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डेट्रॉएट को तो दीवालिया होने की हड़बड़ी है
By फ़ुरसतिया on July 21, 2013
कल खबर सुनी कि अमेरिका में गाडियों के लिये मशहूर शहर डे्ट्रॉएट ने कर्ज में डूबे होने के चलते दीवालिया होने
के लिये अर्जी दी है। जब से सुना तब से डेट्रॉएट के बारे में ही सोच रहे
हैं। ससुर एक पूरा का पूरा शहर कैसे दीवालिया हो गया? दुनिया के सबसे रुतबे
वाले देश का एक शहर दीवालिया हो गया। सुनते हैं कि अमेरिका दुनिया का
सबसे बड़ा कर्जदार देश है। क्या उसकी भी दीवालिया अर्जी आयेगी?
सोचते हैं कि डेट्रॉएट के मेयर को फ़ोनिया के पूछे कि हजार-दो हजार में दीवालिया होना बचता हो बताना, भेज देंगे पहली तारीख को। ये भी कि अगर डालर जरा नीचा कर लें तो उनको ही सहूलियत होगी।
डेट्रॉएट कभी अमेरिका का चौथा सबसे बड़ा शहर था। दुनिया की आटोमोबाइल इंडस्ट्री की धुरी। न जाने कित्ते तीसमार खां मैनेजर, अर्थशास्त्री इसके अच्छे दिनों में यहां थे। आज बचा है केवल कर्जा। वीरान इमारतें और 80% काले लोग। बेहतरीन दिमाग वाले हुशियार लोग खा पीकर, पैसा पीटकर शहर को दीवालिया करके फ़ूट लिये।
लोग बताते हैं दुनिया के बेहतरीन मैनेजर, अर्थशास्त्री अमेरिका में बसते हैं। लेकिन वे कैसे खलीफ़ा हैं जो अपने शहर और बैंको को दीवालिया होने से नहीं बचा सकते। कैसे वे मैनेजर हैं जो जब डेट्रॉएट का आटोमोबाइल सेक्टर अपनी गजल का मक्ता पढ़ रहा था तब कुछ अलग काम करने के लिये नहीं सोच पाये। खाली कारों में अपनी ऊर्जा बेकार में काहे खपाते रहे? कार न बिक रही तो कुछ और बनाते। साइकिल, रेल के डिब्बे, पापड़, कचरी, अचार, मैगी, दवाई, कपड़े, बैट-बल्ला, गहने, जहाज, मशीन
किसी एक चीज के उत्पादन में ही फ़न्ने खां बने रहने का यही नुकसान है। डेट्रॉएट खाली कार के उत्पादन में ही महारत हासिल किये रहा। पूरा शहर कार उत्पादन की धुरी बना रहा। अब जब सबके पास कारें हो गयीं और दूसरे और सस्ती कारें बनाने लगे तो जलवा कम हुआ। लेकिन उनको कार बनाने के अलावा और कुछ आता ही नहीं। हो गयी हालत पतली। सच्ची में समझदार होते तो कार के धंधे में मंदी देखते ही किसी और धन्धे का फ़ीता काट लिये होते।
कानपुर भी कभी अपनी मिलों के चलते मैनचेस्टर ऑफ़ इंडिया कहलाता था। मिलें न जाने कब की बंद हो गयीं। मजदूर बेरोजगार हो गये। कोई रिक्शा चलाने लगा, किसी ने ने चाय की दुकान खोली किसी ने पान की। मिलों में उल्लू बोलते हैं। लेकिन शहर दीवालिया नहीं हुआ। झाड़े रहो कलट्टरगंज कहते हुये शहर आज भी बिंदास है। ई ससुर डेट्रोइट कैसे इत्ती जल्दी दीवालिया हो गया? अमेरिका को बुरा नहीं लगता अपने शहर को दीवालिया बताते?
टूंडला में हमारी एक फ़ैक्ट्री थी वहां फ़ौज के लिये मीट बनता था। मीट का काम बन्द हो गया तो वहां कपड़े बनने लगे। जहां हवाई जहाज रिपेयर होते थे वहां राइफ़ल बनाने लगे, जहां तोप पीटते थे वहां गोले छीलने लगे, जहां लोहा गलता था वहां डब्बे बनाने लगे। जब काम नहीं मिला तो बाजार में काम टटोलने लगे। सब किया लेकिन खाली नहीं रहे। दीवालिया नहीं हुये। जब सरकार के अनुभाग इतनी पटरियां बदल सकतें तो वे प्राइवेट फ़ैक्ट्रियां ऐसा क्यों नहीं कर पायीं? कार का उत्पादन से किसी और तरफ़ क्यों नहीं लग सकीं?
