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रुतबा दिखाने की मासूम ललक
By फ़ुरसतिया on September 11, 2013
कल
जबलपुर रेलवे स्टेशन पर धरपकड़ हुई। तमाम लोग बेटिकट पकड़े गये। जुर्माना
भरवाया गया। बेटिकट लोगों में एक डीएसपी और एक एसडीएम भी थे। एसडीएम के साथ
उनका गनमैन भी था- जैसे अमेरिका के साथ इंग्लैंड लगा रहता है। पकड़े जाने
पर गनमैन ने तो जुर्माना भर दिया लेकिन साहब ने सबको देख लेने की धमकी देते
हुये दौड़ लगा दी। सरपट निकल लिये। पुलिस वाले उनको पकड़ न पाये। डीएसपी
साहब ने पहले तो अपना रौब दिखाया लेकिन स्टाफ़ के न झुकने पर उन्होंने
तत्काल जुर्माना भरा और ये बोलते हुये चले गये कि सबको अपना रुतबा दिखाने का मौका ऊपर वाला जरूर देता है।
यात्रा में बेटिकट चलना तो खैर आम बात है। लेकिन जुर्माना वसूला जाना खास बात है। आपसी सहमति से लेन-देन हो जाने का चलन ज्यादा है। इससे दोनों पक्षों को आराम रहता है। जुर्माना वसूली में अमला लगता है। तमाम लोग चाहिये। लिखा पढ़ी होती है। हिसाब करना पड़ता है। समझाना पड़ता है। फ़िर खजाने में जमा करना पड़ता है। समय की बरबादी होती है। रुपये को कई जगह धक्के खाने पड़ते हैं। जुर्माना वसूली की इस बहुआयामी समस्या का सहज हल आपसी लेन-देन होता है। एक के हाथ का मैल दूसरे की जेब में चला जाता है। गंदगी (पैसे) का स्थानान्तरण दो लोगों तक ही सीमित रहता है।
इस जुर्माना कथा का अध्ययन करने पर कुछ और पहलू दिखते हैं। दिन भर चले इस जुर्माना यज्ञ में तमाम लोग पकड़े गये। लेकिन विस्तार से वर्णन डीएसपी और एसडीएम का ही हुआ। अखबार वाले की नजर भेदभाव पूर्ण है। यह नौकरशाही को बदनाम करने की साजिश है। उसका मनोबल गिराने का षडयंत्र है। उनकी सार्वजनिक निजता का उल्लंघन है।
यह एक तरह से आम जनता का भी अपमान है। बेटिकट चलने की बहादुरी आम आदमी ने भी दिखाई और खास आदमी ने भी। लेकिन चर्चा खास आदमी की हुई। आम आदमी का जिक्र गोल। मीडिया का यह रवैया भेदभाव पूर्ण है।
डीएसपी साहब के जुर्माना भरने और एसडीएम साहब के सरपट भाग लेने से यह पता चलता है पकड़े जाने पर पुलिस के अधिकारी कानून की ज्यादा इज्जत करते हैं। एसडीएम कानून अपने हाथ में लेकर फ़ूट लेते हैं।
पुलिस के सिपाही भागते एसडीएम को पकड़ न पाये इससे अंदाजा लगता है कि प्रशासन के लोग मौका पड़ने पर बहुत तेज काम करते हैं। एसडीएम साहब के भागने की खबर सुनकर रागदरबारी के सनीचर के भागने की बात याद आ गयी। साहब को तो खोजखाज कर सम्मानित करना चाहिये कि साहब होने के बावजूद वे इत्ती तेज भाग लेते हैं कि पुलिस वाले उनको पकड़ नहीं पाते।
रागदरबारी में ही “अफ़सर नुमा चपरासी और चपरासी नुमा” अफ़सर का जिक्र है। यहां डीएसपी और एसडीएम का जिक्र है। एसडीएम फ़ूट लिये। डीएसपी खड़े रहे। डीएसपी का काम दौड़ने-भागने का होता है। एसडीएम का कुर्सी तोड़ने का। दोनों ने अपने काम के स्वभाव के विपरीत आचरण किया। दौड़ने वाला खड़ा रहा, बैठने वाला फ़ूट लिया। मामला एसडीएम नुमा डीएसपी और डीएसपी नुमा एसडीएम सरीखा हो गया। इससे एक बार फ़िर से सिद्ध हुआ कि भारत की नौकरशाही अपना काम मन लगाकर करने की आदी नहीं।
