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ऐसे गुजरा पचासवां जन्मदिन
By फ़ुरसतिया on September 17, 2013
कल
हम पचास के हो गये। फ़ेसबुक, फ़ोन और मेल में झमाझम शुभकामनाओं की बारिश
हुई। जन्मदिन की शुरुआत तो खैर एक दिन पहले ही कानपुर में हो गयी।
पत्नीश्री हमको घसीटकर मॉल में ले गयीं। वे हमारे लिये कुछ उपहार लेना
चाहती थीं।अपने पैसे बचाने की मंशा से हम उनको मोतीझील में लगे पुस्तक मेले
में ले गये। फ़टाफ़ट किताबें छांटकर अपने ए.टी.एम. से भुगतान किया और घर में
आकर उनसे कहा ये उपहार तुम्हारी तरफ़ से हमारे लिये। देखियें किताबों के
नाम:
बहरहाल पत्नी जी अपनी मोतियों सरीखी सुन्दर लिखावट (यही कहा जाता है भाई और यह सच भी है) किताबों पर सप्रेम भेंट लिखा। एक में तो यह लिखा-
इसके बाद जबलपुर के लिये चल दिये। सोमवार के दिन दफ़्तर में कई काम के चलते वापस आ जाना पड़ा। ट्रेन में ही शुभकामनाओं की बौछार शुरु हुई जो जबलपुर पहुंचते-पहुंचते धुआंधार में बदल गयी। हाल ये हुआ कि पूरा दिन शुभकामनायें बटोरते बीता। शेर में कहा जाये तो:
जन्मदिन जैसे मौके ऐसे होते हैं जब आदमी थोड़ा भाऊक टाइप होकर सोचने लगता है और जीवन क्या जिया अब तक क्या किया वाली प्रश्नावली में उलझ जाता है। फ़िर हमारा तो मामला पचास का था। सौ साल अगर अलॉट होते हों तो दो आश्रमों और पचास-पचास के ’ब्रिटेनिया बिस्कुट’ जैसी स्थिति में खड़े होकर सोचा कि एक ठो और तुकबंदी ठेल दें जिसकी शुरुआत हो:
जन्मदिन के मौके का फ़ायदा उठाकर मैंने अपने एक दोस्त को मित्र भावुकता के पाले में घसीटकर अपने बारे में उनकी राय पूछी। अगला उछलकर भावुकता के पाले से बाहर हो गया और दार्शनिककता और दुनियादारी की देहरी पर खड़ा होकर कहा- हम अपने को जित्ता अच्छा बनाना चाहते हैं उसका अगर दस प्रतिशत भी बना सकें तो वही बहुत है। मतलब साफ़ कि अच्छी-अच्छी बातें बनाने से बेहतर है कि अच्छा बनने का सच्चा प्रयास किया जाये।
आश्रम के लिहाज से गृहस्थ से वानप्रस्थ में सरक गये। पिछले डेढ़ साल से घर से बाहर हैं तो इसके लिये कहा जा सकता है कि गृहस्थ आश्रम में अच्छी परफ़ार्मेन्स देखते हुये आश्रम प्रमोशन पहले हो गया? वापस गृहस्थी में लौटने के लिये छटपता रहे हैं जैसे छंटे हुये कर्मचारी नेता स्टॉफ़ का प्रमोशन ठुकराकर हमेशा कर्मचारी ही बने रहना चाहते हैं ताकि मजे करते रह सकें।
कल ही एक और मित्र का रात को फोन आया। बताया कि वो हमारा ब्लॉग पिछले तीन-चार सालों से पढ़ रहे हैं। कुछ पोस्टों को पढ़कर रो चुके हैं। कुछ से हौसला बंधा। तीन साल से बात करने की सोच रहे हैं लेकिन मारे संकोच के बात करने की हिम्मत न जुटा सके। जन्मदिन के मौके पर उनका बात करना अच्छा लगा। बहुत देर तक बातें हुईं। यह भी लगा कि सालों तक जुड़े रहने के बाद भी बातचीत के अभाव में हम आपस में एक दूसरे के बारे में कितना कम जानते हैं।
