http://web.archive.org/web/20140419213451/http://hindini.com/fursatiya/archives/594
होली आई और चली गयी। बहुत सारा मौज -मजा हो गया।
मौज मजे के लिये बाहरी ताम-झाम की भी जरूरत पड़ती है। सो एक गाना जो हर चौराहे , गली-मोहल्ले, कोने-अतरे में बजता सुनाई दिया वह था- रंग बरसे भीगे चुनर वाली।
जहां रंग चल रहा था वहां भी चुनर वाली भीग रही थी जहां सूखा पड़ा था वहां भी चुनर वाली भीग रही थी। लड़के जहां होली खेल रहे थे वहां चुनर वाली भीग रही थ। लड़कियां जहां थीं वहां भी चुनर वाली। लोग फ़्राक, सलवार,कुर्ता, साड़ी , पैंट-शर्ट में होली खेल रहे थे लेकिन प्रचार चुनर वाली के भीगने का हो रहा था। पच्चीस साल से भीगते सुन रहे हैं चुनर वाली को। सही में कोई इत्ता भीगता तो डबल निमोनिया हो गया होता अब तक!
कभी-कभी मुझे यह भी लगा कि जब रंग बरस रहा है तो केवल चुनर वाली ही काहे भीग रही है? बाकी लोग सूखे क्यों है? क्या बादल भी अब अपना काम पाइप लाइन के द्वारा करने लगे हैं? सीधे लक्ष्य पर निशाना। केवल चुनरवाली को भिगोना।
चुनरवाली वीआईपी है। अकेले भीगती है। वो भीगती रहती है गोरी का यार पान चबाता रहता है। पच्चीस साल से बेचारा पान चबा रहा है। उसको पता ही नही होगा कि इस बीच कित्ते पान-मसाले आ गये हैं।
यह जो गाना है न रंग बरसे भीगे चुनर वाली वह कुछ लोकगीत टाइप लगता है। अब लग गया सो लग गया। जब लग गया तो यह भी लगा कि शायद इस गाने के मूल बोल कुछ और रहे होंगे! बिगड़ते-बिगड़ते ऐसा हो गया हो गया होगा!
गांव के दिनों की याद आती है! गांव में महिलायें ससुराल आती थीं वे अपने मायके के नाम से जानी जाती थीं। उनके नाम नहीं लिये जाते थे। मायके के उर्मिला, रामप्यारी, बसंती आदि सब नाम गायब हो जाते और बहू बनते ही वे पिपरौली वाली, मवई वाली, राधन वाली बन के रह जातीं! शायद उनके मायके की याद बनाये रखने के लिये ऐसा किया जाता हो लेकिन यह सच है कि लड़कियां बहुयें बनती ही अपने नाम खो देती थीं।
इसी तरह कोई चुनार की लड़की रही होगी। न जाने क्या नाम रहा होगा उसका। जब शादी हुई तो नाम खोकर चुनार वाली बन गयी होगी।
होली में जब नयी-नयी बहू रही होगी तो उसका उसको भिगोते हुये लोगों ने गाया होगा- रंग बरसे भीगे चुनार वाली! वही बाद में बिगड़कर चुनर वाली बन गया होगा। लड़की मना न करे अपने नये नाम को स्वीकारने से इसलिये उसके यार, बीड़ा आदि का झांसा भी दे दिया होगा। ताकि उसका मन लगा रहे!
हम जानते हैं कि आपको लगता होगा कि हम ये सब ऐसे ही कह रहे हैं। लेकिन हमें यही लगता है तो क्या करें।
मगर अब साजन कैसी होली!
तन से सारे रंग भिखारी मन का रंग सोहाया
बाहर-बाहर पूरनमासी अंदर-अंदर आया
अंग-अंग लपटों में लिपटा बोले था एक बोली
तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचोली
मगर अब साजन कैसी होली!
रंग बहुत पर मैं कुछ ऐसी भीगी पापी काया
तूने एक-एक रंग में कितनी बार मुझे दोहराया
मौसम आये मौसम बीते मैंने आंख न खोली
मगर अब साजन कैसी होली!
