http://web.archive.org/web/20140419213406/http://hindini.com/fursatiya/archives/847
पिछली बार आत्मीय साजिश करने वाले केवल जन्मदिन पर उपहार देने के बहाने से लैस थे। लेकिन मितव्ययिता के हमारे तर्क के आगे उनका उत्साह पानी में बतासे की तरह घुल गया। लेकिन महीने भर के भीतर ही उन ताकतों ने पलटवार किया। इस बार उन ताकतों के साथ हमारा बड़ा बेटा भी शामिल हो गया था। बाहर पढ़ने जाने के बाद पहली बार घर वापस आया है। इस बीच उसने हास्टल में और तो पता नहीं क्या किया लेकिन एक चीज ने मुझे चौंका दिया। यह सच में मेरे लिये आश्चर्य का विषय था कि उसने अपने सारे खर्चे का पूरा हिसाब-किताब लिख रहा था। बड़े खर्चे से लेकर दस-बीस रुपये के खर्चे का हिसाब मय रसीद के देखकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। हमारे खानदान में ऐसा आजतक नहीं हुआ कि पैसा खर्चा करके उसका हिसाब लिखकर रखें। इस लड़के ने तो खानदान के सारे किये धरे पर पानी फ़ेर दिया। मैंने भी तड़ से तय कर लिया कि हिसाब लिखा करेंगे। तड़ से तय करने के बाद भड़ से उस इरादे पर अमल करने की बजाय इरादे पर आलस्य का स्टे हटने का इंतजार कर रहे हैं।
तो बड़े बेटे ने हमारी विरोधी पार्टी में शामिल होकर नया बहाना पेश किया कि नये बनिये और आधुनिकतम तकनीक का इस्तेमाल सीखिये। पैसे की बात साजिशन किनारे करते हुये उसने लेटेस्ट तकनीक से जुड़ाव की बात असरदार तरीके से कही। बहरहाल लब्बोलुआब यह कि विरोधी खर्चा पार्टी ने हमारे खर्चा बचाने के सारे तर्कों का संहार करते हुये हमें जबरियन आधुनिक बनाने की मंशा के तहत कल हमको नया मोबाइल नोकिया का E 71 भेंट कर दिया। अब यह बताना गैरजरूरी ही रहेगा कि इस सारे कार्यकलाप में हमारा ही मासूम एटीएम कार्ड पैसा मशीन के जबड़ों से गुजरता रहा। बेचारे का सारा सत्व खींच लिया गया।
बाद में यह पता चला कि हमारा बेटा इस बीच उसको दिलाये गये लैपटाप का रिटर्नगिफ़्ट देने के लिये भी मेरे लिये मोबाइल पार्टी में शामिल हुआ था। हमारे ही पैसे से गिफ़्ट। हमारे से ही रिटर्न गिफ़्ट! जय हो! इस बीच लगभग हफ़्ते भर के खर्चे के बारे में मैंने पूछा तो पता लगा कि उसने इस दौरान खर्चे का कोई हिसाब नहीं रखा। घर आते ही घर वालों जैसा होगा। इसीलिये कहा गया है- कुसंग का ज्वर भयानक होता है।
मोबाइल की बात पर ध्यान आई अभय तिवारी की फ़िल्म सरपत जिसमें मोबाइल और उससे खींची गयी फोटो के आसपास लघु फ़िल्म का ताना-बाना बुना है।
हमने अपने चेहरे पर जरूरी अपराध बोध और बेफ़िजूल की हंसी धारण करके एकाध मरियल बहाने पेश करते हुये अभय के एतराज सहलाते हुये संभाला और दौड़-धूप में जुट गये कि सनीमा देख ही डाला जाये। हमारा लैपटाप बिगड़ा हुआ था सो हमें दौड़ने-धूपने का अतिरिक्त मौका मिला। गये पास की दुकान से एक लैपटाप उठा के लाये। सनीमा देखने में अपनी तरफ़ से हुई देरी की कमी हमने पूरी की एक और दर्शक का जुगाड़ करके। राजीव टंडन जी को भी बुला लिया और फ़िर सरपत चालू की गयी।
