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…खोये आइडिये की तलाश में मगजमारी
By फ़ुरसतिया on July 14, 2010
एक दिन हम अपनी फ़टफ़टिया पर चले जा रहे थे। चले भी जा रहे थे, सोचते भी
जा रहे थे कि इसकी सर्विंस करवानी है, ब्रेक कसवाने हैं, तेल बदलवाना है।
अचानक सोच को फ़ांदता हुआ एक आइडिया आया और हमारी सोच के ऊपर छा गया। सोच के ऊपर आइडिया के छा जाने वाली बात से भाई लोग अपने हिसाब से भी मतलब निकाल सकते हैं इसलिये ये समझिये कि आइडिया सोच के आगे आकर खड़ा हो गया जैसे अकेले वही रूपा फ़्रंट लाइन बनियाइन पहने हो। या फ़िर ऐसे समझ लीजिये कि जैसे कोई महिला किसी टिकट खिड़की पर पुरुषों की लम्बी लाइन के साइड से निकलकर सबसे आगे खड़ी होकर टिकट लेने लगे। इससे लगा कि आइडिया मार्डन च सुसंस्कृत सा दिखने के सारे लटके-झटके जानता है और सबसे काम की बात यह कि उसको अपना काम निकालने की तरकीबें आती हैं।
पहली नजर में आइडिया प्यारा लग रहा था। लेकिन हम उसको जानबूझकर ज्यादा भाव नहीं दिये। भाव देने से आइडिया उचकने लगते हैं। कभी-कभी तो बेकाबू भी हो जाते हैं। दिमाग से निकलकर जबान पर, जबान से अगले के कान से होते हुये दूसरे के पास चले जाते हैं। विधायकों ने दलबदलने की कला आइडिया लोगों से ही सीखी होगी। हमारे न जाने ऐसे कितने आइडिये हमसे निकलकर दूसरों के पास चले गये। हम आइडियों की ’सरोगेट जमीन’ बनकर रह गये।
हम से घाघ बने आइडिये को दूर से ही देखते रहे। दूर से क्या कनखियों से समझिये। उसको भाव नहीं दे रहे थे लेकिन अर्जुन बने ताड़ उसी को रहे थे। या समझिये जैसे कोई जनप्रतिनिधि राहत सामग्री, कोई उम्रदराज महिला अपने जवान पति पर नजर रखती है उसी तरह हम आइडिये पर नजर रखे हुये थे। आइडिये को हम उसी तरह देखते जा रहे थे जैसे कोई मिष्ठान लोभी मिठाई को खाने के पहले बहुत आराम से देखना चाहता है।
आगे जा रहा साइकिल सवार अचानक झटके से मुड़ गया। ट्रैफ़िक के नियम का सम्मान रखने के लिये मुड़ने के बाद उसने हाथ भी दे दिया। हम चौंककर अपने को बचाने में लग गये। पहले ब्रेक मारा। झटके से आगे हुये। इसके बाद न्यूटन के तीसरे नियम के प्रति सम्मान प्रकट करते हुये पीछे हुये। दोनों काम निपटा कर सीधे हो गये। फ़िर बीच सड़क पर खड़े होकर मुड़कर आराम से जाते सवार को देखा। थोड़ा फ़टेहाल सा देखकर उसको घूर भी डाला। इसके बाद वहीं खड़े-खड़े शहर, प्रदेश और देश के ट्रैफ़िक सेंस (सड़क व्यवहार) को कोसने की सोची लेकिन पीछे से बड़ी गाड़ी बोले तो ट्र्क के हार्न ने हमें अपनी औकात पर ला दिया और हम फ़िर किकिया के एक्सलरेटियाते हुये आगे चले दिये।
आगे चलते ही हमने सोचा अब आइडिये को आराम से देखा जाये, भाला जाये और संभाला जाये। लेकिन आइडिया कहीं दिखा नहीं। वह गायब हो गया था। दिमाग पर बहुत जोर डाला लेकिन याद ही नहीं आया कि कुछ देर पहले क्या सोच रहे थे। आइडिया क्या था, किस बारे में था कुछ याद ही न आ रहा था। आइडिया कंचनमृग हो गया था। हमारी बुद्धि उसे पाने के लिये सीता सी बेचैन हो उठी।
बेचैनी में हमने मोटरसाइकिल तेज भगाई और कई सवारियों को ओवरटेक कर गये। कहीं आइडिया न दिखा। फ़िर लगा कि आइडिया कोई खुपड़िया खोलकर थोड़ी भागा है। वह वहीं कहीं दिमाग में छुपा होगा। थोड़ा कोशिश करने से बरामद हो जायेगा। कोशिश करने पर तमाम पुराने-धुराने आइडिये भी घपलों-घोटालों की तरह सामने आने लगे। हमने उनको नजरन्दाज सा किया और पूरी जिम्मेदारी से सद्य लापता आइडिये को खोजने लगे। इस चक्कर में हमने न जाने कितने नायाब-लाजबाब आइडियों को उठाकर दूर फ़ेंक दिया। एक से एक हसीन-डैसिंग-हैंडसम-क्यूट और खूसट भी आइडिये सामने आ रहे थे। काम के बेकाम के। लेकिन वो वाला आइडिया नहीं मिल रहा जिसकी हमें तलाश थी।
इस आइडिया खोज से कुछ पुराने आइडिये तो दुखी हो रहे थे और कुछ नाराज भी थे मैं सीनियर आइडियों को छोड़कर जूनियर आइडिये के पीछे नबाब रंगीला बना घूम रहा हूं। कुछ ने तो अप्रत्यक्ष धमकी भी दे दी कि वे सूचना के अधिकार का उपयोग करके हमारी तमाम ऊलजलूल हरकतों के बारे में बेफ़िजूल की जानकारी मांगकर अपने अपमान का बदला वसूल करेंगे।
