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अतीत विलाप, निन्दापुराण, ताका-झांकी तथा निद्रा सुख त्यागकर मैं देशहित में एक लेख लिखने बैठा हूं।
सब सोच लिया है। सारा मसाला तैयार है। क्लाईमेक्स तथा अन्त तय कर लिया है। सिर्फ़ कमी है -एक धांसू शुरुआत की। अच्छी शुरुआत हो गयी, समझो आधा काम पूरा। ’उद्घटनिया फ़ीता’ काटना ही तो कठिन होता है। वैसे घटनायें तमाम हैं- ताऊ-ताई निष्कासन, कपिल दे छक्के, ग्लासनोस्त-पेरेस्त्रोइका। इधर कैडर पेपर, डिस एन्टीना, बारमाइन तथा प्रस्फ़ुटन। जिसे मन आये दो पेज खींच दो। हो गया पूरा लेख। इधर-उधर से चटखारेदार मुहावरे, भाषा ’टोप’ के लिख देव। हो गया देख। पर यही तो समस्या है। यह पत्रिका संदेश वाहिनी है। इसमें ऐसा-वैसा कुछ लिखना उचित नहीं होगा।
फ़ैक्ट्री का मसला होने के चलते सोचता हूं कि किसी खूबसूरत, सुघड़, सलोनी लेथ मशीन की किसी ग्राइन्डर से प्रेम कथा तथा विवाह की कहानी लिख दूं। ग्राइन्डर अपनी प्रेमिका लेथ मशीन को बहुत चाहता है तथा हमेशा उसके टूल घिसता है। बीच-बीच में किसी खूंखार प्रेस मशीन को भी विलेन की भांति डाल दूं जिसे अंतत: इनके प्यार के आगे झुकना पड़े। हार मान लेना पड़े। पर अभी लेथ मशीन और ग्राइंडर दोनों नाबालिग हैं। अत: इनके विवाह की कहानी लिखना तकनीकी अपराध होगा। यदि डीजल पीकर सड़क की छाती पर लड़खड़ाते तथा आलिंगन में धुत किसी ट्रक की कहानी लिखूं तो उसके अश्लील हो जाने का खतरा है। स्टीम पाइप लाइन का व्बायलर हाउस से बिछुड़ने के कारण जगह-जगह आंसू बहाना कोई अच्छी बात नहीं है। M12 साइज के नट और बोल्ट हमेशा एक दूसरे में गुंथे-चिपटे रहते हैं। वह तो उनका सहज,सुलभ स्वाभाविक बचपनिया मोहब्बत है। इन सबको लेकर लेख शुरु करना अपरिपक्वता है।
लेख के प्रति मुझे अत्यधिक समर्पित देखकर पत्नीश्री चिल्लाईं- अरे जरा स्टोव में हवा भर दो आकर।
मैंने कहा- एक मिनट ठहरो अभी आया।
इस वो पहले भुनभुनायीं फ़िर झल्लाने लगीं- ’तुम्हारा ये लेख तुम्हें खाना नहीं देगा। महीने भर से घर में गैस नहीं है। उसकी चिंता नहीं है। लेख की बड़ी चिन्ता है। हमारा तो जीवन नरक हो गया है।’
मुझे लगा! लगा क्या अक्सर ही लगता है कि नरक यदि इतना ही त्रासदी पूर्ण है कि वहां गैस न हो, स्टोव पर खाना बनाना पड़े, राशन की चीनी के बजाय बाजार की चीनी खानी पड़े, कुछ दिन घर किसी साथी के साझा करना पड़े तो नरक इतनी तो बुरी जगह नहीं कि जिससे बचने के लिये तथा अपना परलोक सुधारने के लिये लोग बचकाने, फ़िजूल प्रयास करते रहें। यदि ये नरक सच में इतना त्रासदी पूर्ण है तो लोग अपने हिस्से का नरक किसी और को ट्रान्सफ़र कर दें जिसे यह नरक भी न नसीब हो। मैं देख रहा हूं कि यहां हर अगले आदमी का कम से कम एक पैर तो तो नर्क में रहता ही है। किसी का गैस के कारण, किसी का राशन कार्ड के चलते किसी का काम की अधिकता के कारण और किसी का इस बात के चलते कि उसे कोई काम नहीं मिला।
खैर छोड़िये ऊ सब। मुझे तो लेख लिखना है। वह भी स्तरीय। तो देखा जाये कि कोई रचना कैसे बनती है। राष्ट्रकवि ने लिखा है:
तो करी जाये शुरुआत लिखने की!
