http://web.archive.org/web/20140419214601/http://hindini.com/fursatiya/archives/1484
विश्व के पलकों पर सुकुमार
विचरते हैं जब स्वप्न अजान,
न जाने नछत्रों से कौन,
निमंत्रण देता मुझको मौन।- सुमित्रानंदन’पंत’
पिछले
हफ़्ते अखबार में एक खबर पढ़ी। ब्रह्माण्ड में एक बेहद भारी ब्लैकहोल एक
सूदूरवर्ती आकाशगंगा से लाखो मील प्रतिघंटा की गति से दूर भागा जा रहा है।
इस ब्लैकहोल का द्रव्यमान सूरज के द्वव्यमान से एक अरब गुना ज्यादा है।
इसकी गति अंतरिक्ष में छहलाख 70 हजार मील प्रति घंटा है। खबर के अनुसार इस
ब्लैकहोल की पृथ्वी से दूरी एक अरब प्रकाश वर्ष है।
जबसे मैंने यह खबर पढ़ी है, अखबार लिये घूम रहे हैं। घूम रहे हैं मतलब उसको रद्दी में नहीं शामिल किया है अभी तक। तबसे दूरी, द्रव्यमान का तुलनात्मक अध्ययन चल रहा है। बताओ ब्लैकहोल हमसे एक अरब प्रकाश वर्ष दूर है। कल्पना किया जाये क्या?
प्रकाशवर्ष मतलब वह दूरी जिसको प्रकाश एक साल में तय करे- लगभग तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड की गति से। उससे एक अरब गुना दूरी पर एक तारा, अपनी उमर निपटाकर बना ब्लैकहोल, लुढ़क-पुढ़क रहा है। हमसे दूर भागा चला जा रहा है करीबन सात लाख किलोमीटर प्रति घंटा की स्पीड से। वजन देखो- अपने सूरज से एक अरब गुना ज्यादा वजनी। अभी तो खैर कुछ सिकुड़ गया होगा लेकिन जब जवान रहा होगा, भीगती मसों वाला गबरू जवान तारा तो 60 हजार x एक अरब पृथ्वियों को अपनी कांख में दबाने लायक जगह होगी उसके अंदर। एक बार फ़िर लगा कि दुनिया बड़ी डम्प्लाट है।
बचपन में हमारे चाचा जब उनका मन आ जाये तब पूछने लगते थे- अस्सी मन का लकड़ा, उसपर बैठा मकड़ा। रत्ती-रत्ती रोज चुने तो बताओ कित्ते दिन में चुन जाये?इसका जबाब न तब हमारे पास था , न अब है। कुछ इसई तरह का मामला है इधर भी। कोई सोचे कि उस ब्लैकहोल को छूकर वापस आ जायें तो बस भैया सोच ही सकता है। जिस प्रकाश की गति तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड है उस गति से भी जाने में एक अरब साल लग जायेंगे। अगर जाना संभव भी हो तो इत्ते समय में करोड़ों पीढ़ियां गुजर जायेंगी। बस सोचा ही जा सकता है। तुलनात्मक अध्ययन ही किये जा सकते हैं। गति देखो भाई साहब की -हमारी कार की सबसे तेज गति से भी दस हजार गुना तेज गति से भगे चले रहे हैं। वो तो कहो पेट्रोल नहीं लगता वर्ना हालत खराब हो गयी होगी।
प्रकाश की गति से भले हम न उस ब्लैकहोल को पकड़ पायें लेकिन मन की गति से उसको पिछिया के पकड़ ही सकते हैं। दौड़कर उसके आगे निकल सकते हैं। रास्ता रोककर खड़े हो सकते हैं। कह सकते हैं – कहां जा रहे हो भाईजान! आओ जरा चाय लड़ जाये। ब्लैकहोल बेचारा कहो झुंझलाकर कहे -हटो, हमें मजाक पसंद नहीं। जब देखो हमारे रास्ते में आकर खड़े हो जाते हो ठेलुहों की तरह। हमारी स्पीड पर असर पड़ता है।
