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पढ़ें फ़ारसी बेंचें तेल एक मुहावरा है। इसके माध्य्म से
मुहावरे का रचयिता संभवत: यह कहना चाहना चाहता है कि जब तेल ही बेचना है
तो फ़ारसी पढ़ने से क्या फ़ायदा? इसे घुमाकर कहा जा सकता है कि फ़ारसी पढ़कर क्या करोगे ? अंतत: बेचना तो तेल ही है। वैसे तो घुमाने के बाद एक और अर्थ फ़िराकर भी बताया जा सकता है लेकिन उसे छोड़िये। फ़िलहाल इत्ते से ही काम चलाइये।
हां तो बात फ़ारसी और तेल की। शायद जब यह मुहावरा नमूंदार बोले तो प्रस्फ़ुटित हुआ होगा तब फ़ारसी पढ़ना बहुत मेहनत का और खर्चीला काम माना जाता होगा। कम लोग ही इसे पढ़ पाते होंगे। खास टाइप के लोग। खास मतलब नमूना टाइप। जो पढ़ जाता होगा उसको लोग दूर से देखकर कहते होंगे कि देखो भाई ये फ़लाने हैं-फ़ारसी पढ़े हैं। फ़ारसी पढ़ना कोई मजाक नहीं रहा होगा उन दिनों। फ़ारसी जटिल भाषा रही होगी। राजकाज के काम आती होगी। इसलिये जैसे ही किसी ने फ़ारसी पढ़ ली वह राजकाज के काम में धंस लेता होगा। उसकी पूंछ बढ़ जाती होगी। मतलब कि उसके भाव बढ़ जाते होंगे। वह धरती पर चलना छोड़कर गगनबिहारी हो जाता होगा। वह शायद फ़ारसी ओढ़ने-बिछाने लगता होगा। फ़ारसी मय हो जाता होगा। कोई भी सामने आता होगा तो दन्न से फ़ारसी का फ़रसा चलाकर उसको भूलुंठित कर देता होगा।
फ़ारसी के मुकाबले तेल बेचना कमजोर धंधा माना जाता होगा। तेल बेचने का धंधा करने वाले लोग तेली कहे जाते हैं। अपने समाज में तेल बेचने वाले और पान बेचने लोगों को समुचित सम्मान से नहीं देखा जाता था। तेली-तंबोली कहकर दोनों को एक ही सीट में RAC की तरह निपटा दिया।
अब आप देखिये कि विडम्बना क्या हसीन टाइप है। लोग तेल लगा-लगाकर और पान खा-खिलाकर अपनी हैसियत में फ़र्श से अर्श (हिन्दी अनुवाद- जमीन से आसमान, संस्कृत अनुवाद-भू से नभ अंग्रेजी अनुवाद के लिये ज्ञान जी से संपर्क करें) का इजाफ़ा करते रहे लेकिन तेल बेचने वाले और पान लगाने वालों के हाल पर तव्व्जो न दी। वे फ़ारसी पढ़ने वाले के मुकाबल किंचित हीन ही बने रहे।
बहरहाल, तय हुआ कि फ़ारसी पढ़ना ऊंचा टाइप का काम माना जाता था और फ़ारसी पढ़ने के बाद अगर कोई तेल बेंचते पाया जाता तो समझा जाता कि उसका फ़ारसी पढ़ना मिट्टी में मिल गया। कुछ इस तरह् जैसे आजकल अगर कोई अफ़सर, इंजीनियर,डाक्टर या और कोई सफ़ेद कालर वाला आदमी कोई मेहनत का काम करते बरामद हो जाये तो उसकी लोग बेइज्जती खराब कर देते हैं। यही सब करना था तो इत्ती पढ़ाई काहे करी? बेकार है ऐसी अफ़सरी जिसमें आम आदमी की तरह मेहनत करना पड़े।
हमारे साथ के तमाम लोग हैं जो स्वास्थ्य,पर्यावरण और बचत की बात सोचते हुये हफ़्ते/महीने में पांच-दस मिनट इस बात पर खर्च कर देते हैं कि साइकिल से आना-जाना,चलना-फ़िरना चाहिये लेकिन फ़िर लोग क्या कहेंगे! का जबाब खोज पाने में असहाय होकर, अपना सा मुंह लेकर, रह जाते हैं। ये जो लोग होते हैं न भौत खराब होते हैं न! कुछ न कुछ कहने के लिय हमेशा तैयार ही रहते हैं।