इस आइडिये को खोजने के चक्कर में मुझे लगा मैं चिल्लर की खोज में नोट फ़ेकता जा रहा हूं। रूमाल खोजने के चक्कर में कमीज/पैंट, कोट-सूट इधर-उधर फ़ेंके चला जा रहा हूं। ओसामा को खोजने के चक्कर में जैसे अमेरिका पूरी दुनिया की तलाशी लेता-घूमता है वैसे मैं अपने दिमाग के हर कोने अतरे में अपने खोये आइडिये को खोजने लगा।
जब काफ़ी कोशिश करने के बाद भी आइडिया न मिला तो हम सहज बुद्धि की शरण में गये। हमें दिमाग संबंधी कोई समस्या होती है तो फ़ौरन सहज बुद्धि की शरण में चले जाते हैं। कई बार तो कई बेवकूफ़ियां इसीलिये जानबूझकर करते हैं ताकि सहजबुद्धि के पास जाने का मौका मिले। सहजबुद्धि हमारा हाईकमान है। जैसे लोग अपनी हर छोटी से छोटी बात के लिये हाईकमान की अनुमति और आदेश लेते हैं वैसे ही हम हर उलझा-सुलझा काम सहज बुद्धि की सलाह से करते हैं। कई बार तो एक ही काम कई-कई बार उलझवा-सुलझवा लेते हैं लेकिन हमारी सहजबुद्धि जी इत्ती प्यारी हैं कि वे कभी इस बात का बुरा नहीं मानतीं। हर बार वे उलझन इस तरह सुलझाती हैं जैसे लगता है कि मैं उनके पास वह समस्या पहली बार लाया हूं। कभी-कभी तो वे भी हमारी तरह हरकतें करने लगती हैं और सुलझन को उलझाने लगती हैं। जब मैं उनको टोंकने की कोशिश करता हूं तो वे मुस्कराते हुये उसे सुलझाने लगती हैं। लगता है वो भी कुछ भुलक्कड़ हैं। कित्ता तो क्य़ूट है उसका भुलक्कड़पन। कभी-कभी तो उनका भुलक्कड़पन देखकर लगता है कि किसी को अगर सहज-सुन्दरता देखनी हो तो किसी भुलक्कड़ इंसान को देखना चाहिये।
जो लोग हिन्दी भाषा का प्रयोग करने में अपनी तौहीन और पिछड़ापन समझते हैं वे कॉमन सेंस की शरण में जाते हैं। लेकिन हम उस सोच और उस लाइन के नहीं हैं इसलिये हमें सहजबुद्धि का साथ ही अच्छा लगता है।
सहजबुद्धि ने मुस्कराते हुये हमें देखा और सवालिया चहकन के साथ पूछा- फ़िर कोई उलझन लाये हो।
सहज बुद्धि की चहकन और सवाल से मुझे बड़ा सुकून मिला। वर्ना आजकल तो लोग बोलना सीखना शुरू करते ही शोले उगलने लगते हैं- क्या सोच के आये थे?
मेरा एक आइडिया खो गया है। आधे घंटे से मिल नहीं रहा है। -मैं दिलीप कुमार की तरह खोयी-खोयी आवाज में बोला।
आ जायेगा आइडिया। कहीं इधर-उधर गया होगा खेलने-कूदने। हवाखोरी करने। जायेगा कहां !! बेचैन मत हो। धीरज रखो। -सहज बुद्धि हमेशा धनात्मक सोचती हैं।
अरे कैसे धीरज रखूं। कहीं मेरे उस आइडिये को किसी ने प्रयोग कर लिया तो मैं तो कहीं का न रहूंगा। मेरा तो सब कुछ लुट जायेगा। -मैं उतावला हो रहा था।
अच्छा कैसा था आइडिया? कुछ बताओ शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं खोजने में। -सहजबुद्धि का सारा ध्यान अब मुझ पर था। मुझे आइडिया खोने पर अच्छा सा लगने लगा।
यही तो नहीं याद आ रहा है। वह बस आया मन में और झलक दिखला के चलता बना। मैं उसके साथ फ़ोटो तक न खिंचा पाया। -मैंने फ़िर अपने को बेचैन सा दिखाया।
अच्छा अगर वह दुबारा आये या दिखे तो पहचान लोगे? – सहज बुद्धि अब गंभीर खोजक हो उठीं।
हां के साथ मैंने मे बि ( May be) भी कह दिया और होप सो (hope so) भी| -पहले तो सोचा आई थिंक सो ( I think so) भी कह दें लेकिन यह सोचकर कि अंग्रेजी ज्यादा हो जायेगी हम सबर कर गये। अंग्रेजी गले में दबाने के चलते खांसी सी आयी जिसे एक्स्क्यूज मीं कहकर हमने संभाल लिया। बाद में लगा कि इससे अच्छा तो आई थिंक सो बोल ही देते। कहीं सहज बुद्धि यह न समझें कि हमारा अंग्रेजी में हाथ तंग है। आजकल जो जित्ती अंग्रेजी जानता है उसका काम उत्ता ही फ़टाफ़ट होता है। अंग्रेजी हाई क्वालिटी लुबिकेंट है। कम खर्चे में फ़टाफ़ट , स्मूथ काम करवाती है।
इसके बाद सहज बुद्धि सवाल-जबाब करने लगीं। बहुत सारे सवाल-जबाब तो हम आइडिये की तरह ही भूल गये लेकिन जो याद हैं उनको आपको बता रहे हैं। आप किसी को बताइयेगा नहीं। ओके!!
सवाल: क्या वह आइडिया तुम्हारे दफ़्तर के काम से संबंधित था?