जहां जा रहा होगा बेचारा ब्लैकहोल वहां न जाने कित्ता अंधेरा होगा। मोमबत्ती भी तो नहीं जल सकती वहां। जलेगी तो उसकी सब रोशनी तो ये खुद सोख लेगा। लेकिन अगर रास्ते की सोचा जाये तो कैसा होगा रास्ता। भागा चला रहा है लाखों किलोमीटर की स्पीड से। शुकूर मियां के घिसे स्प्लेनडर से भी तेज। क्या पता ब्लैकहोल जिस रास्ते जा रहा हो वह कोई पहाड़ टाइप की चीज हो और वह बेचारा किसी बरतन की तरह लुढ़कते-पुढ़कते चला जा रहा हो । छह लाख 70 हजार किलोमीटर की स्पीड से।
ये आकाशीय पिंड कद-काठी में चाहे जितने डम्प्लाट हों लेकिन गुरु इनकी जिंदगी बड़ी नरक है। एक्को दिन का वीकेन्ड नहीं। न कोई होली दीवाली की छुट्टी। हर समय घूमते रहो, भागते रहो। चरैवैति-चरैवेति जपते हुये। जबकि उनका न कोई बॉस न कोई हाजिरी रजिस्टर न कौनौ मस्टर रोल। जब मन आये तब छुट्टी मार गये। लेकिन न! कभी आराम से नहीं बैठेंगे। चलते रहेंगे।
बोलने-बतियाने वाला भी कोई नहीं। कोई हो जिससे हेलो हाय कह लें। कभी-कभी लगता है कि ये लोग एक-दूसरे को देखते,निहारते भले हों, लेकिन बतियाते नहीं होंगे। सोचते होंगे किसी की जाती जिंदगी में क्या दखल देना? मुंह दबाये बस भागते-भागते जिन्दगी बिता देते हैं बेचारे। कभी-कभी गियर बदलकर स्पीड कम- ज्यादा करते होंगे लेकिन वह भी इत्ती होशियारी से करते होंगे कि हमें पता ही न चलता होगा।
लोग कहते हैं कि दुनिया गोल है। अगर ऐसा है तो क्या पता कि लाखों किलोमीटर की गति से हमसे दूर भागता ब्लैकहोल किसी दिन मुस्कराता हुआ दूसरी तरफ़ से हमारे सामने आकर खड़ा हो जाये और दांत चियारते हुये बोले -हाऊ डु यू डू!
क्या पता इस गोलाकर, चक्करदार रास्ते में ब्लैकहोल को उससे भी बड़ा , बहुत बड़ा , उससे कई गुना बड़ा, कोई तारा मिले और इस ब्लैकहोल को देखकर इसके प्रति उसके मन में वात्सल्य उमड़ आये और वह कहने लगे- किलकत कान्ह घुटुरुवन आवत।
न जाने वह ब्लैकहोल कैसा होगा, किस तरह का होगा। कौन से पदार्थ उसमें रहे होंगे। कैसी सभ्यता रही होगी उसके अन्दर। लेकिन हम जब भी सोचेंगे उसके बारे में तो वैसा ही तो सोचेंगे जैसा हमारे सोच की सीमा है। यह बात हर जगह लागू होती है। हम दूसरे के बारे में जो भी सोचते हैं वह वैसा ही तो सोच सकते हैं जैसा हमारे अनुभवों की पूंजी है।
अभी हम सभ्यता का मतलब प्राणियों के जीवन से लेते हैं। यह भी तो हो सकता है कि वहां सभ्यता का मतलब कुछ और हो। ज्यादा दूर क्यों जाते हैं। हमसे आठ प्रकाश मिनट की दूरी पर स्थित सूरज के बारे में ही कित्ता जानते हैं हम ! उसके केन्द्र का तापमान लाखों डिग्री है और सतह का हजारो डिग्री। क्या पता वहां का भी प्रधानमंत्री किसी से कहता हो –” जित्ती ऊर्जा सतह के लिये चलती है उसका बहुत छोटा सा हिस्सा ही सतह तक पहुंचता है। बहुत भ्रष्टाचार है यहां!”