वैसे साइकिल से चलने वाली बात पर इस खबर का असर भी पड़ा है कि लोग बताते हैं कि साइकिल चलाने से नामर्दी हो जाती है तो नये नवेले तो और बिदकेंगे इस बात से। अब आप लगे हाथ यह समझ लीजिये कि अगर मैकमिलन की साइकिल न होती तो भारत और व चीन की आबादी का क्या हुआ होता। इस बात की पुष्टि करवाकर अब तो परिवार नियोजन के लिये साइकिल बंटवा कर चलाना अनिवार्य कर देना चाहिये। एक खास उमर के बाद का कोई शख्स जो बिना साइकिल चलाते दिख जाये उसका आबादी बढ़ाने की साजिश के तहत चालान कर दिया जाये। पकड़कर थाने में हिसाब से साइकिल चलवा कर हिसाब बराबर कर दिया जाये।
बात जब सिविल सर्वेन्टों की हो रही है तो इसे भी देख ही लिया जाये। दुनिया के सबसे जहीन माने जाने वाले टापर टाइप लड़के अपने देश की सिविल सेवा परीक्षा के चक्रव्यूह को भेदकर सिविल सर्वेन्ट बनते हैं। मंसूरी की लालबहादुर शास्त्री अकादमी में ट्रेनिंग लेते हैं। देश सेवा की शपथ लेते हैं। पांच दस साल में व्यवस्था की चक्की में पिसकर बेचारे अफ़सर बनकर रह जाते हैं। सारी काबिलियत/फ़ाबिलियत न जाने कहां बिला जाती है। ऐसे-ऐसे काम करने पड़ते हैं उनको कि अगर याद होगा तो कभी न कभी यह मुहावरा जरूर दोहराते होंगे- पढ़ें फ़ारसी बेंचे तेल।
इस सब लफ़ड़े में भाग्य का भी कुछ दखल जरूर रहता होगा जैसा कि इस शेर/कविता से जाहिर होता है:
समय के साथ फ़ारसी की वकत कुछ कम हुई होगी। उसका पढ़ना उत्ता बरक्कत वाला न माना जाता होता जित्ता पहले माना जाता होगा। तेल बेचने वाले भी उतने हीन न रहे होंगे। वैसे भी आपने तमाम फ़ारसी पढ़ने वालों के भूखे मरने बात सुनी होगी लेकिन किसी तेल बेचने वाले को भूखे मरते नहीं सुना होगा। तेल बेचने वालों की स्थिति में घणा सुधार हुआ है। आज दुनिया के सबसे अमीर देश तेल बेचने वाले ही हैं। अमेरिका जैसा ताकतवर और समर्थ माना जाने वाला देश भी जित्ती टुच्ची हरकतें अपने तथाकथित जमीर पर पहाड़ सा रखकर करता है वो सब अपने लिये तरह-तरह के तेल के लिये ही करता है। अपने यहां भी जो पैसे कमा लेता है वो तेल बेचने लगता है। निरे पेट्रोल-पम्प ,रिफ़ायनरी ई सब तेल की दुकान ही तो हैं। दुनिया के सब फ़ारसी पढ़ने वाले मिलकर शायद उत्ती औकात न रखते हों जित्ती चंद तेल बेचने वालों की हो।
वैसे देखा जाये तो यह मुहावरा किसी ऐसे मुहावरा गढ़ने वाले ने गढ़ा होगा जिसके मन में बुजुर्गियत के प्रति नकार और मेहनत के प्रति धिक्कार का भाव होगा। भाषायें और खासकर फ़ारसी भाषा की उमर हजारेक साल होंगी। जबकि तेल लाखों सालों में बनता है। पेड़-पौधें से तेल बनते-बनते न जाने कित्ते हजार साल गुजर जाते हैं। तेल बनाने और बेंचने का धंधा भी कम से कम फ़ारसी पढ़ने-पढ़ाने के मुकाबले तो बुजुर्ग ही होगा। तेल बेंचना मेहनत का काम भी है। तौलने, धरने, डंडी मारने में पसीना निकल जाता है। जिन लोगों ने तेली की दुकाने और फ़ारसी पढ़ने की जगह दोनों देखीं होंगी उनको पता होगा कि तेल बेचना फ़ारसी पढ़ने के मुकाबले कठिन काम है। इस तरह इस मुहावरे में बुजुर्गियत और मेहनत दोनों की खिल्ली टाइप उड़ाई गयी है।
