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बतरस लालच लाल की …
By फ़ुरसतिया on March 23, 2009
बचपन में कृष्ण कन्हैया के बारे में ये दोहा पढ़ते थे:
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय,
सौंह करे भौंहन हंसे देन कहे नटि जाय!!
बोले तो गोपियों में किसी नटखट गोपी ने कृष्ण की मुरली छिपा दी है। मुरली बजाना कृष्ण को बड़ा अच्छा लगता है। वे मुरली वापस पाने के लिये हलकान हो रहे हैं। गोपियां इशारा कर रही हैं, भौंहों के इशारे से हंस रहीं हैं देने का वायदा करती हैं लेकिन फ़िर पलट जाती हैं और मुरली वापस नहीं करतीं। वे कन्हैया से बतियाना जो चाहती हैं।
बतरस माने बातों का रस। बातों में रस। रस मतलब मनभावनी बातें। अच्छी लगने वाली बातें। कहन-सुनन चलती रहे। लगता है बातों का सिलसिला चलता रहे।
कन्हैया -गोपियां क्या बातें क्या करते होंगे इसका सिर्फ़ अनुमान ही लगाया जा सकता है। कुछ कहा नहीं जा सकता। कोई रिकार्ड नहीं मिलता इसका। लेकिन जो भी बातें करते होंगे उनका न उस समय कुछ मतलब होता होगा न आज! उनके लिये बतियाने का मतलब सिर्फ़ एक दूसरे के साथ बने रहना, जुड़े रहने का एहसास होगा। मुई मुरली बाधा बनी उनके बतरस में तो उसे रास्ते से हटा दिया। सहेलिया डाह उस समय भी होता होगा। कन्हैया की सहेली होने का मतलब यह तो नहीं होता कि सामान्य मानवीय गुणों को त्याग दे। सहेली का खून खौल जाता होगा यह देखकर कि कन्हैया के मुंह से निकलने वाले मिश्री की डली से मीठे शब्दों को मुई मुरली होंठों पर दरबान की तरह तैनात होकर रोक दे। जिनको सुनने के लिये उनके कान तसरते हों उनको उन तक पहुंचने के लिये कोई रोके यह कैसे बरदास्त कर सकती हैं कोई गोपी!
कुछ दिन पहले अखबार में एक समाचार निकला था। उसके अनुसार ऐसी विधि ईजाद हुई है जिसके द्वारा भूतकाल में हुई गुफ़्तगू को सुना जा सकता है। उदाहरण शायद मुगल महल का दिया गया था कि बादशाह और उनकी रानी के बीच की गुफ़्तगू सुनी गयी। पता नहीं यह कैसे सम्भव है लेकिन खबर थी तो माने लेते हैं। क्या हर्ज है मानने में।
लेकिन बातों के भी न जाने कितने अन्दाज हैं। आंखों से भी बहुत कुछ कहा-सुना जाता है। उसको कौन तकनीक सुनेगी? कभी बिहारी का दोहा पढ़ा था-
कहत-नटत,रीझत-खिझत, मिलत-खिलत-लजियात,
भरे भवन में करत हैं, नैन ही सो बात!!
मतलब सब कुछ आंखों से ही हो लिया। कहना, सुनना, रीझना,खीझना, मिलना,खिलजाना और लाज से दोहरा हो जाना! भरी भीड़ में सब कुछ आंखों ही आंखों से हो लिया। क्या बात है। इसे क्या कहा जाये? बतरस कि अंखरस!