न जाने कित्ती -कित्ती बातें रोज सामने आती हैं। लाखों, करोड़ों तारे, आकाशगंगायें एक दूसरे से दूर भाग रही हैं। पुराने तारे निपट रहे हैं, नये पैदा हो रहे हैं। भड़ाम-भड़ाम हो रही है। सांय-सांय भी। जहां तारे स्पीड से मर रहे होंगे वहां कोई बहुत ज्ञानी तारा उनके लिये वैक्सीन बनाने में लगा होगा कोई। क्या पता तारों की बढ़ती संख्या से घबराकर वहां भी तारा जनसंख्या नियंत्रण की कोई व्यवस्था चलती हो। क्या पता वहां भी तारा नियोजन होता हो।
क्या पता तारे भी आपस में आइस-पाइस खेलते हों। किसी ब्लैकहोल की आड़ में छिप जाते हों। दूसरा तारा जब उसको खोजता इधर-उधर उचककर देखता हो तब तक उसको दूसरा तारा ढपली मार देता हो। उस ढपली के निशान को आने वाली पीढियां -यहां उल्का पिंड गिरा होगा, यहां ये हुआ होगा, वो हुआ होगा कहते हुये मनमाने कयास लगाती रहें। कोई तारा खेल-खेल में किसी दूसरे तारे को गुदगुदा दे। गुदगुदी से उससे इतनी रोशनी निकल पड़े कि उसके किसी ग्रह में ऊष्मा तूफ़ान आ जाये और न जाने कित्ते जंतुओं का सफ़ाया हो जाये।
हम छह फ़ुटा शरीर लिये साठ-सत्तर साल की उमर लिये जब-तब अपने आप को तीसमार खां समझते रहते हैं। उधर ब्रह्माण्ड की सोची जाये वहां जो भी होता है वह सब प्रकाश वर्ष की इकाई में होता है। लाखों वर्षों की इकाई में। हमारे जैसे लोग अपने लाखों, करोड़ों ,अरबों, खरबों बार अपना जीवन बिता लें इत्ता समय। क्या औकात है अपनी इस दुनिया की तुलना में।
फ़िर भी लगता है कि वो ब्लैकहोल हमसे डरकर ही हमसे दूर भाग जा रहा है। डरा भले न हो लेकिन शरमा सा तो होगा। अब वह किसी को रोशनी तो दे नहीं सकता। रोशनी न दे सकने के चलते उसका आत्मविश्वास लड़खड़ा गया होगा और वह वह हमसे दूर भागता जा रहा होगा।
मन तो कह रहा है उसको वापस बुला लें- आ जाओ यार, तुमको कोई कुछ नहीं कहेगा। लेकिन आवाज की गति उसकी गति से बहुत कम है।
ब्लैकहोल भन्नाया भागा जा रहा होगा। क्या पता बेचारा सोच रहा होगा किसी ने उसको रोका भी नहीं , टोंका भी नहीं। अब सोचने से भी क्या होगा। सोचने पर किसी का बस थोड़ी है।
१.कल सुबह से मंजन तलक नहीं किया है मैंने,
मैं पहले तुम पर दांत किटकिटाना चाहता हूं।
२.यूं तो मैं डरता नहीं किसी माई के लाल से,
लेकिन तेरी डांट पर मैं सिटपिटाना चाहता हूं।
३.मेरी महबूबा मेरी बीबी न बने तो कोई बात नहीं,
मैं सिर्फ़ उसके बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना चाहता हूं।
४.अब्बा की मेरे तमन्ना थी मैं अंग्रेजी फ़र्राटे से बोलूं,
मैं इक बार पोस्टमैन पर पूरा एस्से सुनाना चाहता हूं।
५.सालों से सुलगा बैठा हूं तेरे लिखे हुये को पढ़कर मैं,
सिर्फ़ एक बार तेरा लिखा तुझको ही पढ़ाना चाहता हूं।
६. कह सका न बात तुमसे जो आज तलक मैं,
कहते हुये उसी को फ़िर से ठिठक जाना चाहता हूं।
७.किसी काम के लायक अब हम बचे नहीं हैं यार,
अब तो बस फ़ड़कना, सुलगना, बड़बड़ाना चाहता हूं।
….दुनिया बड़ी डम्प्लाट है
By फ़ुरसतिया on May 19, 2010
विचरते हैं जब स्वप्न अजान,
न जाने नछत्रों से कौन,
निमंत्रण देता मुझको मौन।- सुमित्रानंदन’पंत’
जबसे मैंने यह खबर पढ़ी है, अखबार लिये घूम रहे हैं। घूम रहे हैं मतलब उसको रद्दी में नहीं शामिल किया है अभी तक। तबसे दूरी, द्रव्यमान का तुलनात्मक अध्ययन चल रहा है। बताओ ब्लैकहोल हमसे एक अरब प्रकाश वर्ष दूर है। कल्पना किया जाये क्या?