(यह लेख अपनी फ़ैक्ट्री आयुध निर्माणी,बलांगीर ( उड़ीसा) की वार्षिक पत्रिका प्रस्फ़ुटन के लिये लिखा था। सन 1989 में छपी यह पत्रिका इस बार घर में दिख गयी तो सोचा लेख को यहां सेव कर लिया जाये। इसी बहाने सोचा आपको भी पढ़वा दिया जाये।)
अधूरे लेख की धांसू शुरुआत
By फ़ुरसतिया on August 12, 2012
सब सोच लिया है। सारा मसाला तैयार है। क्लाईमेक्स तथा अन्त तय कर लिया है। सिर्फ़ कमी है -एक धांसू शुरुआत की। अच्छी शुरुआत हो गयी, समझो आधा काम पूरा। ’उद्घटनिया फ़ीता’ काटना ही तो कठिन होता है। वैसे घटनायें तमाम हैं- ताऊ-ताई निष्कासन, कपिल दे छक्के, ग्लासनोस्त-पेरेस्त्रोइका। इधर कैडर पेपर, डिस एन्टीना, बारमाइन तथा प्रस्फ़ुटन। जिसे मन आये दो पेज खींच दो। हो गया पूरा लेख। इधर-उधर से चटखारेदार मुहावरे, भाषा ’टोप’ के लिख देव। हो गया देख। पर यही तो समस्या है। यह पत्रिका संदेश वाहिनी है। इसमें ऐसा-वैसा कुछ लिखना उचित नहीं होगा।
फ़ैक्ट्री का मसला होने के चलते सोचता हूं कि किसी खूबसूरत, सुघड़, सलोनी लेथ मशीन की किसी ग्राइन्डर से प्रेम कथा तथा विवाह की कहानी लिख दूं। ग्राइन्डर अपनी प्रेमिका लेथ मशीन को बहुत चाहता है तथा हमेशा उसके टूल घिसता है। बीच-बीच में किसी खूंखार प्रेस मशीन को भी विलेन की भांति डाल दूं जिसे अंतत: इनके प्यार के आगे झुकना पड़े। हार मान लेना पड़े। पर अभी लेथ मशीन और ग्राइंडर दोनों नाबालिग हैं। अत: इनके विवाह की कहानी लिखना तकनीकी अपराध होगा। यदि डीजल पीकर सड़क की छाती पर लड़खड़ाते तथा आलिंगन में धुत किसी ट्रक की कहानी लिखूं तो उसके अश्लील हो जाने का खतरा है। स्टीम पाइप लाइन का व्बायलर हाउस से बिछुड़ने के कारण जगह-जगह आंसू बहाना कोई अच्छी बात नहीं है। M12 साइज के नट और बोल्ट हमेशा एक दूसरे में गुंथे-चिपटे रहते हैं। वह तो उनका सहज,सुलभ स्वाभाविक बचपनिया मोहब्बत है। इन सबको लेकर लेख शुरु करना अपरिपक्वता है।
लेख के प्रति मुझे अत्यधिक समर्पित देखकर पत्नीश्री चिल्लाईं- अरे जरा स्टोव में हवा भर दो आकर।
मैंने कहा- एक मिनट ठहरो अभी आया।
इस वो पहले भुनभुनायीं फ़िर झल्लाने लगीं- ’तुम्हारा ये लेख तुम्हें खाना नहीं देगा। महीने भर से घर में गैस नहीं है। उसकी चिंता नहीं है। लेख की बड़ी चिन्ता है। हमारा तो जीवन नरक हो गया है।’
मुझे लगा! लगा क्या अक्सर ही लगता है कि नरक यदि इतना ही त्रासदी पूर्ण है कि वहां गैस न हो, स्टोव पर खाना बनाना पड़े, राशन की चीनी के बजाय बाजार की चीनी खानी पड़े, कुछ दिन घर किसी साथी के साझा करना पड़े तो नरक इतनी तो बुरी जगह नहीं कि जिससे बचने के लिये तथा अपना परलोक सुधारने के लिये लोग बचकाने, फ़िजूल प्रयास करते रहें। यदि ये नरक सच में इतना त्रासदी पूर्ण है तो लोग अपने हिस्से का नरक किसी और को ट्रान्सफ़र कर दें जिसे यह नरक भी न नसीब हो। मैं देख रहा हूं कि यहां हर अगले आदमी का कम से कम एक पैर तो तो नर्क में रहता ही है। किसी का गैस के कारण, किसी का राशन कार्ड के चलते किसी का काम की अधिकता के कारण और किसी का इस बात के चलते कि उसे कोई काम नहीं मिला।