अठारह-बीस मिनट की इस लघु फ़िल्म में कुल जमा पांच पात्र हैं। नायक-नायिका की कार खराब हो जाती है। बियावान में पास के एक घर में खोजते हुये जाते हैं। वहां एक महिला है। वो अपने देवर के साथ रहती है। महिला का पति नहीं है। उसके न रहने के पीछे कर्जा है। छोटा बच्चा है। महिला अपने देवर को बुलाती है कार का टायर बनाने का काम करने के लिये।
इस बीच नायिका और उस महिला की बातचीत होती है। यही इस फ़िल्म का प्राणतत्व है। इस बातचीत में जड़ से मजबूरी में उजड़कर दूसरी जगह बसे लोगों की मन:स्थिति, उनके प्रति सभ्य समाज की सहज सी सोच और संपन्न और विपन्न के बीच बढ़ती खाई और उनकी सोच-समझ के अंतर को बहुत खूबी से उभारा गया है।
फ़िलिम देखने के बाद राजीव टंडन और अभय तिवारी तो उसकी निर्माण प्रक्रिया में जुट गये। इस बीच हमने फिलिम दोबारा देख डाली और उनके बीच हो रहे उच्च सिनेमाई वार्तालाप का भी प्रसाद पाया। मुझे पहली बार एहसास हुआ कि फ़िलिम बनाने के भी क्या झमेले हैं।
कल से हो रहे इलाहाबाद ब्लागर सम्मेलन में भी इस फ़िलिम को किसी मौके पर दिखाये जाने की योजना है। अभय के साथ प्रमोद जी भी इस फ़िलिम के निर्माण से जुड़े हैं। दोनों लोगों को कल इलाहाबाद आना था लेकिन अंत समय तक आरक्षण न हो पाने के कारण वे नही आ पा रहे हैं। अभय की तबियत भी कुछ सही नहीं है सो बिना रिजर्वेशन के अतिरिक्त वीरता दिखाने से परहेज किया गया।
सरपत फ़िलम के बारे में और जानकारी आप यहां , यहां और यहां से ले सकते हैं। खरीदने के लिये आप निम्न पते पर संपर्क कर सकते हैं।
मैजिक लैन्टर्न फ़ाउन्डेशन
जे १८८१, चित्तरंजन पार्क, नई दिल्ली – ११००१९
फोन: +९१ ११ ४१६०५२३९, २६२७३२४४
ईमेल: underconstruction@magiclanternfoundation.org / magiclantern.foundation@gmail.com / magiclf@vsnl.com
वेब पेज: http://www.magiclanternfoundation.org
मूल्य:
भारत अन्तर्राष्ट्रीय
व्यक्तिगत
वी सी डी: २५० रुपये
डी वी डी: ४०० रुपये
संस्थागत:
डी वी डी: ७०० रुपये
(४% वैट व डाक शुल्क अतिरिक्त)
अन्तर्राष्ट्रीय
व्यक्तिगत:
डी वी डी: २० य़ूएस डॉलर
संस्थागत:
डी वी डी: ३२० यू एस डॉलर
(डाक शुल्क अतिरिक्त)
ईमेल: underconstruction@ magiclanternfoundation.org
और मैं अच्छा हुआ जनाब तो क्या
है ही क्या मुश्तेख़ाक से बढ़ कर
आदमी का है ये रुआब तो क्या
उम्र बीती उन आँखों को पढ़ते
इक पहेली सी है किताब तो क्या
मैं जो जुगनु हूँ गर तो क्या कम हूँ
कोई है गर जो आफ़ताब तो क्या
ज़िंदगी ही लुटा दी जिस के लिये
माँगता है वही हिसाब तो क्या
मिलते ही मैं गले नहीं लगता
