचे- यानी जो महिमा-मण्डित है, उसकी महिमा को नष्ट कर दें।तो यह सिंदूर-खुरचन कार्यक्रम चल रहा है धांसू तरीके से। आप किसी को महान बताते हुये उसके जैसा बनने की बात करते हो तड़ से कोई अनाम टिपण्णीकार आपको बता जाते अरे इसमें तो ये कमियां थीं। वो कमियां थीं। आपका जतन से बनाया आदर्श आपके हाथ से फ़िसल जाता है। आदमी किसी को आदर्श बताते हुये डरता है। आप किसी को आदर्श बताओगे कोई आयेगा उसकी बेइज्जती खराब करके चला जायेगा। जित्ता बड़ा महापुरुष आपका आदर्श होगा उत्ता बड़ा झटका आपको सहने के लिये तैयार होना चाहिये अगर आप उसके बारे में बात करते हैं।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रतिभाशाली छात्र रहे चंद्रशेखर शायद इसीलिये भगतसिंह जैसी मौत चाहते थे। जल्दी निपट जायें तो कोई आरोप तो न लगें। शहीदों में इसीलिये वे ज्यादा महान माने गये जो पहले, कम उमर में निपट गये। भगतसिंह, खुदीराम बोस जैसे शहीद अगर लंबे समय तक जीते तो शायद उनके नाम भी उनकी महिमा को कम करने वाले कई किस्से जुड़ जाते।
यशपाल जी भी क्रांतिकारी थे। लेखक भी थे। काफ़ी दिन जिये। लेकिन उनको न उत्ता बड़ा क्रांतिकारी माना जाता है और न ही शायद (झूठा सच जैसा उपन्यास लिखने के बावजूद) उतना बड़ा लेखक। ज्यादा उमर तक जीना अपनी महिमा के तेज को कम करवाना है। निर्विवाद महान बने रहना है तो दुनिया से जल्दी निकल लेना चाहिये।
मुझे लगता है कि यह समय ही शायद अविश्वास और अनास्था का है। लोगों को न अपने पर विश्वास है न किसी को किसी पर करते देखना चाहते हैं। कोई किसी पर आस्था प्रकट करता है , उसकी आस्था को खंडित करने के काम में लोग मिशनरी भाव से लग जाते हैं।
यह तो भला हो नेहरू और गांधी जी जैसे लोगों का कि आज की सारी समस्याओं की जड़ में हम लोग उनके समय में लिये गये गलत निर्णयों को दोषी ठहरा के मुक्त हो लेते हैं।
हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं कि इत्ती बुरी नीतियां बना गया पहिला वाला प्रधानमंत्री कि अब हम कुछ कर ही नहीं सकते? जो नुकसान हुआ उसकी क्षतिपूर्ति हो ही नहीं सकती है।
अगर कहीं मैं तोता होता
तमाम लोग बताते हैं कि अगर सुभाष असमय मरे न होते, नेहरू की जगह पटेल पहले प्रधानमंत्री हुये होते, आजादी के समय देश के टुकड़े न हुये होते, सन १९४८ में ही हमने पाकिस्तान पर कब्जा कर लिया होता , कश्मीर पर नेहरू ने ये न किया होता वो किया होता तो ये होता वो होता। इस संबंध में हम क्या कुछ कह सकते हैं। जो होना था और जो नहीं होना था वो सब तो हो चुका है।जो लोग इस तरह की सवाल उठाते हैं उनकी बातें सही हो सकती हैं लेकिन केवल वही बातें उठाते और उनको ही पटकते रहना रघुवीर सहाय की इस कविता की तरह लगता है:
अगर कहीं मैं तोता होता
तोता होता तो क्या होता ?
तोता होता।
होता तो फिर ?
होता ‘फिर’ क्या?
होता क्या?