डीएसपी के रुतबा दिखाने का मौका मिलने वाली बात से अपने यहां की नौकरशाही के मिजाज की झलक मिलती है। बेटिकट यात्रियों से बिना किसी से भेदभाव किये जुर्माना वसूलना यों तो रूटीन काम है लेकिन डीएसपी इसे रुतबा दिखाना समझता है। इससे पता चलता है कि अपने यहां कि नौकरशाही अपना रूटीन काम तभी करती है जब उसका रुतबा दिखाने का मन होता है। अपना काम करना मतलब रुतबा दिखाना।
इसी समय मुझे पिछले दिनों रेलवे बोर्ड के एक मेंबर द्वारा रेलमंत्री को घूस देते हुये पकड़े जाने का किस्सा याद आ गया। लोग बताते हैं कि मेम्बर को लपेटने वाले पुलिस अधिकारी पहले कभी मेम्बर के ही अधीन थे। आरपीएफ़ में। मेम्बर कभी उन पर रुतबा दिखाते थे। पुलिस अधिकारी ने कसम खायी थी कि वे भी कभी अपना रुतबा दिखायेंगे। जैसे कभी चाणक्य ने खायी होगी नंद वंश का नाश करने के लिये। बाद में वे पुलिस अधिकारी सीबीआई में आ गये। सीबीआई की पोस्ट उनके लिये चन्द्रगुप्त साबित हुई। मौका ताड़कर उन्होंने मेम्बर को रुतबा दिखा दिया। उनकी रेलवे बोर्ड की मेम्बरी का नाश कर दिया। चेयरमैन बनने के सपने का संहार कर दिया। मेम्बर अन्दर हो गये। उनके रुतबे की पारी समाप्त हो गयी। रेलवे बोर्ड के मेम्बर का घूस देते हुये पकड़ा जाना वास्तव में भारतीय नौकरशाही की ’रुतबा दिखाने की मासूम ललक’ का प्रदर्शन था।
इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत में नौकरशाही उत्ती निकम्मी नहीं है, जित्ता हल्ला मचता है। वास्तव में उसको अपना रुतबा दिखाने के मौके नहीं मिलते। रुतबे के सारे मौके जनप्रतिनिधि, माफ़िया, गुंडे , ठेकदार और मठाधीश लूट ले जाते हैं। वे बेचारे रुतबे के मौके के अभाव में दीन-हीन बने रहते हैं। पकड़े जाने पर रेलवे का जुर्माना तक भरना पड़ता है।
बहुत हुआ। अब दफ़्तर चलकर कुछ रुतबा दिखाने का जुगाड़ किया जाये।
यात्रा में बेटिकट चलना तो खैर आम बात है। लेकिन जुर्माना वसूला जाना खास बात है। आपसी सहमति से लेन-देन हो जाने का चलन ज्यादा है। इससे दोनों पक्षों को आराम रहता है। जुर्माना वसूली में अमला लगता है। तमाम लोग चाहिये। लिखा पढ़ी होती है। हिसाब करना पड़ता है। समझाना पड़ता है। फ़िर खजाने में जमा करना पड़ता है। समय की बरबादी होती है। रुपये को कई जगह धक्के खाने पड़ते हैं। जुर्माना वसूली की इस बहुआयामी समस्या का सहज हल आपसी लेन-देन होता है। एक के हाथ का मैल दूसरे की जेब में चला जाता है। गंदगी (पैसे) का स्थानान्तरण दो लोगों तक ही सीमित रहता है।
इस जुर्माना कथा का अध्ययन करने पर कुछ और पहलू दिखते हैं। दिन भर चले इस जुर्माना यज्ञ में तमाम लोग पकड़े गये। लेकिन विस्तार से वर्णन डीएसपी और एसडीएम का ही हुआ। अखबार वाले की नजर भेदभाव पूर्ण है। यह नौकरशाही को बदनाम करने की साजिश है। उसका मनोबल गिराने का षडयंत्र है। उनकी सार्वजनिक निजता का उल्लंघन है।
यह एक तरह से आम जनता का भी अपमान है। बेटिकट चलने की बहादुरी आम आदमी ने भी दिखाई और खास आदमी ने भी। लेकिन चर्चा खास आदमी की हुई। आम आदमी का जिक्र गोल। मीडिया का यह रवैया भेदभाव पूर्ण है।