फिर किसी को लगा खराब तो क्या
आ गया जो सलीका-ए-इश्क अब
’दोस्त’ मरकर मिला सवाब तो क्या
मानसी
नयी तकनीक, मोबाइल और तलवार से तेज सरपत
By फ़ुरसतिया on October 22, 2009
लुटना तकनीक के नाम पर
कहावतें कोई ऐसे ही नहीं बनाई गयी हैं। सच तो यह है कि वे बनाई कहां गयीं हैं वे तो समय की सच्चाई के फ़ोटो-सोटोग्राफ़ टाइप चीजें हैं। हम जुमा-जुमा एक महीने पहले हम बड़े उचके-उचके घूम रहे थे कि हमने लिखा था:उपहार घर वाले देने पर अड़े थे एक नया मोबाइल! लेकिन हम न लेने पर अड़ गये। मितव्ययिता और समझदारी हमारे ऊपर जमकर सवार थीं। समझदारी इसलिये कि हमें पक्का पता था कि ये मोबाइल आये भले हमारे पैसे से लेकिन इसका इस्तेमाल वही ताकतें करेंगी जो इसे खरीदवाने के लिये बेताब हैं। हमारे भाग्य में अंतत: उन ताकतों का पुराना मोबाइल ही आना है। इसलिये हमने दृढ़ता पूर्वक इस आत्मीय साजिश को फ़ेल कर दिया !हमने उस समय तो आत्मीय साजिश को विफ़ल कर दिया। लेकिन हमें पता था कि बकरे की अम्मा कब तक खैर मनायेगी कहावत अपना जलवा दिखाये बिना मानेगी नहीं। और वही होकर रहा।
पिछली बार आत्मीय साजिश करने वाले केवल जन्मदिन पर उपहार देने के बहाने से लैस थे। लेकिन मितव्ययिता के हमारे तर्क के आगे उनका उत्साह पानी में बतासे की तरह घुल गया। लेकिन महीने भर के भीतर ही उन ताकतों ने पलटवार किया। इस बार उन ताकतों के साथ हमारा बड़ा बेटा भी शामिल हो गया था। बाहर पढ़ने जाने के बाद पहली बार घर वापस आया है। इस बीच उसने हास्टल में और तो पता नहीं क्या किया लेकिन एक चीज ने मुझे चौंका दिया। यह सच में मेरे लिये आश्चर्य का विषय था कि उसने अपने सारे खर्चे का पूरा हिसाब-किताब लिख रहा था। बड़े खर्चे से लेकर दस-बीस रुपये के खर्चे का हिसाब मय रसीद के देखकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। हमारे खानदान में ऐसा आजतक नहीं हुआ कि पैसा खर्चा करके उसका हिसाब लिखकर रखें। इस लड़के ने तो खानदान के सारे किये धरे पर पानी फ़ेर दिया। मैंने भी तड़ से तय कर लिया कि हिसाब लिखा करेंगे। तड़ से तय करने के बाद भड़ से उस इरादे पर अमल करने की बजाय इरादे पर आलस्य का स्टे हटने का इंतजार कर रहे हैं।
तो बड़े बेटे ने हमारी विरोधी पार्टी में शामिल होकर नया बहाना पेश किया कि नये बनिये और आधुनिकतम तकनीक का इस्तेमाल सीखिये। पैसे की बात साजिशन किनारे करते हुये उसने लेटेस्ट तकनीक से जुड़ाव की बात असरदार तरीके से कही। बहरहाल लब्बोलुआब यह कि विरोधी खर्चा पार्टी ने हमारे खर्चा बचाने के सारे तर्कों का संहार करते हुये हमें जबरियन आधुनिक बनाने की मंशा के तहत कल हमको नया मोबाइल नोकिया का E 71 भेंट कर दिया। अब यह बताना गैरजरूरी ही रहेगा कि इस सारे कार्यकलाप में हमारा ही मासूम एटीएम कार्ड पैसा मशीन के जबड़ों से गुजरता रहा। बेचारे का सारा सत्व खींच लिया गया।
