http://web.archive.org/web/20140419214812/http://hindini.com/fursatiya/archives/1513
अपने काम अधूरे रह जाने का शोक हम कायदे से मना भी न पाये थे कि मोबाइल पर मधुर आवाज में यह कर्कश सूचना मिली कि कानपुर से दिल्ली की उड़ान निरस्त है। हमें लखनऊ से दिल्ली भेजने का इंतजाम किया गया है। गाड़ी से लखनऊ भेजने का इंतजाम चकेरी एयरपोर्ट पर किया गया है। तीन बजे तक पहुंच जायें।
हम अपना दफ़्तर, घर और शहर जिस लगभग हालत में था उसई में छोड़-छांड़ के हवाई अड्डे की तरफ़ जिस तेजी से चले उत्ती तेजी अगर भगवान विष्णु ग्राह( मगर) के चंगुल से गज( हाथी) को बचाने के समय दिखाते तो उनको नंगे पांव न भागना पड़ना। उनके पास चप्पल पहनने का समय तो निकल ही आता। लेकिन अगर ऐसा होता तो उनकी भक्त वत्सलता की इमेज चौपट हो जाती। इससे मुझे लगता है जब गज ने भगवान को पुकारा होगा तो उन्होंने उसको बचाने के लिये निकलते समय चप्पल उतारने में समय लगाया किया होगा। इससे यह लगता है कि देवता गण अपनी छवि के प्रति कितने सजग और चौकन्ने होते थे।
कानपुर हवाई अड्डा पहली बार देखा। लगा किसी ने अपना बड़ा सा फ़्लैट खराब होने से बचाने के लिये किराये पर उठा दिया हो। सुरक्षा जांच में लगे और लगी लोगों को देखकर लगा कि छोटे हवाई अड्डों पर हवाई जहाज भले न आयें लेकिन लोगों पर काम का बहुत बोझ है। जिस महिला ने हमारे टिकट जांचे वही बाद में अखबार पढ़ने लगी इसके बाद अपने साथियों से बतियाने का और मुस्कराने का भी काम भी उसी को करना पड़ना। बिजली आने पर खुशी जाहिर करने काम से निच्चू होने के बाद उसी के जिम्मे अखबार झलते हुये कैंटीन वाले से यह कहने का काम भी आ पड़ा कि -भैया कोल्ड ड्रिंक पिलाओ जरा बहुत गर्मी है।
बड़े हवाई अड्डों में इस मामले में बड़ी आराम है एक व्यक्ति एक ही काम करता है।
पढ़ाई लिखाई का शटर गिराये सालों हो जाने के बावजूद हम गणित के सवाल सोचते रहते हैं। सवाल का मतलब सिर्फ़ सवाल से है। सही हल निकालने के चोचले न हमको तब आते न अब पसंद हैं। हवाई अड्डे जाकर जब पिछले कई दिनों के किस्से सुने तो यहां भी हमने गणित का एक सवाल सोच डाला कि कैसा रहे कि कानपुर हवाई अड्डे पर फ़्लाइट कैंसल न होने की प्रायिकता (प्रोबैबिलिटी, संभावना) निकाली जाये। सोचने को तो मैंने सोच डाला लेकिन अब लग रहा है कि ऐसा अहमक सवाल अगर इम्तहान में कोई पूछे तो चार-पांच साल बाद पूछे ताकि मेरा छोटा बेटा तसल्ली से अपनी स्कूली पढ़ाई निपटा ले। बीच में अगर किसी ने पूछ लिया तो वो ख्वामखाह हमें ही कोसेगा।
बहरहाल इसके बाद हमको एक-एक ठो छुटकी पानी की बोतल थमाकर राहत सामग्री की तरह थमाकर लखनऊ एयरपोर्ट रवाना कर दिया गया। कानपुर से निकलते ही मेरे साथ सफ़र कर रहीं मोहतरमा ने अंग्रेजी में बतियाते हुये किसी को एकदम साफ़ हिन्दी में(शायद मेरी समझ सुविधा का ख्याल रखते ) बताया कि कानपुर पिछड़ा शहर है।
मैंने अच्छा ही किया इस मसले पर उनसे कोई बेनतीजा बहस नहीं की। करता तो वे अहमदाबाद और गुजरात कि किस्से बताती (जहां की वे थीं) जिनको हम संजय बेंगाणी से बेहतर तरीके सुन चुके हैं।
लेकिन इस अटपटी योजना के कार्यान्वयन में खतरा यही है कि अगर यह लागू हुई तो लोगों को खिला-पिलाकर, उनकी भूख मार कर वापस कर दिया जायेगा। जिद करने वालों दिल का दर्द, पेट दर्द, हार्नियां, कब्ज की शिकायत बताकर फ़र्जी यात्रा करने का मुकदमा ठोंक दिया जायेगा। वैसे अगर सच में यह योजना लागू हो जाये तो शायद आधा देश हवा में उड़ता ही रहे और शायद महानगरों की स्लम समस्या हमेशा की तरह निपट जाये।