प्रकाशवर्ष मतलब वह दूरी जिसको प्रकाश एक साल में तय करे- लगभग तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड की गति से। उससे एक अरब गुना दूरी पर एक तारा, अपनी उमर निपटाकर बना ब्लैकहोल, लुढ़क-पुढ़क रहा है। हमसे दूर भागा चला जा रहा है करीबन सात लाख किलोमीटर प्रति घंटा की स्पीड से। वजन देखो- अपने सूरज से एक अरब गुना ज्यादा वजनी। अभी तो खैर कुछ सिकुड़ गया होगा लेकिन जब जवान रहा होगा, भीगती मसों वाला गबरू जवान तारा तो 60 हजार x एक अरब पृथ्वियों को अपनी कांख में दबाने लायक जगह होगी उसके अंदर। एक बार फ़िर लगा कि दुनिया बड़ी डम्प्लाट है।
बचपन में हमारे चाचा जब उनका मन आ जाये तब पूछने लगते थे- अस्सी मन का लकड़ा, उसपर बैठा मकड़ा। रत्ती-रत्ती रोज चुने तो बताओ कित्ते दिन में चुन जाये?इसका जबाब न तब हमारे पास था , न अब है। कुछ इसई तरह का मामला है इधर भी। कोई सोचे कि उस ब्लैकहोल को छूकर वापस आ जायें तो बस भैया सोच ही सकता है। जिस प्रकाश की गति तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड है उस गति से भी जाने में एक अरब साल लग जायेंगे। अगर जाना संभव भी हो तो इत्ते समय में करोड़ों पीढ़ियां गुजर जायेंगी। बस सोचा ही जा सकता है। तुलनात्मक अध्ययन ही किये जा सकते हैं। गति देखो भाई साहब की -हमारी कार की सबसे तेज गति से भी दस हजार गुना तेज गति से भगे चले रहे हैं। वो तो कहो पेट्रोल नहीं लगता वर्ना हालत खराब हो गयी होगी।
प्रकाश की गति से भले हम न उस ब्लैकहोल को पकड़ पायें लेकिन मन की गति से उसको पिछिया के पकड़ ही सकते हैं। दौड़कर उसके आगे निकल सकते हैं। रास्ता रोककर खड़े हो सकते हैं। कह सकते हैं – कहां जा रहे हो भाईजान! आओ जरा चाय लड़ जाये। ब्लैकहोल बेचारा कहो झुंझलाकर कहे -हटो, हमें मजाक पसंद नहीं। जब देखो हमारे रास्ते में आकर खड़े हो जाते हो ठेलुहों की तरह। हमारी स्पीड पर असर पड़ता है।
जहां जा रहा होगा बेचारा ब्लैकहोल वहां न जाने कित्ता अंधेरा होगा। मोमबत्ती भी तो नहीं जल सकती वहां। जलेगी तो उसकी सब रोशनी तो ये खुद सोख लेगा। लेकिन अगर रास्ते की सोचा जाये तो कैसा होगा रास्ता। भागा चला रहा है लाखों किलोमीटर की स्पीड से। शुकूर मियां के घिसे स्प्लेनडर से भी तेज। क्या पता ब्लैकहोल जिस रास्ते जा रहा हो वह कोई पहाड़ टाइप की चीज हो और वह बेचारा किसी बरतन की तरह लुढ़कते-पुढ़कते चला जा रहा हो । छह लाख 70 हजार किलोमीटर की स्पीड से।
ये आकाशीय पिंड कद-काठी में चाहे जितने डम्प्लाट हों लेकिन गुरु इनकी जिंदगी बड़ी नरक है। एक्को दिन का वीकेन्ड नहीं। न कोई होली दीवाली की छुट्टी। हर समय घूमते रहो, भागते रहो। चरैवैति-चरैवेति जपते हुये। जबकि उनका न कोई बॉस न कोई हाजिरी रजिस्टर न कौनौ मस्टर रोल। जब मन आये तब छुट्टी मार गये। लेकिन न! कभी आराम से नहीं बैठेंगे। चलते रहेंगे।
बोलने-बतियाने वाला भी कोई नहीं। कोई हो जिससे हेलो हाय कह लें। कभी-कभी लगता है कि ये लोग एक-दूसरे को देखते,निहारते भले हों, लेकिन बतियाते नहीं होंगे। सोचते होंगे किसी की जाती जिंदगी में क्या दखल देना? मुंह दबाये बस भागते-भागते जिन्दगी बिता देते हैं बेचारे। कभी-कभी गियर बदलकर स्पीड कम- ज्यादा करते होंगे लेकिन वह भी इत्ती होशियारी से करते होंगे कि हमें पता ही न चलता होगा।
लोग कहते हैं कि दुनिया गोल है। अगर ऐसा है तो क्या पता कि लाखों किलोमीटर की गति से हमसे दूर भागता ब्लैकहोल किसी दिन मुस्कराता हुआ दूसरी तरफ़ से हमारे सामने आकर खड़ा हो जाये और दांत चियारते हुये बोले -हाऊ डु यू डू!