लेकिन शायद इसीलिये मुहावरे का रचयिता कहना चाहता है कि जब कम पसीना बहाकर रोजी कमाने का जुगाड़ बना लिया है तो बेवकूफ़ है क्या जो पसीना बहाकर रोटी कमाना चाहता है। वह बहाने से फ़ारसी बेंचने वाले को तेल बेचने के श्रम साध्य धंधे से विरत करके फ़ारसी पठन-पाठन के पसीना रहित जीविका की ओर लाना चाहता है।
परसाईजी की बात का उदाहरण देने से शायद ज्यादा बात साफ़ हो सके। परसाईजी लिखते हैं- जब लोग देश का प्रापर चैनल नहीं पार कर पाते तो इंगलिश चैनल पार कर जाते हैं। प्रापर चैनल इंगलिश चैनल से ज्यादा चौड़ा है। ऐसे ही शायद मुहावरा लेखक अपने मुहावरे से लोगों की जिंदगी आसान बनाना चाहता होगा और तेल बेंचने वाले को धिक्कारते हुए कहा होगा-पढ़ें फ़ारसी बेचें तेल! ताकि वे फ़ारसी पढ़कर आराम की जिंदगी बसर करने की सोंचे।
तमाम काबिल लोग हैं जो देशसेवा के वायरल से पीड़ित होकर इंगलिश चैनल से या अपने-अपने धांसू च फ़ांसू अस्तबल से भागकर अदबदाकर सेवा कार्य में जुट जाते हैं। देश अपना इस मामले में बहुत उदार है। जो भी सेवा करना चाहता है उससे करवा लेता है। कुछ दिन बाद जब ऐसे मौसमी सेवकों को पता चलता है कि सेवा करने के झमेले में सेवकों की तरह रहने का ड्रामा भी करना पड़ता है तो वे जरूर अपने बारे में कहते होंगे- पढ़ें फ़ारसी बेचें तेल।
ऐसे में होना तो ई चाहिये था कि तेल बेंचने वालों को इस मुहावरे को या तो बैन करवा देना चाहिये या फ़िर इसका अर्थ संशोधन करवा देना चाहिये जिससे उनकी हालत दीन-हीन टाइप की न समझी जाये। लेकिन कोई अपनी जिम्मेदारी नहीं समझता। किसी को अपने सम्मान की चिंता नहीं है। बिरादरी की लड़की गैर बिरादरी में शादी कर ले तो कहो खून बहा दें लेकिन जाति के सम्मान के लिये मुहावरे में बदलाव के लिये हल्ला नहीं मचायेंगे जब तक किसी पिक्चर में इसे शामिल न करवाया जाये।
लेकिन हमें क्या मतलब। हम कौन होते हैं उनकी निजता में दखल देने वाले। हमें तो जो बात समझ में आई सो कह दी। अब आपकी समझ में जो आये तो आप कुछ कह डालिये। फ़िर न कहियेगा कि बताया नहीं।
अभी कुछ और मेरा इम्तहान बाकी है।
जमीन पांव के नीचे अगर न हो भी तो क्या
के मुझमें अब भी कोई आसमान बाकी है।
अभी भी मुझको है माहौल के दमाग पे शक
के हर यकीन के दिल में गुमान बाकी है।
जलाने वाले का हो या बुझाने वाले का
सुना है शहर में बस इक मकान बाकी है।
मेरे फ़टे हुये कपड़े पे मत हंसो इसमें
मेरा वतन मेरा हिन्दोस्तान बाकी है॥
नक्श इलाहाबादी
पढ़ें फ़ारसी बेचें तेल
By फ़ुरसतिया on October 2, 2009
हां तो बात फ़ारसी और तेल की। शायद जब यह मुहावरा नमूंदार बोले तो प्रस्फ़ुटित हुआ होगा तब फ़ारसी पढ़ना बहुत मेहनत का और खर्चीला काम माना जाता होगा। कम लोग ही इसे पढ़ पाते होंगे। खास टाइप के लोग। खास मतलब नमूना टाइप। जो पढ़ जाता होगा उसको लोग दूर से देखकर कहते होंगे कि देखो भाई ये फ़लाने हैं-फ़ारसी पढ़े हैं। फ़ारसी पढ़ना कोई मजाक नहीं रहा होगा उन दिनों। फ़ारसी जटिल भाषा रही होगी। राजकाज के काम आती होगी। इसलिये जैसे ही किसी ने फ़ारसी पढ़ ली वह राजकाज के काम में धंस लेता होगा। उसकी पूंछ बढ़ जाती होगी। मतलब कि उसके भाव बढ़ जाते होंगे। वह धरती पर चलना छोड़कर गगनबिहारी हो जाता होगा। वह शायद फ़ारसी ओढ़ने-बिछाने लगता होगा। फ़ारसी मय हो जाता होगा। कोई भी सामने आता होगा तो दन्न से फ़ारसी का फ़रसा चलाकर उसको भूलुंठित कर देता होगा।