लेकिन हम इस समस्या से निपटने की इस योजना का प्रारूप फ़ाइनल कर पायें तक तक जहाज दिल्ली में उतर गया। हम भी मन मारकर उतर गये। गेस्ट हाउस की तरफ़ बढ़ते हुये हमने विनीत और अमरेन्द्र को फ़ोनिया दिया कि हम दिल्ली में पधार चुके हैं। बताने की कोशिश मैंने अविनाश वाचस्पति जी को भी की लेकिन भाग्य और नेटवर्क हम लोगों का सहयोग कर रहा था। फोन मिला नहीं। जब मिला तब तक दूरी और देरी के लिहाज से मिलना कठिन हो चुका था।
चार-पांच की घंटे की इस बतकही में बतकही ब्लॉग,ब्लॉगर और ब्लॉगिंग की बातें सिर्फ़ उतनी ही हुईं जितनी किसी संसद सत्र में काम की बातें होती होंगी। हमने उनको विदा करते समय काम भर का वहीं रुक जाने का भी इसरार किया। दोनों को विदा करने के बाद लगा कि इनको जबरिया रोकना चाहिये था। लेकिन सुबह जब हड़बड़ाते हुये एयरपोर्ट के लिये भागे तो लगा अच्छा ही हुआ दोनों बहादुर विद्वान बेहतर स्थिति में निद्रा मग्न होंगे।
हवाई जहाज में उड़ते ही हमने हिन्दी अखबार की मांग की । बीस हजार फ़ीट की ऊंचाई पर पहुंचने पर दिल्ली से निकलने वाले एक हिन्दी अखबार में विनीत कुमार के लेख का अंश देखकर लगा कि हिन्दी ब्लॉगिंग नई ऊंचाइयां छू रही है।
इन ऊंचाइयों में तेजी भी जुड़ गयी जब हमने देहरादून हवाई अड्डे पर उतरते ही अपने मोबाइल पर अविनाश वाचस्पति जी की पोस्ट देखी जिसमें उन्होंने दिल्ली में मिलने की बात लिखी थी।
ब्लॉगिंग की उंचाई, तेजी और आसन्न एतिहासिक मुलाकात के गठबंधन भाव की चपेट में आकर मेरा जी धक-धक करने लगा।
यात्राओं में बेवकूफ़ियां चंद्रमा की कलाओं की तरह खिलती है
By फ़ुरसतिया on June 13, 2010
कानपुर पिछड़ा शहर है:
मोहतरमा फ़ोन पर किसी को बता रहीं थीं- कानपुर पिछड़ा शहर है। मन तो किया कि उनकी बात का विरोध कर डालें लेकिन वो इतनी तल्लीनता से फ़ोनालाप में जुटीं थीं कि डिस्टर्ब करना उचित न लगा। फ़िर नहीं ही किया। अच्छा ही किया वर्ना वे किसी को फ़िर फोन करके बतातीं कि कनपुरिये बदतमीज तो होते ही हैं अंग्रेजी भी गलत बोलते हैं। इस बीच उनका बच्चा मेरे कन्धे से लगकर सो नींद में खो गया था। अपनी बात खत्म करके वे अपने बच्चे को देखकर मुस्कराईं भीं। अगर हम बहस का उद्घाटनिया फ़ीता काटते होते तो बच्चे की नींद टूट जाती और हम उस मुस्कान-दर्शन से वंचित रह जाते। एक बार फ़िर लगा कि बहस शुरू करने का आलस्य हमेशा सुकूनदेह होता है।हवाई जहाज और गणित
अरे बात बीच से पकड़ ली हमने। शुरू भी तो कर लें। देहरादून जाने के लिये साधन तय करने में हवाई जहाज ने रेल के ऊपर जिन कारणों से बढ़त हासिल की वे इस तरह से थे:- गर्मी के मौसम में देहरादून के लिये रेल में रिजर्वेशन कन्फ़र्मेशन किसी अंतहीन बहस से कोई निष्कर्ष निकलने की आशा तरह मुश्किल था।
- आजकल यात्रा के हर साधन असुरक्षा की एक समान गारंटी रहती है। हर यात्रा में सामान के साथ अब अपना दिल भी हाथ में लेकर चलना पड़ता है।
- दुर्घटना की स्थिति में हवाई जहाज में मुआवजा ज्यादा मिलता है।
अपने काम अधूरे रह जाने का शोक हम कायदे से मना भी न पाये थे कि मोबाइल पर मधुर आवाज में यह कर्कश सूचना मिली कि कानपुर से दिल्ली की उड़ान निरस्त है। हमें लखनऊ से दिल्ली भेजने का इंतजाम किया गया है। गाड़ी से लखनऊ भेजने का इंतजाम चकेरी एयरपोर्ट पर किया गया है। तीन बजे तक पहुंच जायें।
हम अपना दफ़्तर, घर और शहर जिस लगभग हालत में था उसई में छोड़-छांड़ के हवाई अड्डे की तरफ़ जिस तेजी से चले उत्ती तेजी अगर भगवान विष्णु ग्राह( मगर) के चंगुल से गज( हाथी) को बचाने के समय दिखाते तो उनको नंगे पांव न भागना पड़ना। उनके पास चप्पल पहनने का समय तो निकल ही आता। लेकिन अगर ऐसा होता तो उनकी भक्त वत्सलता की इमेज चौपट हो जाती। इससे मुझे लगता है जब गज ने भगवान को पुकारा होगा तो उन्होंने उसको बचाने के लिये निकलते समय चप्पल उतारने में समय लगाया किया होगा। इससे यह लगता है कि देवता गण अपनी छवि के प्रति कितने सजग और चौकन्ने होते थे।
