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बस बेतरतीब सा कुछ ऐसे ही
By फ़ुरसतिया on October 16, 2012
इधर
देख रहा हूं ब्लॉग लिखना कुछ कम सा हो गया। जो भी आइडिया आता है वो भाग के
फ़ेसबुक की गोदी में जाकर बैठ जाता है। अब किसी आइडिये को अमल में आने के इंतजार का
धीरज नहीं है। फ़ेसबुक हर तरह का कचरा स्वीकार कर लेती है। ब्लॉग थोड़ा
परंपरावादी है। आइडिया लोगों से जरा सलीके से आने को कहता है, साफ़-सुथरेपन
पर जोर देता है। अनुशासित रहने को बोलता है। इससे सारे आइडिया लोग भाग के
फ़ेसबुक के चबूतरे पर पसर जाते हैं। वहां पर दो-चार लोग उसको लाइक कर देते
हैं तो आइडिया लोग इस झांसे में जाते हैं उनके कदरदान हैं दुनिया में। उन
बेचारों को पता ही नहीं कि फ़ेसबुक पर तो लाइक किया जाना उनकी नियति है।
नियति को उपलब्धि मानकर फ़ूलने वालों को कौन समझा पाया है भला आज तक।
दो दिन पहले कुछ किताबें खरीद के ले आये बाजार से। सबको अपने आसपास रख लिया। बिस्तर पर। लेटे-बैठे पढते रहते हैं। किताबें सब मन से पढ़ने की हैं। हरेक को पलटते रहते हैं। कोई पूरा नहीं पढ़ते। दो-चार पन्ना पढ़ते हैं। फ़िर दूसरा पढ़ने लगते हैं। ऐसा इसलिये नहीं कि किताब खराब है। असल में मुझे डर लगता है कि कहीं किताब पूरी हो गयी तो उसका साथ छूट जायेगा। किताब पास से दूर अलमारी में या मेज पर चली जायेगी। विछोह के डर से उनका पूरा पढ़ना स्थगित करते रहते हैं। बहुत अच्छी किताबें (लेख भी) मुझे उस मिठाई की तरह लगते हैं जिनको मैं धीरे-धीरे खतम करना चाहता हूं ताकि वे देर तक मेरे साथ रहे हैं। किताबें सुकून का एहसास दिलाती हैं।
कल विश्वनाथ तिवारी जी की यात्रा संस्मरण ’अमेरिका और युरप में एक भारतीय मन’ पूरी की। खुशी तो हुई किताब पूरी पढ़ ली लेकिन अफ़सोस ने भी हाजिरी बजाई कि अब इसका साथ छूटा। फ़िलहाल तीन चार किताबें एक साथ जो पढ़ रहा हूं वे हैं:
विनीत कुमार की किताब मंडी में मीडिया कई बार उलट-पुलटते हैं। उनकी यह पहली किताब है लेकिन छपाई, कलेवर और लेखन के तेवर देखकर ऐसा कहीं से नहीं लगता कि यह किसी पी.एच.डी. जमा किये नवले अस्थाई गुरुजी की किताब है। लगता है कि जमे हुये लेखक का कारनाम है। पता नहीं इसकी चर्चा क्यों नहीं होती छापे की दुनिया में!
उदय प्रकाश की किताब ईश्वर की आंख कई बार पढ़ चुके हैं। उसके कुछेक अंश बार-बार पढ़ते हैं। हाल-फ़िलहाल टीवी पर हुई प्राइम टाइम बहसों को सुनते हुये उनकी लिखी ये लाइने फ़िर से पढ़ते हैं( यह बात उन्होंने पिछली सदी में लिखी थी लेकिन लागू आज भी है):
पिछले दिनों कुछ बहुत पसंदीदा कवियों को कई-कई बार सुना। आप का भी मन हो तो आप भी सुनिये। नीचे लिंक दे रहे हैं:
और एक और वसीम वरेलवी की गजल:
इतना सब लिखने के बाद अब कुछ समझ में नहीं रहा है। शरमा से रहे हैं कि न लिखते-लिखते भी इतना लिख गये । अब पोस्ट करके फ़ूट लेते हैं दफ़्तर। आप आराम से रहिये। दुनिया इत्ती बुरी नहीं न दुनिया वाले। है कि नहीं?
