http://web.archive.org/web/20140419213237/http://hindini.com/fursatiya/archives/1118
बचपन से पढ़ने-लिखने से लगाव होने के कारण छपी हुई चीज से अलग तरह का लगाव है। कभी छपने-छपाने के लिये मेहनत नहीं किये हालांकि कभी-कभी लोग कहते हैं कि छपाना चाहिये। इस बारे में मैंने एक लेख भी लिखा था—लिखिये तो छपाइये भी।
ऐसे ही बीस-बाइस साल पहले मेरी तीन कवितायें नवभारत टाइम्स में छपीं थी। उनकी कटिंग कल एलबम के बीच मिली। कागज पीला हो गया है लेकिन लगता है जैसे हाल ही की हों। ये तीन कवितायें मैं लोगों के कहने पर सुनाया करता था शाहजहांपुर में जहां मित्र लोग मुझे कविता का गुलेरीजी कहा करते थे।
कल ऐसे ही मेरे स्टॉफ़ का बच्चा मेरे पास किसी काम से आया। कुछ देर रुका और मुझे कुछ लिखता देखकर बोला- अंकल, पापा बता रहे थे कि आप कुछ कविता-फ़बिता लिखते हैं।:)
आई.आई.टी. गेट पर सुरक्षा व्यवस्था के अनुसार गेट पास बनवाना पड़ता है। मेरी मोटर साइकिल का नम्बर तो वहां मौजूद था लेकिन उसको बताना था कि जिससे मिलने जाना है उसका कमरा नम्बर क्या है? मुझे न अंकुर का कमरा नम्बर याद था न रविकांत का! मैं उनसे फ़ोन करके पूछता तब तक रविकांत का फोन आ गया और हम उनका कमरा नम्बर लिखाकर अंदर गये।
वहां सबसे मुलाकात हुई। काफ़ी बातें होती रहीं इधर-उधर की।अभिषेक को इंटरव्यू में जाने की हड़बड़ी थी। उनके दोनों सहयोगी खाकर का में बैठने चले गये। हम थोड़ी देर कैफ़ेटेरिया से बाहर बतियाये फ़िर अभिषेक फोटो सेशन के बाद चले गये। उनके जाने के बाद हम तीन लोग बतियाते रहे।
इस बीच हमारे मोबाइल पर एक फोन आया। पंजाब से आये एक ग्राहक को रिवाल्वर लेना था। शनिवार को रिवाल्वर डिलीवरी नहीं होती! ग्राहक कह रहा था—बाबूजी, ग्रीब आदमीं हूं। आने में देर हो गयी। आज ही डिलीवरी करा दीजिये।
मुझे लगा कि येल्लो बयासी हजार का हथियार लेने वाला आदमी भी ग्रीब हो गया। खैर लौटकर उस ग्रीब आदमी की सेवा की गयी।
दो दिन पहले चिट्ठाचर्चा में एक ब्लागर साथी को उनके बारे में लिखे पर कुछ एतराज था। जब वह चर्चा छपी तो सबसे पहली प्रतिक्रिया उनकी ही थी और उसका सबसे पहला शब्द था वाह!
एक दिन बाद उन्होंने विनम्रता पूर्वक सूचित किया कि आप उनकी फोटो हटायें और माफ़ी मांगे(खेद नहीं) अन्यथा उनको मजबूरन स्थानीय न्यायालय में कानूनी कार्यवाही करने के लिये बाध्य होना पड़ेगा।
मैंने तुरंत माफ़ीनामा चर्चा पर लगा दिया। किसी को व्यथित करके , चाहे वह योजना पूर्ण तरीके से ही क्यों न हो रहा हो, कोर्ट-कचहरी करने की अपनी तो हिम्मत नहीं। चाहता तो मैं पोस्ट ही हटा देता लेकिन मैंने सोचा लोगों की प्रतिक्रियायें जो उनकी प्रकृति का इजहार करती हैं वे रहनी चाहिये ताकि यह सनद रहे कि प्रेम-मोहब्बत, घर-परिवार भाईचारे की बातें करने वालों असलियत क्या है!
