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चल सनीमा देखन को जायें गो्री
By फ़ुरसतिया on April 3, 2009
हम सनीमा देखने के ज्यादा शौकीन कभी नहीं रहे। इत्ते तो कत्तई नहीं रहे
कि घर, स्कूल से भाग कर या ब्लैक में टिकट लेकर सिनेमा देखने के हसीन
किस्से यादों की पोटली में हों। सिनेमा हाल में हमें नहीं लगता कि हमने
पचास पिक्चरें भी देखीं होगी। पहली पिक्चर शायद संगीत टाकीज में देखी थी।
जिसमें राजकुमार का डायलाग है- जिनके घर कांच के होते हैं……।
वो पिक्चर हमने सबसे आगे बैठकर देखी थी। उस समय और उसके बहुत बाद तक भी मुझे यह समझ में नहीं आया कि लोग ज्यादा पैसा खर्च करके पीछे बैठकर काहे पिक्चर देखते हैं। अजीब बेवकूफ़ हैं।
बाद में समझ में आया कि पीछे से मजा लेने के मजे ही कुछ और हैं। कुछ लोग हमेशा पीछे रहकर ही आराम से तमाशा देखते/ मजा लेते रहते हैं। वेवकूफ़ नहीं समझदार लोग होते हैं पीछे से मजा लेने वाले!
लेकिन आज भी अगर सिनेमा हाल में आगे का टिकट लेना पड़ता है या मिल जाता है तो पिक्चर मुझे बिना देखे ही कुछ -कुछ अच्छी लगने लगती है।
दूसरा सनीमा हमने देखा था सन्यासी। मनोज कुमार की। चल सन्यासी मंदिर में वाला गाना अब भी याद आ जाता है।
बाद में टेलीविजन के दिन आये तो अगल-बगल के घरों में जमीन पर बैठकर श्रद्धा से सिनेमा देखने का क्रम कुछ दिन चला फ़िर वह भी ठप्प हो गया।
इसके बाद बहुत कम पिक्चरें देखीं। शाहजहांपुर में आठ साल के दौरान मैंने शायद आठ पिक्चरें भी न देखीं हों। वहां सिनेमा अरुचि का मामला तो यहां तक था कि घर वालों को सनीमा हाल में बैठा कर घर आ जाते और बाद में सनीमा खतम होने पर ले आते।
कानपुर में आने पर हालत में कुछ क्या बहुत सुधार हुआ है। बहुत सारी पिक्चरें देख के डाल दीं। घर में जब भी कोई कहता हम चल देते। कुछ हमारे पारिवारिक मित्र भी हैं जो साथ ले जाते हैं। हम सनीमा देख आते हैं।
जो पिक्चरें एक बार देख लीं वो कभी दुबारा टी.वी. पर आती है तो पूरी देखने का कम ही मामला बन पाता है। मन करता है कि ये सनीमा भी पोस्ट की तरह होता जिसे आगे-पीछे करके देख लेते और अपने मनचाहे सीन का मजा लेकर दुकान बंद कर देते।
इसी चक्कर में पहली बार ब्लैक और फ़िर मुगले आजम पिक्चर की सीडी खरीद के लाये। ब्लैक फ़िल्म में जब रानी मुखर्जी एडमिशन के लिये इंटरव्यू देती है वो सीन हमने कई वार देखा। बार -बार देखा है। रानी मुखर्जी का गजब का आत्मविश्वास देखकर मन खुश हो जाता है। हर बार लगता है पहली बार देख रहे हैं। बाद में वो सीडी एक किसी को जन्मदिन के उपहार के रूप में दे दी।