जिससे मन मिलता है उससे बतियाने के लिये विषय नहीं चुनना पड़ता। बातों से बातें निकलती जाती हैं। श्रीकांत वर्मा के बारे में लिखते हुये परसाई जी ने लिखा-
अच्छा आप सोचिये कि आप अपने अजीज दोस्त/चाहने वाले से कब बतियाये? क्या अभी किसी से बतियाने का मन कर रहा है? अगर हां तो पहले उससे बतिया लीजिये तब आगे कुछ करियेगा।
आओ बैठें ,कुछ देर साथ में,
कुछ कह लें,सुन लें ,बात-बात में।
गपशप किये बहुत दिन बीते,
दिन,साल गुजर गये रीते-रीते।
ये दुनिया बड़ी तेज चलती है ,
बस जीने के खातिर मरती है।
पता नहीं कहां पहुंचेगी ,
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी ।
बस तनातनी है, बड़ा तनाव है,
जितना भर लो, उतना अभाव है।
हम कब मुस्काये , याद नहीं ,
कब लगा ठहाका ,याद नहीं ।
समय बचाकर , क्या कर लेंगे,
बात करें , कुछ मन खोलेंगे ।
तुम बोलोगे, कुछ हम बोलेंगे,
देखा – देखी, फिर सब बोलेंगे ।
जब सब बोलेंगे ,तो चहकेंगे भी,
जब सब चहकेंगे,तो महकेंगे भी।
बात अजब सी, कुछ लगती है,
लगता होगा , क्या खब्ती है ।
बातों से खुशी, कहां मिलती है,
दुनिया तो , पैसे से चलती है ।
चलती होगी,जैसे तुम कहते हो,
पर सोचो तो,तुम कैसे रहते हो।
मन जैसा हो, तुम वैसा करना,
पर कुछ पल मेरी बातें गुनना।
इधर से भागे, उधर से आये ,
बस दौड़ा-भागी में मन भरमाये।
इस दौड़-धूप में, थोड़ा सुस्ता लें,
मौका अच्छा है ,आओ गपिया लें।
आओ बैठें , कुछ देर साथ में,
कुछ कह ले,सुन लें बात-बात में।
अनूप शुक्ल
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय,
सौंह करे भौंहन हंसे देन कहे नटि जाय!!
बोले तो गोपियों में किसी नटखट गोपी ने कृष्ण की मुरली छिपा दी है। मुरली बजाना कृष्ण को बड़ा अच्छा लगता है। वे मुरली वापस पाने के लिये हलकान हो रहे हैं। गोपियां इशारा कर रही हैं, भौंहों के इशारे से हंस रहीं हैं देने का वायदा करती हैं लेकिन फ़िर पलट जाती हैं और मुरली वापस नहीं करतीं। वे कन्हैया से बतियाना जो चाहती हैं।
बतरस माने बातों का रस। बातों में रस। रस मतलब मनभावनी बातें। अच्छी लगने वाली बातें। कहन-सुनन चलती रहे। लगता है बातों का सिलसिला चलता रहे।
कन्हैया -गोपियां क्या बातें क्या करते होंगे इसका सिर्फ़ अनुमान ही लगाया जा सकता है। कुछ कहा नहीं जा सकता। कोई रिकार्ड नहीं मिलता इसका। लेकिन जो भी बातें करते होंगे उनका न उस समय कुछ मतलब होता होगा न आज! उनके लिये बतियाने का मतलब सिर्फ़ एक दूसरे के साथ बने रहना, जुड़े रहने का एहसास होगा। मुई मुरली बाधा बनी उनके बतरस में तो उसे रास्ते से हटा दिया। सहेलिया डाह उस समय भी होता होगा। कन्हैया की सहेली होने का मतलब यह तो नहीं होता कि सामान्य मानवीय गुणों को त्याग दे। सहेली का खून खौल जाता होगा यह देखकर कि कन्हैया के मुंह से निकलने वाले मिश्री की डली से मीठे शब्दों को मुई मुरली होंठों पर दरबान की तरह तैनात होकर रोक दे। जिनको सुनने के लिये उनके कान तसरते हों उनको उन तक पहुंचने के लिये कोई रोके यह कैसे बरदास्त कर सकती हैं कोई गोपी!
कुछ दिन पहले अखबार में एक समाचार निकला था। उसके अनुसार ऐसी विधि ईजाद हुई है जिसके द्वारा भूतकाल में हुई गुफ़्तगू को सुना जा सकता है। उदाहरण शायद मुगल महल का दिया गया था कि बादशाह और उनकी रानी के बीच की गुफ़्तगू सुनी गयी। पता नहीं यह कैसे सम्भव है लेकिन खबर थी तो माने लेते हैं। क्या हर्ज है मानने में।
लेकिन बातों के भी न जाने कितने अन्दाज हैं। आंखों से भी बहुत कुछ कहा-सुना जाता है। उसको कौन तकनीक सुनेगी? कभी बिहारी का दोहा पढ़ा था-
कहत-नटत,रीझत-खिझत, मिलत-खिलत-लजियात,
भरे भवन में करत हैं, नैन ही सो बात!!
