सबेरे
के सात बजने वाले हैं। जबलपुर में होते तो अब तक किसी चाय की दूकान पर 5
रूपये खरच दिए होते। लेकिन आज तो घर जाने के लिए ट्रेन में बैठे हैं। चाय
नसीब न हुई अब तक।
ट्रेन खरामा खरामा दुलकी चाल से चल रही है। ट्रैक पर चलती रेल ऐसे लग रही है मानो किसी बहुत बड़े स्वीमिंग पूल में कोई तैराक अपनी लेन में तैरता आगे जा रहा हो। आगे जाता तैराक पानी को पीछे धकेलता जाता है। ट्रेन भी पटरी पर उचकती- तैरती आगे बढ़ती हुई अपने अगल-बगल की जमीन को पीछे धकेलती जा रही है। ट्रेन आगे बढ़ रही है। जमीन पीछे छूट रही है।
अत: सिध्द हुआ कि आगे की तरफ बढ़ता व्यक्ति अपने साथ के लोगों को पीछे छोड़ता जाता है। दोनों की बिछुड़ने की गति आगे बढ़ते व्यक्ति की बढ़ने की गति और ललक के समानुपाती होती है।
जहां हमने बिछुड़ने की बात लिखी ट्रेन पतारा स्टेशन पर खड़ी हो गयी। स्टेशन की इमारत पर सौर ऊर्जा के पैनल लगे हैं। एक क्रम में 30-35 डिग्री पर झुके हुए। मंगते को झुकना ही पड़ता है भाई! सूरज भाई जब आते होंगे तो इन पैनलों को अपने सम्मान में बिछे देखकर कर करोड़-दो करोड़, अरब- खरब फोटान मुट्टी में लेकर इनकी तरफ उछाल देते होंगे। सोलर पैनल राजा बेटा की तरह सारे फोटान बिजली बनाने के लिए जमा कर देते होंगे। जो बिजली बनती होगी उससे कमरा रोशन होता होगा। उस समय सोलर पैनल सो जाते होंगे। सुबह फिर सूरज की अगवानी में करने के लिए। रौशनी बटोरने के लिए।
बाहर खेत सब गंजे खड़े हैं। फसल कट गयी है। सफाचट मैदान में किसी खेत में खड़ी फसल और इक्के दुक्के पेड़ ऐसे लग रहे हैं कि किसी घिसे हुए रेजर से दाढ़ी बनाने के बाद चेहरे पर जगह- जगह कुछ छूट ही जाता है।
सूरज भाई अभी दिखे नहीं हैं। पूंछेंगे तो कहेंगे कि भाई जी जबलपुर में ही तो हैं। उनका क्या पता कि अपन इस समय कानपुर की तरफ पतारा रोड पार कर रहे हैं। कोई नहीं दुनिया भर में तो ड्यूटी करते हैं। जरुरी थोड़ी कि हर समय हमको दिखें ही। सूरज कोई 'कामकाहिल' थोड़ी है जो कि हर समय दांत चियारता 'बॉस परिक्रमा' करता रहता है।
सूरज भाई भले न दिखें लेकिन उनकी बच्चियां मुस्कराते हुए बादलों की ओट से दिख रहीं हैं। वे पक्का बादलों से निकलने वाली बूंदों की खोज में हैं। जैसे ही बूंदे आसमान से जमीन की ओर चलेंगीं , किरणें उन बूंदों पर सवार हो जाएंगी। 'चल मोरी बुंदिया टिक - टिक' कहते हुए पूरे आसमान में सवारी करेंगी बूंदों पर। खुश होकर अपना सफेद ऊपरी कपड़ा उतार कर फेंक देंगी और अपना सतरंगा परिधान सबको दिखाएंगी।बूंदों के साथ मिलकर इंद्रधनुष बनाएंगी। इंद्रधनुष उनकी इच्छाओं का आईना है। इसीलिए मोहक दीखता है। खूबसूरत लगता है।
रास्ते में एक तालाब दिखा। किनारे मकान और पेड़। तालाब में जमा पानी किसी कम आमदनी वाले परिवार की बचत सा प्यारा लग रहा है। जरा सा पैसा बचते ही जैसे हम लोग इठलाते हुए तमाम तरह की मनोरम इच्छाएं इठलाने लगती हैं वैसे ही तालाब के सीने पर लहरें इठला रही हैं । तालाब में ही पंत जी का नौका विहार याद आ गया:
भीमसेन स्टेशन पर गाड़ी रुकी। दूर खड़े एक चाय वाले को आवाज देकर बुलाया-चाय,चाय। चाय वाला आया नहीं। देखा तक नहीं मेरी ओर उसने। कैसे सुनता? उसका नाम चाय थोड़ी होगा। चायवाले का नाम कभी चाय नहीं होता। लेकिन दूर होने पर बुलाते उसको हम चाय के ही नाम से हैं। जैसे आदमी कोई वोट बैंक थोड़ी होता है। लेकिन दूर से लोग उसको वोट बैंक कहकर ही बुलाते हैं। उसी तरह बरतते हैं। जैसे बैंक में पैसे का इंवेस्टमेंट करते हैं वैसे ही वोट बैंक को भी इधर-उधर लगाते,लड़ाते-भिड़ाते हैं लोग।
कानपुर आने वाला है। पटरी किनारे की झपड़ियों में जिंदगी का अतिक्रमण दिखने लगा है। एक बच्ची पतंग उडा रही है। एक घर के सामने खड़े रिक्शे की सीट पर दो बच्चे बैठे कुछ खेल रहे हैं। कुछ बच्चे पटरी के पास से गुजरती रेल को कौतुक से देख रहे हैं।