इस बीच बड़े- बुजुर्ग लोग अपनी प्रोफ़ाइल बदल-बदल कर या फ़िर अपनी-अपनी समझ के हिसाब से मौज लेते रहे। ये वे लोग हैं जिन्होंने मेरे लेखन पर मुग्ध होते हुये टिप्पणियां की हैं कि आप मुझसे छोटे हैं फ़िर भी हम आपको प्रणाम करते हैं/ अपनी कलम उधार दे दो भाई टाइप। वे सब टिप्पणियां मेरे ब्लाग पर हैं। जब मैं उनको देखता हूं तो सोचता हूं कि कौन सी बात सच है। ये या वो।
परसाई जी का लिखा एक बार फ़िर याद आया -"वे सुबह मछली को दाना चुगाते हैं और रात को फ़िश करी खाते हैं।"
शाम को माफ़ी मांग चुकने के बाद बहुत देर बात हुई मेरी उस ब्लागर से। मैंने पूछा कि वह बात जिससे उनकी मानहानि हुई वह मैं उनको (और उनके साथ संबंधित लोगों को भी) मेल से भी भेज चुका था और पोस्ट में भी एक दिन लगी रही। तब उनको मानहानि का एहसास नहीं हुआ। यह भी कहा कि जन्मदिन के लिये आप रात बारह बजे फोन कर सकते हैं और कोई चीज बुरी लगी तो उसका इशारा तक नहीं कर सकते। इस पर उनका कहना था वे उस पोस्ट पर टिप्पणियों का इंतजार कर रहे थे। उसके हिसाब से उनको अपना रुख तय करना था।
मानहानि का भी अपना गणित होता है। अपनी प्रक्रिया होती है।
बड़े-बुजुर्ग लोगों ने इस घटना के बारे में उत्सुकता जताते हुये पूरी मासूमियत से पूछा कि क्या इसी विस्फ़ोट की बात हो रही थी?
बहरहाल फ़िलहाल तो मुझे यह शेर याद आ रहा है:
जिंदगी में बिखर कर संवर जाओगे
आंख से जो गिरे तो किधर जाओगे।
आंख से गिरे लोगों उठाने वाली कोई लिफ़्ट/कोई जैक मेरी समझ में अभी तक नहीं बना।
सारी दुनिया को
अपनी मुठ्ठियों में भींचकर
चकनाचूर कर देना चाहता हूं।
हर गगनचुम्बी इमारत को जमींदोज
और सामने उठने वाले हर सर को
कुचल देना चाहता हूं।
मेरा हर स्वप्न
मुझे शहंशाह बना देता है
हर ताकत मेरे कदमों में झुकी
कदमबोसी करती है।
बेखयाली के किन लम्हों में
पता नहीं किन सुराखों से
इतनी कमजोरी मेरे दिमाग में दाखिल हो गई!
अनूप शुक्ल
कविता-फ़विता, ब्लॉगर से मुलाकात और मानहानि
By फ़ुरसतिया on December 7, 2009
आप कुछ कविता-फ़बिता लिखते हैं:
दो दिन पहले गौतम राजरिशी ने एस.एम.एस. करके सूचना दी कि मासिक पत्रिका परिकथा में हमारे ब्लाग का जिक्र है। फोन करके पता किया उनसे तो पता चला कि परसाईजी के बारे में संस्मरण वाली पोस्ट का जिक्र था उसमें। शाम को पत्रिका खरीद कर लाया तो देखा कि पत्रिका में ब्लॉग शीर्षक के अंतर्गत कुछ लेखों की चर्चा की थी मधेपुरा ,बिहार के अरविन्द श्रीवास्तव ने।बचपन से पढ़ने-लिखने से लगाव होने के कारण छपी हुई चीज से अलग तरह का लगाव है। कभी छपने-छपाने के लिये मेहनत नहीं किये हालांकि कभी-कभी लोग कहते हैं कि छपाना चाहिये। इस बारे में मैंने एक लेख भी लिखा था—लिखिये तो छपाइये भी।
ऐसे ही बीस-बाइस साल पहले मेरी तीन कवितायें नवभारत टाइम्स में छपीं थी। उनकी कटिंग कल एलबम के बीच मिली। कागज पीला हो गया है लेकिन लगता है जैसे हाल ही की हों। ये तीन कवितायें मैं लोगों के कहने पर सुनाया करता था शाहजहांपुर में जहां मित्र लोग मुझे कविता का गुलेरीजी कहा करते थे।