कानपुर हवाई अड्डा पहली बार देखा। लगा किसी ने अपना बड़ा सा फ़्लैट खराब होने से बचाने के लिये किराये पर उठा दिया हो। सुरक्षा जांच में लगे और लगी लोगों को देखकर लगा कि छोटे हवाई अड्डों पर हवाई जहाज भले न आयें लेकिन लोगों पर काम का बहुत बोझ है। जिस महिला ने हमारे टिकट जांचे वही बाद में अखबार पढ़ने लगी इसके बाद अपने साथियों से बतियाने का और मुस्कराने का भी काम भी उसी को करना पड़ना। बिजली आने पर खुशी जाहिर करने काम से निच्चू होने के बाद उसी के जिम्मे अखबार झलते हुये कैंटीन वाले से यह कहने का काम भी आ पड़ा कि -भैया कोल्ड ड्रिंक पिलाओ जरा बहुत गर्मी है।
बड़े हवाई अड्डों में इस मामले में बड़ी आराम है एक व्यक्ति एक ही काम करता है।
पढ़ाई लिखाई का शटर गिराये सालों हो जाने के बावजूद हम गणित के सवाल सोचते रहते हैं। सवाल का मतलब सिर्फ़ सवाल से है। सही हल निकालने के चोचले न हमको तब आते न अब पसंद हैं। हवाई अड्डे जाकर जब पिछले कई दिनों के किस्से सुने तो यहां भी हमने गणित का एक सवाल सोच डाला कि कैसा रहे कि कानपुर हवाई अड्डे पर फ़्लाइट कैंसल न होने की प्रायिकता (प्रोबैबिलिटी, संभावना) निकाली जाये। सोचने को तो मैंने सोच डाला लेकिन अब लग रहा है कि ऐसा अहमक सवाल अगर इम्तहान में कोई पूछे तो चार-पांच साल बाद पूछे ताकि मेरा छोटा बेटा तसल्ली से अपनी स्कूली पढ़ाई निपटा ले। बीच में अगर किसी ने पूछ लिया तो वो ख्वामखाह हमें ही कोसेगा।
बहरहाल इसके बाद हमको एक-एक ठो छुटकी पानी की बोतल थमाकर राहत सामग्री की तरह थमाकर लखनऊ एयरपोर्ट रवाना कर दिया गया। कानपुर से निकलते ही मेरे साथ सफ़र कर रहीं मोहतरमा ने अंग्रेजी में बतियाते हुये किसी को एकदम साफ़ हिन्दी में(शायद मेरी समझ सुविधा का ख्याल रखते ) बताया कि कानपुर पिछड़ा शहर है।
मैंने अच्छा ही किया इस मसले पर उनसे कोई बेनतीजा बहस नहीं की। करता तो वे अहमदाबाद और गुजरात कि किस्से बताती (जहां की वे थीं) जिनको हम संजय बेंगाणी से बेहतर तरीके सुन चुके हैं।
आपका चश्मा दूसरे की आंख में चुभ सकता है:
लखनऊ में जहाज पर चढ़ के समय पर बैठ भी गये। इस बीच एक सीट के लिये झगड़ा करते हुये एक यात्री ने पहले तो बहुत सारी कड़ी अंग्रेजी में प्लेन के स्टॉफ़ को हड़काया। सारी अंग्रेजी खतम और बेअसर होने के उसने उसको हिंदी में सुनाया -चश्मा लगाये घूम रहे और सीट का निपटारा नहीं कर पाते। मुझे पहली बार लगा कि किसी की आंख का चश्मा दूसरे को कितना चुभ सकता है। यात्री को शायद यह लगता होगा कि चश्मे में सीट के निपटारे की ताकत होती है। बहरहाल बाद में जहाज स्टॉफ़ ने चश्मा उतारकर उनकी समस्या का समाधान किया और हवाई जहाज उड़ा। उड़ते समय जिस तरह की आवाज हुई मुझे लगा कि वह बता रही है कि हवाई यात्रा में दुर्घटना पर तगड़ा मुआवजा मिलता है।चंद्रमा की कलाओं की तरह खिलती बेवकूफ़ियां
पहली बार देखा कि सीट के सामने टेलीविजन भी था। बटन दबाकर चैनल सेट करते रहे। हुआ नहीं। ज्यादा जोर से दबाने की सोची लेकिन यह सोचकर नहीं दबाया कि कहीं हवाई जहाज न नीचे चला जाये। बगल वाले से दांत चियारकर पूंछा। लेकिन वह जहाज में मौजूद और खूबसूरती निहारने में तल्लीन था। उससे रुखसत होकर उसने कुछ बताया लेकिन उससे भी कुछ हुआ नहीं। इसके बाद हमने अपनी तरफ़ से तमाम बेवकूफ़ियां की। उसई जगह मुझे एहसास हुआ कि यात्राओं के दौरान आपके अंदर छिपी बेवकूफ़ियां चन्द्रमा की कलाओं की तरह खिलती हैं। जब काम भर की बेवकूफ़ियां हो गयीं तो सब कुछ ठीक हो गया- हवाई जहाज ठीक से उड़ने लगा, टीवी चलने लगा, बगल के नेता जी अपने एक पार्टी से दूसरी पार्टी ज्वाइन करने के किस्से सुनाते-सुनाते सो गये। इस ठीक पने में रही बची कसर हवाई नास्ते ने पूरी कर दी।भूख की समस्या से निपटने का एक अटपटा ख्याल