मैं तोता होता।
तोता तोता तोता तोता
तो तो तो तो ता ता ता ता
बोल पट्ठे सीता राम
पोल मरने के बाद ही खुलती है
गणित/विज्ञान में भी एक तकनीक होती है फ़ाइनाइट एलीमेंट मेथड। इसमें बहुत बड़ी समस्या/फ़लक को तमाम छोटे-छोटे हिस्सों में बांट कर सबसे छोटे हिस्से पर गणितीय समीकरणों के सहारे कुछ निष्कर्ष निकालते हैं। फ़िर उन निष्कर्षों को विस्तार देकर पूरे फ़लक पर आरोपित कर दिया जाता है। माना जाता है कि जो हल बहुत बड़े फ़लक के किसी बहुत छोटे हिस्से पर लागू होते हैं वैसे ही हल सारे फ़लक पर हमेशा के लिये लागू होते रहेंगे।जो समय बीत गया या जो लोग असमय हमारे बीच से चले गये उनके बारे में सोचते हुये यह कहना कि अगर ऐसा होता तो ये होता वो होता कुछ इसी तरह ही है। वे लोग होते तो शायद और भी बहुत कुछ हुआ होता जो कि सब अच्छा ही नहीं होता।
आज जो लोग क्रूर/तानाशाह और जघन्य माने जाते हैं उनको भी तो उनके समय के लोगों ने जननायक मानकर ही शुरुआत की होगी। उनके दीवाने रहें होंगे। पहले से बेहतर समझकर उनको अपना नेता चुना होगा। चाहे वे हिटलर हों या माओ या स्टालिन /मुशोलिनी या फ़िर कोई और! लेकिन यह मजे की बात है कि हर जननायक की पोल उसके मरने के बाद ही खुलती है।
नेहरूजी तो चले गये
पुराना चुटकुला है। शायद किसी फ़िल्म में कोई हास्य नायक कहता है: भाइयों आज देश की हालत बड़ी खराब है, गांधीजी भी नहीं हैं, नेहरूजी भी नहीं और हमारी भी हालत खराब रहती है।हम बचपन से नेहरूजी को पढ़ते आये हैं। उनके बारे में तमाम अच्छाइयां सुनने को मिलीं, तमाम बुराइयां भी। बुराइयां ज्यादातर उनकी व्यक्तिगत सुनने/पढ़ने को मिलीं। वे सिगरेट पीते थे, तमाम महिलाओं से उनके संबंध थे, जल्दी झल्ला जाते थे, महान माने जाने की मानवीय कमजोरी से ग्रस्त थे: इस बारे में परसाईजी ने लिखा भी है:
जवाहरलाल नेहरू बहुत उदात्त मन के थे। पर जब वे प्रधानमंत्री थे, तब ’भारतरत्न’ सम्मान ले लिया। वह मुझे अच्छा नहीं लगा। ’भारत रत्न’ सरकार देती है। नेहरू सरकार थे। उन्होंने अपने को ही ’भारतरत्न’ कर लिया। फ़िर एक रुपये के सिक्के पर उनका चेहरा अंकित था। वह एडवर्ड आठवें के चेहरे का रुपया मालूम होता है। नेहरू इसे रोक सकते थे।
लेकिन इन सबके बावजूद जब तक जिये तब तक देश के निर्विवाद नेता बने रहे। आज भारत आधुनिक राष्ट्र कहलाने की कतार में है तो उसका भी कुछ श्रेय नेहरूजी के समय में शुरू की गयी नीतियों को जाता है। आज जब वे हमारे बीच में नहीं हैं तब उनकी व्यक्तिगत मानवीय कमजोरियों को माइक्रोस्कोप से देखने की बजाय यह देखें कि उन्होंने क्या किया? जो किया क्या हम उसके जैसा या उससे बेहतर कुछ कर सकते हैं।
कम से कम तुम ठीक तरह मरना
नेहरू और लेनिन मरे भले ही सिफ़लिस हों लेकिन जैसे जिये वैसे दुनिया में बहुत कम लोग जीते हैं। कम से कम मैं तो यही सोचता हूं। दुनिया में बेहतरी के लिये जित्ते प्रयास उन्होंने किये उनको याद करने और उनकी गलतियों से सबक लेने की बात करने की बजाय बजाय अगर हम उनकी मौत के सालों बाद सिर्फ़ उनको इसलिये याद करें कि वे सिफ़लिस से मरे तो यह हमारे समय का सोच है।मोदीजी की तारीफ़ करनी चाहिये कि वे अपने राज्य के लोगों के विकास के लिये तमाम काम किये। आगे उनको संभावित प्रधानमंत्री के रूप में देखा जाना उनके प्रशंसको सहज स्वाभाविक बात है। संभव है जल्द ही अपना देश उनको इस रूप में देखे।
लेकिन मोदीजी के समय में ही हुये गुजरात के दंगे भी अपने समय का भयावह सच हैं। हिटलर/स्टालिन के समय में तो हम थे नहीं लेकिन संयोग से इस समय हम मौजूद हैं और किसी और नहीं उस समय माननीय बाजपेयी की नसीहत को अब भी ध्यान करते हैं जो उन्होंने मोदीजी को दी थी- राजधर्म का पालन होना चाहिये।
गुजरात में हुये विकास कार्य अपने आपमें देश के लिये बहुत सुकूनदेह और आशावादी घटना हैं। शायद दूसरे राज्यों के लोग भी इससे सबक लें। लेकिन गुजरात में विकास कार्यों की चमक में वहां हुये भयावह दंगों का अंधेरा छुप नहीं सकता।
वैसे भी महान लोगों की पोलें उनके मरने के बाद ही कायदे से खुलती हैं। अभी उनके बारे में क्या परेशान होना जो महानता के पथ पर अग्रसर हैं। अभी तो उनको कई मंजिले पानी हैं, हमेशा सोने के पहले मीलों चलना है चलते हैं जैसा रावर्ड फ़्रास्ट कहते थे न! (जो कि नेहरूजी की प्रिय कविता है- माइल्स टु गो विफ़ोर आई स्लीप!)