तीन कवितायें
कल ऐसे ही मेरे स्टॉफ़ का बच्चा मेरे पास किसी काम से आया। कुछ देर रुका और मुझे कुछ लिखता देखकर बोला- अंकल, पापा बता रहे थे कि आप कुछ कविता-फ़बिता लिखते हैं।:)
ब्लॉगर दोस्तों से मुलाकात:
शनिवार को अभिषेक ओझा का फ़ोन आया। वे आई.आई.टी. कानपुर में आये हुये थे। अपनी कम्पनी के लिये कुछ लोगों का चयन करने। उनसे मिलने गया। आई.आई.टी. में ही अंकुर वर्मा और रविकांत भी हैं। मैंने उनको भी सूचित कर दिया और दोपहर बाद मिलने गया।आई.आई.टी. गेट पर सुरक्षा व्यवस्था के अनुसार गेट पास बनवाना पड़ता है। मेरी मोटर साइकिल का नम्बर तो वहां मौजूद था लेकिन उसको बताना था कि जिससे मिलने जाना है उसका कमरा नम्बर क्या है? मुझे न अंकुर का कमरा नम्बर याद था न रविकांत का! मैं उनसे फ़ोन करके पूछता तब तक रविकांत का फोन आ गया और हम उनका कमरा नम्बर लिखाकर अंदर गये।
वहां सबसे मुलाकात हुई। काफ़ी बातें होती रहीं इधर-उधर की।अभिषेक को इंटरव्यू में जाने की हड़बड़ी थी। उनके दोनों सहयोगी खाकर का में बैठने चले गये। हम थोड़ी देर कैफ़ेटेरिया से बाहर बतियाये फ़िर अभिषेक फोटो सेशन के बाद चले गये। उनके जाने के बाद हम तीन लोग बतियाते रहे।
इस बीच हमारे मोबाइल पर एक फोन आया। पंजाब से आये एक ग्राहक को रिवाल्वर लेना था। शनिवार को रिवाल्वर डिलीवरी नहीं होती! ग्राहक कह रहा था—बाबूजी, ग्रीब आदमीं हूं। आने में देर हो गयी। आज ही डिलीवरी करा दीजिये।
मुझे लगा कि येल्लो बयासी हजार का हथियार लेने वाला आदमी भी ग्रीब हो गया। खैर लौटकर उस ग्रीब आदमी की सेवा की गयी।
ब्लागिंग कोई पारस पत्थर नहीं है:
ब्लागिंग के इतने दिन के अनुभव में मैंने यही पाया है कि ब्लागिंग अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। आपकी अभिव्यक्ति क्षमता को कुछ बेहतर कर सकती है यह और अगर सीखने की क्षमता और ललक हो तो उसमें निखार ला सकती है बस। व्यक्ति के मूल गुण जैसे हैं वैसे ही रहेंगे। ब्लागिंग कोई पारस पत्थर नहीं है जिसके स्पर्श से लोहा व्यक्ति सोन सरीखा बन जाये।दो दिन पहले चिट्ठाचर्चा में एक ब्लागर साथी को उनके बारे में लिखे पर कुछ एतराज था। जब वह चर्चा छपी तो सबसे पहली प्रतिक्रिया उनकी ही थी और उसका सबसे पहला शब्द था वाह!
एक दिन बाद उन्होंने विनम्रता पूर्वक सूचित किया कि आप उनकी फोटो हटायें और माफ़ी मांगे(खेद नहीं) अन्यथा उनको मजबूरन स्थानीय न्यायालय में कानूनी कार्यवाही करने के लिये बाध्य होना पड़ेगा।
मैंने तुरंत माफ़ीनामा चर्चा पर लगा दिया। किसी को व्यथित करके , चाहे वह योजना पूर्ण तरीके से ही क्यों न हो रहा हो, कोर्ट-कचहरी करने की अपनी तो हिम्मत नहीं। चाहता तो मैं पोस्ट ही हटा देता लेकिन मैंने सोचा लोगों की प्रतिक्रियायें जो उनकी प्रकृति का इजहार करती हैं वे रहनी चाहिये ताकि यह सनद रहे कि प्रेम-मोहब्बत, घर-परिवार भाईचारे की बातें करने वालों असलियत क्या है!