दो दिन पहले कुछ किताबें खरीद के ले आये बाजार से। सबको अपने आसपास रख लिया। बिस्तर पर। लेटे-बैठे पढते रहते हैं। किताबें सब मन से पढ़ने की हैं। हरेक को पलटते रहते हैं। कोई पूरा नहीं पढ़ते। दो-चार पन्ना पढ़ते हैं। फ़िर दूसरा पढ़ने लगते हैं। ऐसा इसलिये नहीं कि किताब खराब है। असल में मुझे डर लगता है कि कहीं किताब पूरी हो गयी तो उसका साथ छूट जायेगा। किताब पास से दूर अलमारी में या मेज पर चली जायेगी। विछोह के डर से उनका पूरा पढ़ना स्थगित करते रहते हैं। बहुत अच्छी किताबें (लेख भी) मुझे उस मिठाई की तरह लगते हैं जिनको मैं धीरे-धीरे खतम करना चाहता हूं ताकि वे देर तक मेरे साथ रहे हैं। किताबें सुकून का एहसास दिलाती हैं।
कल विश्वनाथ तिवारी जी की यात्रा संस्मरण ’अमेरिका और युरप में एक भारतीय मन’ पूरी की। खुशी तो हुई किताब पूरी पढ़ ली लेकिन अफ़सोस ने भी हाजिरी बजाई कि अब इसका साथ छूटा। फ़िलहाल तीन चार किताबें एक साथ जो पढ़ रहा हूं वे हैं:
- मंडी में मीडिया- विनीत कुमार
- एक जिन्दगी काफ़ी नहीं- कुलदीप नैयर
- नंगातलाई का गांव- विश्वनाथ त्रिपाठी
- ईश्वर की आंख- उदय प्रकाश
- चार दरवेश- हृदयेश
विनीत कुमार की किताब मंडी में मीडिया कई बार उलट-पुलटते हैं। उनकी यह पहली किताब है लेकिन छपाई, कलेवर और लेखन के तेवर देखकर ऐसा कहीं से नहीं लगता कि यह किसी पी.एच.डी. जमा किये नवले अस्थाई गुरुजी की किताब है। लगता है कि जमे हुये लेखक का कारनाम है। पता नहीं इसकी चर्चा क्यों नहीं होती छापे की दुनिया में!
उदय प्रकाश की किताब ईश्वर की आंख कई बार पढ़ चुके हैं। उसके कुछेक अंश बार-बार पढ़ते हैं। हाल-फ़िलहाल टीवी पर हुई प्राइम टाइम बहसों को सुनते हुये उनकी लिखी ये लाइने फ़िर से पढ़ते हैं( यह बात उन्होंने पिछली सदी में लिखी थी लेकिन लागू आज भी है):
दर असल हम जिस शताब्दी के अंत में हैं, उस शताब्दी की सारी नाटकीयतायें अब खत्म हो चुकी हैं। हम ’ग्रीन रूम’ में हैं। अभिनेताओं का ’मेक अप’ उतर चुका है। वे बूढ़े जो दानवीर कर्ण, धर्मराज या किंग लेयर की भूमिका कर रहे थे, अब अपने मेहनताने के लिये झगड़ रहे हैं। वे अभिनेत्रियां जो द्रौपदी, सीता , क्लियोपेट्रा या आम्रपाली का रोल कर रहीं थीं, अपनी झुर्रियां ठीक करती हुई ग्राहक पटा रही हैं। आसपास कोई अख्मातोवा या मीरा नहीं है। कोई पुश्किन, प्रूस्त या निराला नहीं है। देखो उस खद्दरधारी गांधीवादी को, जो संस्थानों का भोज डकारता हुआ इस अन्यायी हिंस्र यथार्थ का एक शांतिवादी भेड़िया है।