फ़ारसी के मुकाबले तेल बेचना कमजोर धंधा माना जाता होगा। तेल बेचने का धंधा करने वाले लोग तेली कहे जाते हैं। अपने समाज में तेल बेचने वाले और पान बेचने लोगों को समुचित सम्मान से नहीं देखा जाता था। तेली-तंबोली कहकर दोनों को एक ही सीट में RAC की तरह निपटा दिया।
अब आप देखिये कि विडम्बना क्या हसीन टाइप है। लोग तेल लगा-लगाकर और पान खा-खिलाकर अपनी हैसियत में फ़र्श से अर्श (हिन्दी अनुवाद- जमीन से आसमान, संस्कृत अनुवाद-भू से नभ अंग्रेजी अनुवाद के लिये ज्ञान जी से संपर्क करें) का इजाफ़ा करते रहे लेकिन तेल बेचने वाले और पान लगाने वालों के हाल पर तव्व्जो न दी। वे फ़ारसी पढ़ने वाले के मुकाबल किंचित हीन ही बने रहे।
बहरहाल, तय हुआ कि फ़ारसी पढ़ना ऊंचा टाइप का काम माना जाता था और फ़ारसी पढ़ने के बाद अगर कोई तेल बेंचते पाया जाता तो समझा जाता कि उसका फ़ारसी पढ़ना मिट्टी में मिल गया। कुछ इस तरह् जैसे आजकल अगर कोई अफ़सर, इंजीनियर,डाक्टर या और कोई सफ़ेद कालर वाला आदमी कोई मेहनत का काम करते बरामद हो जाये तो उसकी लोग बेइज्जती खराब कर देते हैं। यही सब करना था तो इत्ती पढ़ाई काहे करी? बेकार है ऐसी अफ़सरी जिसमें आम आदमी की तरह मेहनत करना पड़े।
हमारे साथ के तमाम लोग हैं जो स्वास्थ्य,पर्यावरण और बचत की बात सोचते हुये हफ़्ते/महीने में पांच-दस मिनट इस बात पर खर्च कर देते हैं कि साइकिल से आना-जाना,चलना-फ़िरना चाहिये लेकिन फ़िर लोग क्या कहेंगे! का जबाब खोज पाने में असहाय होकर, अपना सा मुंह लेकर, रह जाते हैं। ये जो लोग होते हैं न भौत खराब होते हैं न! कुछ न कुछ कहने के लिय हमेशा तैयार ही रहते हैं।
वैसे साइकिल से चलने वाली बात पर इस खबर का असर भी पड़ा है कि लोग बताते हैं कि साइकिल चलाने से नामर्दी हो जाती है तो नये नवेले तो और बिदकेंगे इस बात से। अब आप लगे हाथ यह समझ लीजिये कि अगर मैकमिलन की साइकिल न होती तो भारत और व चीन की आबादी का क्या हुआ होता। इस बात की पुष्टि करवाकर अब तो परिवार नियोजन के लिये साइकिल बंटवा कर चलाना अनिवार्य कर देना चाहिये। एक खास उमर के बाद का कोई शख्स जो बिना साइकिल चलाते दिख जाये उसका आबादी बढ़ाने की साजिश के तहत चालान कर दिया जाये। पकड़कर थाने में हिसाब से साइकिल चलवा कर हिसाब बराबर कर दिया जाये।
बात जब सिविल सर्वेन्टों की हो रही है तो इसे भी देख ही लिया जाये। दुनिया के सबसे जहीन माने जाने वाले टापर टाइप लड़के अपने देश की सिविल सेवा परीक्षा के चक्रव्यूह को भेदकर सिविल सर्वेन्ट बनते हैं। मंसूरी की लालबहादुर शास्त्री अकादमी में ट्रेनिंग लेते हैं। देश सेवा की शपथ लेते हैं। पांच दस साल में व्यवस्था की चक्की में पिसकर बेचारे अफ़सर बनकर रह जाते हैं। सारी काबिलियत/फ़ाबिलियत न जाने कहां बिला जाती है। ऐसे-ऐसे काम करने पड़ते हैं उनको कि अगर याद होगा तो कभी न कभी यह मुहावरा जरूर दोहराते होंगे- पढ़ें फ़ारसी बेंचे तेल।