इस बीच बड़े- बुजुर्ग लोग अपनी प्रोफ़ाइल बदल-बदल कर या फ़िर अपनी-अपनी समझ के हिसाब से मौज लेते रहे। ये वे लोग हैं जिन्होंने मेरे लेखन पर मुग्ध होते हुये टिप्पणियां की हैं कि आप मुझसे छोटे हैं फ़िर भी हम आपको प्रणाम करते हैं/ अपनी कलम उधार दे दो भाई टाइप। वे सब टिप्पणियां मेरे ब्लाग पर हैं। जब मैं उनको देखता हूं तो सोचता हूं कि कौन सी बात सच है। ये या वो।
परसाई जी का लिखा एक बार फ़िर याद आया -"वे सुबह मछली को दाना चुगाते हैं और रात को फ़िश करी खाते हैं।"
शाम को माफ़ी मांग चुकने के बाद बहुत देर बात हुई मेरी उस ब्लागर से। मैंने पूछा कि वह बात जिससे उनकी मानहानि हुई वह मैं उनको (और उनके साथ संबंधित लोगों को भी) मेल से भी भेज चुका था और पोस्ट में भी एक दिन लगी रही। तब उनको मानहानि का एहसास नहीं हुआ। यह भी कहा कि जन्मदिन के लिये आप रात बारह बजे फोन कर सकते हैं और कोई चीज बुरी लगी तो उसका इशारा तक नहीं कर सकते। इस पर उनका कहना था वे उस पोस्ट पर टिप्पणियों का इंतजार कर रहे थे। उसके हिसाब से उनको अपना रुख तय करना था।
मानहानि का भी अपना गणित होता है। अपनी प्रक्रिया होती है।
बड़े-बुजुर्ग लोगों ने इस घटना के बारे में उत्सुकता जताते हुये पूरी मासूमियत से पूछा कि क्या इसी विस्फ़ोट की बात हो रही थी?
बहरहाल फ़िलहाल तो मुझे यह शेर याद आ रहा है:
जिंदगी में बिखर कर संवर जाओगे
आंख से जो गिरे तो किधर जाओगे।
आंख से गिरे लोगों उठाने वाली कोई लिफ़्ट/कोई जैक मेरी समझ में अभी तक नहीं बना।
मेरी पसंद
मैं ,सारी दुनिया को
अपनी मुठ्ठियों में भींचकर
चकनाचूर कर देना चाहता हूं।
हर गगनचुम्बी इमारत को जमींदोज
और सामने उठने वाले हर सर को
कुचल देना चाहता हूं।
मेरा हर स्वप्न
मुझे शहंशाह बना देता है
हर ताकत मेरे कदमों में झुकी
कदमबोसी करती है।
बेखयाली के किन लम्हों में
पता नहीं किन सुराखों से
इतनी कमजोरी मेरे दिमाग में दाखिल हो गई!
अनूप शुक्ल
Posted in बस यूं ही | 40 Responses
आपका फ़ॉर्म में आना मुग्ध करने वाला है…ठीक आपकी दो दशक पुरानी एंग्री यंगमैन
की तस्वीर की तरह…आंखों में गजब की इन्टेन्सिटी लिए हुए…
रही बात रेत की मुट्ठी से फिसलने की…तो वो इसलिए फिसलती है क्योंकि इक मुट्ठी
में आसमान को समाना होता है…इसके लिए अब जगह तो खाली रहनी चाहिए न…
जय हिंद…
नवभारत की कटिंग पर और छपी हुई कवितायें बहुत ही पसंद आयी। आज भी प्रासंगिक और सारगर्भित कटाक्ष करती।
बस जरा सा चूक गया नही तो २ दिसम्बर को कानपुर आना था भतीजी की शादी के सिलसिले में मुझे भी दर्शन लाभ मिल पाता।
आपकी सक्रियता ने रौनक ला दी है इसे बनाये रखियेगा….
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
कविता-सविता पुरानी उठा लाए, समीर लालजी के विल्स कार्ड याद आ गए
अंकुर जी, रविकांत जी, अभीषेक जी से मुलाकात शानदार..! (बस अफसोस कि हम क्यों नही हुए वहाँ…!)
वो बयासी हजार पेमेंट करने वाला ग्रीब आदमी शानदार…!
लोगों की प्रतिक्रियायें जो उनकी प्रकृति का इजहार करती हैं वे रहनी चाहिये ताकि यह सनद रहे कि प्रेम-मोहब्बत, घर-परिवार भाईचारे की बातें करने वालों असलियत क्या है!
यह वाक्य शानदार….!
(आजकल परेशान हम भी इसी से हैं कि कलम वो कैसे लिख सकती है, जो सोचती नही है…!)
