पिछले हफ़्ते बिहार के एक स्कूल में मैट्रिक के इम्तहान में नकल की खबरें चर्चा में रहीं। नकल , शिक्षा व्यवस्था , समाज में बढ़ती नकल प्रवृत्ति पर बहुत बातें हुयीं। जब भारत विश्वकप के सेमी फ़ाइनल में पहुंच गया है उसके जश्न में डूबने की बजाय परीक्षा में नकल का हल्ला मचाना देश विरोधी हरकत नहीं तो क्या है ?
नकल किसी इम्तहान में में पास होने की सहज सामाजिक इच्छा का अपरिहार्य परिणाम है। लेकिन कुछ बच्चे मिशनरी नकलची होते हैं। 'मिशनरी नकलची' आते हुये प्रश्न का उत्तर भी तब तक नहीं लिखता जब तक उसकी पुर्ची न मिल जाए। ज्ञान के झांसे में वह पुर्ची का अपमान नहीं करता। वहीं कुछ पढ़ाकू विद्यार्थी नकल न करते हुये भी नकल दस्तों से उसी तरह डरे रहते हैं जैसे कुछ बेगुनाह लोग दहेज कानून और हरिजन एक्ट से सहमे रहते हैं।
नकल को एक बुराई के रूप में देखने वालों को समझना चाहिये कि नकल करके पास होने से कौन किसी को नौकरी मिल जाती है। बस देश का शिक्षा प्रतिशत बढ़ता है। नकल करने वाले खुद बुरे बनकर देश की इज्जत बचाते हैं। नौकरी न मिलने पर , नकल करके पास हुये बच्चों में बिना नकल पास हुये बच्चों के मुकाबले आक्रोश कम होता है। नकल देश के औसत आक्रोश को घटाती है।नकल करने वाले बच्चे वास्तव में अपने उन तमाम गुरुओं की इज्जत बजाते हैं जो बच्चों को पढ़ाने के लिये समय ही नहीं निकाल पाते।
अपने देश की तमाम नीतियां इधर-उधर की नकल करके बनती हैं, रिपोर्ट कापी पेस्ट होती हैं। ऐसे में नकल करने वाले बच्चों पर हंसना उचित नहीं लगता।नकल करने वाले बच्चे किताबें नहीं खरीदते। गेस पेपर्स और पुर्ची से काम चलाते हैं। वे कागज की बर्बादी बचाने वाले पर्यावरण प्रेमी होते हैं।फ़िल्म ’गजनी’ में नायक अपने पूरे शरीर को ’नकल- पर्ची’ की तरह इस्तेमाल करता है। बच्चे गजनी के हीरो जैसा बनने की कोशिश में बदनाम हो जाते हैं।
अगर सरकार सही में नकल रोकना चाहती है तो वह विद्यार्थी के खाते में 33% नम्बर सब्सिडी के रूप में सीधे भेज दे तो इम्तहान में नकल का प्रतिशत धड़ाम से नीचे आ जाएगा।नकल रोकने के लिए शिक्षा मंत्री को ब्यान देना चाहिए-"नंबरों के अभाव कोई बच्चा फेल नहीं होगा।जरूरत पड़ी तो नम्बरों का आयात किया जाएगा।" नकल रोकने का एक विकल्प यह हो सकता है कि बच्चों को जो भी आता है वह उनसे लिखा लिया जाए इसके बाद लिखे के हिसाब से प्रश्न बनवाकर नम्बर मिलें।
नकल किसी इम्तहान में में पास होने की सहज सामाजिक इच्छा का अपरिहार्य परिणाम है। लेकिन कुछ बच्चे मिशनरी नकलची होते हैं। 'मिशनरी नकलची' आते हुये प्रश्न का उत्तर भी तब तक नहीं लिखता जब तक उसकी पुर्ची न मिल जाए। ज्ञान के झांसे में वह पुर्ची का अपमान नहीं करता। वहीं कुछ पढ़ाकू विद्यार्थी नकल न करते हुये भी नकल दस्तों से उसी तरह डरे रहते हैं जैसे कुछ बेगुनाह लोग दहेज कानून और हरिजन एक्ट से सहमे रहते हैं।
नकल को एक बुराई के रूप में देखने वालों को समझना चाहिये कि नकल करके पास होने से कौन किसी को नौकरी मिल जाती है। बस देश का शिक्षा प्रतिशत बढ़ता है। नकल करने वाले खुद बुरे बनकर देश की इज्जत बचाते हैं। नौकरी न मिलने पर , नकल करके पास हुये बच्चों में बिना नकल पास हुये बच्चों के मुकाबले आक्रोश कम होता है। नकल देश के औसत आक्रोश को घटाती है।नकल करने वाले बच्चे वास्तव में अपने उन तमाम गुरुओं की इज्जत बजाते हैं जो बच्चों को पढ़ाने के लिये समय ही नहीं निकाल पाते।
अपने देश की तमाम नीतियां इधर-उधर की नकल करके बनती हैं, रिपोर्ट कापी पेस्ट होती हैं। ऐसे में नकल करने वाले बच्चों पर हंसना उचित नहीं लगता।नकल करने वाले बच्चे किताबें नहीं खरीदते। गेस पेपर्स और पुर्ची से काम चलाते हैं। वे कागज की बर्बादी बचाने वाले पर्यावरण प्रेमी होते हैं।फ़िल्म ’गजनी’ में नायक अपने पूरे शरीर को ’नकल- पर्ची’ की तरह इस्तेमाल करता है। बच्चे गजनी के हीरो जैसा बनने की कोशिश में बदनाम हो जाते हैं।
अगर सरकार सही में नकल रोकना चाहती है तो वह विद्यार्थी के खाते में 33% नम्बर सब्सिडी के रूप में सीधे भेज दे तो इम्तहान में नकल का प्रतिशत धड़ाम से नीचे आ जाएगा।नकल रोकने के लिए शिक्षा मंत्री को ब्यान देना चाहिए-"नंबरों के अभाव कोई बच्चा फेल नहीं होगा।जरूरत पड़ी तो नम्बरों का आयात किया जाएगा।" नकल रोकने का एक विकल्प यह हो सकता है कि बच्चों को जो भी आता है वह उनसे लिखा लिया जाए इसके बाद लिखे के हिसाब से प्रश्न बनवाकर नम्बर मिलें।