इस सब लफ़ड़े में भाग्य का भी कुछ दखल जरूर रहता होगा जैसा कि इस शेर/कविता से जाहिर होता है:
अजब तेरी किस्मत अजब तेरे खेलहालांकि इसमें फ़ारसी का कहीं जिक्र नहीं हुआ है लेकिन किस्मत और तेल से लगता है कि फ़ारसी पढ़ने और तेल बेचने का मामला कुछ इसी तरह का है जैसा छछूंदर जैसे जीव के सर पर चमेली जैसा कीमती तेल लगना।
छछूंदर के सर पर चमेली का तेल।
समय के साथ फ़ारसी की वकत कुछ कम हुई होगी। उसका पढ़ना उत्ता बरक्कत वाला न माना जाता होता जित्ता पहले माना जाता होगा। तेल बेचने वाले भी उतने हीन न रहे होंगे। वैसे भी आपने तमाम फ़ारसी पढ़ने वालों के भूखे मरने बात सुनी होगी लेकिन किसी तेल बेचने वाले को भूखे मरते नहीं सुना होगा। तेल बेचने वालों की स्थिति में घणा सुधार हुआ है। आज दुनिया के सबसे अमीर देश तेल बेचने वाले ही हैं। अमेरिका जैसा ताकतवर और समर्थ माना जाने वाला देश भी जित्ती टुच्ची हरकतें अपने तथाकथित जमीर पर पहाड़ सा रखकर करता है वो सब अपने लिये तरह-तरह के तेल के लिये ही करता है। अपने यहां भी जो पैसे कमा लेता है वो तेल बेचने लगता है। निरे पेट्रोल-पम्प ,रिफ़ायनरी ई सब तेल की दुकान ही तो हैं। दुनिया के सब फ़ारसी पढ़ने वाले मिलकर शायद उत्ती औकात न रखते हों जित्ती चंद तेल बेचने वालों की हो।
वैसे देखा जाये तो यह मुहावरा किसी ऐसे मुहावरा गढ़ने वाले ने गढ़ा होगा जिसके मन में बुजुर्गियत के प्रति नकार और मेहनत के प्रति धिक्कार का भाव होगा। भाषायें और खासकर फ़ारसी भाषा की उमर हजारेक साल होंगी। जबकि तेल लाखों सालों में बनता है। पेड़-पौधें से तेल बनते-बनते न जाने कित्ते हजार साल गुजर जाते हैं। तेल बनाने और बेंचने का धंधा भी कम से कम फ़ारसी पढ़ने-पढ़ाने के मुकाबले तो बुजुर्ग ही होगा। तेल बेंचना मेहनत का काम भी है। तौलने, धरने, डंडी मारने में पसीना निकल जाता है। जिन लोगों ने तेली की दुकाने और फ़ारसी पढ़ने की जगह दोनों देखीं होंगी उनको पता होगा कि तेल बेचना फ़ारसी पढ़ने के मुकाबले कठिन काम है। इस तरह इस मुहावरे में बुजुर्गियत और मेहनत दोनों की खिल्ली टाइप उड़ाई गयी है।
लेकिन शायद इसीलिये मुहावरे का रचयिता कहना चाहता है कि जब कम पसीना बहाकर रोजी कमाने का जुगाड़ बना लिया है तो बेवकूफ़ है क्या जो पसीना बहाकर रोटी कमाना चाहता है। वह बहाने से फ़ारसी बेंचने वाले को तेल बेचने के श्रम साध्य धंधे से विरत करके फ़ारसी पठन-पाठन के पसीना रहित जीविका की ओर लाना चाहता है।
परसाईजी की बात का उदाहरण देने से शायद ज्यादा बात साफ़ हो सके। परसाईजी लिखते हैं- जब लोग देश का प्रापर चैनल नहीं पार कर पाते तो इंगलिश चैनल पार कर जाते हैं। प्रापर चैनल इंगलिश चैनल से ज्यादा चौड़ा है। ऐसे ही शायद मुहावरा लेखक अपने मुहावरे से लोगों की जिंदगी आसान बनाना चाहता होगा और तेल बेंचने वाले को धिक्कारते हुए कहा होगा-पढ़ें फ़ारसी बेचें तेल! ताकि वे फ़ारसी पढ़कर आराम की जिंदगी बसर करने की सोंचे।