नेहरू/लेनिन और तमाम महापुरुष तो अब चले गये। वे शायद सिफ़लिस ही से मरे होंगे। उनके जिंदगी भर में किये-धरे पर एक मुई सिफ़लिस की बीमारी भारी हो गयी। हम अब क्या कह सकते हैं। सिवाय कैलाश बाजपेयी जी की यह कविता दोहराने के -जिंदगी में कुछ करना चाहे न करना, कम से कम तुम ठीक तरह मरना!
मेरी पसंद
दर्पण पर शाम की धूप पड़ रही है,घिर कर उतरती रात से बेखबर ,जिद्दी, थकी एक चिड़िया
अब भी लड़ रही है अपने प्रतिबिम्ब से!
तुम, जो कांच और छाया से जन्मे दर्द को समझते हो
तरस नहीं खाना, न तिरस्कार करना
बस जुड़े रहना इस चिड़िया की जूझन के दृश्य से।
वक्त कुछ कहने का खत्म हो चुका है
जिन्दगी जोड़ है ताने-बाने का लम्बा हिसाब
बुरा भी उतना बुरा नहीं यहां
न भला है एकदम निष्पाप।
अथक सिलसिला है कीचड़ से पानी से
कमल तक जाने का
पाप में उतरता है आदमी फिर पश्चाताप से गुजरता है
मरना आने के पहले हर कोई कई तरह मरता है
यह और बात है कि इस मरणधर्मा संसार में
कोई ही कोई सही मरता है।
कम से कम तुम ठीक तरह मरना।
नदी में पड़ी एक नाव सड़ रही है
और एक लावारिश लाश किसी नाले में
दोनों ही दोनों से चूक गये
यह घोषणा नहीं है, न उलटबांसी,
एक ही नशे के दो नतीजे हैं
तुम नशे में डूबना या न डूबना
डुबे हुओं से मत ऊबना।
कैलाश बाजपेयी
इस लेख के कई बिन्दु महत्वपूर्ण हैं. उन बिन्दुओं को विस्तारित करके अलग से बहस हो सकती है. नहीं बहस में मैं नहीं पढ़ना चाहता. अधिकांश बिन्दुओं पर सहमति व्यक्त करते हुए एक बार फिर लेख पर लौटता हूं. पंडित नेहरू ,कम से कम अपने समय में तो विवाद से परे रहे. बात चाहे लोहिया की हो या जेपी या कृपलानी जी की. किसी ने भी नेहरू जी की व्यक्तिगत कमजोरियों को निशाना नहीं बनाया. ( कोई भी व्यक्ति सर्व समाज का सर्वकालिक आदर्श नहीं हो सकता,क्यों कि हर व्यक्ति में कुछ न कुछ कमियां /कम्ज़ोरियां होती हैं). प्रतिमा से सिन्दूर खुरचने की प्रवत्ति इधर कुछ बढी है. वेद मेहता ने महात्मा गान्धी पर विवाद खडा किया, हंसराज रहबर ने नेहरू पर निशाना साधा. इन्दिरा, अटल बेहारी, चरन सिंह, कामराज, राजाजी, एन टी आर कितने ही नाम गिनाये, हर नेता की एक छवि होती है, उनके अन्ध भक्त भी होते हैं. सही या गलत का सबका अपना पैमाना होता है. कुछ की नज़रों में मोदी भी महान हैं , नेहरू भी. किंतु आपका लेख इन सभी लोकप्रिय व्यक्तित्वों की आलोचना के मापदंड निर्धारित किये जाने का संकेत करता है. आलोचना संय़मित होनी चाहिये. यदि हम्किसीसे सहमत नहीं हैं और उसे नायक नहीं मानते तो हमें खलनायक बनाने का प्रयत्न भी नहीं करना चाहिये.