रंग बहाना रंग जमाना रंग बड़ा दीवाना
रंग में ऐसी डूबी साजन रंग को रंग न जाना
रंगों का इतिहास सजाये रंगो-रंगो होली
मगर अब साजन कैसी होली।
तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचोली
मगर अब साजन कैसी होली!
-वसीम बरेलवी
मौज मजे के लिये बाहरी ताम-झाम की भी जरूरत पड़ती है। सो एक गाना जो हर चौराहे , गली-मोहल्ले, कोने-अतरे में बजता सुनाई दिया वह था- रंग बरसे भीगे चुनर वाली।
जहां रंग चल रहा था वहां भी चुनर वाली भीग रही थी जहां सूखा पड़ा था वहां भी चुनर वाली भीग रही थी। लड़के जहां होली खेल रहे थे वहां चुनर वाली भीग रही थ। लड़कियां जहां थीं वहां भी चुनर वाली। लोग फ़्राक, सलवार,कुर्ता, साड़ी , पैंट-शर्ट में होली खेल रहे थे लेकिन प्रचार चुनर वाली के भीगने का हो रहा था। पच्चीस साल से भीगते सुन रहे हैं चुनर वाली को। सही में कोई इत्ता भीगता तो डबल निमोनिया हो गया होता अब तक!
कभी-कभी मुझे यह भी लगा कि जब रंग बरस रहा है तो केवल चुनर वाली ही काहे भीग रही है? बाकी लोग सूखे क्यों है? क्या बादल भी अब अपना काम पाइप लाइन के द्वारा करने लगे हैं? सीधे लक्ष्य पर निशाना। केवल चुनरवाली को भिगोना।
चुनरवाली वीआईपी है। अकेले भीगती है। वो भीगती रहती है गोरी का यार पान चबाता रहता है। पच्चीस साल से बेचारा पान चबा रहा है। उसको पता ही नही होगा कि इस बीच कित्ते पान-मसाले आ गये हैं।
यह जो गाना है न रंग बरसे भीगे चुनर वाली वह कुछ लोकगीत टाइप लगता है। अब लग गया सो लग गया। जब लग गया तो यह भी लगा कि शायद इस गाने के मूल बोल कुछ और रहे होंगे! बिगड़ते-बिगड़ते ऐसा हो गया हो गया होगा!
गांव के दिनों की याद आती है! गांव में महिलायें ससुराल आती थीं वे अपने मायके के नाम से जानी जाती थीं। उनके नाम नहीं लिये जाते थे। मायके के उर्मिला, रामप्यारी, बसंती आदि सब नाम गायब हो जाते और बहू बनते ही वे पिपरौली वाली, मवई वाली, राधन वाली बन के रह जातीं! शायद उनके मायके की याद बनाये रखने के लिये ऐसा किया जाता हो लेकिन यह सच है कि लड़कियां बहुयें बनती ही अपने नाम खो देती थीं।
इसी तरह कोई चुनार की लड़की रही होगी। न जाने क्या नाम रहा होगा उसका। जब शादी हुई तो नाम खोकर चुनार वाली बन गयी होगी।
होली में जब नयी-नयी बहू रही होगी तो उसका उसको भिगोते हुये लोगों ने गाया होगा- रंग बरसे भीगे चुनार वाली! वही बाद में बिगड़कर चुनर वाली बन गया होगा। लड़की मना न करे अपने नये नाम को स्वीकारने से इसलिये उसके यार, बीड़ा आदि का झांसा भी दे दिया होगा। ताकि उसका मन लगा रहे!
हम जानते हैं कि आपको लगता होगा कि हम ये सब ऐसे ही कह रहे हैं। लेकिन हमें यही लगता है तो क्या करें।
मेरी पसंद
तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचोलीमगर अब साजन कैसी होली!
तन से सारे रंग भिखारी मन का रंग सोहाया
बाहर-बाहर पूरनमासी अंदर-अंदर आया
अंग-अंग लपटों में लिपटा बोले था एक बोली
तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचोली
मगर अब साजन कैसी होली!