ऐसे तो कई मौकों पर घर से बाहर जन्मदिन मना। लेकिन कल शाम एकदम अकेले पन में बीता। यहां किसी को हवा ही नहीं थी कि हमारा जन्मदिन है। घर में होते तो अम्मा गुलगुले बनाती। पत्नीश्री जबरियन केक कटवाती। कुछ उपहार और जरूर ले आतीं। बच्चों के साथ अपन भी बच्चे बनते। आश्रम शिफ़्टिंग इतने चुपचाप तो नहीं ही होती। घर से दूर होने का एहसास कल कुछ ज्यादा ही हो गया।
जन्मदिन के मौके पर तमाम मित्रों, शुभचिन्तकों की शुभकामनायें और प्यार मिला। सबको घटनास्थल पर जैसा मिला जहां मिला के हिसाब से धन्यवाद और आभार देने का प्रयास कर रहा हूं। जिनको जबाब नहीं दे पाया किसी चूक के चलते उनको यहां खुले आम आभार दे रहा हूं। जो मित्र शुभकामनायें भेजने में चूक गये उनकी शुभकामनायें भी जबरिया ग्रहण करके उनके प्रति आभार प्रकट कर रहे हैं।
इति श्री जन्मदिन कथा।
आधा जीवन जब बीत गया
वनवासी सा गाते रोते,
अब पता चला इस दुनिया में,
सोने के हिरन नहीं होते।
संबध सभी ने तोड़ लिये,
चिंता ने कभी नहीं तोड़े,
सब हाथ जोड़ कर चले गये,
पीड़ा ने हाथ नहीं जोड़े।
सूनी घाटी में अपनी ही
प्रतिध्वनियों ने यों छला हमें,
हम समझ गये पाषाणों में,
वाणी,मन,नयन नहीं होते।
मंदिर-मंदिर भटके लेकर
खंडित विश्वासों के टुकड़े,
उसने ही हाथ जलाये-जिस
प्रतिमा के चरण युगल पकड़े।
जग जो कहना चाहे कहले
अविरल द्रग जल धारा बह ले,
पर जले हुये इन हाथों से
हमसे अब हवन नहीं होते।
–कन्हैयालाल बाजपेयी
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- चोर का रोजनामचा-ज्यॉं जेने
बहरहाल पत्नी जी अपनी मोतियों सरीखी सुन्दर लिखावट (यही कहा जाता है भाई और यह सच भी है) किताबों पर सप्रेम भेंट लिखा। एक में तो यह लिखा-
ऐसे ही निरन्तर लिखते रहो।इसको हमने सहेज के धर लिया है। कभी समय बरबादी के लिये टोके जायेंगे तो कह देंगे कि -तुम्ही ने कहा था निरन्तर लिखने को।
इसके बाद जबलपुर के लिये चल दिये। सोमवार के दिन दफ़्तर में कई काम के चलते वापस आ जाना पड़ा। ट्रेन में ही शुभकामनाओं की बौछार शुरु हुई जो जबलपुर पहुंचते-पहुंचते धुआंधार में बदल गयी। हाल ये हुआ कि पूरा दिन शुभकामनायें बटोरते बीता। शेर में कहा जाये तो:
जन्मदिन के लिये मिला था बस एक दिन यार,संस्कारधानी लौटते ही ’कट्टा कानपुरी’ की आत्मा सवार हो गयी। ’कट्टा कानपुरी’ ने ये चिरकुट सी तुकबंदी एक पुर्जे में घसीटकर थमा दी कि ये डालो फ़ेसबुक पर:
आधा संदेसे बांचते बीता, आधा फ़ोन पर बात करते।