लोग बताते हैं हमारे पिताजी पिक्चर देखने के बड़े शौकीन थे। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि हम भाइयों के नाम उन्होंने चलती का नाम गाड़ी के हीरों लोगों की तर्ज पर रखे हैं। फ़िल्म के हीरो थे- अशोक कुमार, किशोर कुमार, अनूप कुमार। हम तीन भाइयों के नाम भी अशोक , किशोर ,अनूप थे।
थे इसलिये कि पिछले वर्ष हममें से सबसे बड़े भाई अशोक का निधन हो गया और चलती हुई गाड़ी पंक्चर हो गयी।
यह संयोग है ही है हमने तमाम बेहतरीन फ़िल्में बिना उनके बारे में जाने हुये देखीं। बिना समीक्षा पढ़े हुये गये और देख डाली। अच्छी लगी तो मन खुश हो गया कि बिना किसी आशा के गये और अच्छी पिक्चर देख के आये।
तमाम साथी लोग जब पिक्चर देखकर आते हैं तो समीक्षा करते हैं। उनकी जानकारी का स्तर देखकर ताजजुब होता है। गीत, संगीत, कथा,पटकथा, संवाद और सनीमा के हर पहलू के बारे में बड़ी अच्छी तरह लिखते हैं। हमारी जानकारी का स्तर इत्ता नहीं है कि किसी फ़िल्म की समीक्षा कर दें।
अब जब हिन्दी फ़िल्मों का यह हाल है तो समझ लीजिये अंग्रेजी का कौन हवाल होगा। मुझे नहीं लगता कि मेरे द्वारा देखी गयी अंग्रेजी की पिक्चरों की संख्या दो अंको में भी होगी। इसीलिये जब कहीं विदेशी फ़िल्मों के बारे में बात होती है तो भुच्च बने पढ़ने -सुनने के अलावा और कोई योगदान नहीं कर पाते। कभी-कभी लगता है कि दुनिया भर के इत्ते अच्छी-अच्छी फ़िल्मों के बारे में हम कुच्छ नहीं जानते। लेकिन यह कमी का एहसास इत्ता घना नहीं होता कि हम फ़टाक से कसम खाकर हफ़्ते में एक पिक्चर देखने लगें।
इस बीच पिक्चर देखना बढ़ने का कारण भी मैंने सोचा है कि क्या हो सकता है? हम अपने घर वालों से अक्सर कहते हैं कि मल्टीप्लेक्स में आना इसलिये अच्छा लगता है कि यहां तमाम अच्छी-अच्छी शक्ल वाले लोग दिखते हैं। सब खुश-खुश। वातावरण आरामदेह। सब खुश-खिलखिलाते -मुस्कराते हुये। किसी को कोई कष्ट नहीं। नहिं दरिद्र कोऊ दुखी न दीना/नहि कोऊ अबुध न लच्छन हीना।
मैं यह भी कहता हूं कि अगर घर के पास होता तो मैं रोज मल्टीप्लेक्स में आता। एकाध दो घंटे बैठता। खुश-खुश खूबसूरत लोगों को देखता और चला जाता। न कोई खर्चा न कुछ। मुफ़्त में मन खुश।
आजकल तमाम शहरों में मल्टीप्लेक्स बन रहे हैं। अभी शायद कहीं प्रवेश शुल्क नहीं है। केवल कार-स्कूटर पार्किंग का खर्चा है। बिजली हमेशा रहती है। लगभग सारे माल बस्तियों के बीच बने हैं। शहरों में बिजली गायब। माल जगमगा रहा है। शहर में आदमी पसीने-पसीने है माल में ठंडी-ठंडी कूल-कूल हवा है।
कल को अगर ऐसा हो कि तमाम भीड़ माल में घुस जाये। लेना देना कुछ नहीं बस हवा खाना है। गर्मी से निजात पाने के लिये फ़टेहाल, हलकान लोग जाकर वहां बैठ जायें और बैठे रहें तब क्या होगा?