डीएसपी साहब के जुर्माना भरने और एसडीएम साहब के सरपट भाग लेने से यह पता चलता है पकड़े जाने पर पुलिस के अधिकारी कानून की ज्यादा इज्जत करते हैं। एसडीएम कानून अपने हाथ में लेकर फ़ूट लेते हैं।
पुलिस के सिपाही भागते एसडीएम को पकड़ न पाये इससे अंदाजा लगता है कि प्रशासन के लोग मौका पड़ने पर बहुत तेज काम करते हैं। एसडीएम साहब के भागने की खबर सुनकर रागदरबारी के सनीचर के भागने की बात याद आ गयी। साहब को तो खोजखाज कर सम्मानित करना चाहिये कि साहब होने के बावजूद वे इत्ती तेज भाग लेते हैं कि पुलिस वाले उनको पकड़ नहीं पाते।
रागदरबारी में ही “अफ़सर नुमा चपरासी और चपरासी नुमा” अफ़सर का जिक्र है। यहां डीएसपी और एसडीएम का जिक्र है। एसडीएम फ़ूट लिये। डीएसपी खड़े रहे। डीएसपी का काम दौड़ने-भागने का होता है। एसडीएम का कुर्सी तोड़ने का। दोनों ने अपने काम के स्वभाव के विपरीत आचरण किया। दौड़ने वाला खड़ा रहा, बैठने वाला फ़ूट लिया। मामला एसडीएम नुमा डीएसपी और डीएसपी नुमा एसडीएम सरीखा हो गया। इससे एक बार फ़िर से सिद्ध हुआ कि भारत की नौकरशाही अपना काम मन लगाकर करने की आदी नहीं।
डीएसपी के रुतबा दिखाने का मौका मिलने वाली बात से अपने यहां की नौकरशाही के मिजाज की झलक मिलती है। बेटिकट यात्रियों से बिना किसी से भेदभाव किये जुर्माना वसूलना यों तो रूटीन काम है लेकिन डीएसपी इसे रुतबा दिखाना समझता है। इससे पता चलता है कि अपने यहां कि नौकरशाही अपना रूटीन काम तभी करती है जब उसका रुतबा दिखाने का मन होता है। अपना काम करना मतलब रुतबा दिखाना।
इसी समय मुझे पिछले दिनों रेलवे बोर्ड के एक मेंबर द्वारा रेलमंत्री को घूस देते हुये पकड़े जाने का किस्सा याद आ गया। लोग बताते हैं कि मेम्बर को लपेटने वाले पुलिस अधिकारी पहले कभी मेम्बर के ही अधीन थे। आरपीएफ़ में। मेम्बर कभी उन पर रुतबा दिखाते थे। पुलिस अधिकारी ने कसम खायी थी कि वे भी कभी अपना रुतबा दिखायेंगे। जैसे कभी चाणक्य ने खायी होगी नंद वंश का नाश करने के लिये। बाद में वे पुलिस अधिकारी सीबीआई में आ गये। सीबीआई की पोस्ट उनके लिये चन्द्रगुप्त साबित हुई। मौका ताड़कर उन्होंने मेम्बर को रुतबा दिखा दिया। उनकी रेलवे बोर्ड की मेम्बरी का नाश कर दिया। चेयरमैन बनने के सपने का संहार कर दिया। मेम्बर अन्दर हो गये। उनके रुतबे की पारी समाप्त हो गयी। रेलवे बोर्ड के मेम्बर का घूस देते हुये पकड़ा जाना वास्तव में भारतीय नौकरशाही की ’रुतबा दिखाने की मासूम ललक’ का प्रदर्शन था।
इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत में नौकरशाही उत्ती निकम्मी नहीं है, जित्ता हल्ला मचता है। वास्तव में उसको अपना रुतबा दिखाने के मौके नहीं मिलते। रुतबे के सारे मौके जनप्रतिनिधि, माफ़िया, गुंडे , ठेकदार और मठाधीश लूट ले जाते हैं। वे बेचारे रुतबे के मौके के अभाव में दीन-हीन बने रहते हैं। पकड़े जाने पर रेलवे का जुर्माना तक भरना पड़ता है।
बहुत हुआ। अब दफ़्तर चलकर कुछ रुतबा दिखाने का जुगाड़ किया जाये।
Posted in बस यूं ही | 16 Responses
प्रणाम.
अतिसुन्दर
बधाई
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