हुये पचास के अपन आज,ये तुकबंदी बांचकर कुछ लोगों ने अपने भी हाथ भी साफ़ कर लिये। कविता कब्ज से मुक्त हुये। लेकिन हमारी कालेज की सहपाठिन रहीं श्रीमती ज्योति शुक्ला ने हड़काते हुये लिखा- विनम्रता की भी हद होती है। जन्मदिन पर लिखी कविता अच्छी है लेकिन सच्ची नहीं। उनके हिसाब से हम अपनी तुकबंदी में विनम्रता की हद पार कर गये। और झूठी कविता लिखी। लेकिन हमारा कहना है कि भाई विनम्रता पर कब तक गुंडों, माफ़िया और जनसेवकों का कब्जा बना रहेगा। आम आदमी का भी तो कुछ हक बनता है न विनम्रता पर। और अगर कविता सच्ची नहीं तो वो तो मेरी ही बात की पुष्टि है- दोस्त बताते -पक्का लफ़्फ़ाज।
रहे चकरघिन्नी से नाच। गंगा-नर्मदा के बीच फ़ंसे हैं,
’चित्रकूट’ बनाती बिगड़े काज।
हाफ़ संचुरी तो निकल गयी,
किया न कोई काम न काज।
घरवाले कहते हैं ऐसे ही हैं जी,
दोस्त बताते -पक्का लफ़्फ़ाज।
दफ़्तर में क्या बोलेगा कोई,
साहब न हो जायें नाराज।
अब खुदई कुछ देखेंगे जी ,
नवका कौन बजेगा साज ।
शुभकामनायें भेजी हैं सबने,
हैं आभारी हम बहुतै आज।
-कट्टा कानपुरी
जन्मदिन जैसे मौके ऐसे होते हैं जब आदमी थोड़ा भाऊक टाइप होकर सोचने लगता है और जीवन क्या जिया अब तक क्या किया वाली प्रश्नावली में उलझ जाता है। फ़िर हमारा तो मामला पचास का था। सौ साल अगर अलॉट होते हों तो दो आश्रमों और पचास-पचास के ’ब्रिटेनिया बिस्कुट’ जैसी स्थिति में खड़े होकर सोचा कि एक ठो और तुकबंदी ठेल दें जिसकी शुरुआत हो:
खाक जिया, बर्बाद किया,लेकिन ’कट्टा कानपुरी’ ने इस तुकबंदी पर लिखने से इंकार कर दिया यह कहते हुये कि एक तुकबंदी बहुत है तुम्हारे लिये। ज्यादा से दिमाग में गैस भर जायेगी। अपने को खास समझने लगोगे।
घंटा जिया बस टंटा किया।
जन्मदिन के मौके का फ़ायदा उठाकर मैंने अपने एक दोस्त को मित्र भावुकता के पाले में घसीटकर अपने बारे में उनकी राय पूछी। अगला उछलकर भावुकता के पाले से बाहर हो गया और दार्शनिककता और दुनियादारी की देहरी पर खड़ा होकर कहा- हम अपने को जित्ता अच्छा बनाना चाहते हैं उसका अगर दस प्रतिशत भी बना सकें तो वही बहुत है। मतलब साफ़ कि अच्छी-अच्छी बातें बनाने से बेहतर है कि अच्छा बनने का सच्चा प्रयास किया जाये।
आश्रम के लिहाज से गृहस्थ से वानप्रस्थ में सरक गये। पिछले डेढ़ साल से घर से बाहर हैं तो इसके लिये कहा जा सकता है कि गृहस्थ आश्रम में अच्छी परफ़ार्मेन्स देखते हुये आश्रम प्रमोशन पहले हो गया? वापस गृहस्थी में लौटने के लिये छटपता रहे हैं जैसे छंटे हुये कर्मचारी नेता स्टॉफ़ का प्रमोशन ठुकराकर हमेशा कर्मचारी ही बने रहना चाहते हैं ताकि मजे करते रह सकें।