किसी शहर के बने रहने के लिये उसको फ़ुल्लमफ़ुल आधुनिक नहीं बनना चाहिये। एक ही धंधे के भरोसे नहीं रहना चाहिये। परम्परागत काम भी चलते रहते चाहिये। रोजी रोटी के लिये एक ही धन्धे पर शहर नहीं टिका रहना चाहिये। उद्योग भी हों, दुकानें भी हों, खेती से भी जुड़ा हो, कोचिंग , गुटखा, गुंडागिरी, उगाही, पान, हलवाई, स्कूल, गुटखा, राजनीति, लाटरी, सट्टा, क्लब, बैंक, पुलिस, पंडा, पुजारी, नेता, जनता सब तरह के लोग होने चाहिये। ये नहीं कि एक धंधा गया तो शहर मंदा हो गया। भारत में आजतक कोई शहर डेट्रॉएट की तरह किसी एक ही धंधे पर निर्भर नहीं रहा इसीलिये दीवालिया भी नहीं हुआ। हाल भले ही खस्ता रहे हों।
अब डेट्रॉएट का जो हाल है उसमें फ़िलहाल हम कुछ करने की स्थिति में हैं नहीं। पहले बताते तो कुछ सोचते भी। अब तो लगता है उनका दीवालिया होना तय सा है। लेकिन वे कुछ और तरकीबें अपना सकते थे कमाई की। जैसे कि:
सोचते हैं कि डेट्रॉएट के मेयर को फ़ोनिया के पूछे कि हजार-दो हजार में दीवालिया होना बचता हो बताना, भेज देंगे पहली तारीख को। ये भी कि अगर डालर जरा नीचा कर लें तो उनको ही सहूलियत होगी।
डेट्रॉएट कभी अमेरिका का चौथा सबसे बड़ा शहर था। दुनिया की आटोमोबाइल इंडस्ट्री की धुरी। न जाने कित्ते तीसमार खां मैनेजर, अर्थशास्त्री इसके अच्छे दिनों में यहां थे। आज बचा है केवल कर्जा। वीरान इमारतें और 80% काले लोग। बेहतरीन दिमाग वाले हुशियार लोग खा पीकर, पैसा पीटकर शहर को दीवालिया करके फ़ूट लिये।
लोग बताते हैं दुनिया के बेहतरीन मैनेजर, अर्थशास्त्री अमेरिका में बसते हैं। लेकिन वे कैसे खलीफ़ा हैं जो अपने शहर और बैंको को दीवालिया होने से नहीं बचा सकते। कैसे वे मैनेजर हैं जो जब डेट्रॉएट का आटोमोबाइल सेक्टर अपनी गजल का मक्ता पढ़ रहा था तब कुछ अलग काम करने के लिये नहीं सोच पाये। खाली कारों में अपनी ऊर्जा बेकार में काहे खपाते रहे? कार न बिक रही तो कुछ और बनाते। साइकिल, रेल के डिब्बे, पापड़, कचरी, अचार, मैगी, दवाई, कपड़े, बैट-बल्ला, गहने, जहाज, मशीन
किसी एक चीज के उत्पादन में ही फ़न्ने खां बने रहने का यही नुकसान है। डेट्रॉएट खाली कार के उत्पादन में ही महारत हासिल किये रहा। पूरा शहर कार उत्पादन की धुरी बना रहा। अब जब सबके पास कारें हो गयीं और दूसरे और सस्ती कारें बनाने लगे तो जलवा कम हुआ। लेकिन उनको कार बनाने के अलावा और कुछ आता ही नहीं। हो गयी हालत पतली। सच्ची में समझदार होते तो कार के धंधे में मंदी देखते ही किसी और धन्धे का फ़ीता काट लिये होते।
कानपुर भी कभी अपनी मिलों के चलते मैनचेस्टर ऑफ़ इंडिया कहलाता था। मिलें न जाने कब की बंद हो गयीं। मजदूर बेरोजगार हो गये। कोई रिक्शा चलाने लगा, किसी ने ने चाय की दुकान खोली किसी ने पान की। मिलों में उल्लू बोलते हैं। लेकिन शहर दीवालिया नहीं हुआ। झाड़े रहो कलट्टरगंज कहते हुये शहर आज भी बिंदास है। ई ससुर डेट्रोइट कैसे इत्ती जल्दी दीवालिया हो गया? अमेरिका को बुरा नहीं लगता अपने शहर को दीवालिया बताते?