नाश्ते की बात पर मुझे एक और अटपटा ख्याल आया। अपने यहां अन्न भण्डार लबालब भरे होने के बावजूद लोग भूख से मरकर देश की बेइज्जती कराते हैं। मुझे लगा कि सरकार अगर इस तरह की कोई योजना चलाये जिसमें जिन लोगों की भूख से मरने की आशंका हो उनको मुफ़्त हवाई यात्रा की सुविधा प्रदान कर दे। भूखे लोग आये। डाक्टरी जांच करायें । भूख से आसन्न मौत का प्रमाणपत्र पायें। हवाई जहाज चढ़ जायें। भूख से मौत के डर से छुटकारा पायें। इस योजना के लागू होते ही हवाई कम्पनियों के घाटे की समस्या और गोदामों में अन्न सड़ने की समस्या एक झटके से निपट सकती है।लेकिन इस अटपटी योजना के कार्यान्वयन में खतरा यही है कि अगर यह लागू हुई तो लोगों को खिला-पिलाकर, उनकी भूख मार कर वापस कर दिया जायेगा। जिद करने वालों दिल का दर्द, पेट दर्द, हार्नियां, कब्ज की शिकायत बताकर फ़र्जी यात्रा करने का मुकदमा ठोंक दिया जायेगा। वैसे अगर सच में यह योजना लागू हो जाये तो शायद आधा देश हवा में उड़ता ही रहे और शायद महानगरों की स्लम समस्या हमेशा की तरह निपट जाये।
लेकिन हम इस समस्या से निपटने की इस योजना का प्रारूप फ़ाइनल कर पायें तक तक जहाज दिल्ली में उतर गया। हम भी मन मारकर उतर गये। गेस्ट हाउस की तरफ़ बढ़ते हुये हमने विनीत और अमरेन्द्र को फ़ोनिया दिया कि हम दिल्ली में पधार चुके हैं। बताने की कोशिश मैंने अविनाश वाचस्पति जी को भी की लेकिन भाग्य और नेटवर्क हम लोगों का सहयोग कर रहा था। फोन मिला नहीं। जब मिला तब तक दूरी और देरी के लिहाज से मिलना कठिन हो चुका था।
आसन्न पीएचडी धारकों से बतकही
हमारे गेस्ट हाउस पहुंचने कुछ ही देर बाद अमरेन्द्र और विनीत पहुंच गये। रात का खाना खाते के बाद हम लोगों की बतकही का जो दौर चला वो रात दो बजे के बाद तक चलता रहा। बेचारे गेस्ट हाउस के जोशी जी लगातार चाय पिलाते रहे। विनीत और अमरेन्द्र ने अपने विश्वविद्यालयी अनुभव जो और जिस अंदाज में बताये उसके चलते मुझे लगा कि ये किस्से भी लिखे जाने चाहिये। विनीत से तो मैंने कहा भी कि इनको पॉडकास्ट करना चाहिये।चार-पांच की घंटे की इस बतकही में बतकही ब्लॉग,ब्लॉगर और ब्लॉगिंग की बातें सिर्फ़ उतनी ही हुईं जितनी किसी संसद सत्र में काम की बातें होती होंगी। हमने उनको विदा करते समय काम भर का वहीं रुक जाने का भी इसरार किया। दोनों को विदा करने के बाद लगा कि इनको जबरिया रोकना चाहिये था। लेकिन सुबह जब हड़बड़ाते हुये एयरपोर्ट के लिये भागे तो लगा अच्छा ही हुआ दोनों बहादुर विद्वान बेहतर स्थिति में निद्रा मग्न होंगे।
हवाई जहाज में उड़ते ही हमने हिन्दी अखबार की मांग की । बीस हजार फ़ीट की ऊंचाई पर पहुंचने पर दिल्ली से निकलने वाले एक हिन्दी अखबार में विनीत कुमार के लेख का अंश देखकर लगा कि हिन्दी ब्लॉगिंग नई ऊंचाइयां छू रही है।
इन ऊंचाइयों में तेजी भी जुड़ गयी जब हमने देहरादून हवाई अड्डे पर उतरते ही अपने मोबाइल पर अविनाश वाचस्पति जी की पोस्ट देखी जिसमें उन्होंने दिल्ली में मिलने की बात लिखी थी।
ब्लॉगिंग की उंचाई, तेजी और आसन्न एतिहासिक मुलाकात के गठबंधन भाव की चपेट में आकर मेरा जी धक-धक करने लगा।
Posted in बस यूं ही | 45 Responses
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I preferred train travel.
By the way Where is Amrendra ji blog is.. What is its address
PS-hindi is not installed..in my PC. So I am writing in english.
http://www.shashikantsuman.blogspot.com
छुटभाइए नेताओं की ज़िदों के चलते उनकी कांस्टीचुएंसियों में बनी हवाई पट्टियों के किनारे इसकी तरह के फ़्लैट देश में जगह जहग बने हुए हैं जिनपर उतरने की कोशिशों में आए दिन हेलीकाप्टर गिरते रहते हैं.