मैं पंडित नेहरू की अनेक नीतियों से असहमत हूं किंतु इससे उनकी महानता कम नहीं आंकता.
एक बहुत ही अच्छे लेख हेतु धन्यवाद.
chintan me daalne vaala post hai yah..
अब ये जो बातें उठ रही हैं ? क्या सस्ती लोकप्रियता का साधन नही है? मेरा मतलब सिर्फ़ नेहरु जी से नही है, अब वो चाहे जैसे भी मरे हों, निजी रुप से मैं भी उनकी कई बातों से सहमत नही रहा, तो इससे क्या उनका योगदान कम हो गया? उनकी निजी जिन्दगी मे वो क्या करते थे, इसको डिसकस करना है तो एक अलग ही किताब लिखी जानी चाहिये, हर इन्सान के दो पहलू होते हैं.
और लिखने वाले बताएं कि हमाम मे कौन कपडे पहन कर नहाता है? सभी नंगे हैं. भाई कब्र मे सोये लोगों को तो चैन से सोने दो.
बहुत सही है आज की ये लाईन : “-जिंदगी में कुछ करना चाहे न करना, कम से कम तुम ठीक तरह मरना!”
रामराम.
सादर
किसी के मूल्यांकन में यदि इतना सन्तुलन और ऐसा विवेकी संयम हो तो विवाद की चटनी अनुपस्थित हो जाएगी और दावत बेमजा। आप सबको जंगलों में भेज देंगे-बैरागी बना कर। कुछ आग्रह, दुराग्रह बनाए रखने की गुंजाइश उपलब्ध कराए रखिएगा वर्ना सब कुछ सफेद और शान्त नजर आएगा-नीरस, रंगहीन।
कुछ सूत्र वाक्य सहेजे हैं। फरसतिया कापी राइट न हो तो लागों पर ‘तालीबी रौब’ झाडने की सुविधा मिल जाएगी। उधार की पूंजी यह है -
‘ज्यादा उमर तक जीना अपनी महिमा के तेज को कम करवाना है। निर्विवाद महान बने रहना है तो दुनिया से जल्दी निकल लेना चाहिये।’
‘यह मजे की बात है कि हर जननायक की पोल उसके मरने के बाद ही खुलती है।’
‘आज जब वे हमारे बीच में नहीं हैं तब उनकी व्यक्तिगत मानवीय कमजोरियों को माइक्रोस्कोप से देखने की बजाय यह देखें कि उन्होंने क्या किया? जो किया क्या हम उसके जैसा या उससे बेहतर कुछ कर सकते हैं।’
‘वैसे भी महान लोगों की पोलें उनके मरने के बाद ही कायदे से खुलती हैं। अभी उनके बारे में क्या परेशान होना जो महानता के पथ पर अग्रसर हैं।’
ये सूक्तियां कुछ को परेशान करेंगी तो कइयों को निश्चिन्त।
कुल मिलाकर ‘मार्निंग इज वेरी गुड’ हो गई।
जय हो फुरसतियाजी की।
जय हिंद जय भारत
आप का ये लेख एक दिन कोर्स की किताबों का हिस्सा होगा। कैलाश बाजपेयी जी की कविता एकदम सटीक है। इतना सुंदर लेख देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।
एकदम सही कहा
मान्यवर, कहा जाता है कि पोस्ट-मैच एनालिसिस करना शायद दुनिया का सबसे आसान काम है लेकिन माहौल की गरमी गेंदबाज का सामना करने वाला बल्लेबाज ही जानता है। आपकी बात बिलकुल सत्य है कि एक कमी किसी जननायक या महान व्यक्तित्व के जीवन को ओवरशैडो नहीं कर सकती। इसमें मेरा यह कथन और शामिल कर लें कि तत्कालीन परिस्थितियों को मद्देनजर रखते हुए ही किसी व्यक्तित्व का सार्थक मूल्यांकन किया जा सकता है। प्रश्न यह भी है कि उन अज़ीम शख्सियतों पर उंगली उठाने वाले स्वयम कितने पाक-साफ हैं और क्या राष्ट्र-निर्माण में उनका शतांश योगदान भी रहा है?