बाद में यह पता चला कि हमारा बेटा इस बीच उसको दिलाये गये लैपटाप का रिटर्नगिफ़्ट देने के लिये भी मेरे लिये मोबाइल पार्टी में शामिल हुआ था। हमारे ही पैसे से गिफ़्ट। हमारे से ही रिटर्न गिफ़्ट! जय हो! इस बीच लगभग हफ़्ते भर के खर्चे के बारे में मैंने पूछा तो पता लगा कि उसने इस दौरान खर्चे का कोई हिसाब नहीं रखा। घर आते ही घर वालों जैसा होगा। इसीलिये कहा गया है- कुसंग का ज्वर भयानक होता है।
मोबाइल की बात पर ध्यान आई अभय तिवारी की फ़िल्म सरपत जिसमें मोबाइल और उससे खींची गयी फोटो के आसपास लघु फ़िल्म का ताना-बाना बुना है।
सरपत तलवार से तेज
पिछली बार जब अभय तिवारी कानपुर आये थे तो अपने साथ अपनी लघु फ़िल्म सरपत की सीडी भी लाये थे। झोले में धरे रहे काफ़ी देर। और तमाम सवाल-जबाब खर्च हो गये तो हमें याद कि इन्होंने एक फ़िलिम भी तो बनाई है। हमने उसकी बात शुरू की। अभय भरे बैठे थे सो धीरे से हमको हड़का दिये- आप इस बारे में पूछ ही नहीं रहे हैं। हम तो अपने साथ लाये हैं आपको दिखाने के लिये।हमने अपने चेहरे पर जरूरी अपराध बोध और बेफ़िजूल की हंसी धारण करके एकाध मरियल बहाने पेश करते हुये अभय के एतराज सहलाते हुये संभाला और दौड़-धूप में जुट गये कि सनीमा देख ही डाला जाये। हमारा लैपटाप बिगड़ा हुआ था सो हमें दौड़ने-धूपने का अतिरिक्त मौका मिला। गये पास की दुकान से एक लैपटाप उठा के लाये। सनीमा देखने में अपनी तरफ़ से हुई देरी की कमी हमने पूरी की एक और दर्शक का जुगाड़ करके। राजीव टंडन जी को भी बुला लिया और फ़िर सरपत चालू की गयी।
अठारह-बीस मिनट की इस लघु फ़िल्म में कुल जमा पांच पात्र हैं। नायक-नायिका की कार खराब हो जाती है। बियावान में पास के एक घर में खोजते हुये जाते हैं। वहां एक महिला है। वो अपने देवर के साथ रहती है। महिला का पति नहीं है। उसके न रहने के पीछे कर्जा है। छोटा बच्चा है। महिला अपने देवर को बुलाती है कार का टायर बनाने का काम करने के लिये।
इस बीच नायिका और उस महिला की बातचीत होती है। यही इस फ़िल्म का प्राणतत्व है। इस बातचीत में जड़ से मजबूरी में उजड़कर दूसरी जगह बसे लोगों की मन:स्थिति, उनके प्रति सभ्य समाज की सहज सी सोच और संपन्न और विपन्न के बीच बढ़ती खाई और उनकी सोच-समझ के अंतर को बहुत खूबी से उभारा गया है।
फ़िलिम देखने के बाद राजीव टंडन और अभय तिवारी तो उसकी निर्माण प्रक्रिया में जुट गये। इस बीच हमने फिलिम दोबारा देख डाली और उनके बीच हो रहे उच्च सिनेमाई वार्तालाप का भी प्रसाद पाया। मुझे पहली बार एहसास हुआ कि फ़िलिम बनाने के भी क्या झमेले हैं।