क्या पता इस गोलाकर, चक्करदार रास्ते में ब्लैकहोल को उससे भी बड़ा , बहुत बड़ा , उससे कई गुना बड़ा, कोई तारा मिले और इस ब्लैकहोल को देखकर इसके प्रति उसके मन में वात्सल्य उमड़ आये और वह कहने लगे- किलकत कान्ह घुटुरुवन आवत।
न जाने वह ब्लैकहोल कैसा होगा, किस तरह का होगा। कौन से पदार्थ उसमें रहे होंगे। कैसी सभ्यता रही होगी उसके अन्दर। लेकिन हम जब भी सोचेंगे उसके बारे में तो वैसा ही तो सोचेंगे जैसा हमारे सोच की सीमा है। यह बात हर जगह लागू होती है। हम दूसरे के बारे में जो भी सोचते हैं वह वैसा ही तो सोच सकते हैं जैसा हमारे अनुभवों की पूंजी है।
अभी हम सभ्यता का मतलब प्राणियों के जीवन से लेते हैं। यह भी तो हो सकता है कि वहां सभ्यता का मतलब कुछ और हो। ज्यादा दूर क्यों जाते हैं। हमसे आठ प्रकाश मिनट की दूरी पर स्थित सूरज के बारे में ही कित्ता जानते हैं हम ! उसके केन्द्र का तापमान लाखों डिग्री है और सतह का हजारो डिग्री। क्या पता वहां का भी प्रधानमंत्री किसी से कहता हो –” जित्ती ऊर्जा सतह के लिये चलती है उसका बहुत छोटा सा हिस्सा ही सतह तक पहुंचता है। बहुत भ्रष्टाचार है यहां!”
न जाने कित्ती -कित्ती बातें रोज सामने आती हैं। लाखों, करोड़ों तारे, आकाशगंगायें एक दूसरे से दूर भाग रही हैं। पुराने तारे निपट रहे हैं, नये पैदा हो रहे हैं। भड़ाम-भड़ाम हो रही है। सांय-सांय भी। जहां तारे स्पीड से मर रहे होंगे वहां कोई बहुत ज्ञानी तारा उनके लिये वैक्सीन बनाने में लगा होगा कोई। क्या पता तारों की बढ़ती संख्या से घबराकर वहां भी तारा जनसंख्या नियंत्रण की कोई व्यवस्था चलती हो। क्या पता वहां भी तारा नियोजन होता हो।
क्या पता तारे भी आपस में आइस-पाइस खेलते हों। किसी ब्लैकहोल की आड़ में छिप जाते हों। दूसरा तारा जब उसको खोजता इधर-उधर उचककर देखता हो तब तक उसको दूसरा तारा ढपली मार देता हो। उस ढपली के निशान को आने वाली पीढियां -यहां उल्का पिंड गिरा होगा, यहां ये हुआ होगा, वो हुआ होगा कहते हुये मनमाने कयास लगाती रहें। कोई तारा खेल-खेल में किसी दूसरे तारे को गुदगुदा दे। गुदगुदी से उससे इतनी रोशनी निकल पड़े कि उसके किसी ग्रह में ऊष्मा तूफ़ान आ जाये और न जाने कित्ते जंतुओं का सफ़ाया हो जाये।
हम छह फ़ुटा शरीर लिये साठ-सत्तर साल की उमर लिये जब-तब अपने आप को तीसमार खां समझते रहते हैं। उधर ब्रह्माण्ड की सोची जाये वहां जो भी होता है वह सब प्रकाश वर्ष की इकाई में होता है। लाखों वर्षों की इकाई में। हमारे जैसे लोग अपने लाखों, करोड़ों ,अरबों, खरबों बार अपना जीवन बिता लें इत्ता समय। क्या औकात है अपनी इस दुनिया की तुलना में।
