कोदो सवा जुरतो भरि पेट जो
चाहत न दधि दूध मिठौती।
यह सुदामा द्वापर में अपने हाल बताते हुए कहते हैं। फिर कृष्ण के पास सहायता मांगने जाते हैं। आज मुलाकात हुई इमरत से जो डिंडौरी से आये हैं जबलपुर मजूरी के लिए। गांव में जमीन पथरीली है।कोदो सवां थोड़ा होता है। लेकिन गुजारा नहीं होता इसलिए मंजूरी करने जबलपुर आते हैं।
ऊंचाई पर स्थित मन्दिर के नीचे अनेक परिवार शरण पाये हैं। लोग अलग अलग जगह से मजूरी करने आते हैं। कोई अकेले आता है कोई परिवार सहित। कोई 15 दिन,कोई महीना और कोई और भी दिन मजूरी करता है। फिर घर लौट जाता है। कुछ दिन बाद फिर आता है। मजूरी कभी मिलती है कभी नहीं मिलती है।
यह जगह शोभापुर रेलवे क्रासिंग के पास है। एक ओवर ब्रिज बन रहा है यहां। तीन साल हमको हुए इसको बनते देखते। अभी बन ही रहा है। ओवरब्रिज रुप्पन बाबू हो गया (रुप्पन बाबू को पढ़ने और खासकर कक्षा 9 में पढ़ने का शौक है इसलिए पिछले तीन साल से कक्षा 9 में पढ़ रहे हैं-- रागदरबारी) जिसको बनने और बनते रहने का ही शौक है।पूरा होना इसकी शान के खिलाफ है।
इमरत पत्नी के साथ आये हैं मजूरी के लिए। बच्चे घर में हैं।बेरोजगार हैं।हम कहते हैं -'अच्छा नाम है इमरत।' इस पर वो कहते हैं-'नाम तो सब अच्छे होते हैं लेकिन किस्मत ख़राब है तो कोई क्या करे।'
सुबह हुई है। इमरत प्लास्टिक का दस लीटर वाला डब्बा लिए पानी की तलाश में निकले हैं। हैण्डपम्प से पानी भरेंगे फिर दिन शुरू करेंगे।इमरत की तरह अनगिनत लोग अपना अपना घर छोड़कर परदेश में कमाई के लिए टिके हैं। वो भी सोचते होंगे घर में कमाने खाने का जुगाड़ होता तो काहे को यहां पड़े होते।
अभी तो सामान्य काम काज हो रहा है तब कुछ ही लोग आये हैं काम के लिए। जब जबलपुर कभी स्मार्टसिटी बनेगा तो पूरे प्रदेश से कामगारों की फ़ौज घरबार छोड़कर लिए प्लास्टिक का डब्बा शहर में घूमती दिखेगी।
आगे आधारताल इंडस्ट्रियल एरिया के पास एक चाय की गुमटी पर चाय पी। अखबार में किसी जगह डकैती की खबर है। एक आदमी उसका जिक्र करके बताता है -'ये अच्छा काम हुआ।' हमने पूछा -'क्या अच्छा हुआ?' इस पर वह तीन-चार जगह पड़ी डकैती के बारे में बताता है-'ये डकैत लोग यहां के नहीं हैं। बाहर के आये लगते हैं। भोजपुरी बोलते हैं।' हमने कहा तो इसमें अच्छा क्या है? लेकिन तब तक वह चाय पीकर चला गया।शायद कुछ और कहना चाहता होगा लेकिन 'अच्छा' निकल गया मुंह से। लेकिन निकल गया तो निकल गया। वो कोई किसी टीवी का समाचार पढ़ने वाला तो है नहीं जिसे एक गलत उच्चारण पर नौकरी से निकाल दिया जाय।
डकैती की बात पर चाय वाले ने अपना बयान जारी किया-'सब पैसे वालों के लौंडे हैं। खर्च की आदत पड़ जाती है। बाप जब रहते नहीं तो लूटपाट में लग जाते हैं।'
चाय की दूकान वाले की चाय आसपास के कारखानों में जाती है। कोई मालिक कर्मचारियों को एक बार पिलाता है,कोई दो बार। कोई तीन बार भी। पैसे हफ्ते ,पन्द्रह दिन में जब चाहो मिल जाते हैं।चाय की दुकान से खर्च चल जाता है।
फ़ोटो खींचते हैं। दिखाते हैं तो दूकान पर ग्लास धोने वाले मूलचन्द खुश होकर कहते हैं- 'अच्ची है।' तुतलाते हैं। दुकानवाले को दिखाकर कहते हैं-'तैमरा दस हजार का होदा।' सब हंसते हैं। हम उनसे बात करते हैं तो बिना पूछे बताते हैं- '150 लुपया मिलता है। थाना तपड़ा भी।' एक आदमी जोड़ता है-'सोने के लिए तखत भी तो बताओ।'
दूकान पर खड़ी महिला बताती है कि दिमाग कमजोर है इसका। 40 साल उम्र है। अकेला है। यही रहता है।
कमजोर दिमाग का मूलचन्द ने जो भी बात की उसमें पैसा सबसे पहले था। दस हजार का कैमरा, 150 रूपये रोज। इससे क्या निष्कर्ष निकालें? वह भले ही दिमाग से कमजोर है लेकिन मतलब की बात समझता है या फिर यह की कमजोर दिमाग के लोगों के लिए पैसा ही सबसे अहम होता है।
सवा आठ बज गया। फैक्ट्री का समय हो गया। चलें। आप मजे करो। आपका दिन शुभ हो।
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