खैर छोड़िये ऊ सब। मुझे तो लेख लिखना है। वह भी स्तरीय। तो देखा जाये कि कोई रचना कैसे बनती है। राष्ट्रकवि ने लिखा है:
वियोगी होगा पहला कवि,इस लिहाज से तो मैं लेख या कविता लिखने के लिये ’इन्टाइटल्ड’ ही नहीं हूं। क्योंकि मैं वियोगी नहीं हूं। सपरिवार, सपत्नीक हूं। सो पहले मैं पत्नी को घर छोड़कर आऊं या खुद कहीं जाऊं- घर से बाहर, तब ही कुछ लिख पाऊंगा। अच्छा इसमें अविवाहितों का चूंकि अभी संयोग ही नहीं हुआ तो वे तो वियोगी हो ही नहीं सकते। अत: देखा जाये तो सारी रचनायें केवल जबरियन कुंवारे(Forced Bechalor) ही लिख सकते हैं। लिखना भी इस तरह का कि वह सबके लिये हो। सभी आयु वर्ग एवं कार्यवर्ग के लिये। बाल-गोपाल के लिये -ट्विंकल-ट्विंकल लिटिल स्टार या बाबा बाबा ब्लैक शीप टाइप कोई चीज। जवानों के लिये कबूतर जा जा जा या मौसम है आशिकाना नुमा मसाला। भाभियों के लिये सिलाई, कढ़ाई तथा अचार बनाने की तरकीबें तथा फ़ैक्ट्री के लोगों के लिये पे-प्रोटेक्शन, कैडर पेपर जैसे मसलें हों। किसी तरह से इन सबकी (सबको उचित अनुपात में मिलाकर) खिचड़ी चढ़ा दी जाये बस हो गई धांसू शुरुआत। पकने दो बीरबल की खिचड़ी की तरह। जितना मन आये स्याही खर्च करते रहें जब तक सम्पादक हांफ़ते हुये बस न कर दे।
आह से उपजा होगा गान।
उमड़ कर आंखों से चुपचाप,
बही होगी कविता अनजान॥
तो करी जाये शुरुआत लिखने की!
(यह लेख अपनी फ़ैक्ट्री आयुध निर्माणी,बलांगीर ( उड़ीसा) की वार्षिक पत्रिका प्रस्फ़ुटन के लिये लिखा था। सन 1989 में छपी यह पत्रिका इस बार घर में दिख गयी तो सोचा लेख को यहां सेव कर लिया जाये। इसी बहाने सोचा आपको भी पढ़वा दिया जाये।)
Posted in बस यूं ही | 14 Responses
लेखकई में जाना था….. सही गाइडेंसे नहीं मिला आपको
सतीश चंद्र सत्यार्थी की हालिया प्रविष्टी..Comment on तुम सब चोरी करो डकैती हम मंत्रियों पर छोड़ दो by ravikar
“जबरियन कुंवारे” …टॉपिक मारू टाइप है
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..बारिश
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..‘काले अध्यादेश’ का विरोध
amit srivastava की हालिया प्रविष्टी.." रेस्त्रां , वेटर और टिप……"
…बकिया, मुझे लगता है कि ई गृहस्वामी का लेखक होना घरवाली के लिए सबसे बड़ा नरक है.अगर तार जुड़ने से पहले ही यह खुराफात उनको पता लग जाती तो चिर-कुंवारे ही रहना पड़ता !
संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..कुछ छुट्टा अहसास !
समीर लाल “टिप्पणीकार” की हालिया प्रविष्टी..वो हमसफर था….
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..प्रेम के निष्कर्ष
वैसे आपका जेनुइन है नहीं तो पुराना डेट कवि लोग ज्यादा करके चस्पा करते हैं