पहले तो शायद उनको टिकट (प्रवेश शुल्क) लगाकर रोका जाये। तब भी शायद लोग प्रवेश देकर भी गर्मी से निजात पाना चाहें। जो हो लेकिन तब माल वालों की हाल बेहाल जरूर होंगे। वे उस जनता को जरूर अपने यहां से रोकना चाहेंगे जो उनकी ग्राहक नहीं है। ग्राहकों की सुविधा से बचने के लिये दी जाने वाली सुविधाओं का दुरुपयोग कोई माल-मालिक नहीं होने देना चाहेगा।
मुफ़्त सेवायें भी मुफ़्त में नहीं मिलतीं।
हम भी कहां से कहां पहुंच गये पिक्चरों की बात करते-करते। बहक गये। इसीलिये शायद हम पिक्चरें कम देखते रहे।
ऊपर का फोटॊ यहां से आभार सहित।
वो पिक्चर हमने सबसे आगे बैठकर देखी थी। उस समय और उसके बहुत बाद तक भी मुझे यह समझ में नहीं आया कि लोग ज्यादा पैसा खर्च करके पीछे बैठकर काहे पिक्चर देखते हैं। अजीब बेवकूफ़ हैं।
बाद में समझ में आया कि पीछे से मजा लेने के मजे ही कुछ और हैं। कुछ लोग हमेशा पीछे रहकर ही आराम से तमाशा देखते/ मजा लेते रहते हैं। वेवकूफ़ नहीं समझदार लोग होते हैं पीछे से मजा लेने वाले!
लेकिन आज भी अगर सिनेमा हाल में आगे का टिकट लेना पड़ता है या मिल जाता है तो पिक्चर मुझे बिना देखे ही कुछ -कुछ अच्छी लगने लगती है।
दूसरा सनीमा हमने देखा था सन्यासी। मनोज कुमार की। चल सन्यासी मंदिर में वाला गाना अब भी याद आ जाता है।
बाद में टेलीविजन के दिन आये तो अगल-बगल के घरों में जमीन पर बैठकर श्रद्धा से सिनेमा देखने का क्रम कुछ दिन चला फ़िर वह भी ठप्प हो गया।
इसके बाद बहुत कम पिक्चरें देखीं। शाहजहांपुर में आठ साल के दौरान मैंने शायद आठ पिक्चरें भी न देखीं हों। वहां सिनेमा अरुचि का मामला तो यहां तक था कि घर वालों को सनीमा हाल में बैठा कर घर आ जाते और बाद में सनीमा खतम होने पर ले आते।
कानपुर में आने पर हालत में कुछ क्या बहुत सुधार हुआ है। बहुत सारी पिक्चरें देख के डाल दीं। घर में जब भी कोई कहता हम चल देते। कुछ हमारे पारिवारिक मित्र भी हैं जो साथ ले जाते हैं। हम सनीमा देख आते हैं।
जो पिक्चरें एक बार देख लीं वो कभी दुबारा टी.वी. पर आती है तो पूरी देखने का कम ही मामला बन पाता है। मन करता है कि ये सनीमा भी पोस्ट की तरह होता जिसे आगे-पीछे करके देख लेते और अपने मनचाहे सीन का मजा लेकर दुकान बंद कर देते।
इसी चक्कर में पहली बार ब्लैक और फ़िर मुगले आजम पिक्चर की सीडी खरीद के लाये। ब्लैक फ़िल्म में जब रानी मुखर्जी एडमिशन के लिये इंटरव्यू देती है वो सीन हमने कई वार देखा। बार -बार देखा है। रानी मुखर्जी का गजब का आत्मविश्वास देखकर मन खुश हो जाता है। हर बार लगता है पहली बार देख रहे हैं। बाद में वो सीडी एक किसी को जन्मदिन के उपहार के रूप में दे दी।