कल से हो रहे इलाहाबाद ब्लागर सम्मेलन में भी इस फ़िलिम को किसी मौके पर दिखाये जाने की योजना है। अभय के साथ प्रमोद जी भी इस फ़िलिम के निर्माण से जुड़े हैं। दोनों लोगों को कल इलाहाबाद आना था लेकिन अंत समय तक आरक्षण न हो पाने के कारण वे नही आ पा रहे हैं। अभय की तबियत भी कुछ सही नहीं है सो बिना रिजर्वेशन के अतिरिक्त वीरता दिखाने से परहेज किया गया।
सरपत फ़िलम के बारे में और जानकारी आप यहां , यहां और यहां से ले सकते हैं। खरीदने के लिये आप निम्न पते पर संपर्क कर सकते हैं।
मैजिक लैन्टर्न फ़ाउन्डेशन
जे १८८१, चित्तरंजन पार्क, नई दिल्ली – ११००१९
फोन: +९१ ११ ४१६०५२३९, २६२७३२४४
ईमेल: underconstruction@magiclanternfoundation.org / magiclantern.foundation@gmail.com / magiclf@vsnl.com
वेब पेज: http://www.magiclanternfoundation.org
मूल्य:
भारत अन्तर्राष्ट्रीय
व्यक्तिगत
वी सी डी: २५० रुपये
डी वी डी: ४०० रुपये
संस्थागत:
डी वी डी: ७०० रुपये
(४% वैट व डाक शुल्क अतिरिक्त)
अन्तर्राष्ट्रीय
व्यक्तिगत:
डी वी डी: २० य़ूएस डॉलर
संस्थागत:
डी वी डी: ३२० यू एस डॉलर
(डाक शुल्क अतिरिक्त)
ईमेल: underconstruction@ magiclanternfoundation.org
मेरी पसंद
लोग मुझको कहें ख़राब तो क्याऔर मैं अच्छा हुआ जनाब तो क्या
है ही क्या मुश्तेख़ाक से बढ़ कर
आदमी का है ये रुआब तो क्या
उम्र बीती उन आँखों को पढ़ते
इक पहेली सी है किताब तो क्या
मैं जो जुगनु हूँ गर तो क्या कम हूँ
कोई है गर जो आफ़ताब तो क्या
ज़िंदगी ही लुटा दी जिस के लिये
माँगता है वही हिसाब तो क्या
मिलते ही मैं गले नहीं लगता
फिर किसी को लगा खराब तो क्या
आ गया जो सलीका-ए-इश्क अब
’दोस्त’ मरकर मिला सवाब तो क्या
मानसी
Posted in बस यूं ही | 28 Responses
Shastri JC Philip
http://English.Sarathi.Info
[यह बात अलग है ki आप ही के पैसे से aap ko गिफ्ट और पार्टी दोनों दी गयीं]
मोबाइल से ली गयीं तस्वीरें बहुत साफ़ और अच्छी आई हैं.
-’सरपत’ की समीक्षा और manasi ji ki ग़ज़ल अच्छी हैं.
आभार.
वामपंथी विचार वालों द्वारा फिल्म जाहिर है आम आदमी के सरोकार पर ही होगी, को पैसे लेकर बेचना समझ नहीं आया. ऐसा कूकर्म तो पूँजीवादी ताकतें करती है. मौज है जी, मौज में लें.
अपने मित्र के लिए हमारी शुभकामनायें ! आगे कभी कमजोर पडो तो ट्रेड यूनियन का यह नारा बाथ रूम में लगा लेना, हिम्मत आएगी !
लड़े हैं, जीते हैं
लडेंगे,जीतेंगे !
रामराम.
फिलम के बारे में आज आप से विस्तार से जानने को मिला।
आप की पसंद भी अच्छी लगी।
उम्र बीती उन आँखों को पढ़ते
इक पहेली सी है किताब तो क्या
वाह..वाह..
गवाही इन फोटूओं की, तो…
आप भी ई 71 धारक हो गये ?
आपके ई-प्रेम का सम्मान करते हुये,
हमने इसको एक्ठो प्यारा नाम दे मारा है, ई-मोबैल !
मुला लड़का होशियार है, मछली के तेल में उसी मछली को फ़्राई करके पेश कर दिया, अब लेयो !