और अंत में आपकी पसंद शानदार…!
regards
ब्लागरों से मिलना अच्छा रहा। आपने सही कहा,
मानहानि का भी अपना गणित होता है। अपनी प्रक्रिया होती है।
दरअसल मनुष्य एक ऐसा प्राणी है, जो अपना नफा नुकसान सोचने के बाद ही प्रतिक्रिया करता है। ब्लॉग पर आने वाली टिप्पणियाँ भी इसी संदर्भ में होती हैं। हाँ, ये अलग है कि हम उन कारणों को समझना चाहें अथवा नहीं या फिर समझते हुए भी अपने दिमाग के दरवाजों को बंद कर लें। क्योंकि सच सुनना हर व्यक्ति के वश की बात नहीं होती और अपनी तारीफ सुनना 99 प्रतिशत लोगों को अच्छा लगता है।
उफ़्फ़ ये असलियत क्या है !……………………..????????????????????????
बड़े-बुजुर्ग लोगों ने इस घटना के बारे में उत्सुकता जताते हुये पूरी मासूमियत से पूछा कि क्या इसी विस्फ़ोट की बात हो रही थी?
उफ़्फ़ ये मासूमियत .! कौन ना वारि वारि जाए ….सर जी की बात पर ध्यान दिया जाए…….आमीन ॥
पर उनसे मौज लेने का थोडा तो हक़ है ही हमें.. तो उन्ही की स्टाइल में नाम लिखा है आशा है वे बुरा नहीं मानेगे.. और हम पर कोई केस नहीं करेंगे..
बाय द वे.. बचपन की फोटू में तो आप क़यामत ढा रहे है.. (बचपन इसलिए की अभी तो आप माशाल्लाह जवान है)
लेकिन अपना कलट्टरगंज झाड़े रहिये… कोई का करिहै।
फबिता बहुते पसंद आई… कभी कविता भी पढ़वाइयेगा।
.
.
“तुम्हारा हर काफ़िला
मतलब की सुरंग से गुजरता है
हर कदम
फ़ायदे के राजमार्ग पर पड़ता है।
तुम अभी बदले नहीं
इसीलिये बहुमत में हो।”
बेहतरीन !
मतलब, किसी को योजना पूर्ण तरीके से व्यथित किया जा रहा था?
मैंने सोचा लोगों की प्रतिक्रियायें जो उनकी प्रकृति का इजहार करती हैं वे रहनी चाहिये ताकि यह सनद रहे कि प्रेम-मोहब्बत, घर-परिवार भाईचारे की बातें करने वालों असलियत क्या है!
वह पोस्ट भी रहने देना चाहिए ताकि सनद रहे कि बातें करने वाले की असलियत क्या है
बड़े-बुजुर्ग लोगों ने इस घटना के बारे में उत्सुकता जताते हुये पूरी मासूमियत से पूछा कि क्या इसी विस्फ़ोट की बात हो रही थी
वही बड़े- बुजुर्ग लोग? जो अपनी प्रोफ़ाइल बदल-बदल कर मौज ले रहे थे?
बी एस पाबला
हम तो ब्लॉग पर आकर ही पढेंगे और छपने का पता भी ब्लॉग पर ही चलेगा । आप साहित्य और साहित्यकारों पर बहुत ही पठनीय लिखते हैं । उम्मीद है कि आने वाले समय में रचनात्मक लेख आपकी शैली में पढने को मिलेंगे ।
शुक्रिया ।
बयासी हजार का ग्रीब आदमी…….बहुत खूब।
आपके शेर पर एक शेर याद आया :
हम तो दुश्मन को भी शाइस्ता सजा देते हैं,
वार करते नहीं, नज़रों से गिरा देते हैं ।
गरीब आदमी तो हम ३-४ साल पाहिले ही बन चुके सो आपसे कनपुरिया ब्लॉगर ईंट …..अरे नहीं मीट का मौक़ा तो गवाएँ चुके !!!!
बाकी हम तो कायले हन आपके लेखन के !!!
पर यह का??
“तुम्हें बचाने
कोई परीक्षित न आयेगा! “
पक्का जान लीजिये इसकी आपको जरुरते नहीं आयं !!!
“वे सुबह मछली को दाना चुगाते हैं और रात को फ़िश करी खाते हैं।”
की तर्ज पर आप मौज लेते रहिये बाकी मुआफी -उआफी तो हम हर दो-तीन मिनट में मांगते रहते हैं!! सो उसका क्या ?