लोग बताते हैं हमारे पिताजी पिक्चर देखने के बड़े शौकीन थे। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि हम भाइयों के नाम उन्होंने चलती का नाम गाड़ी के हीरों लोगों की तर्ज पर रखे हैं। फ़िल्म के हीरो थे- अशोक कुमार, किशोर कुमार, अनूप कुमार। हम तीन भाइयों के नाम भी अशोक , किशोर ,अनूप थे।
थे इसलिये कि पिछले वर्ष हममें से सबसे बड़े भाई अशोक का निधन हो गया और चलती हुई गाड़ी पंक्चर हो गयी।
यह संयोग है ही है हमने तमाम बेहतरीन फ़िल्में बिना उनके बारे में जाने हुये देखीं। बिना समीक्षा पढ़े हुये गये और देख डाली। अच्छी लगी तो मन खुश हो गया कि बिना किसी आशा के गये और अच्छी पिक्चर देख के आये।
तमाम साथी लोग जब पिक्चर देखकर आते हैं तो समीक्षा करते हैं। उनकी जानकारी का स्तर देखकर ताजजुब होता है। गीत, संगीत, कथा,पटकथा, संवाद और सनीमा के हर पहलू के बारे में बड़ी अच्छी तरह लिखते हैं। हमारी जानकारी का स्तर इत्ता नहीं है कि किसी फ़िल्म की समीक्षा कर दें।
अब जब हिन्दी फ़िल्मों का यह हाल है तो समझ लीजिये अंग्रेजी का कौन हवाल होगा। मुझे नहीं लगता कि मेरे द्वारा देखी गयी अंग्रेजी की पिक्चरों की संख्या दो अंको में भी होगी। इसीलिये जब कहीं विदेशी फ़िल्मों के बारे में बात होती है तो भुच्च बने पढ़ने -सुनने के अलावा और कोई योगदान नहीं कर पाते। कभी-कभी लगता है कि दुनिया भर के इत्ते अच्छी-अच्छी फ़िल्मों के बारे में हम कुच्छ नहीं जानते। लेकिन यह कमी का एहसास इत्ता घना नहीं होता कि हम फ़टाक से कसम खाकर हफ़्ते में एक पिक्चर देखने लगें।
इस बीच पिक्चर देखना बढ़ने का कारण भी मैंने सोचा है कि क्या हो सकता है? हम अपने घर वालों से अक्सर कहते हैं कि मल्टीप्लेक्स में आना इसलिये अच्छा लगता है कि यहां तमाम अच्छी-अच्छी शक्ल वाले लोग दिखते हैं। सब खुश-खुश। वातावरण आरामदेह। सब खुश-खिलखिलाते -मुस्कराते हुये। किसी को कोई कष्ट नहीं। नहिं दरिद्र कोऊ दुखी न दीना/नहि कोऊ अबुध न लच्छन हीना।
मैं यह भी कहता हूं कि अगर घर के पास होता तो मैं रोज मल्टीप्लेक्स में आता। एकाध दो घंटे बैठता। खुश-खुश खूबसूरत लोगों को देखता और चला जाता। न कोई खर्चा न कुछ। मुफ़्त में मन खुश।
आजकल तमाम शहरों में मल्टीप्लेक्स बन रहे हैं। अभी शायद कहीं प्रवेश शुल्क नहीं है। केवल कार-स्कूटर पार्किंग का खर्चा है। बिजली हमेशा रहती है। लगभग सारे माल बस्तियों के बीच बने हैं। शहरों में बिजली गायब। माल जगमगा रहा है। शहर में आदमी पसीने-पसीने है माल में ठंडी-ठंडी कूल-कूल हवा है।
कल को अगर ऐसा हो कि तमाम भीड़ माल में घुस जाये। लेना देना कुछ नहीं बस हवा खाना है। गर्मी से निजात पाने के लिये फ़टेहाल, हलकान लोग जाकर वहां बैठ जायें और बैठे रहें तब क्या होगा?