दूसरा प्रश्न यह भी है कि नेहरू के मर्ज या लेनिन की बीमारी हमें क्षणिक उत्तेजना या जुगुप्सा तो दे सकती है लेकिन नेहरू को विदेह या चरित्रभ्रष्ट बनाकर भी हम इस उत्तेजना के अलावा क्या हासिल कर लेंगे? दुःख होता है यह देखकर कि असंख्य सार्थक विष्यों के होते हुए भी आखिर बह्स कुछ रंगीन साइटों या गड़े मुर्दे उखाड़ने तक ही क्यों सीमित रह जाती है! नेहरू पर ही चर्चा करनी है तो उनकी विदेश नीति या औद्योगीकरण नीति की सफ़लता/असफलता/वर्तमान प्रासंगिकताओं पर चर्चा की जा सकती है।
मेरे विचार से हमें शीघ्रातिशीघ्र अपनी प्राथमिकतायें पुनः तय करनी होंगी अथवा ज्यदा दिन नहीं बचे हैं सार्थक चर्चा के इस मंच को अनर्गल प्रलाप और बकवास का अड्डा बनने में…
वैसे बाकी भी ठीक है ! शानदार है ! गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर आपको बधाई !
फिर सोचता हूं…..
आपके दिये गुरुमंत्रो का पालन करने का मन बन रहा है, ये पोस्ट उन सभी लोगों को भेज रहा हूँ जो जल्द ही महान बनना चाहते हैं और अपनी पोल बचाना चाहते हैं।
वैसे “पूछिये फुरसतिया से” के लिये सवाल है कि
१. महान आदमी की “पोल” कहाँ होती है?
२. ऐसी “पोलें” खोलने के बाद कईयों की “बांझे” खिल जाती है, ये “बांझे” कहाँ होती है और किन किन कारणों से खिल / बंद हो जाती है?
गणतंत्र दिवस के पुनीत पर्व के अवसर पर आपको हार्दिक शुभकामना और बधाई .
बारंबार पढ़ने और गुनने योग्य है, आज का यह आलेख ।
अब ‘हनन की मानसिकता’ से उबरने का समय है,
न कि इन गैर-अहम मुद्दों पर ?
आपका आलेख अपने औचित्य के संग भरपूर न्याय कर रहा है ।
धन्यवाद जी ।
यदि भावातिरेक में अपनी प्रतिक्रिया सही तरह से संप्रेषित न कर पाया,
तो आज यह कमी वहन करें, मेरे प्रिय भ्राताश्री !
निन्दा सुख में बडा आनन्द है। इसमें किसी को त्रियाचरित्र साबित करने का मौका मिल जाये तो मजा और भी ज्यादा। सच कहूँ तो इस पोस्ट को पढकर दो बार और पढा, परिपक्वता यूँ ही नहीं आती। हिन्दी ब्लाग जगत में आप, विष्णुबैरागीजी, ज्ञानदत्तजी, दिनेशजी, सुजाताजी जैसों से हमें एक पीढी के बराबर सीखना है। ऐसे ही एक बार हमारे अंकल ने एक बात कही थी कि किसी भी विमर्श/वाद विवाद की पहली शर्त है कि दूसरे पक्ष को ईमानदारी से सम्मान दिया जाये भले ही वो हमारा कितना भी धुरविरोधी क्यों न हो। उसके बाद संवाद में नम्रता बनाये रखना दूसरी शर्त है। इस दोनो के बिना वाद विवाद/विमर्श नहीं होता बल्कि लोग अपने मन की बात चिल्लाकर कह जाते हैं।
अमेरिका के चारित्रिक पतन के बारे में कुछ भी कहें लोग वहाँ चरित्र से ऊपर उठ गये हैं। अपने कैरियर की सबसे बडी गलती के बाद भी क्लिंटन कल्ट फ़िगर हैं सिर्फ़ अपने दिमाग और सोच के कारण। जनता में समझ है कि कब उसे अनफ़ार्गिविंग होना है और कब माफ़ कर देना है।
गणतंत्र दिवस पर हार्दिक बधाई
इस मुद्दे पर हम भी लिखने की सोच कर बैठे थे अब आपने हमसे बेहतर लिख दिया तो लकीर क्या पीटना .
