http://web.archive.org/web/20140419214914/http://hindini.com/fursatiya/archives/604
मेरे मन उदास मत होइयो,
जगह मिले जहां धंसि जइयो।
टिकट हित चरनन में बिछि जइयो,
फ़िरौ मिले न दूसरे दल भगि जइयो।
वहां अपनी सब पीड़ा कहि देइयो,
टिकट पाइ चुनाव लड़ि जइयो।
तबहूं न मिलै तो निर्दलीय भिड़ि जइयो,
लटका-झटका सब धांस के देखइयो।
मंह में राम बगल छूरी न रखियो,
मुंह में भी छुरी तेज लगवइयो।
सब विरोधिन को मुख-छूरी से कटियो,
आयोग कहे कुछ झट से पलट जइयो।
चुनाव में एकदम नेचुरल होई जइयो,
बेशरमी में तनिकौ पीछे न रहियो।
कुछ दिन की बात है मेरे भइयो,
मेरे मन उदास मत होइयो।
मुंह में भी छुरी तेज लगवैइयो।…”
लगता है आपके हीरो के दांत नहीं हैं – औसत भारतीय राजनीतिज्ञ जैसे जो 70 साल के बूढ़े हो गए हैं, इसीलिए, नहीं तो आप कहते -
अपने दांतों में धार करिवैयो….
मेरी कलम – मेरी अभिव्यक्ति
यह असली ‘चुनाव आचार संहिता’ है जिसका पालन कराने के लिए किसी ‘ऑब्जर्वर’ की जरूरत नहीं पड़ती।
क्यों कि कठिनतम चुनाव
भी न कर सकेगा कम,
तनिक क्षणिक तेरा भाव!
राह में रह अग्रसर
ब्लॉग में न रहे कसर
शांत भाव से ठेल कर
देख जन की हांव-हांव!
हमारे अंतिम पंक्ति यों होते.
मुंह में भी छुरी तेज लगवैइयो।
” हा हा हा हा हा हा हा हा हा खूब कही आज तो ..”
Regards
कुछ ताम करो कुछ झाम करो
दक्षिणपंथी या वाम करो
‘वातावरण’…. हलकायमान है
तभी ऐसा विषाद उपजता है !
- लावण्या
और इस पंक्ति पर तो खूब हँसा — जगह मिले जहां धंसि जइयो।
यदि अवसर परे गुरु को भी गरियईयो
बहुत मजेदार.
लगता है पहले उन्होंने ने आपकी बात आत्मसात कर ली है फिर आपने इसको हमें पढ़वाया.