पहले तो शायद उनको टिकट (प्रवेश शुल्क) लगाकर रोका जाये। तब भी शायद लोग प्रवेश देकर भी गर्मी से निजात पाना चाहें। जो हो लेकिन तब माल वालों की हाल बेहाल जरूर होंगे। वे उस जनता को जरूर अपने यहां से रोकना चाहेंगे जो उनकी ग्राहक नहीं है। ग्राहकों की सुविधा से बचने के लिये दी जाने वाली सुविधाओं का दुरुपयोग कोई माल-मालिक नहीं होने देना चाहेगा।
मुफ़्त सेवायें भी मुफ़्त में नहीं मिलतीं।
हम भी कहां से कहां पहुंच गये पिक्चरों की बात करते-करते। बहक गये। इसीलिये शायद हम पिक्चरें कम देखते रहे।
ऊपर का फोटॊ यहां से आभार सहित।
वरना तो पिछले १५ वर्षों में १० सिनेमा भी नहीं देखे थे. बहुत भयंकर झेलन क्षमता चाहिये सिनेमा देखने के लिए भाई.
शाहजहाँपुर का नाम लेकर आपने पुराने जख्म हरे कर दिये। इस्लामियाँ स्कूल से बंक मारके आधा दिन क्रिकेट और आधा दिन “निशात” सिनेमा में कोई भी फ़िल्म देखना। फ़िर दुर्गा टाकीज में भी हाथ साफ़ किया। बडा डर लगता कि कहीं पिताजी का कोई जानकार न मिल जाये, और एक बार पतलून की जेब में सिनेमा की टिकट घर में पकडी गयी। लगा आज तो खैर नहीं लेकिन पिताजी ने समझाया और जाने दिया, बडा अचरज हुआ बाद में अहसास हुआ कि शायद हमारे और पिताजी के जूते का साईज एक हो चला था,
यहाँ सिनेमाहाल में फ़िल्म कम ही देख पाते हैं तो डीवीडी और कम्प्यूटर पर काम चलाना पडता है। खराब फ़िल्में देखने में अधिक सुख मिलता है, अच्छी या तो बहुत अच्छी हो वरना मजा नहीं आता। खराब फ़िल्में कभी मायूस नहीं करतीं।
जब पहली बार अपनी जेब से पैसे खर्च कर कस्बे के सिनेमाहॉल में फिल्म देखने गया था, तो पीछे बैठाए जाने पर बहुत क्षोभ हुआ था
बस मन खिंचा चला गया उन्हीं टूरिंग सिनेमाओ में जहाँ शाम मच्छरों की भिनभिन पटकथा के बहाव के साथ ताल मिलाती थी और चुभन ऐसी की खुजाते चमड़ी छिल जाये पर परदा पर से आँखें हटे ना.
इस तरह के सिनेमाहाल कमोबेश सभी शहरों का अनिवार्य हिस्सा होते थे पर अब वो बात कहां इन मॉल्स के चक्करों में मजा ही खत्म हो रहा है.
जहाँ तक बात रही नयनसुख की तो मैं यह आशंका करता हूँ इस मंदी के दौर से निजात पाने के तरीकों में प्लेटफार्म टिकिट की तरह ही कोई ना कोई व्यवस्था कोई टाईवाला एम.बी.ए. सुझा ही रहा होगा.
मजेदार पोस्ट, आंनद आया.
मुकेश कुमार तिवारी
बॉमबे में तो कई माल्स में शुल्क लगता भी है दस रुपये लिए जाते है अंदर जाने पर.. और यदि आप कुछ खरीद कर लाते है तो दस रुपये वापस ले सकते है.. यहा भी ऐसे कई सिस्टम है जैसे खरेड कर लाने पर पार्किंग फ्री हो जाती है..
मुझे जयपुर के ही एक मॉल में शॉपर्स स्टॉप के सेल्समैन ने कहा सर आप यहा का कार्ड बनवा लीजिए फिर आप जब भी शॉपिंग करेंगे आपकी पार्किंग फ्री हो जाएगी.. तो हमने उससे कहा प्यारे अगर मैं शॉपर्स स्टॉप से कोई सामान खरीद सकता हू तो मैं पार्किंग के दस रुपये भी डे सकता हू..