रंग बहुत पर मैं कुछ ऐसी भीगी पापी काया
तूने एक-एक रंग में कितनी बार मुझे दोहराया
मौसम आये मौसम बीते मैंने आंख न खोली
मगर अब साजन कैसी होली!
रंग बहाना रंग जमाना रंग बड़ा दीवाना
रंग में ऐसी डूबी साजन रंग को रंग न जाना
रंगों का इतिहास सजाये रंगो-रंगो होली
मगर अब साजन कैसी होली।
तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचोली
मगर अब साजन कैसी होली!
-वसीम बरेलवी
सच्ची।
तूने एक-एक रंग में कितनी बार मुझे दोहराया
मौसम आये मौसम बीते मैंने आंख न खोली
मगर अब साजन कैसी होली!
” ha ha ha ha ha ha ha ha ha bhut mjedaar post ”
Regards
प्रविष्टि का धन्यवाद |
मगर अब साजन कैसी होली!
-हो गया विमर्श चुनरवाली का? अभी होली ठीक से बीती भी नहीं और आप भी चिन्ता लिए बैठ गये. अभी तो खेलिए..यह सब बाद में देख लिया जायेगा,
रंग में ऐसी डूबी साजन रंग को रंग न जाना
रंगों का इतिहास सजाये रंगो-रंगो होली
मगर अब साजन कैसी होली।
बढ़िया रहायह ..हाँ चुनर और चुनार वाली बात लॉजिक तो है इस में बढ़िया लगी यह पोस्ट
मगर अब साजन कैसी होली!
अभी तो रंग पंचमी बाकी है. आपको आजकल चुनर वाली की तबियत की बडी फ़िकर रहती है कि कहीं डबल निमोनिया ना हो जाये? सब ठीक तो है ना?:)
महान समाजशास्त्री डॉक्टर महेश चन्द्र ने अपनी पुस्तक ‘होली का इतिहास’ में लिखा है……..
प्रसंग:कवि ने होली विमर्श के बहाने भारतीय समाज में नारियों की दशा पर गहन चिन्तन किया है . किन्तु यहाँ कवि अपनी भावनाएं पाठकों तक पहुंचाने में पर्याप्त सफ़ल नहीं हो सका है . क्योंकि पाठकों को कवि को हल्के में लेने की बुरी आदत पड़ गयी है !
व्याख्या: भारतीय समाज में नारियों की स्थिति अभी तक किसी खिलौने से ऊपर नहीं उठ सकी है . नारियों को यहाँ उनकी मरजी के खिलाफ़ नाम दिया जाना पुरानी परम्परा रही है . और उनकी अपनी कोई पहचान बना पाना अभी भी टेढ़ी खीर है .
विशेष: कवि ने अन्त में मुस्कराकर माहौल को हल्का करने की कोशिश की है . पर कदाचित कवि को नहीं मालूम कि माहौल तो पहले से ही हल्का है !
अगले साल भी यथावत रहेगी।
अगली होली पर भी यह सुन्दर पोस्ट ठेलेबल है।
- लावण्या
बहुत सुंदर
यही माहौल पचास के दशक में उस समय था जब नागिन फिल्म मे बज तो रही थी बीन पर लता जी गा रही थी- ये कौन बजाए बांसुरिया……:)
wakai maza aa gaya apke blog main aake.
“हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै?”
Ap agar jabriya likhenge to hum jabriya comment bhi karenge.
aur chahe apke blog main follower ka koi option na ho hum to ‘blogroll’ jabriya karange.
ab chahey ise apna apharan manie ya hamara apko padhne ki lalsa
हम तो इतने सालों से मान के बैठे थे कि चुनरवाली सहियै होगा आपने चुनार वाला एंगल फंसा डाला . जबरिया लिखने वालों का लिखा पढने से यही होता है. अब चुनर वाली डाक्टर के पास जाए न जाए पढने वाले जायेंगे ही.
वैसे वसीम बरेलवी की कविता शानदार है