कल ही एक और मित्र का रात को फोन आया। बताया कि वो हमारा ब्लॉग पिछले तीन-चार सालों से पढ़ रहे हैं। कुछ पोस्टों को पढ़कर रो चुके हैं। कुछ से हौसला बंधा। तीन साल से बात करने की सोच रहे हैं लेकिन मारे संकोच के बात करने की हिम्मत न जुटा सके। जन्मदिन के मौके पर उनका बात करना अच्छा लगा। बहुत देर तक बातें हुईं। यह भी लगा कि सालों तक जुड़े रहने के बाद भी बातचीत के अभाव में हम आपस में एक दूसरे के बारे में कितना कम जानते हैं।
ऐसे तो कई मौकों पर घर से बाहर जन्मदिन मना। लेकिन कल शाम एकदम अकेले पन में बीता। यहां किसी को हवा ही नहीं थी कि हमारा जन्मदिन है। घर में होते तो अम्मा गुलगुले बनाती। पत्नीश्री जबरियन केक कटवाती। कुछ उपहार और जरूर ले आतीं। बच्चों के साथ अपन भी बच्चे बनते। आश्रम शिफ़्टिंग इतने चुपचाप तो नहीं ही होती। घर से दूर होने का एहसास कल कुछ ज्यादा ही हो गया।
जन्मदिन के मौके पर तमाम मित्रों, शुभचिन्तकों की शुभकामनायें और प्यार मिला। सबको घटनास्थल पर जैसा मिला जहां मिला के हिसाब से धन्यवाद और आभार देने का प्रयास कर रहा हूं। जिनको जबाब नहीं दे पाया किसी चूक के चलते उनको यहां खुले आम आभार दे रहा हूं। जो मित्र शुभकामनायें भेजने में चूक गये उनकी शुभकामनायें भी जबरिया ग्रहण करके उनके प्रति आभार प्रकट कर रहे हैं।
इति श्री जन्मदिन कथा।
मेरी पसन्द
आधा जीवन जब बीत गया
वनवासी सा गाते रोते,
अब पता चला इस दुनिया में,
सोने के हिरन नहीं होते।
संबध सभी ने तोड़ लिये,
चिंता ने कभी नहीं तोड़े,
सब हाथ जोड़ कर चले गये,
पीड़ा ने हाथ नहीं जोड़े।
सूनी घाटी में अपनी ही
प्रतिध्वनियों ने यों छला हमें,
हम समझ गये पाषाणों में,
वाणी,मन,नयन नहीं होते।
मंदिर-मंदिर भटके लेकर
खंडित विश्वासों के टुकड़े,
उसने ही हाथ जलाये-जिस
प्रतिमा के चरण युगल पकड़े।
जग जो कहना चाहे कहले
अविरल द्रग जल धारा बह ले,
पर जले हुये इन हाथों से
हमसे अब हवन नहीं होते।
–कन्हैयालाल बाजपेयी
Posted in बस यूं ही | 13 Responses
सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..हाय द्रवित मन मेरा कहता, काश साथ तुम मेरे होतीं -सतीश सक्सेना
पोस्ट हँसी-हँसी में ………. सेंटी करनेवाला है……..
दुसरे वाले ‘कट्टा-शेर’ पूरे हों बब्बर शेर के तरह…………
आपकी पसंद ……….. खूब पसंद आया………
प्रणाम.
वैसे, पचासवां हो या इक्यावनवां, कउनो फर्क नहीं है – काहे कि हम पचासवां इक्यावनवां तो दो तीन साल पहले ही निपटा चुके हैं!
रवि की हालिया प्रविष्टी..सॉफ़्टवेयर स्थानीयकरण में मानक लाने के लिए FUEL के बढ़ते कदम
पंछी की हालिया प्रविष्टी..Poem on Positive Attitude in Hindi
हंसी हंसी में बहुत कुछ सार्थक पढ़ने को मिला आभार !
धन्यवाद!
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..एप्पल – एक और दिशा निर्धारण
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..संयोग