हाल मे कानपुर से लौटा बहुत ही अच्छा लगा, 18 सालो मे पहली बार कानपुर को इतनी नजदीकी से देखा, एक-एक बढ़कर एक मॉल और इमारते देखी।
18 सालो मे पहली बार झकरकटी पुल के नीचे की ओर से सड़क जो मेरे घर की ओर जाती है उसे देखा तो पुल के उपर से कानपुर सेन्ट्रल की इमारत को, वकई याद ताजा हो गई। भोर 4 बजे सेंट्रल से पारेड तक पैदल चलना फिर दोपहर 1 बजे बड़े चौराहे से सिविल लाईन्स योग टावर तक की पद यात्रा, 1993 याद आ गया।
लोग बाग आजकल भूख से नहीं मरते दर-असल यह साजिश होती है प्रदेश के मुख्यमन्त्री के खिलाफ. उन्हें बदनाम करने की योजना. भूख नाम की कोनो बीमारी है किसी इन्साइक्लोपीडिया में दर्ज.
कानपुर पिछड़ा तो बिल्कुल भी नहीं. बल्कि प्रदूषण नियन्त्रण करने की एक नई तरकीब ईजाद की है जो कानपुर में सबसे अधिक कामयाब है. प्रदूषण नियन्त्रण वालों के मुताबिक विज्ञान का एक सिद्धान्त है कि जिस मशीन से घनघोर काला धुंआ निकलता हो यदि उसे हरे रंग से पेन्ट कर दिया जाये तो प्रदूषण होने का खतरा बिल्कुल खत्म हो जाता है. न माने तो आटो देख लें.
शुकुल जी की करिए, जी की करिए
तेजाब में अनिल कपूर थे
यहां अनूप शुक्ल मौजूद रहे
बेफुरसत वाले फुरसतिया बाबू।
लखनऊ हवाईअड्डे पर एक नया किताबो का स्टाल लगा है, हिन्दी मे सिर्फ़ ओशो को रखता था नही तो शिव खेडा को.. अन्ग्रेज़ी की चन्द किताबे है लेकिन भारतीय लेखको की लिखी अन्ग्रेज़ी किताबो का अच्छा कलेक्शन है..
कानपुर हवाई अड्डे के बारे मे कल्पना कर पा रहा हू और उस मल्टीटास्किग महिला की भी… यात्री थे? या वही आया जाया भी करती है?
चंद्रमा की कलाओं की तरह खिलती बेवकूफ़ियां …. अपनी बेवकूफ़िया तो अभी छुपा लेते है.. लास्ट टाईम का ही किस्सा है.. आगे वाली सीट पर बैठी हुयी एक आन्टी जी फ़ोन पर चिल्लाते हुये अन्ग्रेजी मे बतिया रही थी कि जोश मे आकर बोल गयी कि बस अभी अभी हम लोग ’ट्रेन’ मे बैठ गये है.. मैने दो बार प्लेन को देखा कि कही गलती से मै ट्रेन मे तो नही आ गया फ़िर देखा तो आस पास वालो को भी वैसी ही कन्फ़्यूजन है…
आह.. वाह.. क्या पोस्ट है… विनीत और अमरेन्द्र तो एकदम स्कालर ही दिखते है :P.. उम्मीद है कि उनका चश्मा किसी को न चुभता हो
बगल वाले से दांत चियारकर पूंछा। लेकिन वह जहाज में मौजूद और खूबसूरती निहारने में तल्लीन था।
जय हो!!
फुरसतिया गुरु, ज़ाहिर सी बात है जो कुछ आपको अपने चश्मे से साफ़ साफ़ दिखता रहा, वह दूसरे भाई साहब को क्यों न दिखा ? और आपने भी उनकी कोई मदद न की, कुछ देर को अपना ही चश्मा दे देते.. बेचारा डाँट न खाता । जिसके अपने दीदों पर चश्में हों, वह दूसरे चश्मीश को बख़्स देते हैं, तड़ से इसी बात पर एक चश्माधारी सँगठन बना लिया जाये ।
वईसे एक बात बताओ.. ई सब का खर्चा कऊन उठाइस ?
फिर.. क्यों न आपको सरकारी खर्चे पर ब्लॉग-पोस्ट लिखने का आरोपपत्र दिया जाये ।
आप तो एहिका ऍप्रूव कईन दिहौ, मुला बहुत त्रस्त हन !
तीसरी बात, आपकी लेखन शैली का कोई सानी नहीं… व्यंग्य के साथ हास्य का भी पुट ( लोग ज्यादातर इसका उल्टा कहते हैं…मतलब हास्य के साथ व्यंग्य) इसकी बानगी—
“बीस हजार फ़ीट की ऊंचाई पर पहुंचने पर दिल्ली से निकलने वाले एक हिन्दी अखबार में विनीत कुमार के लेख का अंश देखकर लगा कि हिन्दी ब्लॉगिंग नई ऊंचाइयां छू रही है।”
आप धन्य हो गुरु !
kaise haal?
मुझे: नमस्ते जी
हम तो जैसे थे…..
११:१३ AM अब भी वैसे हैं……
आप कहिए…….
अनूप: मर्द हाल हैं
मेन्टेन किया है
मुझे: मिज़ाज कैसे हैं…?