तमाम काबिल लोग हैं जो देशसेवा के वायरल से पीड़ित होकर इंगलिश चैनल से या अपने-अपने धांसू च फ़ांसू अस्तबल से भागकर अदबदाकर सेवा कार्य में जुट जाते हैं। देश अपना इस मामले में बहुत उदार है। जो भी सेवा करना चाहता है उससे करवा लेता है। कुछ दिन बाद जब ऐसे मौसमी सेवकों को पता चलता है कि सेवा करने के झमेले में सेवकों की तरह रहने का ड्रामा भी करना पड़ता है तो वे जरूर अपने बारे में कहते होंगे- पढ़ें फ़ारसी बेचें तेल।
ऐसे में होना तो ई चाहिये था कि तेल बेंचने वालों को इस मुहावरे को या तो बैन करवा देना चाहिये या फ़िर इसका अर्थ संशोधन करवा देना चाहिये जिससे उनकी हालत दीन-हीन टाइप की न समझी जाये। लेकिन कोई अपनी जिम्मेदारी नहीं समझता। किसी को अपने सम्मान की चिंता नहीं है। बिरादरी की लड़की गैर बिरादरी में शादी कर ले तो कहो खून बहा दें लेकिन जाति के सम्मान के लिये मुहावरे में बदलाव के लिये हल्ला नहीं मचायेंगे जब तक किसी पिक्चर में इसे शामिल न करवाया जाये।
लेकिन हमें क्या मतलब। हम कौन होते हैं उनकी निजता में दखल देने वाले। हमें तो जो बात समझ में आई सो कह दी। अब आपकी समझ में जो आये तो आप कुछ कह डालिये। फ़िर न कहियेगा कि बताया नहीं।
मेरी पसन्द
वजूदे जिस्म मिटा भी तो जान बाकी हैअभी कुछ और मेरा इम्तहान बाकी है।
जमीन पांव के नीचे अगर न हो भी तो क्या
के मुझमें अब भी कोई आसमान बाकी है।
अभी भी मुझको है माहौल के दमाग पे शक
के हर यकीन के दिल में गुमान बाकी है।
जलाने वाले का हो या बुझाने वाले का
सुना है शहर में बस इक मकान बाकी है।
मेरे फ़टे हुये कपड़े पे मत हंसो इसमें
मेरा वतन मेरा हिन्दोस्तान बाकी है॥
नक्श इलाहाबादी
Posted in बस यूं ही | 39 Responses
वही तैल बिकता हैं
और फिर छछूंदर उसको लगा कर फारसी पढता हैं ।
दुनिया गोल हैं ना जी , घुमा लो फिरा लो
क्या कुछ बदलता हैं ??
रचनाजी: देखिये जो बात हम अनुमान के आधार पर इत्ती लम्बी पोस्ट लिखने के बाद भी न कह पाये वह आपने अपने अनुभव जन्य ज्ञान के सहारे पांच पंक्तियों में कह दी। शुक्रिया!
मजेदार प्रसंग…अच्छा लगा और सबसे खास बात आपकी पसंद के ग़ज़ल बेहतरीन लगे..
धन्यवाद!!!
@ विनोदजी: आपकी टिप्पणी का शुक्रिया। आपकी टिप्पणी से गजलकार के बारे में लिखने का मन भी पक्का होने लगा। लिखूंगा कभी।
अविनाश वाचस्पतिजी: गांधी जयन्ती के दिन भी तर हो लिये। वाह जी वाह। चीर-फ़ाड़ के लिये पोस्ट का लिंक अजितजी को थमाया है अभी।
आधुनिक मुहावरा होना चाहिए “पढ़े अंग्रेजी, लिखे ब्लॉग” इस पर विस्तार से कोई फुरसतिया ही लिख सकता है. हमारा काम आधुनिकिकरण करने तक ही सीमित है
संजय बेंगाणी: आपको पता नहीं कि साइकिल वाली मौज लेकर हमको हंसा जरूर दिया लेकिन अपने लिये परेशानी खड़ी कर ली है। अब जहां कोई आपको धीर-गंभीर टाइप का समझे जाने की बात कहेगा हम फ़ौरन आपका ये कमेंट थमा देंगे कि देखो भैये ऐसे मौजियल कमेंट करने वाला भी कहीं धीर-गंभीर हो सकता है।
ये वो तेल नहीं ,जिसका आपने जिक्र किया. पर तेल तो आखिर तेल ही है.
कभी कभी मेरे अकादमिक मित्र पूछ बैठते है’ आई आई टी से पी एच डी करके तेल बेचने में शर्म नहीं आती ?”
अब मैं क्या बताऊं , सोच में पड़ जाता हूं, बहस में उलझूं या ना उलझूं.