फ़िर भी लगता है कि वो ब्लैकहोल हमसे डरकर ही हमसे दूर भाग जा रहा है। डरा भले न हो लेकिन शरमा सा तो होगा। अब वह किसी को रोशनी तो दे नहीं सकता। रोशनी न दे सकने के चलते उसका आत्मविश्वास लड़खड़ा गया होगा और वह वह हमसे दूर भागता जा रहा होगा।
मन तो कह रहा है उसको वापस बुला लें- आ जाओ यार, तुमको कोई कुछ नहीं कहेगा। लेकिन आवाज की गति उसकी गति से बहुत कम है।
ब्लैकहोल भन्नाया भागा जा रहा होगा। क्या पता बेचारा सोच रहा होगा किसी ने उसको रोका भी नहीं , टोंका भी नहीं। अब सोचने से भी क्या होगा। सोचने पर किसी का बस थोड़ी है।
पापुलर मेरठी के बहाने कुछ तुकबंदी
परसों पापुलर मेरठी की कुछ लाइने चर्चा में पेश की उसके बाद साथियों की मांग पर उनकी आवाज में पेश की गयीं उनकी कुछ कवितायें । अभी मन किया उसी तर्ज पर कुछ ठेल दिया जाये। जो होगा देखा जायेगा।१.कल सुबह से मंजन तलक नहीं किया है मैंने,
मैं पहले तुम पर दांत किटकिटाना चाहता हूं।
२.यूं तो मैं डरता नहीं किसी माई के लाल से,
लेकिन तेरी डांट पर मैं सिटपिटाना चाहता हूं।
३.मेरी महबूबा मेरी बीबी न बने तो कोई बात नहीं,
मैं सिर्फ़ उसके बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना चाहता हूं।
४.अब्बा की मेरे तमन्ना थी मैं अंग्रेजी फ़र्राटे से बोलूं,
मैं इक बार पोस्टमैन पर पूरा एस्से सुनाना चाहता हूं।
५.सालों से सुलगा बैठा हूं तेरे लिखे हुये को पढ़कर मैं,
सिर्फ़ एक बार तेरा लिखा तुझको ही पढ़ाना चाहता हूं।
६. कह सका न बात तुमसे जो आज तलक मैं,
कहते हुये उसी को फ़िर से ठिठक जाना चाहता हूं।
७.किसी काम के लायक अब हम बचे नहीं हैं यार,
अब तो बस फ़ड़कना, सुलगना, बड़बड़ाना चाहता हूं।
लेकिन सुना है प्रकृति खुद ही अपना रास्ता तय करती है…ब्लैक होल भी प्रकृति से बाहर थोड़े ही है…
हां प्रकृति से पंगा लेने वालों को ज़रूर लेने के देने पड़ जाते हैं…ऐसा न हुआ होता तो डॉयनासोर हमेशा के लिए धरती पर राज न करते…
माफ़ कीजिएगा महागुरुदेव, बिटवीन द लाइन्स छोड़ने के लिए, आदत से मजबूर हूं…
पापुलर मेरठी के बहाने ही सही अपने मेरठ का नाम देखकर खुशदीप से दिलखुश हो जाता हूं…
जय हिंद…
मैं इक बार पोस्टमैन पर पूरा एस्से सुनाना चाहता हूं।
zabardast!!
नाहीं.. तनिक सोचो, जब वैज्ञानिकै तरह तरह के सँभावना के लई के चल रहे हैं, अउर चलत जा रहे हैं.. अउर आगे भी कछु सोचे कछु बिना सोचे चलतै जईहैं.. तौ हम पँचन के सोचे पर कउनो रोक है, भाई ?
