http://web.archive.org/web/20140419213800/http://hindini.com/fursatiya/archives/599
जन प्रतिनिधि और आचार संहिता
By फ़ुरसतिया on March 26, 2009
आजकल जनप्रतिनियों के बारह बजे हैं। वे हलकान हैं। चुनाव के मौसम में
पचास लफ़ड़े हैं। एक तो टिकट जुगाड़ने में ही फ़िचकुर निकल जाता है इसके बाद
प्रचार की मारामारी। जनता के बीच जाओ। वोट मांगो। सबको भरमाओ । शेखचिल्ली
सपने देखो दिखाओ।
चुनाव भी अब पहले की तरह आसान नहीं रहे। जनता नेता को जोकरों की तरह झुलाती है। उसके मनोरंजन के लिये जनप्रतिनिधि को कभी गजनी जैसा बनकर दिखाना पड़ता है, कभी सजनी जैसा। शक्ति प्रदर्शन, गाली-गलौज तो कोई बात नहीं वो तो चलता ही रहता है।
इधर एक नई आफ़त आफ़त आ गयी है चुनाव आचार संहिता की। पहिले तो जनप्रतिधि समझते रहें होंगे कि आचार संहिता भी कोई अचार जैसी चटखारे दार चीज होती होगी। लेकिन जब लगी तो मिर्ची जैसी लगी। जिसको लगती है पानी मांगने लगता है। सफ़ाई देते-देते जबान खिया जाती है।
जनप्रतिनिधि बेचारा कुछ भी करता है करने के बाद पता चलता है यह काम तो आचार संहिता के खिलाफ़ था। पैसा बांटो तो आफ़त, गाली दो तो आफ़त, धमकाओ तो आफ़त, दूसरे धर्म की निन्दा करो तो आफ़त, गुंडे लगाओ तो आफ़त, बूथ कैप्चर करो तो आफ़त, राहत कार्य करो तो आफ़त। मतलब चुनाव जीतना का कॊई काम करो तो आफ़त। जनप्रतिनिधि को खुल के खेलने ही नहीं दिया जाता। कैसे लड़े वो चुनाव!
चुनाव आयोग जनता और नेता के मिलन मे दीवार की तरह खड़ा हो जाता है। अब बताओ कहता है चुनाव में पैसा न बांटो! अब बताओ आजकल कहीं उधारी में काम चलता है? लोग कहते भी हैं उधार प्रेम की कैंची है। जो एडवांस पेमेंट देगा सामान तो उसी का होगा न!
चुनाव आयोग और जनप्रतिनिधि के बीच वैचारिक मतभेद भी एक लफ़ड़ा है। चुनाव आयोग मानता है कि जो जनप्रतिनिधि चुनाव जीते बिना गड़बड़ तरीक अपनाता है वो चुनाव जीतने के बाद क्या करेगा? और गड़बड़। वहीं जनप्रतिनिधि मानता है कि जनता समझती होगी कि जो जनप्रतिनिधि चुनाव के पहले हमारे लिये पैसा खर्चा नहीं कर सकता वो बाद में क्या करेगा?
अब चूंकि जनप्रतिनिधि बहुत हलकान हैं। उनका भाषण लिखने वाले ही उनको नहीं मिल रहे। ऐसे में अगर कोई जनप्रतिनिधि अगर चुनाव आयोग की नजरों में फ़ंस जाये तो क्या कर सकता है?
अब एक बार फ़ंसने के बाद जनप्रतिनिधि के फ़ंसने के बाद उसके करने के लिये कुछ बचता तो नहीं है क्योंकि जो करना होता है वह तो चुनाव आयोग को करना है लेकिन फ़िर भी ऐसी स्थिति में फ़ंसने पर बचने के लिये कुछ लचर बहाने यहां पेश किये जा रहे हैं जो जनप्रतिनिधि अपने हिसाब से जनता/चुनाव आयोग के सामने पेश कर सकता है।
हम अपने वोटरों को शिक्षित कर रहे थे। उनके वोट की कीमत समझा रहे थे।
वो मान ही नहीं रहे थ कि उनके वोट की कोई कीमत भी होती है। फ़िर हमने बताया
कि वोट की ये कीमत ये होती है। ये तो बयाना है। बाकी बाद में मिलेगा। तो
साहब हम तो जनता को जागरूक कर रहे थे। उनको उनके अधिकार के महत्व के बारे
में बता रहे थे।
चुनाव सभा में ऐसे ही एक वोटर ने पूछा ने पूछा कि बेल आऊट पैकेज क्या
होता है? हमने अमेरिका का उदाहरण देकर समझाया कि दीवालिया कम्पनियों को
अमेरिकन सरकार जो पैसा देती है उसे बेल आउट पैकेज कहते हैं।जनता ने जिद की
उदाहरण देकर समझाओ। तो हमको जनता को उदाहरण देकर समझाना पड़ा। अब जनता को
जागरूक करना कैसे आचार संहिता के खिलाफ़ हो गया हमें तो कुछ समझ में नहीं
आता।
हम भड़काऊ और धमकाऊ भाषण नहीं दे रहे थे। हम तो जनता को समझा रहे थे कि
दूसरे धर्मों के खिलाफ़ उल्टी-सीधी बातें नहीं बोलनी चाहिये जिससे वैमनस्य
फ़ैले। जनता कहने लगी आप मुझे उदाहरण देकर समझाओ कि भड़काऊ भाषण क्या होता
है, कैसे देते हैं? जनता की जनकारी के लिये फ़िर मुझे मन मारकर समझाना पड़ा।
अब जनता को वैमनस्य से दूर रखने के लिये उसको समझाना भी अगर गुनाह है तो हम
क्या कर सकते हैं।
नयी परियोजना का उद्घाटन हमें करने में कोई जल्दी नहीं थी। जहां दस साल
लटकी रही वहां दस साल और लटक जाती लेकिन हमें भारतीय संस्कृति ने परेशान
कर दिया। हमारे दिमाग में बार-बार कैसेट बजने लगा -काल्ह करे सो आज कर। सो
हमने दिल पर पत्थर रखकर पत्थर लगवा दिया। अब संस्कृति का पालन भी गुनाह हो
गया क्या?