अनूप: हम तो मजे में हैं
घूम घाम के आये
मुझे: खुशी की बात है
कहाँ
अनूप: और लिख डाला
११:१४ AM यात्राओं में बेवकूफ़ियां चंद्रमा की कलाओं की तरह खिलती है
मुझे: क्या बात है वाह वाह
अनूप: http://hindini.com/fursatiya/archives/1513
मुझे: हम भी आज ही पूना से लौटे हैं
अनूप: सही लगी बात?
तब क्या?
११:१५ AM तब तो आप भी इस बात से सहमत होंगे
मुझे: पहले पढ़ तो लें सर
अनूप: ओके
११:१७ AM मुझे: पृष्ठ खोल लिया है और पढ़ना शुरू कर दिया है कानपुर पिछ्ड़ा शहर है ?
अनूप: हां
११:१८ AM मुझे: बहस शुरू करने का आलस्य हमेशा सुकूनदेह होता है।
सही कहा जी
११:१९ AM दुर्घटना की स्थिति में हवाई जहाज में मुआवजा ज्यादा मिलता है। हा हा मगर किसे ?
११:२० AM हर यात्रा में सामान के साथ अब अपना दिल भी हाथ में लेकर चलना पड़ता है। इस वाक्य में गूढ़ता निहित है।
११:२१ AM मोबाइल पर मधुर आवाज में यह कर्कश सूचना मिली
अनूप: हां
मुझे: हा हा अनूप जी आप भी ना….
११:२२ AM अनूप: मौज है
मुझे: चकेरी एयरपोर्ट
अनूप: कानपुर में है
मुझे: अच्छा है वरना कहीं चकोरी होता तो
११:२३ AM अनूप: सही
११:२४ AM मुझे: चप्पल उतारने में समय लगाया हा हा…..
११:२५ AM कानपुर हवाई अड्डा पहली बार देखा। लगा किसी ने अपना बड़ा सा फ़्लैट खराब होने से बचाने के लिये किराये पर उठा दिया हो। हा हा हा हा बहुत ज़ोरदार
११:२६ AM अनूप:
मुझे: अपने साथियों से बतियाने का और मुस्कराने का भी काम भी उसी को करना पड़ना। हा हा क्या बात है वाह वा
११:२७ AM पढ़ाई लिखाई का शटर गिराये सालों हो जाने के बावजूद हम गणित के सवाल सोचते रहते हैं। सवाल का मतलब सिर्फ़ सवाल से है। सही हल निकालने के चोचले न हमको तब आते न अब पसंद हैं। हा हा ये सब फ़लाने फ़लानों के चोचले हैं
११:२८ AM अनूप: हां सही
११:३० AM मुझे: आपका चश्मा दूसरे की आंख में चुभ सकता है:
ठीक कहा जी हमारा चश्मा भी पिछ्ले दिनो………
पचमढ़ी प्रवास के दौरान एक……..
आगे पूछिए क्या..?
अनूप: kyaa?
११:३१ AM मुझे: बन्दर की आँख में चुभ चुका है…………………
और वो उसे लेकर यह जा वह जा भी हो चुका है
अनूप: sahee
११:३२ AM मुझे: जिस चश्में ने सोलह साल हमार साथ दिया वही सर …..
उसी दुख में तो हम ब्लॉग पर आ ही नहीं रहे कि बिना चश्में के
११:३३ AM इस बेरंग दुनिया के रंग कैसे देख पाएंगे
अनूप: बड़े दुख की बात है
११:३४ AM मुझे: हा हा खै़र आप सबको ज़रूर बतला दीजिएगा यह बात के जब इस दुख से उबर जाऎंगे तो हम फिर नज़र आएँगे मगर हाँ बेचश्म.
११:३५ AM अनूप: सही
बता देंगे
अभी तो पोस्ट लिख कर पोस्ट कर चुके
अब अगली पोस्ट में बता देंगे
मुझे: हा हा हवाई दुर्घटना का तगड़ा मुआवज़ा सही कहा जी
११:३६ AM अगली पोस्ट में क्यूँ चिट्ठा चर्चा में भी चलेगा हा हा
ये भी तो हवाई दुर्घट्ना ही थी हा हा
अनूप: हां
११:३७ AM मुझे: चंद्रमा की कलाओं की तरह खिलती बेवकूफ़ियां
बहुत ज़ोरदार कहा सर हा हा
अनूप: अपने बारे में कहा
लिखा
११:३८ AM सोचते हैं मुकदमा धांस दें खुद के ऊपर
मुझे: लेकिन वह जहाज में मौजूद और खूबसूरती निहारने में तल्लीन था। हा हा गुप्त बात का ओपन ख़ुलासा
११:३९ AM अनूप: हां
मुझे: अरे नहीं सर अपन आउट ऑफ़ कोर्ट सैटल्मेंट करवा देंगे
मुकदमे की क्या ज़रूरत है ?