चाहो तो बिना सोचेई आपौ एक सँभावना ठेल देयो, फुरसतिया थ्योरी आँफ लकड़ा एण्ड मकड़ा इन परस्पेक्टिव आफ़ ब्लैकहोल !
ब्लॉगिंग मॉ बदनामी मिली, होय गवा होय देयो । बाकी अउर कहूँ घुसड़-पुसड़ की गुँजाइश देखि के ईहँई नाम कमा लेयो, पूरब ने दिया ज्ञान तुझे टाइप
सिर्फ़ एक बार तेरा लिखा तुझको ही पढ़ाना चाहता हूं।”
बोलो ’पापुलर कनपुरिया’ अनूप जी की जय.. हवन कार्यक्रम जारी रखा जाये :)… घोर क्रियेटिविटी (कर्ट्सी कुश)
अभी तो बस शेरो, चीतो पर गौर फ़रमाया गया.. ब्लैकहोल की कथा पढने फ़िर आते है…
चकित रहता शिशु सा नादान
विश्व के पलकों पर सुकुमार
विचरते हैं जब स्वप्न अजान,
न जाने नछत्रों से कौन,
निमंत्रण देता मुझको मौन
गुरूदेव, क्षमा चाहता हूं, ये “पंत” जी की पंक्तियां लग रही हैं।
ब्लाग जगत में भी
सिर्फ़ एक बार तेरा लिखा तुझको ही पढ़ाना चाहता हूं।
संग्रहणीय प्रस्तुति!
@गिरीश बिल्लौरे, ब्लैक होल्स तो अंतिम परिणति है। आप उसई को देख रहे हैं देखिये। इसके पहले रोशनी भी तो होती है। हम तो लिखे हैं-हम दूसरे के बारे में जो भी सोचते हैं वह वैसा ही तो सोच सकते हैं जैसा हमारे अनुभवों की पूंजी है।
@द्विवेदीजी, शुक्रिया। यह सच है कि मेरा हर चीज को मानवीय नजरिये से देखने का मन करता है।
@ रविकांत, शुक्रिया गलती बताने के लिये। सही कर लिया।
@ दीपक मशाल, कल्पना के घोड़े किसी के भी हों ,तेज दौड़ते हैं।
@ पंकज उपाध्याय, ये कुश तो न जाने क्या-क्या कहता रहता है। खैर आओ दुबारा पढ़ने! आओगे न!
@ डा.अमर कुमार, लिखा जायेगा डाक्साब व्हाइट थ्योरी के किस्सा भी भुनभुना रहा दिमाग में और कह रहा है हमको काहे नहीं लिखते।
@इंद्र अवस्थी, कुछ लिखो ठेलुहा नरेश।
@ खुशदीप भैया, ये बीच लाइन वाली आदत बनाये रहो। अपनी प्रकृति का साथ मत छोड़ो!
पापुलर मेरठी अपने इस रूप में भी जमताऊ हैं . और व्यवहारिक भी. जानते हैं बस एक बार वहां ट्यूशन पढ़ाने का काम मिल जाए तो, द रेस्ट विल फ़ॉलो.
अभी वहाँ क्या दाँय मची है नहीं ज्ञात ।
और हाँ, हमारे ब्लॉग जगत की दाँय भी वहाँ पहुँचने में इतना ही समय लगेगा । उस समय कोई कुछ भी कहे ।
मेरी महबूबा मेरी बीबी न बने तो कोई बात नहीं,
मैं सिर्फ़ उसके बच्चों का बाप बनना चाहता हूं।
हमने ज्यों की त्यों धरी है. हमारा कोई कसुर नहीं. शेष चकाचक है.
ये लीजिये;
अद्भुत पोस्ट!!!
कहाँ-कहाँ से क्या खींच लेते हैं..वाह! वैसे हर बात में ब्लागरी और ब्लागरों की बात करने की भी इति होनी चाहिए. ब्लैकहोल में भी ब्लागरी घुसा देना कहाँ तक जायज है?
.सालों से सुलगा बैठा हूं तेरे लिखे हुये को पढ़कर मैं,
सिर्फ़ एक बार तेरा लिखा तुझको ही पढ़ाना चाहता हूं।
शानदार.