टूंडला में हमारी एक फ़ैक्ट्री थी वहां फ़ौज के लिये मीट बनता था। मीट का काम बन्द हो गया तो वहां कपड़े बनने लगे। जहां हवाई जहाज रिपेयर होते थे वहां राइफ़ल बनाने लगे, जहां तोप पीटते थे वहां गोले छीलने लगे, जहां लोहा गलता था वहां डब्बे बनाने लगे। जब काम नहीं मिला तो बाजार में काम टटोलने लगे। सब किया लेकिन खाली नहीं रहे। दीवालिया नहीं हुये। जब सरकार के अनुभाग इतनी पटरियां बदल सकतें तो वे प्राइवेट फ़ैक्ट्रियां ऐसा क्यों नहीं कर पायीं? कार का उत्पादन से किसी और तरफ़ क्यों नहीं लग सकीं?
किसी शहर के बने रहने के लिये उसको फ़ुल्लमफ़ुल आधुनिक नहीं बनना चाहिये। एक ही धंधे के भरोसे नहीं रहना चाहिये। परम्परागत काम भी चलते रहते चाहिये। रोजी रोटी के लिये एक ही धन्धे पर शहर नहीं टिका रहना चाहिये। उद्योग भी हों, दुकानें भी हों, खेती से भी जुड़ा हो, कोचिंग , गुटखा, गुंडागिरी, उगाही, पान, हलवाई, स्कूल, गुटखा, राजनीति, लाटरी, सट्टा, क्लब, बैंक, पुलिस, पंडा, पुजारी, नेता, जनता सब तरह के लोग होने चाहिये। ये नहीं कि एक धंधा गया तो शहर मंदा हो गया। भारत में आजतक कोई शहर डेट्रॉएट की तरह किसी एक ही धंधे पर निर्भर नहीं रहा इसीलिये दीवालिया भी नहीं हुआ। हाल भले ही खस्ता रहे हों।
अब डेट्रॉएट का जो हाल है उसमें फ़िलहाल हम कुछ करने की स्थिति में हैं नहीं। पहले बताते तो कुछ सोचते भी। अब तो लगता है उनका दीवालिया होना तय सा है। लेकिन वे कुछ और तरकीबें अपना सकते थे कमाई की। जैसे कि:
- डेट्रॉएट में मकान तमाम खाली हैं। अमेरिका वाले दुनिया भर में काली कमाई करने वालों को झांसे में डालकर वे मकान बेंच लेते।
- भारत सरकार से बात करते कि भाई ये अपना खुल्ले में सड़ता अनाज हमारे खाली मकानों में धर लो। बदलें में थोड़ा कर्जा लाओ ताकि कुछ दिन और मजे से रहें फ़िर कायदे से दीवालिया हों।
- ऊंचे-ऊंचे मकान किसी खड़खड़े में लादे लाते भारत और किराये पर उठा देते यहां। बेंच देते। न जाने कित्ते लोग यहां मकान की तलाश में हैं।
- कारों की असेम्बली लाइन उखाड़ के ले आते यहां और जहां जगह मिलती वहां जमाकर कारपार्किंग बना लेते और पैसा पीटते।
- पार्क जिनका रखरखाव नहीं कर पा रहे हैं वो भी लाकर पटक देते यहां। सबमें मंदिर बन जाते, तबेले चलने लगते। सबसे थोड़ा-थोड़ा पैसा मिलता। कुछ तो काम चलता।
- भारत की कई जेलों में कैदियों के रहने की जगह नहीं है। कैदी कांजी हाउस में जानवरों की तरह ठुसे रहते हैं। डेट्रॉएट अपनी इमारतों को जेलों में बदल भारत को किराये में देने का प्रस्ताव दे सकता था। वहां वी.आई.पी. कैदी रखे जा सकते थे।
- भारत के तमाम मेट्रोपॉलिटन शहरों में इंटरनेशनल स्कूल हैं लेकिन उनमें खेल के मैदान नहीं हैं। डेट्रॉएट अपनी तमाम फ़ालतू इमारतों को गिराकर समतल करके मैदान ऐसे अंतर्राष्ट्रीय स्कूलों को बेंच सकता है। इंटरनेशनल स्कूल वाले वीकेंड में अपने बच्चों को अमेरिका के डेटॉएट के मैदान में ले जाकर खिलाते। हवाई किराये के पैसे बच्चों के अभिभावकों से ऐंठते।
- हर दीवालिया कंपनी का मालिक ’कैसे बरबाद हुये हम’ टाइप की किताबें लिखता। किताबें बेस्ट सेलर साबित होतीं। बाद में जुगाड़ लगाकर नोबल-ऑस्कर झटक लेते। कुछ दिन रोजी-रोटी चलती।
- करने को तो डेट्रॉएट यह भी कर सकता था कि अपने को स्विटजरलैंड में शामिल कर लेता। उसके बाद दुनिया भर के अपराधियों को अपने यहां रहने की सुविधा मुहैया कराता। खूब किराया मिलता। काले धन को रखने की अपनी अच्छी इमेज के चलते दुनिया भर के अपराधी टूट पड़ते अपना कमरा बुक कराने के लिये।
- निर्मल बाबा के यहां जाना चाहिये थे मेयर को। वो कोई उपाय बताते कि किस रंग की गाय को कित्ती पूड़ी खिलाने से किरपा होगी। शहर के दिन बहुर जाते।
Posted in बस यूं ही | 16 Responses
मजा आ गया! सझाव जबर्दस्त हैं! लेकिन ईश्वर करे ये सुझाव उन तक ना पहुंचें, और ये शहर खंडहर होकर रहे!!