मतलब सब कुछ आंखों से ही हो लिया। कहना, सुनना, रीझना,खीझना, मिलना,खिलजाना और लाज से दोहरा हो जाना! भरी भीड़ में सब कुछ आंखों ही आंखों से हो लिया। क्या बात है। इसे क्या कहा जाये? बतरस कि अंखरस!
जिससे मन मिलता है उससे बतियाने के लिये विषय नहीं चुनना पड़ता। बातों से बातें निकलती जाती हैं। श्रीकांत वर्मा के बारे में लिखते हुये परसाई जी ने लिखा-
जब भी मैं श्रीकांत या मुक्तिबोध के साथ बैठता या हम तीनों एक साथ होते , दुनिया भर की बातें होंती, पर साहित्य की सबसे कम! भोपाल में एक पूरी रात हम लोगों ने चाय पी-पीकर सड़क चलते हुये बातें करते गुजार दीं। मुक्तिबोध ने लिखा भी है-लोग अपने पुराने दिनों/दोस्तों को याद करते हैं तो यह जरूर करते हैं कि वे कित्ता बतियाते थे। समय का कोई ख्याल नहीं रहता। पुराना समय उनकी स्मृति में स्थिर दीखता है। उसे वापस भले न लाया जा सके लेकिन वह समय बार-बार हांट करता है जब वे बेमतलब न जाने क्या-क्या बतिया लेते थे।
कल जो हमने बातें की थीं
बात बात में रातें की थीं!
अच्छा आप सोचिये कि आप अपने अजीज दोस्त/चाहने वाले से कब बतियाये? क्या अभी किसी से बतियाने का मन कर रहा है? अगर हां तो पहले उससे बतिया लीजिये तब आगे कुछ करियेगा।
मेरी पसन्द
आओ बैठें ,कुछ देर साथ में,
कुछ कह लें,सुन लें ,बात-बात में।
गपशप किये बहुत दिन बीते,
दिन,साल गुजर गये रीते-रीते।
ये दुनिया बड़ी तेज चलती है ,
बस जीने के खातिर मरती है।
पता नहीं कहां पहुंचेगी ,
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी ।
बस तनातनी है, बड़ा तनाव है,
जितना भर लो, उतना अभाव है।
हम कब मुस्काये , याद नहीं ,
कब लगा ठहाका ,याद नहीं ।
समय बचाकर , क्या कर लेंगे,
बात करें , कुछ मन खोलेंगे ।
तुम बोलोगे, कुछ हम बोलेंगे,
देखा – देखी, फिर सब बोलेंगे ।
जब सब बोलेंगे ,तो चहकेंगे भी,
जब सब चहकेंगे,तो महकेंगे भी।
बात अजब सी, कुछ लगती है,
लगता होगा , क्या खब्ती है ।
बातों से खुशी, कहां मिलती है,
दुनिया तो , पैसे से चलती है ।
चलती होगी,जैसे तुम कहते हो,
पर सोचो तो,तुम कैसे रहते हो।
मन जैसा हो, तुम वैसा करना,
पर कुछ पल मेरी बातें गुनना।
इधर से भागे, उधर से आये ,
बस दौड़ा-भागी में मन भरमाये।
इस दौड़-धूप में, थोड़ा सुस्ता लें,
मौका अच्छा है ,आओ गपिया लें।
आओ बैठें , कुछ देर साथ में,
कुछ कह ले,सुन लें बात-बात में।
अनूप शुक्ल
देखा – देखी, फिर सब बोलेंगे ।
जब सब बोलेंगे ,तो चहकेंगे भी,
जब सब चहकेंगे,तो महकेंगे भी।
” खुबसुरत पंक्तियाँ…..चहकना महकना…..क्या बात है..”
Regards
सौंह करे भौंहन हंसे देन कहे नटि जाय!! क्या बात है …बहूत खूब
रामराम.
इस दौड़-धूप में, थोड़ा सुस्ता लें,
मौका अच्छा है ,आओ गपिया लें।
कुछ उस तरह से कि; “जीवन अपने आप में अमूल्य होता है..” शायद ऐसा ही शीर्षक था.
वैसे डॉ अरविन्द मिश्रा की टिप्पणी भी विचारणीय है
समयचक्र: चिठ्ठी चर्चा : आज ” धरती -प्रहर” में एक वोट धरती को भी दीजिये