बहरहाल आपका सनिमा चित्रण अच्छा है.. हम तो सिनेमा ही खाते है सिनेमा ही पीते है. .ओढ़ते है और बिछाते भी है.. नीरज गोस्वामी जी की ये पंक्तिया मुझे बहुत पसंद है.. कि मैं आज भी हिन्दी फ़िल्मे देखना अपना फ़र्ज़ समझता हू..
आपने बहुत अच्छा गर्मी मिटाने का उपाय सुझाया. और हमारे यहां तो अभी पार्किंग शुल्क भी नही है. हा कुछ बिना खरीदे वापस निकलो तो १५ रुपये लगते हैं. तो हम फ़ोकट तफ़रीह करके वापस आने का उपाय भी ढूंढ लिये हैं. आपको बताये देते हैं. कार की पीछे की डीक्की मे खाली कार्टून पटक रखे हैं तो उनको देख कर पार्किंग वाला समझ लेता है कि साहब बडी खरीदी करके लौटे हैं. सभी लोग आजमा कर देखे… यह फ़ार्मुला काफ़ी समय से चल रहा है.:)
रामराम.
कम से कम आपने इसके लिए लडाई नहीं की … एक के बारे में सुना है … लडाई करने लगा … पैसे पूरे ले लो … पर आगे बैठने दो।
मेरे अम्मा और बाबूजी जबर्दस्त पिक्चर देखने वाले थे तो हमारे यहाँ फिल्म देखने का तो अच्छा माहौल था। लेकिन बाबूजी के बाद अम्मा ने फिल्म देखना बिलकुल बंद कर दिया। अंतिम फिल्म निक़ाह देखी थी उन्होने। साजन बिना सुहागन, सौ दिन सास के, क्रांति, जुगनू, बिन फेरे हम तेरे, अनपढ़, क्रांति जैसी फिल्में हमने माँ की गोद में निपटा दी थीं। लेकिन फिर ९० के बाद जब बाबूजी नही रहे और मैं भी माँ की गोद के लायक नही रह गयी, तब से फिल्मों पर ब्रेक लग गई और इसी के साथ आ गई मेरी किस्मत से केबल सभ्यता। मेरी फिर मौज..! इधर फिल्म आई, उधर केबल पर। हाँ मगर ये था कि जब लोग कहते कि टाकीज़ की बात ही और है, तब थोड़ा अखरता था। जीने चढ़ के जाना थोड़ा मुश्किल था मेरा। मगर अब जब से मल्टीप्लेक्स सभ्यता आई है तब से मेरे लिये आराम हो गया। अब व्हीलचेयर बाहर ही मिल जाती है और लिफ्ट से सीधे हाल के अंदर तक जाती हूँ।
मैं कभी कभी कहती हूँ कि हम जैसे लोगो के लिये ये best era चल रहा है। जब सहायक यंत्रों के सहारे खुश रहा जा सकता है।
और हाँ आज कल मल्टिप्लेक्स में आगे बैठने के कम पैसे लगते हैं, पीछे के चार्जेज़ अधिक होते हैं। उल्टा सिस्टम…!
यही हाल अपना भी है..
पर.. बुरी सोहबत में महीने में कम से कम दो पिक्चर देखने की नौबत आ ही जाती है..
यह सोहबत इस ज़न्म में न छूटे, तो अच्छा ही है..
अब हम इज़ाज़त चाहेंगे , तो जायें ?
रामनवमी पर मेरे यहाँ पिक्चर देखने का रिवाज़ है !