अरविन्द चतुर्वेदीजी: तेल तो आखिर तेल है। रोजी-रोटी से जुडा़ काम भी दुकानदारी जैसा ही होता है। हम शाम को अपने दफ़्तर में कहते हैं चलो भाई अब दुकान बन्द की जाये। बहस में क्या उलझना किसी से? मौज लीजिये बस मौज!
आप तो बड़े ज़ुल्मी जहीन हैं ।
वैसे आज कल तेल का धन्धा करने के लिए ‘फारसी’ पढ़ा होना आवश्यक तो नहीं लेकिन अरबी फारसी वालों को समझना अति आवश्यक है
वडनेकर जी के विषय पर जबरिया दिन्हीं पोस्ट्वा ठेल,
सायकल से घूमौ कहां कहां , पकडे पडी एक दिन रेल,
फ़ुरसतिया पढै जो फ़ारसी, निकाल दिहैं सबके तेल…
एकदम मौजियायल पोस्ट है जी…मुदा गांधी जंयती से ई का संबंध हम बस समझ नहीं पाये…बकिया इतना जान गये कि होगा जरूर….
आपकी पोस्ट छायावादी व्यँग्य होगा, अपनी जगह !
पर रचना की यह खुशनुमा टिप्पणी तो मेरे चढ़ ही गयी ।
वईसे तेल बेचना कोई आसान काम नहीं है, जी ।
मँत्री की चुनौटी उठाने में अपने ज़मीर को जो चुनौती होगी, वहू सोचा जाये ।
पोस्ट तो मस्तम-मस्त है, पर तेल फुलेल तम्बाकू बेचते बेचते सुँघनी साहू के घर जयशँकर प्रसाद भी भये रहें, ईहौ नोट कल्लैं योर ऑनर !
रही बात फारसी पढकर तेल बेचने की तो जिन देशो के लोग ज्यादा फारसी पढते हैं वहीं ज्यादा तेल निकलता है और जब निकलता है तो बेचना भी पडता है, अब यह न पूछने लगना कि निकलता तो पसीना भी है वह् क्यो नहीं बेचते ? यह कुतर्क होगा .
हो सकता है यह जो “पढें फारसी बेचें तेल” वाली बात है वह कोई मुहावरा न होकर सूक्ति हो जिसका अर्थ हो कि जहां फारसी पढी जाती है वहां तेल निकलने लगता है . इस बात पर हमारी सरकाऱ को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए कि लोगो को फारसी सिखाने से यदि धरती के अंदर तेल निकलने लगता हो तो ईरान से दोस्ती फिर से कायम की जाय !
और अनूप जी को सजा मिले कि यह पोस्ट पहले क्यो नहीं लिखी जिससे देश को अब तक इतना तेल आयात करना पडा ! और हमें इनाम दिया जाय जो इतना धांसू आइडिया दिया
और जहाँ तक तेल बेचने की बात है, अरे बड़ी आमदनी है जी इसमें मेरे एक ख़ास दोस्त तेल बेचते हैं रोयल डच शेल में. मत पूछिए कितनी तनख्वाह है उनकी… बोरे भर के कमी होती है जी ! तो अब तेल बेचने वालों की चकाचक है बिलकुल.
एक मुहावरा याद भी हो आया और यहाँ चरितार्थ भी हो कह देता हूँ ,मौका भी है ,दस्तूर भी !
हाथ कंगन को आरसी क्या ?
(पढ़े लिखे को फारसी क्या )
ई इतना बडा बोर्डवा लगायें है जौने में ई लिखा बा “पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से।”
और करत बातें राउर ब्लागिंग -इहै तो है पढ़े फारसी ……
और इहीं खातिर हम आपन परिचय्वा नाही देते ,लोग क्या कहेगें !
बद अच्छा बदनाम बुरा -ऊ अटल जी अक्सर कहते थे ना -
न भीतो मरणास्मि केवलम दूशितो यशः (वाल्मीकि रामायण -और भड़किये संस्कृत से हा हा )
तो भईया अपनी इज्जत अपने हाथ -आपौ एई बोर्डवा उतार दीजिये नजर गड गयी है कल ब्लॉगजगत में इहौ आचार संहिता का मुद्दा बनिहै ! और आपके डिग्री का तौहीन तो ई ब्लागिंग के चक्कर में हुयियै गवा बा !
(हे हे सेंटी मत होईयेगा -मौज है मौज ! )
मस्त चटखारेदार है यह जायका भी.
बधाई.