टीवी पर होती बहसों को देखते-सुनते हुये लगता है कि सब कितने झल्लाये हुये हैं। भ्रष्टाचार पर होती बहसें सुनते हुये सवाल उठता है मन में कि क्या ऐसी कोई जगह नहीं बची अपने यहां जहां भ्रष्टाचार न पसरा हो। भ्रष्टाचार मिटाने वाले भी झल्लाये हुये हैं। जिन पर आरोप लगते हैं वे भी बौखलाये हुये हैं। कहते हैं आ चल तुझे देखते हैं कचहरी में। भ्रष्टाचार मिटाने वाले इतनी हड़बड़ी हैं कि उनको देखकर लगता है कि जैसे वे हफ़्ते भर में सारा भ्रष्टाचार मिटाकर सुकून से वीकेंड मनाना चाहते हैं। दनादन फ़ाइलें निपटा रहे हैं। अभी तीन सौ करोड़ के करप्शन की, उसके बाद सत्तर लाख के करप्शन की। उसके बाद । ……….लेकिन अरे मैं कहां बहक गया। ये सब तो प्राइम टाइम बहस के मसले हैं। वहीं सुलटेंगे।
पिछले दिनों कुछ बहुत पसंदीदा कवियों को कई-कई बार सुना। आप का भी मन हो तो आप भी सुनिये। नीचे लिंक दे रहे हैं:
-डा.सरिता शर्मा
- अब तो हद से गुजर के देखेंगे,
कुछ नया काम करके देखेंगे,
जिसकी बाहों में जी नहीं पाये,
उसकी बाहों में मर के देखेंगे।- सब सरेआम कर दिया तूने,
क्या बड़ा काम कर दिया तूने.
जिसने तेरे लिये जहां छोड़ा,
उसको बदनाम कर दिया तूने।
और एक और वसीम वरेलवी की गजल:
मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा,
अब इसके बाद मेरा इम्तहान क्या लेगा?
हजार तोड़ के आ जाऊं उससे रिश्ता वसीम
मैं जानता वो जब चाहेगा बुला लेगा।
-वसीम वरेलवीसमय मिले तो कल की चिट्ठाचर्चा देखियेगा। जैंजीबार की यात्रा के बहाने ऐसी शख्सियतों से परिचय हुआ कि मन खुश हो गया।
इतना सब लिखने के बाद अब कुछ समझ में नहीं रहा है। शरमा से रहे हैं कि न लिखते-लिखते भी इतना लिख गये । अब पोस्ट करके फ़ूट लेते हैं दफ़्तर। आप आराम से रहिये। दुनिया इत्ती बुरी नहीं न दुनिया वाले। है कि नहीं?
Posted in बस यूं ही | 14 Responses
विनीत की किताब पढ़ने का मेरा मन भी है. थोड़ी फुर्सत निकले तो मंगवाएंगे.
aradhana की हालिया प्रविष्टी..प्यार करते हुए
मैं भी आजकल ‘फेसबुक वीर’ ही बना हुआ हूँ… आज कुछ उल्टा-सुलटा ही सही लिख मारता हूँ ब्लॉग पर…
सतीश चंद्र सत्यार्थी की हालिया प्रविष्टी..हिन्दी दिवस से नयी शुरुआत
दुनिया के अछे बुरे होने का अहसास, दुनिया से नहीं बल्के अपने मनः:स्थिति से होता है…………………………
प्रणाम.
फेसबुक पर थोड़ी सी बात कहके फूटने का अपना मजा है
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..हैप्पी बड्डे टू मी !!!!
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..अनकंट्रोल्ड प्रेस कान्फ्रेन्स….(A) केवल वयस्कों के लिये
उसकी बाहों में मर के देखेंगे।
मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा,
अब इसके बाद मेरा इम्तहान क्या लेगा?
कुछ न कह के भी कहते जाना भी एक कला है.
फुरसतिया का फेसबुकिया होने के बजाय फुरसतिया होना ही अधिक भाता है.
बहुत पचड़े हैं फेसबुक पे.
रवि की हालिया प्रविष्टी..थैंक गॉड! मैं कलेक्टर हुआ न नेता!!
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..लैपटॉप या टैबलेट – निर्णय प्रक्रिया