क्यों? क्योंकि हमारे यहाँ तो इतिहास ही ऐसे खंडहर बन चुके शहरों से भरा पड़ा है! आई मीन, वर्तमान खंडहरों से और इतिहास उन रौनक भर डेट्रायट के भारतीय संस्करणों से!
मजा आ रहा है, ह्मारे साथ तो हजारों सालों से हुआ, अब गुरू तुम भी लो मजा!
हितेन्द्र अनंत की हालिया प्रविष्टी..चुनावी पैरोडी: हम समर्थन करने वाले!
आशीष की हालिया प्रविष्टी..सौर मंडल की सीमा पर वायेजर 1? शायद हां शायद ना !
Gyandutt Pandey की हालिया प्रविष्टी..मन्दाकिनी नदी पर रोप-वे बनाने में सफल रही शैलेश की टीम
वैसे जो सुझाव आपने दिए हैं सारे के सारे बहुत शानदार हैं , कोई बस मान ले | वो बात ये भी है कि लोग हड़बड़ी में रहते हैं “फुरसतिएया” जी के पास आयें , तो फुरसत से सुझाव पायें | ये भागता-दौड़ता अमरीका नहीं समझेगा , सो इम्मेच्योर यू नो
वैसे देखने वाली बात ये भी होगी कि अमरीका इससे कैसे निकलता है !!!!
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..यूँ ही, ऐसे ही !!!
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..स्वयं से भागते, हम लोग
कट्टा कानपुरी असली वाले की हालिया प्रविष्टी..मिसरा,मतला,मक्ता,रदीफ़,काफिया,ने खुद्दारी की थी -सतीश सक्सेना
विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..बात करने का बहाना चाहिये तो प्रकृति सबसे अच्छा विषय है
वे अपने फंडिंग अपने आप करें , लोन लें अथवा किन सोर्से से पैसा कमायें और कहाँ खर्च करे वे खुद निर्णय लें , और संपन्न हों या दीवालिया उसे खुद भुगतें तो शायद आर्थिक उन्नयन के लिए भला ही होगा !
डेट्रॉइट की दीवालिया अवस्था, अमेरिका के अन्य राज्यों की ऑंखें खोलने के लिए काफी होगा !
कट्टा कानपुरी असली वाले की हालिया प्रविष्टी..मिसरा,मतला,मक्ता,रदीफ़,काफिया,ने खुद्दारी की थी -सतीश सक्सेना
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..खो गया बटुआ मिल गयी चिठ्ठी : कितनी मिठ्ठी
planned obsolescence, overconfidence, incompetence, protectionism जैसे शब्द दिमाग में आते हैं. वैसे डेट्रॉइट शहर और बंगाल में ज्यादा फरक नहीं है – एक पार्टी राज और यूनियंस ने शहर को बरबाद कर दिया.
eswami की हालिया प्रविष्टी..कटी-छँटी सी लिखा-ई
समीर लाल “टिप्पणीकार” की हालिया प्रविष्टी..पहाड़ के उस पार….इस बार मेरी आवाज़ में
इस नज़र से देखें तो भारत का कौन सा ऐसा प्रान्त है तो दीवालिया नहीं है। भारत आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक रूप से बहुत पहले दीवालिया हो चुका है, फर्क सिर्फ इतना है हमलोग कोढ़ पर मेकप लगाए बैठे हैं.… एक बात और हाथी मरे भी तो सवा लाख का होता है,
आपका सजेसन मान कर किराए पर दे तो दें भारत को वो अपने मकान-दूकान लेकिन किराया देवेगा कौन ???? क्योंकि हम तो कब्ज़ाने में माहिर हैं किराया देने में नहीं
Swapna Manjusha की हालिया प्रविष्टी..इक सानिहा…..!
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..इंजीनियर साहेब ‘भुट्टावाले’ (पटना १७)