नक्श इलाहाबादी को पढ़ना सुखद रहा.
बाकी ज्ञान जी की बात सही है, आज फारस वाले भी तो फारसी तज तेली बने हुए हैं, यही रईसियत का मूल मंत्र है जी आज, तेलियों की औकात के आगे बड़े-२ इंडस्ट्रियलिस्ट, साहूकार, नेता आदि पानी भरते हैं (तेल भर सकते तो वे भी तेली हो जाते ना, इसलिए पानी ही उचित मसल है इधर)। इसलिए तेलियों को कुछ न कहा जाए, आजकल तो चलन ऐसा है कि किसी को आशीष भी देना हो तो यह न दिया जाए कि बड़े होकर आलिम फाज़िल बनो, बल्कि यह दिया जाए कि बड़े होकर तेली बनों!!
आप जो कहना चाहते हैं, क्या उसका वही अर्थ समझना ज़रूरी है?
जो फ़ारसी पढ़ता है वही तेल बेचता है. टॉप के पद पर चयनित युवा को जब असलियत से दो-चार होना पड़ता है तो वह उस जमीन पर नहीं टिकता. हाल में सालों की मेहनत के बाद मिली IAS की कुर्सी को छोड़कर बड़ी कंपनी में पद प्राप्त करने वालों की तादाद बढ़ गई है.
मेरे दफ्तर में किसी काम से आनेवाले एक IAS से मैंने एक बार कहा – “जिस जगह आप आप हैं, वहां रहकर तो बड़े-बड़े काम किए जा सकते हैं.” – उन्होंने उत्तर में बस इतना कहा – “not in India.”
मुहावरे को बैन करने के विचार का मैं विरोध करता हूं.
मेरा वतन मेरा हिन्दोस्तान बाकी है॥
इस शेर ने तो समझिये खा (मार ) ही डाला….
“पढें फारसी बेचें तेल ” मुहावरे का असल अर्थ आज जाहिर हुआ….क्या लाजवाब सप्रसंग व्याख्या की है आपने…..
बहुत बहुत लाजवाब..आभार…
पांच साल पहले बताते तो अब तक तेल बेच कर पैसा बना रहे होते
पैसा ज्यादा होता और मेहनत कम लगे हाथ ब्लोगिंग के लिए समय ही समय
कम से कम डेली ब्लॉग पढने को तो समय मिल जाता
अनूप जी क्या क्या कर डालते हैं आप
छछूंदर के सर पर चमेली का तेल।
मजेदार पोस्ट, तेल बेचने वालो की तो आज से ही चान्दी
वैसे फारसी पढने की बजाय तेल बेचना हीतकार है।
यू भी फारस की खाडी मे तेलवा बहूत है
आभार
हे! प्रभु यह तेरापन्थ
“ओ गुरु, बेचना, खरीदना, खोना, पाना, मिलना बिछड़ना, ये सब कुम्भ के मेले में होता है. सच तो यह है गुरु कि भीड़ में हर आदमी अकेला होता है. चलता चला-चल तू लहरों के साथ, इस दुनियाँ के शापिंग माल में बिना क्रेडिट कार्ड के क्या है तेरी औकात?”
इसी विषय पर महाराज कहते हैं;
कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढें वन माहि
सब सेंस बेकार है, जब कामन सेंस ही नाहि
(महान विचारक और प्रसिद्द समाजशास्त्री श्री सिद्धू जी महाराज के अमृत वचन से साभार)
regards
अच्छा लिखा…लेकिन फारसी तो कभी कठिन भाषा न रही भाई तभी तो कहा गया है…
हाथ कंगन को आरसी क्या
पढ़े लिखे को फारसी क्या।
जलाने वाले का हो या बुझाने वाले का
सुना है शहर में बस इक मकान बाकी है।
क्या बात है.
Think Scientific Act Scientific
आज वाकई फ़ुरसत में था…आप यहां ले आए…
काफ़ी देर तक तो यहां ब्लॉग गेटअप ही निहारता रहा….
इधर-उधर झांकता ही रहा…
अभी भी मुझको है माहौल के दमाग पे शक
के हर यकीन के दिल में गुमान बाकी है।
अभी कई गुमान बाकी हैं…बेहतर
हाथ कंगन को आरसी क्या
पढे़-लिखे को फ़ारसी क्या
आब-आब कहि पुतुआ मरी ग, खटिया के तरे धरा रहि ग पानी |
आब-आब कहि पुतुआ मरी ग, खटिया के तरे धरा रहि ग पानी |