जबाब: न भई! मैं दफ़्तर के काम की बात दफ़्तर के बाहर नहीं सोचता। सरकारी कामकाज की गोपनीयता भंग होती है। पता चला कोई काम सोच रहे हैं बाहर खड़े होकर और किसी को पता चल जाये तो शिकायत कर दे कि ये दफ़्तर के सूचनायें और समस्यायें बाहर खड़े होकर सोचते हैं। इसलिये मुझे नहीं लगता कि आइडिया दफ़्तर के किसी काम से संबंधित होगा।
सवाल: क्या किसी की भलाई की बात सोच रहे थे तुम?
जबाब: मुझे तो नहीं लगता। अगर किसी की भलाई की बात सोच रहा होता तो अब तक अपने ब्लॉग पर लिख चुका होता। मेरा पिछला रिकार्ड रहा है कि मैंने जो भी अच्छे काम किये अब तक वे किये भले बाद में हों उनके बारे में लिखा पहले। अपनी इस आदत के चलते कई बार तो ऐसा हुआ कि भलाई के कई काम मैंने लिख पहले डाले किये बाद में। कई भलाई के काम तो सिर्फ़ लिखने और करने का हिसाब बराबर करने के लिये करने पड़े। इस मामले में मेरा सिद्धान्त है नेकी कर ब्लॉग में डाल । जो भी नेकी करो उसका जिक्र अपने ब्लॉग पर अवश्य करो ताकि सनद रहे। ( आलोक पुराणिक की व्यंग्य पुस्तक – नेकी कर अखबार में डाल) इस लिये मुझे तो नहीं लगता कि आइडिया कोई भला आइडिया होगा!
सवाल: आइडिये में किसी सामाजिक समस्या का निदान जैसी बात तो नहीं थी?
जबाब: अरे न भाई! आप मुझे गलत समझ रही हैं। मैं ऐसा कोई काम नहीं करना चाहता जिससे समाज को किसी समस्या का सामना करना पड़े। सामाजिक समस्या का निदान करने के लिये कटिबद्ध लोग एक समस्या के समाधान करने में चार पैदा करते हैं। हमारा आइडिया भगोड़ा हो सकता है लेकिन असामाजिक नहीं। उसमें किसी समस्या का निदान जैसी बात कत्तई न होगी। मुझे पक्का भरोसा है।
सवाल: कहीं आइडिया किसी खोज या वैज्ञानिक चेतना से संबंधित तो नहीं था? मेरा मतलब किसी समस्या के हल के बारे में सोचते-सोचते कुछ सूझा हो?
जबाब: अरे नहीं भाई! क्या मैं इतना अहमक दिखता हूं? क्या मैं ऐसे बेसिर-पैर के कुतर्क करता हूं कि तुम यह सवाल पूछो!! मैं इस तरह की बातें कभी करता ही नहीं। लगता है जब वैज्ञानिक चेतना बंट रही थी तब हम इधर-उधर आवारा गर्दी कर रहे थे। लोगों ने सारी चेतना लूट ली और अपनी कुठरिया में बंदकर नंबर वाला ताला लगाकर नंबर भूल गये। लिये लाठी टहलते रहते हैं कि कोई कुठरिया की तरफ़ देख भर ले तो आंखे निकाल कर आई बैंक में जमा कर दें। हम वैज्ञानिक चेतना से उसी तरह बचते हैं जैसे अपने देश से लड़कियां लफ़ंगो, लंपटों से। हम किसी समस्या का हल सोचने में कभी यकीन नहीं रखते। समस्या अपना हल खुद खोजती हैं हम बहुत करते हैं तो उसका श्रेय ले लेते हैं।
इसी तरह के और तमाम सवाल-जबाब सहज बुद्धि ने किये लेकिन आइडिया देश की खोयी हुयी अस्मिता सा मिला नहीं। तरह तरह के आइडिया उसने दिखाये कि ये है, कहीं ये तो नहीं कहीं वो तो नहीं। लेकिन हमें अपना आइडिया न मिला। मजाक-मजाक में शुरू हुई खोज इत्ती सीरियस मोड पर आ गई कि हम घबराकर शेरो-शायरी की शरण में चले गये और बेचैन होकर अपने आइडिये की याद में शेर पढ़ने लगे:
अचानक सहज बुद्धि ने सलाह दी क्यों न आइडिया खोने की रपट थाने में करा दो। हमने सोचा बात तो सही है लेकिन उसमें भी तो पुलिस आइडिये का हुलिया पूछेगी। लंबाई, चौड़ाई, वजन और पहचान का निशान पूछेगी। पुलिस वाले का मूड उखड़ा हुआ तो आइडिये का हुलिया पूछते-पूंछते हमारा बिगाड़ देगी। यह सोचकर हम फ़िर उलझ गये।
मैंने सुझाया क्यों न पुलिस थाने में अनामी रिपोर्ट करा दी जाये। इस पर सहज बुद्धि ने बरज दिया और कहा- ऐसा कभी न करना। अनामी की आईपी पुलिस वाले नोट कर लेंगे। इसके बाद तुम्हारी रपट का स्नैप शॉट लेकर तुमको नोटिस भेजवा देंगे। इस झमेले से बचने के आइडिये खोजते रह जाओगे।
अब हमको आइडिये पर गुस्सा आना लगा था। एक ससुरे आइडिये ने जीना मुहाल कर दिया। मुझे लगा कि अगर कहीं सामने दिख जाये आइडिया तो उसको झंझोड़कर पूंछूंगा- क्या समझता है अपने आपको। उसके जैसे पचासों आइडिये आगे-पीछे घूमते हैं मेरे। वही अकेला नहीं है। मैं झल्लाने लगा।
मेरी झल्लाहट देखकर सहजबुद्धि बिना बॉय बोले चली गयी। मुझे बाद में ध्यान आया कि गुस्सा, झल्लाहट और सहजबुद्धि की बिलकुल नहीं पटती। ये एक साथ एक जगह कभी नहीं रह सकते।
मैं शान्त होकर फ़िर आइडिये की खोज में जुट गया। वो वाला आइडिया तो नहीं मिला लेकिन अचानक एक और नया आइडिया आया दिमाग में। मैंने सोचा कि ये आइडिया वाली बात पर एक लेख लिखूं तो कैसा रहेगा?
यह सोचते ही अचानक मुझे कुछ सूझा और मैंने आइडिये से पूंछा कि तुम्ही तो नहीं थे जो सुबह मेरे दिमाग में आये थे और फ़ूट लिये थे। आइडिया बदमाश बेमतलब मुस्कराने लगा। वह मुस्कराये जा रहा है। अब मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि उसकी मुस्कान का क्या अर्थ लगाया जाये। सहज बुद्धि भी जा चुकी हैं। अब इत्ती जल्दी तो वो लौटकर आने वाले नहीं।
आप को कुछ समझ में आ रहा है। कोई आइडिया है इस बारे में आपके पास?
नदी की कहानी कभी फिर सुनाना,
मैं प्यासा हूं दो घूंट पानी पिलाना!
मुझे वो मिलेगा ये मुझको यकीं है,
बड़ा जानलेवा है ये दरमियाना(अलगाव)।
मोहब्बत का अंजाम हर दम यही था,
भंवर देखना, कूदना ,डूब जाना!
अभी मुझसे, फिर आपसे, फिर किसी से,
मियां, ये मोहब्बत है कोई कारखाना!
परिंदे की किस्मत में उड़ना लिखा है,
बना ले भले वो कहीं आशियाना!
अगर धूप के साथ आंखे लड़ीं हों,
तो फिर ओस के घर न डेरा जमाना!
सफर सांस के ये कहां पर रुकेगा,
करोड़ों ने पूछा किसी ने न जाना!
ये तन्हाइयां, याद भी, चांदनी भी,
गज़ब का वजन है, संभल के उठाना!
डा. कन्हैयालाल नंदन
अचानक सोच को फ़ांदता हुआ एक आइडिया आया और हमारी सोच के ऊपर छा गया। सोच के ऊपर आइडिया के छा जाने वाली बात से भाई लोग अपने हिसाब से भी मतलब निकाल सकते हैं इसलिये ये समझिये कि आइडिया सोच के आगे आकर खड़ा हो गया जैसे अकेले वही रूपा फ़्रंट लाइन बनियाइन पहने हो। या फ़िर ऐसे समझ लीजिये कि जैसे कोई महिला किसी टिकट खिड़की पर पुरुषों की लम्बी लाइन के साइड से निकलकर सबसे आगे खड़ी होकर टिकट लेने लगे। इससे लगा कि आइडिया मार्डन च सुसंस्कृत सा दिखने के सारे लटके-झटके जानता है और सबसे काम की बात यह कि उसको अपना काम निकालने की तरकीबें आती हैं।
पहली नजर में आइडिया प्यारा लग रहा था। लेकिन हम उसको जानबूझकर ज्यादा भाव नहीं दिये। भाव देने से आइडिया उचकने लगते हैं। कभी-कभी तो बेकाबू भी हो जाते हैं। दिमाग से निकलकर जबान पर, जबान से अगले के कान से होते हुये दूसरे के पास चले जाते हैं। विधायकों ने दलबदलने की कला आइडिया लोगों से ही सीखी होगी। हमारे न जाने ऐसे कितने आइडिये हमसे निकलकर दूसरों के पास चले गये। हम आइडियों की ’सरोगेट जमीन’ बनकर रह गये।
हम से घाघ बने आइडिये को दूर से ही देखते रहे। दूर से क्या कनखियों से समझिये। उसको भाव नहीं दे रहे थे लेकिन अर्जुन बने ताड़ उसी को रहे थे। या समझिये जैसे कोई जनप्रतिनिधि राहत सामग्री, कोई उम्रदराज महिला अपने जवान पति पर नजर रखती है उसी तरह हम आइडिये पर नजर रखे हुये थे। आइडिये को हम उसी तरह देखते जा रहे थे जैसे कोई मिष्ठान लोभी मिठाई को खाने के पहले बहुत आराम से देखना चाहता है।
आगे जा रहा साइकिल सवार अचानक झटके से मुड़ गया। ट्रैफ़िक के नियम का सम्मान रखने के लिये मुड़ने के बाद उसने हाथ भी दे दिया। हम चौंककर अपने को बचाने में लग गये। पहले ब्रेक मारा। झटके से आगे हुये। इसके बाद न्यूटन के तीसरे नियम के प्रति सम्मान प्रकट करते हुये पीछे हुये। दोनों काम निपटा कर सीधे हो गये। फ़िर बीच सड़क पर खड़े होकर मुड़कर आराम से जाते सवार को देखा। थोड़ा फ़टेहाल सा देखकर उसको घूर भी डाला। इसके बाद वहीं खड़े-खड़े शहर, प्रदेश और देश के ट्रैफ़िक सेंस (सड़क व्यवहार) को कोसने की सोची लेकिन पीछे से बड़ी गाड़ी बोले तो ट्र्क के हार्न ने हमें अपनी औकात पर ला दिया और हम फ़िर किकिया के एक्सलरेटियाते हुये आगे चले दिये।
आगे चलते ही हमने सोचा अब आइडिये को आराम से देखा जाये, भाला जाये और संभाला जाये। लेकिन आइडिया कहीं दिखा नहीं। वह गायब हो गया था। दिमाग पर बहुत जोर डाला लेकिन याद ही नहीं आया कि कुछ देर पहले क्या सोच रहे थे। आइडिया क्या था, किस बारे में था कुछ याद ही न आ रहा था। आइडिया कंचनमृग हो गया था। हमारी बुद्धि उसे पाने के लिये सीता सी बेचैन हो उठी।
बेचैनी में हमने मोटरसाइकिल तेज भगाई और कई सवारियों को ओवरटेक कर गये। कहीं आइडिया न दिखा। फ़िर लगा कि आइडिया कोई खुपड़िया खोलकर थोड़ी भागा है। वह वहीं कहीं दिमाग में छुपा होगा। थोड़ा कोशिश करने से बरामद हो जायेगा। कोशिश करने पर तमाम पुराने-धुराने आइडिये भी घपलों-घोटालों की तरह सामने आने लगे। हमने उनको नजरन्दाज सा किया और पूरी जिम्मेदारी से सद्य लापता आइडिये को खोजने लगे। इस चक्कर में हमने न जाने कितने नायाब-लाजबाब आइडियों को उठाकर दूर फ़ेंक दिया। एक से एक हसीन-डैसिंग-हैंडसम-क्यूट और खूसट भी आइडिये सामने आ रहे थे। काम के बेकाम के। लेकिन वो वाला आइडिया नहीं मिल रहा जिसकी हमें तलाश थी।
इस आइडिया खोज से कुछ पुराने आइडिये तो दुखी हो रहे थे और कुछ नाराज भी थे मैं सीनियर आइडियों को छोड़कर जूनियर आइडिये के पीछे नबाब रंगीला बना घूम रहा हूं। कुछ ने तो अप्रत्यक्ष धमकी भी दे दी कि वे सूचना के अधिकार का उपयोग करके हमारी तमाम ऊलजलूल हरकतों के बारे में बेफ़िजूल की जानकारी मांगकर अपने अपमान का बदला वसूल करेंगे।
इस आइडिये को खोजने के चक्कर में मुझे लगा मैं चिल्लर की खोज में नोट फ़ेकता जा रहा हूं। रूमाल खोजने के चक्कर में कमीज/पैंट, कोट-सूट इधर-उधर फ़ेंके चला जा रहा हूं। ओसामा को खोजने के चक्कर में जैसे अमेरिका पूरी दुनिया की तलाशी लेता-घूमता है वैसे मैं अपने दिमाग के हर कोने अतरे में अपने खोये आइडिये को खोजने लगा।
जब काफ़ी कोशिश करने के बाद भी आइडिया न मिला तो हम सहज बुद्धि की शरण में गये। हमें दिमाग संबंधी कोई समस्या होती है तो फ़ौरन सहज बुद्धि की शरण में चले जाते हैं। कई बार तो कई बेवकूफ़ियां इसीलिये जानबूझकर करते हैं ताकि सहजबुद्धि के पास जाने का मौका मिले। सहजबुद्धि हमारा हाईकमान है। जैसे लोग अपनी हर छोटी से छोटी बात के लिये हाईकमान की अनुमति और आदेश लेते हैं वैसे ही हम हर उलझा-सुलझा काम सहज बुद्धि की सलाह से करते हैं। कई बार तो एक ही काम कई-कई बार उलझवा-सुलझवा लेते हैं लेकिन हमारी सहजबुद्धि जी इत्ती प्यारी हैं कि वे कभी इस बात का बुरा नहीं मानतीं। हर बार वे उलझन इस तरह सुलझाती हैं जैसे लगता है कि मैं उनके पास वह समस्या पहली बार लाया हूं। कभी-कभी तो वे भी हमारी तरह हरकतें करने लगती हैं और सुलझन को उलझाने लगती हैं। जब मैं उनको टोंकने की कोशिश करता हूं तो वे मुस्कराते हुये उसे सुलझाने लगती हैं। लगता है वो भी कुछ भुलक्कड़ हैं। कित्ता तो क्य़ूट है उसका भुलक्कड़पन। कभी-कभी तो उनका भुलक्कड़पन देखकर लगता है कि किसी को अगर सहज-सुन्दरता देखनी हो तो किसी भुलक्कड़ इंसान को देखना चाहिये।
जो लोग हिन्दी भाषा का प्रयोग करने में अपनी तौहीन और पिछड़ापन समझते हैं वे कॉमन सेंस की शरण में जाते हैं। लेकिन हम उस सोच और उस लाइन के नहीं हैं इसलिये हमें सहजबुद्धि का साथ ही अच्छा लगता है।
सहजबुद्धि ने मुस्कराते हुये हमें देखा और सवालिया चहकन के साथ पूछा- फ़िर कोई उलझन लाये हो।
सहज बुद्धि की चहकन और सवाल से मुझे बड़ा सुकून मिला। वर्ना आजकल तो लोग बोलना सीखना शुरू करते ही शोले उगलने लगते हैं- क्या सोच के आये थे?
मेरा एक आइडिया खो गया है। आधे घंटे से मिल नहीं रहा है। -मैं दिलीप कुमार की तरह खोयी-खोयी आवाज में बोला।
आ जायेगा आइडिया। कहीं इधर-उधर गया होगा खेलने-कूदने। हवाखोरी करने। जायेगा कहां !! बेचैन मत हो। धीरज रखो। -सहज बुद्धि हमेशा धनात्मक सोचती हैं।
अरे कैसे धीरज रखूं। कहीं मेरे उस आइडिये को किसी ने प्रयोग कर लिया तो मैं तो कहीं का न रहूंगा। मेरा तो सब कुछ लुट जायेगा। -मैं उतावला हो रहा था।
अच्छा कैसा था आइडिया? कुछ बताओ शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं खोजने में। -सहजबुद्धि का सारा ध्यान अब मुझ पर था। मुझे आइडिया खोने पर अच्छा सा लगने लगा।
यही तो नहीं याद आ रहा है। वह बस आया मन में और झलक दिखला के चलता बना। मैं उसके साथ फ़ोटो तक न खिंचा पाया। -मैंने फ़िर अपने को बेचैन सा दिखाया।
अच्छा अगर वह दुबारा आये या दिखे तो पहचान लोगे? – सहज बुद्धि अब गंभीर खोजक हो उठीं।
हां के साथ मैंने मे बि ( May be) भी कह दिया और होप सो (hope so) भी| -पहले तो सोचा आई थिंक सो ( I think so) भी कह दें लेकिन यह सोचकर कि अंग्रेजी ज्यादा हो जायेगी हम सबर कर गये। अंग्रेजी गले में दबाने के चलते खांसी सी आयी जिसे एक्स्क्यूज मीं कहकर हमने संभाल लिया। बाद में लगा कि इससे अच्छा तो आई थिंक सो बोल ही देते। कहीं सहज बुद्धि यह न समझें कि हमारा अंग्रेजी में हाथ तंग है। आजकल जो जित्ती अंग्रेजी जानता है उसका काम उत्ता ही फ़टाफ़ट होता है। अंग्रेजी हाई क्वालिटी लुबिकेंट है। कम खर्चे में फ़टाफ़ट , स्मूथ काम करवाती है।
इसके बाद सहज बुद्धि सवाल-जबाब करने लगीं। बहुत सारे सवाल-जबाब तो हम आइडिये की तरह ही भूल गये लेकिन जो याद हैं उनको आपको बता रहे हैं। आप किसी को बताइयेगा नहीं। ओके!!
सवाल: क्या वह आइडिया तुम्हारे दफ़्तर के काम से संबंधित था?
जबाब: न भई! मैं दफ़्तर के काम की बात दफ़्तर के बाहर नहीं सोचता। सरकारी कामकाज की गोपनीयता भंग होती है। पता चला कोई काम सोच रहे हैं बाहर खड़े होकर और किसी को पता चल जाये तो शिकायत कर दे कि ये दफ़्तर के सूचनायें और समस्यायें बाहर खड़े होकर सोचते हैं। इसलिये मुझे नहीं लगता कि आइडिया दफ़्तर के किसी काम से संबंधित होगा।
सवाल: क्या किसी की भलाई की बात सोच रहे थे तुम?
जबाब: मुझे तो नहीं लगता। अगर किसी की भलाई की बात सोच रहा होता तो अब तक अपने ब्लॉग पर लिख चुका होता। मेरा पिछला रिकार्ड रहा है कि मैंने जो भी अच्छे काम किये अब तक वे किये भले बाद में हों उनके बारे में लिखा पहले। अपनी इस आदत के चलते कई बार तो ऐसा हुआ कि भलाई के कई काम मैंने लिख पहले डाले किये बाद में। कई भलाई के काम तो सिर्फ़ लिखने और करने का हिसाब बराबर करने के लिये करने पड़े। इस मामले में मेरा सिद्धान्त है नेकी कर ब्लॉग में डाल । जो भी नेकी करो उसका जिक्र अपने ब्लॉग पर अवश्य करो ताकि सनद रहे। ( आलोक पुराणिक की व्यंग्य पुस्तक – नेकी कर अखबार में डाल) इस लिये मुझे तो नहीं लगता कि आइडिया कोई भला आइडिया होगा!
सवाल: आइडिये में किसी सामाजिक समस्या का निदान जैसी बात तो नहीं थी?
जबाब: अरे न भाई! आप मुझे गलत समझ रही हैं। मैं ऐसा कोई काम नहीं करना चाहता जिससे समाज को किसी समस्या का सामना करना पड़े। सामाजिक समस्या का निदान करने के लिये कटिबद्ध लोग एक समस्या के समाधान करने में चार पैदा करते हैं। हमारा आइडिया भगोड़ा हो सकता है लेकिन असामाजिक नहीं। उसमें किसी समस्या का निदान जैसी बात कत्तई न होगी। मुझे पक्का भरोसा है।
सवाल: कहीं आइडिया किसी खोज या वैज्ञानिक चेतना से संबंधित तो नहीं था? मेरा मतलब किसी समस्या के हल के बारे में सोचते-सोचते कुछ सूझा हो?
जबाब: अरे नहीं भाई! क्या मैं इतना अहमक दिखता हूं? क्या मैं ऐसे बेसिर-पैर के कुतर्क करता हूं कि तुम यह सवाल पूछो!! मैं इस तरह की बातें कभी करता ही नहीं। लगता है जब वैज्ञानिक चेतना बंट रही थी तब हम इधर-उधर आवारा गर्दी कर रहे थे। लोगों ने सारी चेतना लूट ली और अपनी कुठरिया में बंदकर नंबर वाला ताला लगाकर नंबर भूल गये। लिये लाठी टहलते रहते हैं कि कोई कुठरिया की तरफ़ देख भर ले तो आंखे निकाल कर आई बैंक में जमा कर दें। हम वैज्ञानिक चेतना से उसी तरह बचते हैं जैसे अपने देश से लड़कियां लफ़ंगो, लंपटों से। हम किसी समस्या का हल सोचने में कभी यकीन नहीं रखते। समस्या अपना हल खुद खोजती हैं हम बहुत करते हैं तो उसका श्रेय ले लेते हैं।
इसी तरह के और तमाम सवाल-जबाब सहज बुद्धि ने किये लेकिन आइडिया देश की खोयी हुयी अस्मिता सा मिला नहीं। तरह तरह के आइडिया उसने दिखाये कि ये है, कहीं ये तो नहीं कहीं वो तो नहीं। लेकिन हमें अपना आइडिया न मिला। मजाक-मजाक में शुरू हुई खोज इत्ती सीरियस मोड पर आ गई कि हम घबराकर शेरो-शायरी की शरण में चले गये और बेचैन होकर अपने आइडिये की याद में शेर पढ़ने लगे:
मुझे वो मिलेगा ये मुझको यकीं है,मामला शेर तक था तब तक तो कोई बात नहीं लेकिन जहां शायरी का जिक्र आया तो सहज-बुद्धि हमारे पास से जाने लगी। मैं फ़ौरन समझ गया और शेरो-शायरी को बाद में मिलने का इशारा करके फ़िर सहज-बुद्धि के साथ मिलकर अपना खोया हुआ आइडिया खोजने लगा। सहज बुद्धि मेरे साथ लगी हुईं थी लेकिन शायरी और मेरे आइडिया मिलन के यकीं से उनका जी कुछ उचट सा गया था। वे मन लगाकर खोजने की जगह अब बला टालने लगीं थीं।
बड़ा जानलेवा है ये दरमियाना(अलगाव)
अचानक सहज बुद्धि ने सलाह दी क्यों न आइडिया खोने की रपट थाने में करा दो। हमने सोचा बात तो सही है लेकिन उसमें भी तो पुलिस आइडिये का हुलिया पूछेगी। लंबाई, चौड़ाई, वजन और पहचान का निशान पूछेगी। पुलिस वाले का मूड उखड़ा हुआ तो आइडिये का हुलिया पूछते-पूंछते हमारा बिगाड़ देगी। यह सोचकर हम फ़िर उलझ गये।
मैंने सुझाया क्यों न पुलिस थाने में अनामी रिपोर्ट करा दी जाये। इस पर सहज बुद्धि ने बरज दिया और कहा- ऐसा कभी न करना। अनामी की आईपी पुलिस वाले नोट कर लेंगे। इसके बाद तुम्हारी रपट का स्नैप शॉट लेकर तुमको नोटिस भेजवा देंगे। इस झमेले से बचने के आइडिये खोजते रह जाओगे।
अब हमको आइडिये पर गुस्सा आना लगा था। एक ससुरे आइडिये ने जीना मुहाल कर दिया। मुझे लगा कि अगर कहीं सामने दिख जाये आइडिया तो उसको झंझोड़कर पूंछूंगा- क्या समझता है अपने आपको। उसके जैसे पचासों आइडिये आगे-पीछे घूमते हैं मेरे। वही अकेला नहीं है। मैं झल्लाने लगा।
मेरी झल्लाहट देखकर सहजबुद्धि बिना बॉय बोले चली गयी। मुझे बाद में ध्यान आया कि गुस्सा, झल्लाहट और सहजबुद्धि की बिलकुल नहीं पटती। ये एक साथ एक जगह कभी नहीं रह सकते।
मैं शान्त होकर फ़िर आइडिये की खोज में जुट गया। वो वाला आइडिया तो नहीं मिला लेकिन अचानक एक और नया आइडिया आया दिमाग में। मैंने सोचा कि ये आइडिया वाली बात पर एक लेख लिखूं तो कैसा रहेगा?
यह सोचते ही अचानक मुझे कुछ सूझा और मैंने आइडिये से पूंछा कि तुम्ही तो नहीं थे जो सुबह मेरे दिमाग में आये थे और फ़ूट लिये थे। आइडिया बदमाश बेमतलब मुस्कराने लगा। वह मुस्कराये जा रहा है। अब मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि उसकी मुस्कान का क्या अर्थ लगाया जाये। सहज बुद्धि भी जा चुकी हैं। अब इत्ती जल्दी तो वो लौटकर आने वाले नहीं।
आप को कुछ समझ में आ रहा है। कोई आइडिया है इस बारे में आपके पास?
मेरी पसंद
मैं प्यासा हूं दो घूंट पानी पिलाना!
मुझे वो मिलेगा ये मुझको यकीं है,
बड़ा जानलेवा है ये दरमियाना(अलगाव)।
मोहब्बत का अंजाम हर दम यही था,
भंवर देखना, कूदना ,डूब जाना!
अभी मुझसे, फिर आपसे, फिर किसी से,
मियां, ये मोहब्बत है कोई कारखाना!
परिंदे की किस्मत में उड़ना लिखा है,
बना ले भले वो कहीं आशियाना!
अगर धूप के साथ आंखे लड़ीं हों,
तो फिर ओस के घर न डेरा जमाना!
सफर सांस के ये कहां पर रुकेगा,
करोड़ों ने पूछा किसी ने न जाना!
ये तन्हाइयां, याद भी, चांदनी भी,
गज़ब का वजन है, संभल के उठाना!
डा. कन्हैयालाल नंदन
Posted in बस यूं ही | 31 Responses
प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI की हालिया प्रविष्टी..हम हैं तो आखिर वही सड़ी मिडिल क्लास मेंटेलिटी वाले
बधाई।
vijay gaur की हालिया प्रविष्टी..जलसा-एक अनूठी किताब
दिनेशराय द्विवेदी की हालिया प्रविष्टी..फुटबॉल हैंगोवर और खुश कर देने वाली खबरें।
रंजन की हालिया प्रविष्टी..दो स्टंट
आप अपने आपको पहचानते खूब हो ! कहते हैं गुरु वही होता है जिसे अपने आपको पूरी तरह समझ लिया हो ! सो गुरुदेव आपसे बड़ा ईमानदार मुझे यहाँ कोई नहीं दिखता अतः गुरु ज्ञान बिना गुरु दक्षिणा मांगे दे दिया करो !
लोग कहते हैं कि अनूप जी बहुत कम लिखते हैं मैं कहता हूँ अच्छा करते हैं जो गुरु रोज नहीं लिखते हैं …आज ही इत्ती लम्बी चिट्ठी लिख डाली और शायद ही कोई कोना छोड़ा होगा जहाँ तलवार नहीं दे मारी हो ! आज तो मज़ा बाँध दिया जय गुरु देव !
आईडिया पर लेख का आईडिया भी क्या आईडिया है सर जी!
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परिंदे की किस्मत में उड़ना लिखा है,
बना ले भले वो कहीं आशियाना!
–क्या खूब लिखा है!
बहुत जोर लिखे हैं. हम तो आज से ही नेकी का हिसाब करने के लिए एक ठो ब्लॉग बनाते हैं. नाम होगा; “नेकी कर ब्लॉग में डाल.”
मगज ..को हिंसा पर मत उतारिये …..मारा -मारी इस उम्र में रिस्की हो सकती है …….भले ही आप बन्दूको से नाता रखने वाले हो………
ओर हाँ .फोन का बिल जमा कराये के नहीं…..इस्माइल कैसे चिपकाते है भाई ……यहाँ चिपका माने !
dr anurag की हालिया प्रविष्टी..सुनो खुदा -तुम्हे छुट्टी की इज़ाज़त नहीं है
और ये पोस्ट भी दिखा दीजियेगा….कि ‘देखो एक पोस्ट भी लिख डाली,तुम्हारे गुम हो जाने पर’….:) बहुत ही अलग सी …रोचक पोस्ट
पसन्द ….के लिए आभार……….
वैसे आइडिया भाई साहब से कहिए कि जल्दी से घर लौट आंय……कहीं खो खवा गए तो फिर एक और ऐसी ही दनदनाती पोस्ट लिखनी पड़ जाएगी
एकदम मस्त।
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..मड़ैया-ए-हिन्दपानी ठेलउवल खेतिहर देहातमुस्की मारते प्रधानमंत्रीसमर सेबुलस्टेबलाइजर और मैंसतीश पंचम
सोचमय-कोश के भी इस तरह के विभाग हो सकते हैं , देख कर दंग हूँ ! किसी पंक्ति को कोट करके क्या लिखूं ! सब तो भली हैं ! चंगी हैं ! आभार !
और हाँ ’माह के शीर्ष टिप्पणीकार’ को यदि ’माह के महान टिप्पणीकार’ कर दिया जाय तो ज्यादा मज़ा आएगा टिप्पणी देने में । वैसे तो टिप्पणीकार महान होता ही है ।
आइ शपथ… मज़ा आ गया… और ये आइडिये तो होते ही ऐसे नालायक हैं…सो…
be carefull next time…
Really मज़ा आ गया.. ये ideas ना.. होते ही नालायक हैं…so be careful next time…
मजेदार पोस्ट..
P.S. कुछ साल पहले माधवन की एक मूवी आयी थी ’रहना है तेरे दिल मे’। उसी मूवी का एक डायलाग था कि ’जब आईडिये की बात आती है तो डीडी की याद आती है’
अबसे ये हो जायेगा कि ’जब आईडिये की बात आती है, तो अनूप जी की याद आती है’
अबकी तो आइडिये ने आपको झनझनाकर रख दिया और वो भी बीच रास्ते में.
अब हमने एक-एक वाक्य उठाकर तारीफ़ करनी छोड़ दी है आपकी पोस्ट की… अरे सारे वाक्य तो हंसाते-गुदगुदाते हैं किया क्या जाए? जिसके पास इत्ती क्यूट सहज बुद्धि हो वही ऐसी पोस्ट लिख सकता है…पर एक वाक्य तो उद्धृत करना ही पड़ेगा–”अंग्रेजी हाई क्वालिटी लुबिकेंट है। कम खर्चे में फ़टाफ़ट , स्मूथ काम करवाती है।”
और दूसरा भी-”सामाजिक समस्या का निदान करने के लिये कटिबद्ध लोग एक समस्या के समाधान करने में चार पैदा करते हैं।”
और ये एकलाइना भी गजब है–”गुस्सा, झल्लाहट और सहजबुद्धि की बिलकुल नहीं पटती। ये एक साथ एक जगह कभी नहीं रह सकते।”
….कभी-कभी सोचती हूँ कि भगवान ने आपको बड़ी सहज बुद्धि से बनाया है…
और प्रभो ये किसके ऊपर कहा गया है—” हम वैज्ञानिक चेतना से उसी तरह बचते हैं जैसे अपने देश से लड़कियां लफ़ंगो, लंपटों से।”
aradhana की हालिया प्रविष्टी..ओढ़े रात ओढ़नी बादल की
अभी मुझसे, फिर आपसे, फिर किसी से,
मियां, ये मोहब्बत है कोई कारखाना!
ऐसी क्युट पोस्ट के क्या कहने, लोगों को पोस्ट के साथ साथ आप भी क्युट लग रहे हैं……:)
आगे जा रहा साइकिल सवार अचानक झटके से मुड़ गया। ट्रैफ़िक के नियम का सम्मान रखने के लिये मुड़ने के बाद उसने हाथ भी दे दिया। हम चौंककर अपने को बचाने में लग गये। पहले ब्रेक मारा। झटके से आगे हुये। इसके बाद न्यूटन के तीसरे नियम के प्रति सम्मान प्रकट करते हुये पीछे हुये। दोनों काम निपटा कर सीधे हो गये
प्रमेन्द्र प्रताप सिंह की हालिया प्रविष्टी..प्रमेन्द्र प्रताप सिंह- अधिवक्ता इलाहाबाद उच्च न्यायालय