अनूप: नोटिस भेज देंगे
फ़िर सेटल मेंट कर लेंगे
११:४० AM घर का पैसा घर में रहेगा
बचत होगी
मुझे: हाँ जी इसमें कम-अज़-कम नोटिस की फ़ीस तो मिल ही जावेगी
अनूप: हां
११:४१ AM इस जेब से उस जेब में चली जायेगी
११:४२ AM मुझे: हा हा ये पैरा बहुत मज़ेदार रहा सर काम भर की बेवकूफ़ियाँ हा हा
११:४३ AM भूख की समस्या वा़कई ख़याल अटपटा लगा
अनूप: हां
लिखना सार्थक हुआ
११:४४ AM मुझे: ब्लॉगिंग की उंचाई, तेजी और आसन्न एतिहासिक मुलाकात के गठबंधन भाव की चपेट में आकर मेरा जी धक-धक करने लगा।
……….
११:४५ AM बहुत सार्थक लिखा सर बहुत सार सहित
अनूप:
११:४६ AM मुझे: कुछ देर के लिए सही …….
११:४७ AM हमें परसाई जी की याद तो दिला ही दी आपने
आनन्द आ गया जी
अनूप: शुक्रिया
परसाईजी ग्रेट थे ,हैं और रहेंगे
मुझे: जल्द मिलेंगे
११:४८ AM अनूप: सही है
मुझे: आज स्टेशन से घर आते वक्त…..
११:४९ AM उनके घर के सामने से ही गाड़ि चली आती थी और उनके ख़याल आते थे के कैसे वो बच्चों को मीठी गोलियाँ
११:५० AM खाने को देते थे और हम कभी कभी तख़्त के पीछे से उनका झोला टटॊल लिया करते थे के नाना हमारा हिस्सा कहाँ है ?
अनूप: वाह
११:५१ AM मुझे: क्या मालूम था कि अपना हिस्सा हमें आज उनके साहित्य मॆं नज़र आया करेगा
११:५२ AM अनूप: हां वो महान थे
बहुत
मुझे: जिसे हम भी कभी कभी अपनी बातों में ख़ुद और दूसरों को आनन्दित करने के लिए बाहक्क़ इस्तेमाल किया करेंगे है के नहीं सर जी
११:५३ AM अनूप: सही
उनके संस्मरण लिखिये
लिखने चाहिये आपको
११:५४ AM मुझे: बिल्कुल लिखेंगे सर आपने कह दिया अब ज़रूर लिखा जाएगा
११:५५ AM अनूप: सही
११:५६ AM मुझे: अब टिपियाने जा रहे हैं जी आपकी पोस्ट पर
११:५७ AM अनूप: वाह
हमारी और फ़ुर्सतिया जी की बातचीत को ही हमारी टीप समझा जावे। हा हा।
गाड़ि को गाड़ी पढ़ा जावे
एक सुन्दर स्मरण-कथा के साथ मौज ही मौज वाली पोस्ट।
आनन्ददायी
vineet aur amrendra ji k sath hui baato ka aur vivaran rakhna tha ji, fursat ki kami ho gai ka?
वैसे एयर होस्टेस का सवाल आया था कहाँ से …हमें तो याद है ..एक बार पुणे से लौटते वक़्त एक साहब ने कहा ….खाना नहीं हमें तो प्लेट चाहिए…खाना तो हम घर से लाये है …..ओर पूरे ज़हाज़ में .खुशबु फ़ैल गयी…..आचार की …….
* “बहस शुरू करने का आलस्य हमेशा सुकूनदेह होता है।”
* “मुझे पहली बार लगा कि किसी की आंख का चश्मा दूसरे को कितना चुभ सकता है।”
* “मुझे एहसास हुआ कि यात्राओं के दौरान आपके अंदर छिपी बेवकूफ़ियां चन्द्रमा की कलाओं की तरह खिलती हैं।”
आदि..आदि,, !
मतलब इसके पहले भी आपको ऐसा लग चुका है
“इससे यह लगता है कि देवता गण अपनी छवि के प्रति कितने सजग और चौकन्ने होते थे।”
सही है. तमाम पौराणिक कथाएं इस बात को सिद्ध करतीं हैं.
“बगल वाले से दांत चियारकर पूंछा। लेकिन वह जहाज में मौजूद और खूबसूरती निहारने में तल्लीन था।”
येल्लो!!!! और आपने बेवकूफ़ियों में वक्त जाया कर दिया
“बीस हजार फ़ीट की ऊंचाई पर पहुंचने पर दिल्ली से निकलने वाले एक हिन्दी अखबार में विनीत कुमार के लेख का अंश देखकर लगा कि हिन्दी ब्लॉगिंग नई ऊंचाइयां छू रही है।”
अरे!!!!! आपकी सोच और कलम भी तो उतनी ही ऊंचाइयों को छू रही है सर जी…. कब क्या प्रयोग कर डालेंगे पता नहीं. आनन्ददायक पोस्ट.
कानपुर के बारे में कुछ भी कह देने में शान्ति भंग होने का खतरा बना रहता है घर में ।
अपने हर किस्से को नायब तरीके से परोसा है ….
हमेशा की तरह डमप्लास्ट पोस्ट. एक से बढ़कर एक बढ़िया पंक्तियाँ और घटनाएं. यात्रा संस्मरण इस तरह से भी लिखा जाता है. वाह ही वाह.
विनीत जी और अमरेन्द्र जी की बतकही के बारे में ज़रूर लिखें. अविनाश जी से आपके मिलन की प्रतीक्षा थी. उनके साथ मिलन के बारे में भी लिखें.