जब शुरू में पिक्चर के बारे जाना तो उसके साथ यह अवधारणा भी मिली कि यह पिक्चर देखना कोई भले लोगों का काम नहीं है . जैसे बीड़ी पीना , शराब पीना आदि वैसे ही वीसीआर देखना ! वीसीआर गावँ में किसी की सगाई समारोह आदि के उपलक्ष्य में ही आता था और बिजली की मेहरबानी पर रात में चलता था . आसपास के कई गावों से लोग वीसीआर देखने आते थे . हमारे गावँ के ऐसे ही लोग दूसरे गावों में जाते थे . पर हमारे ऊपर अपने गावं में भी वीसीआर देखने पर पाबंदी थी . कहा जाता था कि यह समय पढ़ाई करने का है . अगर अभी मेहनत कर लोगे तो जिन्दगी भर खूब पिक्चरें देखना . और अब पिक्चर देखने लगे तो जिन्दगी भर घास खोदोगे ! हमें यह बात बिल्कुल वैसी ही लगती थी जैसी कि अब मैनेजमेण्ट की यह बात कि ड्यूटी पर सोना नहीं है . पर क्या करें तब भी और अब भी BOSS IS ALWAYS RIGHT . लोग पाजिटिव आदेश क्यों नहीं देते कि अपनी पढाई पूरी करो . या अपना काम पूरा करो . उसके बाद हम चाहे पिक्चर देखें या सोयें यह हमारी मर्जी होनी चाहिये . पर नहीं यहाँ सब ऐसे ही चलता है . फ़िर भी हमने कई बार रात में चुपके चुपके जाके पिक्चरें देख ही लीं . कितना मजा आया कुछ वर्णन नहीं किया जा सकता . असीम आनन्द की प्राप्ति हो जाती थी . फ़िल्म बडे़ पर्दे पर हाल में भी चलती है इसका पता तो बहुत बाद में चला . बडे़ परदे पर पहली बार शायद दसवीं क्लास में पहली फ़िल्म देखी थी महावीरा जिसमें माँ की मौत पर रोते रोते डिम्पल कपाडिया की नाक टपक जाती है . घर वालों को आज तक नहीं पता . आपको ही बता रहे हैं
जब हमें यह पता चला कि यह फ़िल्में और टीवी पर आने वाले प्रोग्राम सब सच नहीं हैं तो हमारा दिल टूट गया ! एकदम झिक्की लग गयी फ़िल्मों से . पहले हमें पता ही नहीं था कि ये गोविन्दा अमिताभ बच्चन वगैरह वगैरह ही सभी फ़िल्मों को बनाते रहते हैं . फ़िल्मों को क्या पब्लिक को बनाते रहते हैं . बल्कि यूँ कहें कि बिगाड़ते रहते हैं तो शायद ज्यादा सही लगे !
उसके बाद मैच का शौक लगा . बस क्रिकेट मैच सुनना ही मजेदार काम था ( देखने के लिए तो टीवी उपलब्ध नहीं था ) गरदन में रेडियो लटकाकर मुहारा फ़ोड़ते थे खेत में पानी लगाते समय . अगर हम हम रेडियो मेंड़ पर रख देते और सचिन आउट हो जाय तो बड़ी ग्लानि होती . इसलिए ऐसा अवसर ही न आने दिया जाय . अपनी तरफ़ से गलती न हो . हाँ सचिन स्वयं की गलती से ही आउट हो जाय तो हम जिम्मेवार नहीं होंगे ! पर इसका भी वही हश्र हुआ जो फ़िल्मों का हुआ . अब मैच होकर परिणाम इतिहास में दर्ज़ हो जाता है और हमें पता ही नहीं . आधा दर्ज़न छोटे सगे और चचेरे भाइयों को बिगाड़्कर हम सुधर गये हैं
अब बात बिलागिंग की !: इसका भी स्तर शुरू में आसमान पर था . पर अब पता चलने लगा है कि ये अनूप शुक्ल , G.D.पाण्डेय , कुश आदि भी ताऊ जैसे ही छद्म हैं . सत्य है तो बस प्रशान्त प्रियदर्शी ! जय बजरंग बली !