पत्नी जी ज़िन्दगी भर इसकी डकार दिलवाती रहेंगी, ’ बच्चे आपका कितना ध्यान रखते हैं ।’
फुरसतिया गुरु, अपनेहिन बिरवा के चीकने पात की भावनाओं को भी समझा करो ।
वईसे इस पोस्ट में आपकी खुशी छिप न रही है, अपने ही हाथों एक मँहगा मोबाइल लेने के कलँक से बच्चे ने उबार जो लिया ।
घुघूती बासूती
ई का किये महाराज? एतना बढ़िया मोबाईल का ई हश्र? वईसे जब हम लोग भी नहीं कमाते थे तब पापा जी को अईसे ही गिफ्ट सिफ्ट दिया करते थे.. और उन्हें लुटने का अहसास भी नहीं होता था.. या तो आपके बच्छे उतना चालू नहीं हुये हैं, या फिर आप बहुत चालू हैं जो अपने लुटने का अहसास इतना जल्दी हो गया..
वैसे हम भी अपने खानदान में पहले इंसान हुये थे जो अपने हर दिन का हिसाब-किताब लिखते थे.. यहां तक की अठन्नी-चवन्नी तक का.. नौकरी में आने के बाद सब छूट गया..
चलिये, जो हुआ सो हुआ.. अच्छा ही हुआ.. लेकीन एक बात बताया जाये, आप अपने तो फिरी में सिलेमा देख लिये हैं और हम लोग के लिये प्राइस टांग दिये हैं.. ई सब ठीक नहीं है.. ई भी बता दिया जाये कि ई सिलेमा टोरेंट पर है की नहीं?
माडर्न होने की बधाई :डी एक आध थो फ़ोन का फोटो भी चिपका देते विरोधी ताकतें फोटो में बहुत खुश नज़र आ रही हैं, भगवान उनकी हंसी सलामत रखे.
फिल्म देखने का जुगाड़ भिडाते हैं
ऊपर वाले फोटू को खिंचवाते हुए आपके मन के किसी कोने में शंका थी कि, “कहीं ऐसा न हो कि मेरा फोटू न आये और यदि आये तो आधा ही आये ।”
और जब आ गया तो आप असावधान हो गये और नीचे वाले में आपका कुछ हिस्सा फोटू से बाहर हो गया,
इसी को कहते हैं ‘सावधानी हटी दुर्घटना घटी ।’
और मैं अच्छा हुआ जनाब तो क्या
ज़िंदगी ही लुटा दी जिस के लिये
माँगता है वही हिसाब तो क्या
मिलते ही मैं गले नहीं लगता
फिर किसी को लगा खराब तो क्या
खूब खूब..बहुत खूब…! कितनी तारीफ की जाये भला…!
एक बात और ये फोटू चाहे जिसकी हो उससे तो हमे कुछ नही लेना मगर ये स्वीटर हमारा है…! पिछली बार कानपुर वाली बस में छूट गया था…! अब फिर से जाड़ा आ रहा है और इसको पहिन के हम भी अइसे ही इस्मार्ट लगते हैं जइसे ये वाली जिज्जी लग रही हैं… ! तो ना हो तो दिलवा दीजिये इन जिज्जी से हमारा आईटम…!!!
आपके मोबाईल का कैमरा काम कर रहा है यह फ़ोटो देखकर पता चल रहा है।
शुक्रिया सभी को जिन्होंने इस ग़ज़ल को पसंद किया है।
@ कंचन, इसी गर्मी में गुम हुई थी न तुम्हारी (जिज्जी कहा है तो मैं तुम्हें तुम ही कह रही हूँ) स्वेटर? अभी अभी भारत यात्रा के दौरान मुझे एक बस में मिल गई। इतनी पसंद आई कि बस…अब तो अगली बार भारत आऊँगी, तभी मिलेगी तुम्हें। इस साल जाड़े में कोई और अच्छी वाली खरीद कर रखो। मेरी पसंद का तो पता ही हो गया है तुम्हें अब
अब जरा ये बताएँ कि फोन में हिंदी का जुगाड़ पानी है या नहीं?
बहुत जानदार सलीके से कहा है।
अब एंटी-रिटर्न-गिफ्ट की तैयारी कीजिए