बड़े लोगों के बारे में इस तरह की अनेक बातें चर्चा में रहती हैं और एक तबका ऐसा होता है जो इन चीजों की बात कर कर के खुश होता रहता है हम अभी तक सोचते थे कि ये आम लोगों की ही फितरत होती है पर अभी हाल ही में हेमा मालिनी की इलाहाबाद में आई आई आई टी में अमिताभ बच्चन और जवाहर लाल को लेकर की गई टिप्पणी से पता चला कि ये मानसिकता हर जगह है.
शायद भगत सिंह, सुभाष आदि भाग्यशाली थे कि आजादी के बाद नही रहे.
गणतंत्र दिवस पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.
मैंने “झूठा सच” को तब पढ़ा था जब मैं १२वी में था.
सचमुच इस लेखक को वह सम्मान और ख्याति कभी नही मिल पाई जिसके वो हकदार थे |
बहुत ही सुंदर लेख !!!!!!!!
(अगर आप बिना किसी हर्रे फिटकरी के कोरियन लैंगुएज सीखना चाहते हैं तो मेरे ब्लॉग http://koreanacademy.blogspot.com/ पर आएं |)
कोई ओवरनाईट तो क्या जी कई साल लगाकर भी फुरसतिया नहीं बन सकता. फुरसतिया जी तो एक ही हैं. नेहरू जी के बारे में कही गई बात के बारे में तो हमें एक उक्ति याद आती है;
ग्रेट मेन आर रिमेम्बर्ड फॉर देयर फेल्योर्स एंड ऑर्डिनरी फॉर देयर ट्र्याम्फ्स….
– गणतँत्र दिवस की शुभेच्छाएँ “सुकुल जी”
आपकी विवेकी , परिपक्व सोच बनी रहे -
सिँदूर खरोँचनेवाले अपना काम करते रहेँगेँ
- जो अपना कार्य करना चाहता है, वह करता रहता है –
- लावण्या
एक नीति बन चुकी है विरोध की नीति, चाहे वो तार्किक हो या तर्कहीन, शायद अज्ञानता और विचारहीनता शायद एक बड़ा कारण है. चीजों को ठीक से जानने का समय और धैर्य तो हमारे पास तो है नही, तो जानकारी आए कहाँ से? और जब जानकारी नही तो तर्क कहाँ से, अब कुछ करना भी जरूरी है तो चलो कुतर्क करें.
एक और अच्छी रचना के लिए बधाई.
अच्छी पोस्ट। यही संतुलन और विश्लेषण पढ़ने हम आते हैं फुरसतिया के पास। बैरागी जी ने जो उक्तियां छांटी हैं, उन्हें हमने पहले ही छांट लिया था।
जिनके हाथ हीरे से काले न हों वह उसपर कोयला रगड़ लेते हैं. यह कुछ लोगों का शौक होगा मगर कईयों का व्यवसाय है. ऐसे लोग नकली पासपोर्ट भी छाप सकते हैं और नकली पोस्टमोर्तोम रिपोर्ट भी.
विद्रोही जी की कविता बिल्कुल फिट बैठी है यहाँ पर:
काकभुशुण्ड गरुड़ से बोले
आओ कुछ लड़ जायें चोंचे
चलो किसी मन्दिर के अन्दर
प्रतिमा का सिन्दूर खरोंचे।
कमाल लिखे हैं !
apka blog pda acha likte hai aur duniyadare ko bkhobe samjhte b h tbe syad shabdo s byan kar pate h.
Mai b jaurnalism field ka ek chota sa studet ho aur har smay seek rha ho. Aur aap jai se gyane vidhawane logo k under m rahkar bhut kuch aur sekhana chahta ho. Kya aapka sahyog milega?
Rahul tripathi
MD/EDITOR THE NEWS 1
email-rahultripathi959@gmail.com
mo.9305029350
thanku
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..इधर से गुजरा था सोचा सलाम करता चलूँ…