बहुत बढ़िया !
The Theory of Everything – http://www.amazon.com/Theory-Everything-Origin-Fate-Universe/dp/1893224546
ब्लैक होल की तबियत पूछने हम भी लौटेंगे..
आज दूबारा पढा और फिर से मजा लिया। मेरे भी मन में प्रवीण जी की तरह यही विचार आया था कि ये जो तस्वीर दिख रही है काफी पहले की है और अब वहां क्या वस्तुस्थिति होगी कोई नहीं जानता।
बकि पापुलर मेरठी के बहाने बडा डम्पलाट चीज पढ़ने मिल रहा है…..दो चार पसेरी और ठेला जाय
प्रकाश की गति विज्ञान की नहीं इंसान की उलझन है क्योंकि वह इससे ज्यादा गतिमान वस्तु अभी समझ नहीं पाया इसीलिये हर गति को इसी से नापता रहता है .
मेरठी बढ़िया है
मुलम्मा लगा कर पेश किया है , काबिले-तारीफ ! पूर्ववत !
टिप्पणियों को पढ़कर सोच रहा हूँ कि इस लेख का और ब्लॉग – जगत
से क्या सम्बन्ध जुड़ रहा है ! यह समझ में नहीं आया ! वो कहते हैं न
कि ” टाइपराइटर भी अजीब शै है , मारो कहीं , लगता है वहीं ! ”
इसे पढ़कर राजीव गान्धी याद आ गये। आज उनकी पुण्यतिथि है। विडम्बना देखिए कि आपकी पो्स्ट पढ़कर आज हम देर तक हँसते रहे और पूरे देश के साथ कांग्रेस पुण्यतिथि मनाती रही।
मैने हँसकर बहुत बुरा किया है गुमसुम दिन
इसी पछताव में अब फड़फड़ाना चाहता हूँ।
आपकी लेखन शैली इतनी रोचक है कि का बताएं ..इत्ता भी पढ़ लिए..अब मत भी व्यक्त करे लगे..!
ई पोस्ट में एक्कै चीज काम की हाथ लगी..पापुलर भाई का पापुलर शेर….
मेरी महबूबा मेरी बीबी न बने तो कोई बात नहीं,
मैं सिर्फ़ उसके बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना चाहता हूं।
.एकरे गति के आगे सब फेल.
…भाड़ में जाय ब्लैक होल ..प्रकाश की गति..
चाचा सही कहत रहेन..
अस्सी मन का लकड़ा, उसपर बैठा मकड़ा। रत्ती-रत्ती रोज चुने तो बताओ कित्ते दिन में चुन जाये?
सबसे पहिले त आप जईसे परतापी पंडित जी का हमरी कुटिया में आगमने हमरे लिए सौभाग्य का बात है. अब आप से का छिपा है किसन महराज!
न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता.
डुबाया हमको होने ने, न होते हम त का होता.
कऊन पहिलौठ का है अऊर कऊन पेटपोंछन, एही फेर में बेचारा कंस केतना सिसु का हत्या कर गया.
आपका आसिस स्वीकार!!
पर आपका है कुछ अनूठा, ये टिपियाना चाहता हूँ
बहुत बढ़िया जी,उनके चरैवैति-चरैवेति जपने से ही हम होली दीवाली की छुट्टियाँ मनाते हैं ।
हम कितने फ्लाट हुए ये बताना चाहते हैं
जब देखो किसिम किसिम का रंग देखाते रहते हैं
कोई आपको भी रंग देखाए, ई मनाना चाहते हैं
Swapna Manjusha ‘ada’ की हालिया प्रविष्टी..SAUDIS TRAVELING FOR "HALAL SEX" TO INDONESIA
आप भी लगता सहज नहीं रहे तभी तो एक बार प्रकाश की गति सही बताए तीन लाख किलोमीटर….. अगले पेरा में लाख खा गए (बिना डकार लिए) और प्रकाश को वंचित सी “जिस प्रकाश की गति तीन किलोमीटर प्रति सेकेंड है ” पा टिका गए।
मसिजीवी की हालिया प्रविष्टी..दर्शक की परीक्षा है शांघाई