बहस शुरू करने का आलस्य हमेशा सुकूनदेह होता है!
………….
संस्मरण रोचक लगा.
“यात्राओं में बेवकूफ़ियां चंद्रमा की कलाओं की तरह खिलती है” टाईटिल ने ही जान ले ली.
लेकिन हाँ, जैसे जैसे चन्द्रमा अग्रसर होता है और पूरनमासी के दिन पूरा खिल जाता है, उसका ठीक उल्टा, मनुष्य की बेवकूफियां उसके पहली यात्रा में ही खिल के निखर जाती हैं!
सारे एयरपोर्ट नजरों के सामने घूम गये जिन पर अभी तक हो आये हैं
धीरे-धीरे हम आपके ‘पंखे’ होते जा रहे हैं मेरा मतलब है ‘फैन’ होते जा रहे हैं. आपके इर्द-गिर्द घूमना पड़ेगा ..शायद कुछ हवा क्रिएट हो..! पहले सोचा कि कुछ अच्छी पंक्तियाँ कट पेस्ट करते हैं…वैसे ही जैसे जोशी जी को पढ़ते वक्त रेखांकित करते थे पेन्सिल से ..और जबरदस्ती सुनाते थे उसे भी जो सिर्फ मेरे सुनाने के हाव भाव को देखकर खुश होता था. फिर देखा अरे..! यह तो बहुत लम्बी हो जायेगी..किस को छोड़े किसे उतारें..! फिर सब मिटार दिया ..!
बेवकूफियाँ चंद्रकलाओं की तरह खिलती हैं…यात्राओं के दौरान ही क्यों, इस जैसी किसी अच्छी पोस्ट पर तारीफ़ करते वक्त भी तो..! पहने-पहने, नाक-कान दुखने लगा और लोग हैं कि चश्में से जलते है ..! अब नहीं पढेंगे ..धन्यवाद.
……….ऐसा अब आप पुरुषों के साथ भी होने लगा ? शुक्र है जमाना तो बदला !
मुझे तो लगता था कि ब्लॉग-नभचर फ़ुरसतिया जी
अधिकांश यात्रा वायुयान से ही करते हैं ! आपके बहाने
हमने भी उस माहौल को अनुभूता जिससे जाने कब
बाबस्तगी हो ! खूबसूरत प्रविष्टि !
और , जब किसी की बेवकूफियां चन्द्रकला सी खिल
रही हों तो आसपास कुमुदनियों का खिलता जाल
न बने तो मजा कहाँ ! कुछ खिली थीं ? हाँ नहीं सो !
@ मुक्ति जी ,
अस न कहिये , नहीं तो आलसी के पेटेंट धारी गिरिजेश
राव साहब कोर्ट कचेहरी घसीट ले जायेंगे !
आप नाहक एक चश्मुद्दीन के पीछे पड़ गए….
मैं भी चश्मा लगाता हूँ और कल को मैं अगर हवाई जहाज में जा कर सीट के लिए झगडने लगूंगा तो झगड़ने से पहले आस पास देख लूंगा कि कोई अनूप शुक्ल टाईप बंदा तो नहीं बैठा है
मजेदार पोस्ट है….दनदनाती हुई।
दोनो आसन्न पीएचडी धारकों के अनुभव लिखे जांय……क्योंकि उन अनुभवों में मुझे पीएचडी करवाने वाले प्रोफेसरों वगैरह के घरेलु मुश्किलें आसान करवाने की बू आ रही है….मसलन जसपाल भट्टी टाईप…… जिसमें कि पीएचडी करवाने के एवज में अपने मातहत एक छात्र से प्रोफेसर महोदय अपनी साली का विवाह करवाने पर तुल जाते हैं। क्या पता विनीत और अमरेन्द्र भी इसी जुगाड में हो
अगर हम बहस का उद्घाटनिया फ़ीता काटते होते तो बच्चे की नींद टूट जाती और हम उस मुस्कान-दर्शन से वंचित रह जाते। एक बार फ़िर लगा कि बहस शुरू करने का आलस्य हमेशा सुकूनदेह होता है।
waah kya kahne ?maza hi aa gaya wo bhi bharpoor ,aapki rachna to mood hi badal deti hai ,kai din se vandana se kah rahi thi ki shirshik itna prabhavshali hai ki padhne ki utsukta bani hui hai .aur aaj jaakar main ise shant kar pai .man nahi bhara ek baar me ab dobara aaungi ,mast zabardast …..
अच्छा ही किया । जो जोर से न दबाया । आजकल हवाई हादसे बहुत हो रहे हैं ।
जिनको मजा नी आया वो अगला अंक भी पढ़े । शायद मजा आ जाये । हमे तो जोरों का आया ।
चंद्रमा की कलाओं की तरह खिलती बेवकूफ़ियां
एक बार बहुत दिनों के बाद चढ़े जहाज पर । हवाई एटिकेट्स तब कम आते थे । जहाज के टेक आफ होते ही एयर होस्टेस एक प्लेट में कान में ठूंसने के लिये रूई लिये ठुमकती आयी । हम सोचे की कोई खाने की चीज होगी । मुट्ठी भर कर उठा लिये । होस्टेस ने मुस्कुरा कर देखा । बाद में हम भी अपने बांगड़ूपर पर मुस्कुराते रहे रास्ते भर ।