पानी बरसत देखि के, अम्मा करिन पुकार
कपड़ा अरगनी से उतारि के, कमरा मां देव डार।
बादल फ़टा पहाड़ पर मर गये दो सौ लोग,
जांच हुई पता चला उसको गुस्से का था रोग।
बादल से बदली भिड़ी फ़िर होती गयी तकरार,
विदा हुये जब बरसकर हो गया उनमें प्यार।
बदरी-बदरे की प्रीत से सुलगे पंचायत के लोग,
फ़ांसी, आगी , चिता का अब प्रेमकुंडली में योग।
मुंबई डूबी रो रही, है कम्पू गर्मी से हलकान,
टब सा उसको उलट दो, आये जान में जान!
टब सा उसको उलट दो, आये जान में जान!
-आप तो बारिश में कवि हो लिए जी!! कुछ लेते क्यूँ नहीं?
मुला अपुन का तो अभी यही हाल है -
बादल से बदली भिड़ी फ़िर होती गयी तकरार,
विदा हुये जब बरसकर हो गया उनमें प्यार।
खुबसूरत पंक्तियाँ भई, उ का है न बादल बदली का प्यार वाह ”
regards
अब पैदा हो गई है.. बूंदे
खूब बरस रही है….. बूंदे
जोरो से होने लगी बरसात
पंडित जी आपकी रचना बहुत ही बढ़िया है . खूब लिखी है आपने .आभार
विदा हुये जब बरसकर हो गया उनमें प्यार।
waah bahut khub
विदा हुये जब बरसकर हो गया उनमें प्यार।
बादल ने ही कुछ कहा होगा पहिले….लेकिन अंत भला त सब भला.
कपड़ा अरगनी से उतार के, कमरा में दो डार।
उपरोक्त पंक्तियों से सिद्ध होता है कि बिना अम्मा के कहे कवि अपनी समझ से बाहर से कपड़ों को अन्दर नहीं लाता, और लाकर भी व्यवस्थित करके रखने की बजाय उससे यही उम्मीद की जाती है कि वह डाल ही दे तो काफ़ी है, अम्मा की नजरों में कवि कितने काम की चीज है इससे साफ़ पता चलता है .
बादल फ़टा पहाड़ पर मर गये दो सौ लोग,
जांच हुई पता चला उसको गुस्से का था रोग।
यहाँ बादल की गलती को रोग बताकर उसकी सजा कम करवाने की साजिश रचने से कवि के वकील होने का आभास होता है .
बादल से बदली भिड़ी फ़िर होती गयी तकरार,
विदा हुये जब बरसकर हो गया उनमें प्यार।
बादल से बदली भिड़ी को यह क्यों नहीं कहा कि बदली से बादल भिड़ा ? इससे कवि के पुरुषवादी , और महिला विरोधी विचारों का खुलासा हो रहा है.
बदरी-बदरे की प्रीत से सुलगे पंचायत के लोग,
फ़ांसी, आगी , चिता का अब प्रेमकुंडली में योग।
पंचायत के लोगों को सुलगा हुआ बताने में अतिशयोक्ति अलंकार है .
मुंबई डूबी रो रही, है कम्पू गर्मी से हलकान,
टब सा उसको उलट दो, आये जान में जान!
मुंबई को उलटने की बात कहकर कवि ने मराठी मानुष को ठेस पहुँचाई है .
जांच हुई पता चला उसको गुस्से का था रोग।
ये पहाडियों पर ही क्यों गुस्सा उतारा बादल जी ने ?
बारिश कब तक होएगी रुला रही है धूप.
रामराम.
“प्यार हुआ क्यूं देरी से?” बदली गयी है रूठ!!
मुम्बई मे साहस भरा, बादल से वो डरती नही!!
डर कर या फ़िर घबरा कर, ऐसे कभी वो रुकती नही!!
बढ़ गयी फिर तकरार ,
इहाँ इत्ती गर्मी बड़ी,
हमने कपडे लिए सब फाड़.
कोई डूबत है..कोई सूखत है,
अजब लीला है सरकार ,
ना जान इहाँ बचे , न जान उहाँ ,
कैसे होइंहें बेडा पार
विदा हुये जब बरसकर हो गया उनमें प्यार।……..
क्या खूब वर्णन है.
मजे की बात यह है की हम अनूप जी के ब्लॉग पर आ कर उनकी पोस्ट की धुलाई की तारीफ़ कर रहे हैं
और बज गया कविता का बंद बाजा
सस्नेह,
- लावण्या
चण्डीदत्त शुक्ल, फोकस टेलिविजन, नोएडा
महोदय अम्मा कवि से कपड़े उतारने को नही कह रही है।
कवि कोई हिरोइन थोड़े ही हैँ।
परिहास भी स्तरीय होने चाहिऐँ।
बिन बरखा कवि बन गए भैया फुरसतिया!
इहाँ (बंगलोर में) छुप के रहें
मौज मनावत छुप छुप के
उत्तर में लोगबाग झुलस रहे.