हम असल में जनता से कभी मिल पाते नहीं। पांच साल देश की समस्याओं में
उलझे रहते हैं। जब मिले तो मन के भाव उमड़ पड़े और मन किया कि सब हिसाब-किताब
अभी कर दिया। जैसे फ़िल्मों में बिछड़े भाई मिलते हैं तोन जाने क्या करते
बोलते हैं। वैसे ही हमें होश ही नहीं रहा कि हमने क्या किया और क्या हो
गया। अब अगर भाई-भाई के बीच में लेन-देन को भी आप आचार संहिता का उल्लंघन
मानेंगे तो देश का सारा सद्भाव ही गड़बड़ा जायेगा।
बहाने और भी हैं लेकिन उनको बताने में दफ़्तर की आचार संहिता की उलंधन हो
सकता है जहां कोई बहाना नहीं चलता इसलिये फ़िलहाल इत्ते से ही संतोष करें।
चुनाव भी अब पहले की तरह आसान नहीं रहे। जनता नेता को जोकरों की तरह झुलाती है। उसके मनोरंजन के लिये जनप्रतिनिधि को कभी गजनी जैसा बनकर दिखाना पड़ता है, कभी सजनी जैसा। शक्ति प्रदर्शन, गाली-गलौज तो कोई बात नहीं वो तो चलता ही रहता है।
इधर एक नई आफ़त आफ़त आ गयी है चुनाव आचार संहिता की। पहिले तो जनप्रतिधि समझते रहें होंगे कि आचार संहिता भी कोई अचार जैसी चटखारे दार चीज होती होगी। लेकिन जब लगी तो मिर्ची जैसी लगी। जिसको लगती है पानी मांगने लगता है। सफ़ाई देते-देते जबान खिया जाती है।
जनप्रतिनिधि बेचारा कुछ भी करता है करने के बाद पता चलता है यह काम तो आचार संहिता के खिलाफ़ था। पैसा बांटो तो आफ़त, गाली दो तो आफ़त, धमकाओ तो आफ़त, दूसरे धर्म की निन्दा करो तो आफ़त, गुंडे लगाओ तो आफ़त, बूथ कैप्चर करो तो आफ़त, राहत कार्य करो तो आफ़त। मतलब चुनाव जीतना का कॊई काम करो तो आफ़त। जनप्रतिनिधि को खुल के खेलने ही नहीं दिया जाता। कैसे लड़े वो चुनाव!
चुनाव आयोग जनता और नेता के मिलन मे दीवार की तरह खड़ा हो जाता है। अब बताओ कहता है चुनाव में पैसा न बांटो! अब बताओ आजकल कहीं उधारी में काम चलता है? लोग कहते भी हैं उधार प्रेम की कैंची है। जो एडवांस पेमेंट देगा सामान तो उसी का होगा न!
चुनाव आयोग और जनप्रतिनिधि के बीच वैचारिक मतभेद भी एक लफ़ड़ा है। चुनाव आयोग मानता है कि जो जनप्रतिनिधि चुनाव जीते बिना गड़बड़ तरीक अपनाता है वो चुनाव जीतने के बाद क्या करेगा? और गड़बड़। वहीं जनप्रतिनिधि मानता है कि जनता समझती होगी कि जो जनप्रतिनिधि चुनाव के पहले हमारे लिये पैसा खर्चा नहीं कर सकता वो बाद में क्या करेगा?
अब चूंकि जनप्रतिनिधि बहुत हलकान हैं। उनका भाषण लिखने वाले ही उनको नहीं मिल रहे। ऐसे में अगर कोई जनप्रतिनिधि अगर चुनाव आयोग की नजरों में फ़ंस जाये तो क्या कर सकता है?
अब एक बार फ़ंसने के बाद जनप्रतिनिधि के फ़ंसने के बाद उसके करने के लिये कुछ बचता तो नहीं है क्योंकि जो करना होता है वह तो चुनाव आयोग को करना है लेकिन फ़िर भी ऐसी स्थिति में फ़ंसने पर बचने के लिये कुछ लचर बहाने यहां पेश किये जा रहे हैं जो जनप्रतिनिधि अपने हिसाब से जनता/चुनाव आयोग के सामने पेश कर सकता है।
सही बात है ये लोग समझने को ही तैयार नही हैं.:)
रामराम.
http://raviratlami.blogspot.com/2007/03/blog-blogger-bloggest-rules.html
हर उम्मीदवार को कम से कम स्नातक होना जरूरी हो ये भी अनिवार्य कर दिया जाये …
इसीलिए तो अब जनता एडवांस से खुश नहीं होती, उन्हें पगडी भी चाहिए। केवल पैसा नहीं, कर्ज़ माफी, कलर टीवी, नैनो आदि इसी पगडी का हिस्सा है ना!!:)
अभिवंदन
आचार संहिता पर लिखे विस्तृत आलेख और इसमें निहित उद्देश्य के हम भी समर्थक हैं.
- विजय तिवारी ‘ किसलय ‘
Haan, phirbhee tippanee de rahee hun…itne saare logonme bas meree haazree bhar hai.
aadarsahit
Shama
ये नेता लोग इत्ते दुष्ट हैँ कि
“आचार सँहिता ” गँगाजल मेँ घोल कर पी जाते हैँ
———–
तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन