Tuesday, August 10, 2010

…स्वेटर के फ़ंदे से उतरती कवितायें

http://web.archive.org/web/20140419214109/http://hindini.com/fursatiya/archives/1619

…स्वेटर के फ़ंदे से उतरती कवितायें

१.वे लिख रहे हैं कवितायें
जैसे जाड़े की गुनगुनी दोपहर में
गोल घेरे में बैठी औरतें
बिनती जाती हैं स्वेटर
आपस में गपियाती हुई
तीन फ़ंदा नीचे, चार फ़ंदा ऊपर*
उतार देती हैं एक पल्ला
दोपहर खतम होते-होते
हंसते,बतियाते,गपियाते हुये।
औरतें अब घेरे में नहीं बैठती,
आपस में बतियाती नहीं,
हंसती,गपियाती नहीं
स्वेटर बिनना तो कब का छोड़ चुकी हैं!
लेकिन वे कवितायें उसी तरह लिखते आ रहे हैं वर्षों से
जैसे औरतें गपियाती हुई स्वेटर बिनतीं थीं
और किसी तरीके से कविता सधती नहीं उनसे।
* कबाड़खाना वाले अशोक पांडेय जी से हुई महीनो पहले हुयी बातचीत याद आने पर जिसमें उन्होंने कहा था- आजकल कवितायें ऐसे लिखते हैं लोग जैसे औरतें स्वेटर बुनती हैं।
२. देख री जरा कैसी बनी है कविता -
आज ही लिखी सुबह भाव आया
साबुन लगाकर नहाते हुये
सोचा लिख डालूं इसके पहले कि
भाव फ़ूट ले निगोड़ा हरजाई बादल सा
उसे कैद कर लूं अपनी कविता में।
अच्छी है लेकिन थोड़ा कठोर है
भावुकता जरा कम है तेरे हिसाब से
सहेली टेलिविजन पर निगाह गड़ाये हुये बताती है।
वह जोड़ती है कविता में
कुछ कोमल ,मुलायम शब्द
और कविता के अंत में आये
नायक के चेहरे से चश्मा उतरवाते हुये थमाती है रूमाल
कविता में मिलाती है थोड़ी भावुकता और ढेर सारा गीलापन।
सहेली को फ़िर दिखाती है
सहेली खिल जाती है
— कविता में आये बदलाव को देखकर
कविता का लटपटापन उसको प्यारा लग रहा है।
लड़की खुश होकर दूसरी कविता लिखती है
उसके पास अभी बचा हुआ है सुबह-सुबह आये
भाव का बहुत बड़ा हिस्सा
वह हिल्ले लगा देना चाहती है उसे भूल जाने से पहले।
३. बहुत प्यारी कवितायें हैं
उपमायें गजब की हैं
खिलखिलाती लड़कियां
खिले हुये फ़ूल
झरने सी हंसी
उजले दांत
तितली सी हसरतें
भौंरो सी इच्छायें
लेकिन इस तरह की कवितायें तो बहुत आम हैं
हर कोई लिखता है
कुछ अलग लिखो ताकि लोगों को लगे
हां यह कोई अलग कविता है
कविता लिखना जितना जरूरी है
उससे कम जरूरी नहीं अलग तरह की कविता लिखना।
जी मैं अभी सीख रहा हूं
हाल ही में शुरू किया प्रेम कवितायें लिखना
इसके पहले क्रांति,बदलाव, समाज पर लगा रहा।
आप प्लीज इनको जरा सुधार दीजिये।
गुरुजी जुट गये हैं कविता शुद्धिकरण में
तोड़ दिया दांत आधा उजले दांतों से
खिलखिलाती हंसी में मिला दिया चुटकी भर डर
मसल दिया तितली का एक पर
तोड़ दी भौंरे की एक सूंड़
सारे बिम्ब बना दिये पूरे से जरा सा कम पूरे।
उन्होंने पढ़ा है कल ही किसी कविता में-
पूरी सुन्दरता से ज्यादा अपील करती है
सुन्दरता की तरफ़ बढ़ती थोड़ी कम सुन्दरता।
गुरुजी जुटे हुये हैं कविता का अंग-भंग कर
उसे अलग तरह की कविता बनाने में
जैसे बच्चों के हाथ-पांव तोड़कर
उनको भीख मांगने के लिये तैयार किया जाता है।
नया कवि देख रहा है गुरूजी को मुग्ध भाव से
एक अच्छी भली कविता को
अलग तरह की कविता बनाते हुये।

45 responses to “…स्वेटर के फ़ंदे से उतरती कवितायें”

  1. इस्मत जैदी
    कविता लिखना जितना जरूरी है
    उससे कम जरूरी नहीं अलग तरह की कविता लिखना
    बिल्कुल सही कहा आपने यही तो कवि की सृजनात्मकता होगी ,ज़रूरत भी इसी की है,”तुम्हारी तस्वीर मेरे पर्स में”
    जैसे भावों से पूर्ण कविताओं की जगह अब सामाजिक समस्याओं पर आधारित कविताओं की आवश्यकता है ,
    इस का ये मतलब हर्गिज़ नहीं कि श्रृंगार रस न लिखा जाए लेकिन उस रस को पूरी गरिमा प्रदान की जाए वरना वो वीभत्स रस लगने लगता है ,
    औरतें अब घेरे में नहीं बैठती,
    आपस में बतियाती नहीं,
    हंसती,गपियाती नहीं
    स्वेटर बिनना तो कब का छोड़ चुकी हैं
    सच आज की नारी भी समयाभाव से ग्रसित है ,उस के पास इतना समय ही नहीं रह गया है
    सुंदर भावों को लिये हुए कविता अपनी सार्थकता सिद्ध करती है
  2. प्रवीण पाण्डेय
    सुन्दर बुनाई।
  3. रवि
    ऐसे ‘ट्यूटोरियल पोस्ट’ करते रहेंगे तो हिंदी ब्लॉग जगत की ‘बाकी बची जनता’ भी कविताई करने लगेगी. इस पोस्ट को पढ़ने के उपरांत प्रतिक्रिया-प्रेरणा स्वरूप मैंने अपनी उंगलियों को कीबोर्ड पर कविता टाइप करते बड़ी मुश्किल से रोका…
    हम आपके इस पोस्ट की भर्त्सना करते हैं. :)
    रवि की हालिया प्रविष्टी..कामनवेल्थ गेम्स – हलकान ब्लॉगर की एक भावनात्मक अपील
  4. इस्मत जैदी
    कविता लिखना जितना जरूरी है
    उससे कम जरूरी नहीं अलग तरह की कविता लिखना
    बहुत सही कहा आप ने आज ज़रूरत भी इसी की है कि कविताएं किसी भी रस में लिखी जाएं उन का अपना अस्तित्व होना चाहिये ,जो कविताएं समाज का कुछ कल्याण न कर पाएं उन का होने न होने का कोई मतलब नहीं ,कवि की सृजनात्मकता भी इसी में प्रदर्शित होती है कि वो कुछ ऐसा लिखे जो सब से अलग तरीक़े से संदेश
    प्रेषित कर सके और अपनी सार्थकता सिद्ध कर सके
    सार्थक कविता
  5. dr.anurag
    मौज लेना सामाजिक अपराध है
  6. Shiv Kumar Mishra
    अनुराग जी से सहमत. प्रवीण जी से भी सहमत.
    अच्छी बुनाई और बढ़िया मौज.
    Shiv Kumar Mishra की हालिया प्रविष्टी..हलवा-प्रेमी राजा
  7. Shiv Kumar Mishra
    नोट : यह प्रतिक्रिया पहली प्रतिक्रिया को निरस्त करती है.
    गुरु जी ने ठीक ही कहा
    पूरी सुन्दरता उतनी नहीं फबती जितनी आधी
    बिना डर के हँसी भी कोई हँसी है?
    बिना डर वाली हँसी से उपजेगी घटिया कविता
    नहीं दिखा पाएगी समाज का सच
    लेते रहे यूं ही कविता की क्लास
    आधा खाली नहीं रहे
    आधा भरा रहे गिलास
    गेंदा का फूल फूले
    साथ में पलास
    हमें उससे क्या
    लालू जीतें, और
    चाहे रामबिलास
    Shiv Kumar Mishra की हालिया प्रविष्टी..हलवा-प्रेमी राजा
  8. aradhana
    कविता लिखने की उपमा स्वेटर बुनने से दी गयी … ये मुझे ठीक नहीं लगा. स्वेटर बुनना तो बड़ा कठिन काम है. बड़े जतन से सीखा जाता है. मैंने कई बार कोशिश की, नहीं सीख सकी. उसके लिए समय चाहिए, जो मेरे पास कभी नहीं था, पर आजकल की कवितायें लिखने के लिए ना सीखना ज़रूरी है और ना समय… मैं उसकी तुलना भूख लगने पर खाना खाने से करती हूँ, ये ज्यादा ठीक रहेगा. क्यों :-)
    वैसे आप पिछले कुछ दिन से कवियों के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं. बड़ी मौज ले रहे हैं, तो मैं सोच रही हूँ कि क्यों ना ब्लॉगजगत के छुटभैये कवियों का पक्ष रख दूँ.
    हाँ, मेरे लिए भी कविता लिखना ऐसा ही है जैसे भूख लगने पर खाना खाना, चाय की तलब लगने पर चाय पीना, गाने की तलब लगने पर गाना सुनना या गाना. मैं कविताओं में शिल्प की अपेक्षा भाव को अधिक महत्त्वपूर्ण मानती हूँ. मैं नहीं मानती कि कविता लिखने में सीखने जैसा कुछ होता है या उसको व्याकरण-सम्मत होना चाहिए.
    सीखे वो, जिसे खुद को कवि के रूप में स्थापित होना हो. ब्लॉग अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम है, तो जिसको पढ़ना हो वो पढ़े, जिसको ना पढ़ना हो, ना पढ़े, दूसरा कोई ये तय करने वाला कौन होता है कि कविता ऐसे लिखनी चाहिए या वैसे लिखनी चाहिए ?
    मेरे ख्याल से ब्लॉगजगत साहित्य जगत से भिन्न है, तो जो गंभीर कवि हैं, जिन्हें कविता के शिल्प की चिंता है, उन्हें ब्लॉग नहीं लिखना चाहिए. या फिर “खुद लिखो और को भी लिखने दो” :-)
    वैसे मैं तो हर प्रकार के कवियों को पढ़ती हूँ और मुझे हर एक में एक अलग बात नज़र आती है. गंभीर कवितायें भी पढ़ती हूँ और श्रृंगारपरक या हल्की-फुल्की कवितायें भी.
    aradhana की हालिया प्रविष्टी..तस्वीरें बोलती हैं शब्दों से ज्यादा
  9. amrendra nath tripathi
    ” मत कहो आकाश में कुहरा घना है ,
    यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है |
    ……… ……….. ………… ……….
    दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
    आजकल नेपथ्य में संभावना है । ” [ ~ दुष्यंत ]
    ————
    जम्बू द्वीप पर रहने वाला होकैडो वासी भले हो जाय , पर आप यह न कहिये कि भैया आप जम्बूद्वीपीय हैं , घना कुहरा छांट लीजिये बस ! अगर आपने इतनी ‘ज़रा’ सी बात कह दी तो वैयक्तिक अपराध या सामाजिक अपराध के भागी भी हो सकते हैं | आप की बात क्या , अब भाषा पर छाया कुहरा भले घनी रात बन जाय , पर आप के बस का कुछ नहीं , सब विराट कुकुरझौंझौं है ! भाषा की इसी घनी रात में जूझते रहे धूमिल पर क्या कुछ कर सके , बस चिल्लाते ही रह गए —
    ” एक सही कविता/पहले/एक सार्थक वक्तव्य होती है।

    कविता/भाष़ा में/आदमी होने की/तमीज है।

    कविता/घेराव में/किसी बौखलाये हुये/आदमी का संक्षिप्त एकालाप है।

    कविता/शब्दों की अदालत में/अपराधियों के कटघरे में/खड़े एक निर्दोष आदमी का/हलफनामा है।

    आखिर मैं क्या करूँ/आप ही जवाब दो?/तितली के पंखों में/पटाखा बाँधकर भाषा के हलके में/कौन सा गुल खिला दूँ/जब ढेर सारे दोस्तों का गुस्सा/हाशिये पर चुटकुला बन रहा है/क्या मैं व्याकरण की नाक पर रूमाल बाँधकर/निष्ठा का तुक विष्ठा से मिला दूं ?”
    [ ~ सुदामा पाण्डेय धूमिल ]
    - पर यह ग्राम खेवली ( जहां सब सदाचार की तरह सपाट और ईमानदारी की तरह असफल रहा ) का बनारसी बाबू क्या कर सका ? ३६ साल की उमिर में ही ब्रेन-ट्यूमर से मर गया ! बहुत हीरो बना था न , चला था आजादी के बाद के भारत की ‘पटकथा’ लिखने ! इसका हस्र तो यही होना था ! आपकी इस ‘ट्यूटोरियल पोस्ट’ का भी कोई असर नहीं होना | आपकी सारी चिंताएं व्यर्थ की हैं , होने दीजिये जहां तहां भाषा में कविता के नाम पर चालू हो मसखरेबाजी/चुटकुलेबाजी/बेल्बूटाकारी/मलमल-बुनाई/मखमल-बुनाई !
    वैसे भी अधिकांश लेखन छपास-रोग ( एक सात्विक रोग ) की पैदावार होता है जिसमें जितनी मात्रा महत्वपूर्ण है उतनी गुणवत्ता नहीं ! इसलिए ‘पापुलर धारा’ के विरुद्ध आप कुछ भी कहेंगे तो आपकी ‘भर्त्सना’ होगी ! अलग रास्ते को चुनिए तो सहिये भी , बकौल अमीर खुसरो कहूँ — ” बहुत कठिन है डगर पनघट की ” ! आभार !
    amrendra nath tripathi की हालिया प्रविष्टी..बजार के माहौल मा चेतना कै भरमब रमई काका कै कविता ध्वाखा
  10. Saagar
    बातें खुल रही हैं यहाँ, गंभीर मंत्रणा भी हो सकती है, हो रही है. अमरेन्द्र जी से बड़ी गूढ़ बातें रखी है… वहीँ इसे भी कविता ही बूझिये
  11. aradhana
    लगता है अमरेंदर बाबू फिर से सीरियस हो गए… वैसे आप मत होइएगा. ये सब मैंने भी व्यंग्य में ही कहा है. कभी-कभी “कवियाये हुए लोग” (विनीत के शब्दों में) अपनी कविता पढ़ने का आग्रह कर-करके मुझे भी दुखी कर देते हैं, पर ठीक है, “let the hundred flowers bloom”
    aradhana की हालिया प्रविष्टी..तस्वीरें बोलती हैं शब्दों से ज्यादा
  12. कुश भाई बिलोंग टु जोधपुर ओनली..
    दो व्यक्तियो से सहमति रखने वाले शिव कुमार मिश्रा जी से सहमत हूँ..
    अच्छी मौज और बढ़िया बुनाई
  13. कुश भाई फ्रॉम जयपुर ओनली..
    नोट : यह प्रतिक्रिया पहली प्रतिक्रिया को निरस्त करती है.
    कहत कवि सुनो भाई साधो
    बात कहू मैं खरी..
    स्टॉप आल मसखरी एंड बुनकरी
    ईट ओनली चिकन करी.. एंड अंडा करी..
    स्टॉप आल जासूसी वासूसी
    एंड डू ओनली कमेन्ट तस्करी..
    कविता करनी ही नहीं आती है हमें
    सिर्फ करने के लिए ही बस करी है..
    कुश भाई फ्रॉम जयपुर ओनली.. की हालिया प्रविष्टी..कुत्ते का इंतकाम
  14. Shiv Kumar Mishra
    इट्स बेटर टू बी अ गुड ट्रैफिक पुलिसमैन दैन अ बैड पोएट.
    Shiv Kumar Mishra की हालिया प्रविष्टी..हलवा-प्रेमी राजा
  15. मनोज कुमार
    .वे लिख रहे हैं कवितायें
    जैसे जाड़े की गुनगुनी दोपहर में
    गोल घेरे में बैठी औरतें
    बिनती जाती हैं स्वेटर
    ये पंक्तिया सामान्‍य काव्‍यार्थ को सं‍केतित नहीं करती। यह पूरी कविता हमारे समय के काव्य पर एक सार्थक कंपन की तरह है – संयत कवित्‍व से भरपूर। कवि बहुत बारीकी से काव्यवाद की सच्चाई को अपने पाठक के समक्ष रख देता है।
    यह कविता इस बात के लिए भी उल्‍लेखनीय मानी जानी चाहिए कि इसमें कवि साहस को कला की ओर में खड़ा नहीं करता बल्कि कला और साहस की गल‍बहियां करते हुए कविता का आकार देता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह कवि महज लिखने के लिए कुछ नहीं लिखता,कम से कम यह कविता तो यही कहती है।
    कहीं कहीं कविता तात्‍कालिक प्रतिक्रिया जैसी लग सकती है, लेकिन आपका व्‍यापक सरोकार निश्चित रूप से मूल्‍यवान है !
    पुनश्च :: हमने अपने घर में देखा है ज़रूरत पड़ने पर उस बुने स्वेटर को महिलाए उघार कर दास्ताना या मोज़ा आदि या फिर दूसरा बड़ा-छोटा स्वेटर भी बना लेती हैं।
  16. amrendra nath tripathi
    नोट : मेरी यह प्रतिक्रया मेरी पहली प्रतिक्रया को निरस्त नहीं करती है |
    @ ……. मैंने जो कुछ लिखा है किसी पर लक्ष्य करके नहीं | स्वयं गंभीर हूँ या अ-गंभीर , राम जाने | जिसकी जैसी इच्छा हो वैसी कविता करे , सब स्वतंत्र हैं , किसी ने किसी की कलम नहीं रोक रखी है | हाँ किसी को कैसी कविता अच्छी लगती है या नहीं , व्यक्तिगत स्तर पर वह यह किसी पोस्ट या टिप्पणी में रख सकता है | इस बात का कि ” ब्लॉगजगत साहित्य जगत से भिन्न है, तो जो गंभीर कवि हैं, जिन्हें कविता के शिल्प की चिंता है, उन्हें ब्लॉग नहीं लिखना चाहिए. ” – मैं विरोध करता हूँ | साहित्यकार भी ब्लॉग लिख सकता है और कविता के शिल्प का मर्मग्य भी | इस तरह की सीमा बनाना ठीक नहीं – वह चाहे पहले दर्जे का साहित्यकार हो या दोयम दर्जे का कवि – कोई भी ब्लॉग लिख सकता है | यह विच्छेद-दृष्टि अलोकतांत्रिक है | हाँ , पसंद नापसंद अपनी जगह है | जाने कितनी जगहों पर कहा हूँ कि आलोचक अपना काम करेगा , रचनाकार को उससे उतना ही प्रभावित होना चाहिए जितने से वह ‘कंवीन्स’ होता हो | किसी से लेखन के स्तर पर कोई जाती विरोध नहीं , चाहे कालिदास हों चाहे कुमार विश्वास या अलबेला खत्री या फिर कोई भी ! पर काव्य-मूल्य को लेकर जागृत होना ही पड़ता है , और इसे नकारात्मक तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए | ” मसखरेबाजी/चुटकुलेबाजी/बेल्बूटाकारी/मलमल-बुनाई/मखमल-बुनाई ” में ऐसा कुछ मैंने नहीं कहा जिसपर कविताई की खामखा की मिमिक्री पेश की जाय | फिर भी कोई गिला नहीं है इसका आप सबसे | टिप्पणी लिखते समय मुझपर इस बात का दवाव ही रहा कि पिछली प्रविष्टि की तरह आज की प्रविष्टि का ट्रैक मेरी वजह से न बदले और किसी को यह अभूतपूर्व-अपूर्व-कथन न कहना पड़े कि ” असुर प्रवृत्ति के लिये यह अभीप्स भी होता है ” | यानी कहीं से भी ऐसा माहौल मेरी वजह से न बने | इतना तो समझ में आप लोगों की कृपा से आ ही गया है कि कैसे नीरव पदचाप के साथ ब्लॉग से गुजर लिया जाय कि किसी सोते हुए ब्लोगर की नींद न खुले और वह नींद में किसी भी स्तर की गालियाँ न देने लगे | आभार !
    amrendra nath tripathi की हालिया प्रविष्टी..बजार के माहौल मा चेतना कै भरमब रमई काका कै कविता ध्वाखा
  17. रंजना.
    सच…लोगों में अलग लिखने , दिखने की प्रवृत्ति कितनी गहरी होती जा रही है………
    मात्रा अधिक तो अमृत की भी ठीक नहीं होती….फिर किसी मनोरोग की…भगवान् बचाएं…..
  18. vijay gaur
    कविता को ही परिभाषित करते हुए न जाने कितने कवियों ने कितनी कविताएं लिखी हैं। पर यह अनूठी है।
    vijay gaur की हालिया प्रविष्टी..विवादित साक्षात्कार की हलचल
  19. shikha varshney
    औरतें अब घेरे में नहीं बैठती,
    आपस में बतियाती नहीं,
    हंसती,गपियाती नहीं
    स्वेटर बिनना तो कब का छोड़ चुकी हैं!
    लेकिन वे कवितायें उसी तरह लिखते आ रहे हैं वर्षों से
    जैसे औरतें गपियाती हुई स्वेटर बिनतीं थीं.
    बिलकुल सच कहा सर जी ! एकदम सटीक ..:) हम आजकल यही करते हैं :) गप्पों में और स्वेटर में क्या रखा है? ..वैसे भी ठण्ड तो आजकल पड़ती नहीं ग्लोबल वार्मिंग है.:)
  20. Ghost Buster
    मैंने पहले कोई प्रतिक्रिया नहीं दी जिसे निरस्त करने की नौबत आये.
    मैं अब भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहा हूं. बस पढ़ रहा हूं.
  21. Anonymous
    स्वेटर बुनना भी एक कला है …और यह काम औरतें बहुत सहजता से कर लेती हैं ….पर वे इतनी सहजता से कविताएँ नहीं कह पाते ….कम से कम गप्पें मारते हुए ….
    भावनाओं की अभिव्यक्ति को किस तरह रखा जाये यह लिखने वाले के ऊपर है ….और आज छंदबद्ध कविताओं से ज्यादा भावनापूर्ण कविताएँ लिखी जाती हैं ….
    वैसे आपकी कविताएँ भी अच्छी लगीं …..आखिर यह भी तो दो दोस्तों की बातचीत पर आधारित हैं ….
  22. Kavita Vachaknavee
    १ )
    बहुत सुन्दर रचा आपने . इन्हें यदि कविताओं की ही भाँति अलग अलग पढ़ा जाए तो अच्छी कविताएँ बन पडी हैं, मन को रुचती हैं.
    २)
    मुझे अमरेन्द्र की टिप्पणी में कुछ भी आपत्तिजनक या संशय करने वाली बात नहीं लगी. पता नहीं स्पष्टीकरण की आवश्यकता क्यों हुई.
    ३)
    अब बात रही इन्हें एकसाथ पढने की, + / या प्रसंग/सन्दर्भ या निहितार्थ की खोज के साथ पढ़ने की, +/ या टिप्पणियों सहित पढ़ने की ; तो कविताएँ दो अलग अलग बात कहती हैं, पक्षधरता नितांत भिन्न हुई दीखती है, जब कविता कहती है –
    “लेकिन वे कवितायें उसी तरह लिखते आ रहे हैं वर्षों से
    जैसे औरतें गपियाती हुई स्वेटर बिनतीं थीं
    और किसी तरीके से कविता सधती नहीं उनसे”
    और फिर जब कहती है –
    “गुरुजी जुट गये हैं कविता शुद्धिकरण में
    तोड़ दिया दांत आधा उजले दांतों से
    खिलखिलाती हंसी में मिला दिया चुटकी भर डर
    मसल दिया तितली का एक पर
    तोड़ दी भौंरे की एक सूंड़
    सारे बिम्ब बना दिये पूरे से जरा सा कम पूरे।
    उन्होंने पढ़ा है कल ही किसी कविता में-
    पूरी सुन्दरता से ज्यादा अपील करती है
    सुन्दरता की तरफ़ बढ़ती थोड़ी कम सुन्दरता”
    यदि इन्हें समय, समाज या रचनाकर्म पर वक्तव्य के रूप में देखा जाए तो रचनाकार की पक्षधरता एक और जहाँ उस रचनाकर्म का विरोध करती है, जिसे चलते फिरते बिना गंभीरता के थोक के भाव रचा जाता है तो दूसरी ओर कविता के शुद्धीकरण की पक्षधरता के विरुद्ध भी जाती दीखती प्रतीत होती है. बस इस प्रतीति में ही वह निहितार्थ छिपा है, जिसका संकेत अमरेन्द्र ने किया.
    अनूप जी आपको नियमित इसी प्रकार कविताएँ भी लिखनीं चाहिए.
    मेरी बधाई लें.
    Kavita Vachaknavee की हालिया प्रविष्टी..उसकी बाँहों का सम्बल निर्भय करे
  23. वन्दना अवस्थी दुबे
    तीन व्यक्तियों से सहमति रखने वाले कुश भाई जी से सहमत हूँ……. :)
    अच्छी मौज और बढ़िया बुनाई.
    वन्दना अवस्थी दुबे की हालिया प्रविष्टी..चिट्ठी न कोई संदेश
  24. वन्दना अवस्थी दुबे
    दोबारा आने के लिये मजबूर करने वाली रचनाएं न लिखा करें.
    गुरुजी जुटे हुये हैं कविता का अंग-भंग कर
    उसे अलग तरह की कविता बनाने में
    जैसे बच्चों के हाथ-पांव तोड़कर
    उनको भीख मांगने के लिये तैयार किया जाता है।
    बहुत सुन्दर कविता लिखते हैं आप, जब भी लिखते हैं.
    वन्दना अवस्थी दुबे की हालिया प्रविष्टी..चिट्ठी न कोई संदेश
  25. Pankaj Upadhyay
    “आखिर मैं क्या करूँ
    आप ही जवाब दो?
    तितली के पंखों में
    पटाखा बाँधकर भाषा के हलके में
    कौन सा गुल खिला दूँ
    जब ढेर सारे दोस्तों का गुस्सा
    हाशिये पर चुटकुला बन रहा है
    क्या मैं व्याकरण की नाक पर रूमाल बाँधकर
    निष्ठा का तुक विष्ठा से मिला दँ?”
    धूमिल की एक कविता आपकी ही एक पोस्ट से…
  26. Pankaj Upadhyay
    एक कविता हमारी भी:
    “वो बुनती स्वेटर,
    इलाहाबाद के पथ पर” ;)
  27. महफूज़ अली
    गुरूजी को प्रणाम…
    बहुत अच्छी लगी आपकी पोस्ट….
    महफूज़ अली की हालिया प्रविष्टी..मैंने अपने खोने का विज्ञापन अखबार में दे दिया है- महफूज़
  28. जे बिनु काज दाहिंने बाँयें

    साहित्य पर जिनका अधिकार है और भाषा जिनकी चेरी है, उन गुणी देदीप्यमान नक्षत्रों के बीच इस निट्ठल्ले का बोलना उचित रहेगा क्या ? अपुन ठहरे “जे बिनु काज दाहिंने बाँयें” सो इतना तो जानता और कह ही सकता हूँ कि चूँकि कवितायें रच देना आजकल एक हैपेनिंग थिंग हो गया है, इसलिये गति-भँग दोष और यति-भँग दोष की बात तो छोड़िये… उसकी परवाह ही कौन करता है । अब जहाँ नज़र डालिये ब्लैंक वर्स ( छन्दहीन कवितायें ) बिखरी पड़ी हैं । अपने को इस दशक का निराला और पन्त मानने वाले, उन महापुरुषों की कविताओं की लयमयता, प्रवाह, आरोह-अवरोह के पास तक कहीं नहीं ठहरते हैं । नया युगधर्म चलाने की हेकड़ी में अकविता और अगीत जैसी सँज्ञायें गढ़ी जा रही हैं ।
    पाठकों श्रोताओं को चौंकाने की होड़ में ऎसे कल्पनातीत बिम्ब थोपे जा रहे हैं कि, लोग उसे ठीक से समझ न पाने की मज़बूरी में वाह-वाह कर ही देते हैं ।
    कोई ताज़्ज़ुब नहीं कि शाम की महफ़िलों में अपने सुरूर की धाक जमाने को मिर्ज़ा ग़ालिब की रूहें भटका करती हैं.. इसी तर्ज़ पर.. हम तुम और मैक्डॉवेल… मिल कर जब बैठें तीन यार…. पल में हो एक कविता तैयार ( कम ब कम उसकी बुनियाद तो पड़ ही जाती है )… कविताओं में घुसपैठ बना लेने वाले ऎसे मशरूम-तत्व कविताओं के सँग एक कॉटेज़ उत्पाद की तरह पेश आ रहे हैं !
    अतुकान्त लिखने वाले यदि धूमिल, नागार्जुन,भवानी प्रसाद मिश्र या मुक्तिबोध को एक पल को भूल भी जायें तो ’ हरिऔध’ की प्रिय-प्रवास या मैथिलीशरण गुप्त के सिद्धराज की एक झलक तो देखी ही होगी !

    डिस्क्लेमर :
    यह प्रार्थी के अपने विचार हैं… मुझे साहित्य की विधिवत समझ नहीं के बराबर है, फिर भी “न जाने कौन सी सुपरमैसी” कायम करने के लिये यह टिप्पणी निकल पड़ी । इससे असहमति रखने वाले मित्रगण इसे “चिराग़ तले अँधेरा” मानने को स्वतँत्र हैं ।

  29. अनूप भार्गव
    -यह मेरी इस पोस्ट पर पहली और आखिर टिप्पणी है और पहले की किसी टिप्पणी को निरस्त नही करती । हाँ यदि आप मेरे से ऊपर की सब टिप्पणियों को ’इग्नोर’ करना चाहें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है ।
    -इट इज़ बैटर टु बी ऐ गुड पोएट दैन टु बी ऐ क्रिटिक ओफ़ पोपुलर पोएट
    -सब से पहले तो आप को बधाई कि आप यह कह कर बच गये “आजकल कवितायें ऐसे लिखते हैं लोग जैसे औरतें स्वेटर बुनती हैं।” किसी ’स्त्री विमर्श’ के समूह ने यह नहीं पूछा कि “क्यों क्या स्वेटर बुनना केवल औरतों का काम है ? इस ‘ पितृ व्हाटेवर’ समाज में पुरुष क्यों नहीं स्वेटर बुनते , पता नहीं कितने स्वेटर बनवा कर महिलाओं का शोषण कर चुके हैं | आदि आदि ….:-)
    -आप के स्वेटर बुनते हुए कविता को पढ़ कर दुष्यंत जी की का यह शेर याद आ गया :
    मैं जिसे ओढता बिछाता हूँ
    वो गज़ल आप को सुनाता हूँ
    शायद दुष्यंत जी ने यह शेर अपनी पत्नी को स्वेटर बुनता देख कर ही लिखा हो ।
    -पूरी सुन्दरता से ज्यादा अपील करती है
    सुन्दरता की तरफ़ बढ़ती थोड़ी कम सुन्दरता।
    तभी तो ’चौदहवीं के चाँद’ की पूर्णिमा के चाँद से ज़्यादा चर्चा रहती है । हाँ बस यह देख लें कि ’कम सुन्दरता’ बहुत ही ज्यादा कम न हो और यकीनन ’सुन्दरता’ की ओर बढ रही हो ।
    :-)
    अनूप भार्गव की हालिया प्रविष्टी..एक ख़याल
  30. बेचैन आत्मा
    ..कविता का लटपटापन उसको प्यारा लग रहा है..
    ..वह हिल्ले लगा देना चाहती है उसे भूल जाने से पहले..
    ..गुरुजी जुटे हुये हैं कविता का अंग-भंग कर
    उसे अलग तरह की कविता बनाने में
    जैसे बच्चों के हाथ-पांव तोड़कर
    उनको भीख मांगने के लिये तैयार किया जाता है..
    …मस्त है गुरू..
    ..तबियत मस्त हो गई. खूब उड़ाया है मजाक कवियों का..शायद भावनाओं से खेलना इसी को कहते हैं..!
    ..मेरी भी बहुत सी कविताएँ गुरूओं ने बर्बाद की है और मैने खुश होकर तहे दिल से कविता बर्बाद करने के लिए शुक्रिया कहा है..यह अलग बात है कि बर्बाद होने की जानकारी बहुत दिनों के बाद हुई है.
    ..सच को इसी निडरता से लिखने के लिए आप जैसे लोगों को व्यंग्यकार कहा गया है मगर असली व्यंग्यकार तो वो है जिसे लोग हाथों में पत्थर ले कर ढूंढते हैं.
    ..यूँ ही लिखते रहिए,,,शुभकामनाएँ.
    बेचैन आत्मा की हालिया प्रविष्टी..आजादी के 63 साल बाद
  31. बेचैन आत्मा
    पता नहीं क्यों जब आपकी पोस्ट पढ़ता हूँ तो तबियत मस्त हो जाती है और टिप्पणियाँ पढ़ता हूँ तो …….
    जाने दीजिए नहीं लिखुंगा.