.सबेरा अभी हुआ नहीं है
पर लगता है
कि यह दिन भी सरक गया हाथ से
हथेली में जकड़ी बालू की तरह
अब फ़िर सारा दिन
इसी एहसास से जूझना होगा।
शानदार …..कानपूर की फेक्ट्री ने एक ओर रचना धर्मी को लील लिया ….भला हो ब्लॉग का ………
“इस बीच बड़े- बुजुर्ग लोग अपनी प्रोफ़ाइल बदल-बदल कर या फ़िर अपनी-अपनी समझ के हिसाब से मौज लेते रहे। ये वे लोग हैं जिन्होंने मेरे लेखन पर मुग्ध होते हुये टिप्पणियां की हैं कि आप मुझसे छोटे हैं फ़िर भी हम आपको प्रणाम करते हैं/ अपनी कलम उधार दे दो भाई टाइप। वे सब टिप्पणियां मेरे ब्लाग पर हैं। जब मैं उनको देखता हूं तो सोचता हूं कि कौन सी बात सच है। ये या वो।”
दोनों ही सच है …. …पर वही बात है कंप्यूटर के उस पार तो मनुष्य ही बैठा है …वो अपनी प्रवृति कैसे बदल सकता है ..
“मानहानि का भी अपना गणित होता है। अपनी प्रक्रिया होती है।”
ठीक वैसे ही जैसे प्रतिक्रियाओं का अपना चरित्र होता है ….अपना गणित……. …….
वैचारिक प्रदूषण से बचने का एक ओर तरीका है ..अच्छा पढ़ते रहिये …..नंदन की जीवनी पढ़ी या नहीं …….?
आपकी कवितायों के विषय में क्या कहूँ….बस लाजवाब !!!
per tum nahi aya
sirf tumhara khayal ata hai
ग्रीब आदमी…हा! हा!
कानपुर मेरा कब आना होगा, जाने?
नंदन जी का शेर खूब है….सटीक, बोले तो!
पारस पत्थर वाली बात तो आपने सही कही है। जाने हमें “हम” बने रहने में क्या परेशानी हो जाती है।
इस बार मेरी पसंद भी खूब चुन कर लगायी है….अपनी वाली!
और हां, nice!
कवितायें बहुत अच्छी लगीं।
परीक्षित आता है
सिर्फ़ इतिहास के निमंत्रण पर
किसी की बेबसी से पसीज कर नहीं।
बात और तेवर दोनो नये लगे।
तुम्हारा हर काफ़िला
मतलब की सुरंग से गुजरता है
हर कदम
फ़ायदे के राजमार्ग पर पड़ता है।
बहुत सटीक
एक अपना शेर आपकी नज़्र कर रहा हूँ
उनके मतलब का रास्ता अक्सर
मेरी मजबूरियों से मिलता है।
शेष पोस्ट भी मजेदार थी
सादर
कल का कार्यक्रम हम भी कानपुर का बनाये थे किन्तु उसे प्रतिबंन्धित कर दिया गया।
पिछली बार आईआईटी कानपुर जाना हुआ था पता नही था कि ब्लाग कीट वहाँ भी मौजूद है।
दाहिने और वाली कविता अच्छी है ! बाईं ओर की बचपने के नाते अच्छी कही जा सकती है !
क्योकि मिथक बोध का गड़बड़झाला समझा नहीं ,परीक्षित को किस झमेले में
डाला था आपने ! शिवि कहते तो बात समझ में भी आती !
बहरहाल ,..और वो मानहानि वाली बात तो ऐसी थी की अनुगत टिप्पणियाँ यह साबित कर
रही थीं की पाबला जी की मानहानि हुयी है -और वे मान्हानिकर्ता के टशन को अदालत में दुरुस्त कर देतीं !
बस बहुत मौज़ ली जा चुकी..
मान न मान पर हुई मान की हानि
जिसकी हसरत साढ़े तीन लाख की पिस्टल लेने की रही हो…
वह बयासी हज़ार की रिवाल्वर लेने में कितना शर्मिन्दा हो रहा होगा,
यह अँदाज़ा लगा लीजिये । उस बेचारे की ग्रीबी पर यूँ मौज़ियाना शोभा नहीं देता !
बकिया हम बहुत दूर दूर तक घूम-घाम कर लउटे हैं, आज पोस्ट पढ़ा मजा लिया, अब बयासी हज़ारी सर्दार की टोह में निकल रहे हैं !