हमारी भी कुछ ऐसी ही दिनचर्या थी और अपनी अहमन्यता में फिल्मों को वाहियात और फालतू ही समझते रहे ,अपवादों को छोड़कर -गोविन्द निहलानी ,प्रकाश झा ,हृशी दा ,आदि को छोड़कर जिन्हें तो जरूर देखा ! मगर वह छोड़ता गया जिन्हें छोड़कर अब पछतावा होता है -आँखें तो तब खुली जब एक युवा आई ये एस टापर (१९८….) बैच ने अपने साथ लेकर बगल की सीट पर बैठा फिल्म दिखाया और बार बार पूंछते रहे ये करिश्मा कैसा लग रहा है -इसका यह कैसा है वह कैसा है आदि आदि और हम पसीने पोंछ पोंछ कर ऊल जलूल जवाब देते रहे !
पर नतीजा यह हुआ कि अचानक फिल्मों में मेरी रूचि का पुनर्जागरण हो गया ! सत्य से साक्षात्कार हुआ ! नाहक ही एक उम्र तक जनम गवायो ! आज भी उन साहब का फोन तक आ जाता है -वो वाली फिल्म देखी ? अब मैं इस दर से कि उनका फोन न आ जाय कई फिल्मों का पहला ही शो देख आता हूँ ! और बहुत बारीक से -उनके प्रश्न का उत्तर देना होता है -नौकरी तो करनी है न भाई !
मेरे लिये बिलकुल नई – सी है -
मुफ्त मेँ मनोरँजन ! वाह जी वाह !!
हिन्दी फिल्मेँ बम्बई मेँ बहुत देखीँ ..
अब तो घर पर डीवीडी देख लेती हूँ .
अँग्रेज़ी सिनेमा देखना चाहेँ तब,
ये अवश्य देखियेगा ..
1) A Beautiful Mind
2 ) Gone with the wind
3) sound of Music
स स्नेह,
- लावण्या
भाग कर पिक्चर एक बार देखी थी अंग्रेजी की .नाम नहीं बताएँगे समझ जाइये …आगे बैठकर पहली पिक्चर देखने को मिली थी .आमिर की सरफ़रोश…आधे घंटे में सर एडजस्ट हुआ था…. बाद में दुबारा पैसे खर्च करके हमने पिक्चर देखी…..हमारे शहर में मोल में घूमने का पैसा नहीं लगता ….पर नोइडा की पार्किंग में गाड़ी कहाँ खड़ी है ये यद् करना मुश्किल हो जाता है….खैर पिक्चर देखा कीजिये ….”.कुछ बुरे शौंक भी कभी कभी अच्छे होते है “
हमने तो छात्र जीवन में ही सिनेमा हाल में फिल्में देखी हैं। और अंग्रेजी फिल्मों का अंग्रेजीदां नुमा विद्यार्थियों में बहुत क्रेज था। एक से एक फर्राटेदार अंग्रेजी खींचने वाले बन्दे थे। हम तो देसी स्कूल से हिन्दी माध्यम से आये थे। पर मुझे अब भी याद है कि एक अंग्रेजी फिल्म की रीलें गड्ड-मड्ड कर दिखा दी थीं सिने क्लब के कर्मचारी ने और धाकड़ अंग्रेजीदां समझ ही न पाये कि कुछ गड़बड़ है।
औअर यह विवेक क्या खुलासा कर रहे हैं, कितने छद्म?
एक दिन हमने भी तय किया कि बहुत हो चुका अब अकेले फिल्म देखने नहीं जाना है. तब से फिल्म देखना कम हो गया .
लखनऊ में मॉल्स में एंट्री टिकेट नहीं लगता इसके चलते ये तो आसानी रहती है कि समाज के अलग अलग वर्गों के लोग मॉल्स पहुँच रहे हैं . वो खरीदारी भले न कर सकें , उनके घूमने की जगहों में कुछ जगहों की बढोत्तरी हो ही गयी है नहीं तो मॉल्स धनाढ्य लोगों के गढ़ भर बन के रह गए होते