    बेचैन आत्मा की हालिया प्रविष्टी..आजादी के 63 साल बाद
  32. बवाल
    जितना ज़बरदस्त आपका यह लेख है अनूपजी, उतनी ही ज़ोरदार टिप्पणियाँ। रवि जी भर्त्सना क्यों कर रहे हैं यह सीक्रेट ही रह गया। आराधना जी कहती तो सही हैं मगर नामालूम क्यों ………………………बात पूरी तरह गले नहीं उतर रही।
    हमारे ’बालसखा’ और आपके ’बाल की खाल’ सखा …………. जी इस पर क्या कहते है अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। यहाँ गुरूजी कौन हैं ? ज़रा खुलके बतलाएँ ना प्लीज़। हम उनको अपना कोच बनाना चाहते है। हा हा।
    बवाल की हालिया प्रविष्टी..जाने क्या वो लिख चलेबवाल
  33. Alpana
    स्वेटर बुनना आसान काम नहीं है ..एक ज़माना था जब टी वी देखते हुए भी महिलाएं स्वेटर बना लिया करती थीं.आज अधिकतर को फंदे डालने भी नहीं आते हैं..[फंदे होते क्या हैं?ये पूछ लें तो अतिश्योक्ति न होगी]
    दूसरी कविता में सफल कविता लिखने के टिप्स मिले,
    ख़ास कर यह–;
    ‘पूरी सुन्दरता से ज्यादा अपील करती है
    सुन्दरता की तरफ़ बढ़ती थोड़ी कम सुन्दरता।’
    Alpana की हालिया प्रविष्टी..आसमान पर चलना कैसा लगता है
  34. Abhishek
    पोस्ट की बुनाई बड़ी धांसू हुई है. कितने नंबर का कंटा इस्तेमाल किये हैं :)
  35. Anonymous
    कितना अच हो गर
    दे जाए शब्द
    स्वेअटर का हर फंदा
    और बनजाये ढेरों कवितायेँ
    स्वेअटर बुनते बुनते!!!!!!!!!!!
  36. आँखों में भरे पानी का कौतुक
    [...] ट्रैक से उतर आया था.. कल की उनींदी रात शब्दों के फँदे उतारते-चढ़ाते  कवितानुमा एक कोई चीज़ बन गयी थी.. अगर [...]
  37. शरद कोकास
    कविता से अधिक तो कविता पर बातें हो गई हैं ..यह भी अच्छी बात है ..
    “नया कवि देख रहा है गुरूजी को मुग्ध भाव से
    एक अच्छी भली कविता को
    अलग तरह की कविता बनाते हुये।”
    और यह भी अच्छी बात है ।
    शरद कोकास की हालिया प्रविष्टी..खून पीकर जीने वाली एक चिड़िया रेत पर खून की बूँदे चुग रही है
  38. शरद कोकास
    अनूप जी , इस क्रम को चलने दीजिये ..यह विमर्श भी ज़रूरी है ।
    शरद कोकास की हालिया प्रविष्टी..माँ के हाथों बने खाने का स्वाद ।
  39. Mukesh Kumar Tiwari
    आदरणीय अनूप जी,
    आप लिखें तो मजा न आये ऐसा हो ही नही सकता। रस में डूबी हुई पोस्ट बस पढ़ते ही जाने का मन हुआ।
    कविता लिखना तो वाकई वैसा ही है………
    सादर,
    मुकेश कुमार तिवारी
  40. नीक कमल
    पोस्ट बहुत ही सुन्दर और आकर्षक है। स्वेटर बुनने को जिस तरह कविता बुनने से जोड़ा गया है सचमुच काबिले तारीफ़ है। कविता भी भावों को बुन कर ही की जाती है उतनी ही कठिन है उनके लिये जिन्हे स्वेटर बुननी शुरू में नही आती। और उनके लिये उतनी ही आसान हो जाती है जिन्हे भावों के साथ शब्दों को बुनना आ जाता है। कुछ कहते हुए बहुत कुछ कह गई है आपकी पोस्ट अनूप भैया। और कानपुर के लड्डू कब खिला रहे हैं।
    नीक कमल की हालिया प्रविष्टी..पहचान तुम्हारी क्या होगी
  41. Anonymous
    क्या साहब, स्वेटर और कविता ? क्या जोड़ बिठाया है. हमे तो हर कवी (कृपया अन्यथा ना लेवे) जाम मैं फसी गाड़ी सा लगता है . बस रास्ता खोजता हुआ, की बस कैसे अपनी गाड़ी दुसरो से आगे निकले. और कविता फुटपाथ पर चलते हुए गरीब आदमी की तरह, जाम से बेखबर.
  42. Read and Buy
    आपकी कविताया बहुत अछि है |
  43. Anonymous
    तोड़ दिया दांत आधा उजले दांतों से
    खिलखिलाती हंसी में मिला दिया चुटकी भर डर
    मसल दिया तितली का एक पर
    तोड़ दी भौंरे की एक सूंड़
    सारे बिम्ब बना दिये पूरे से जरा सा कम पूरे।
    उन्होंने पढ़ा है कल ही किसी कविता में-
    पूरी सुन्दरता से ज्यादा अपील करती है
    सुन्दरता की तरफ़ बढ़ती थोड़ी कम सुन्दरता।
    वाह, क्या उधेड़ बुन की . . वही गर्मी पहन के निकल रहे हैं आपने चिट्ठे से, अति सुन्दर :)
  44. Anonymous
    kavita likhna swetar bunne jitna saral nahi h. . . . . . . jitni sarlta se aapne kavita buni h, aap badhai ke patra h. -vishnu sharma
  45. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] …स्वेटर के फ़ंदे से उतरती कवितायें [...]

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