एक चारपाई पर बैठी औरत अपना सर खुजलाते हुए उबासी लेते ट्रेन को अपनी बिटिया (जिसकी आँख में शायद कौतुक हो )के साथ ताक रही है। उसी चारपाई सामने टांग पर टांग धरे लड़का 'सोचासन' करता लेटा है। पीछे हथेली पर सुर्ती फटकते बैठा आदमी साथ के आदमी से बतिया रहा है।
गाडी जूही डिपो पार कर गयीं। जूही में सुना है आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी रहते थे। पटरी के किनारे सीमेंट के स्लीपर पर उकडू बैठे तमाम बच्चे 'जहां सोच वहीं शौचालय' को अपना पिछवाड़ा दिखाते हुए ठाठ से निपट रहे थे। वैसे भी वह विज्ञापन लड़कियों के लिए है। लड़कों पर लागू नहीं होता तो अमल कैसा।
गोविन्दपुरी स्टेशन पर गाडी रुकने के पहले चार्जर और चश्मा सहेजा। फिर आदतन नीचे उतरकर 'चार्जर छूट तो नहीं गया' सोचते हुये बैग की जामा तलाशी ली। बैग ने गुस्सा होकर कुछ सामान बाहर फेंक दिया। सबको और खुद को समेटकर बाहर आये।
सीढ़ी पर ही परिचित ऑटो वाले भाई मिल गए। कानपुर आते ही ख़ुशी हुई। बताये की 56 वर्ग गज की आवास विकास से मिली जमीन पर 5 लाख खर्च करके मकान बनवाये हैं।
पता चला कि अभी तक पानी नहीं बरसा। हम अबभी बोलते हैं इंद्र देव को और फोन करते हैं -बरखा रानी जरा जम के बरसो।
घर पहुंचते ही चाय पानी के साथ घर इंतजार करता मिला। जिस किसी ने यह कहा होगा वह अपने घर में ही बैठकर कहा होगा:
फ़ेसबुकिया टिप्पणियां:
ट्रेन खरामा खरामा दुलकी चाल से चल रही है। ट्रैक पर चलती रेल ऐसे लग रही है मानो किसी बहुत बड़े स्वीमिंग पूल में कोई तैराक अपनी लेन में तैरता आगे जा रहा हो। आगे जाता तैराक पानी को पीछे धकेलता जाता है। ट्रेन भी पटरी पर उचकती- तैरती आगे बढ़ती हुई अपने अगल-बगल की जमीन को पीछे धकेलती जा रही है। ट्रेन आगे बढ़ रही है। जमीन पीछे छूट रही है।
अत: सिध्द हुआ कि आगे की तरफ बढ़ता व्यक्ति अपने साथ के लोगों को पीछे छोड़ता जाता है। दोनों की बिछुड़ने की गति आगे बढ़ते व्यक्ति की बढ़ने की गति और ललक के समानुपाती होती है।
जहां हमने बिछुड़ने की बात लिखी ट्रेन पतारा स्टेशन पर खड़ी हो गयी। स्टेशन की इमारत पर सौर ऊर्जा के पैनल लगे हैं। एक क्रम में 30-35 डिग्री पर झुके हुए। मंगते को झुकना ही पड़ता है भाई! सूरज भाई जब आते होंगे तो इन पैनलों को अपने सम्मान में बिछे देखकर कर करोड़-दो करोड़, अरब- खरब फोटान मुट्टी में लेकर इनकी तरफ उछाल देते होंगे। सोलर पैनल राजा बेटा की तरह सारे फोटान बिजली बनाने के लिए जमा कर देते होंगे। जो बिजली बनती होगी उससे कमरा रोशन होता होगा। उस समय सोलर पैनल सो जाते होंगे। सुबह फिर सूरज की अगवानी में करने के लिए। रौशनी बटोरने के लिए।
बाहर खेत सब गंजे खड़े हैं। फसल कट गयी है। सफाचट मैदान में किसी खेत में खड़ी फसल और इक्के दुक्के पेड़ ऐसे लग रहे हैं कि किसी घिसे हुए रेजर से दाढ़ी बनाने के बाद चेहरे पर जगह- जगह कुछ छूट ही जाता है।
सूरज भाई अभी दिखे नहीं हैं। पूंछेंगे तो कहेंगे कि भाई जी जबलपुर में ही तो हैं। उनका क्या पता कि अपन इस समय कानपुर की तरफ पतारा रोड पार कर रहे हैं। कोई नहीं दुनिया भर में तो ड्यूटी करते हैं। जरुरी थोड़ी कि हर समय हमको दिखें ही। सूरज कोई 'कामकाहिल' थोड़ी है जो कि हर समय दांत चियारता 'बॉस परिक्रमा' करता रहता है।
सूरज भाई भले न दिखें लेकिन उनकी बच्चियां मुस्कराते हुए बादलों की ओट से दिख रहीं हैं। वे पक्का बादलों से निकलने वाली बूंदों की खोज में हैं। जैसे ही बूंदे आसमान से जमीन की ओर चलेंगीं , किरणें उन बूंदों पर सवार हो जाएंगी। 'चल मोरी बुंदिया टिक - टिक' कहते हुए पूरे आसमान में सवारी करेंगी बूंदों पर। खुश होकर अपना सफेद ऊपरी कपड़ा उतार कर फेंक देंगी और अपना सतरंगा परिधान सबको दिखाएंगी।बूंदों के साथ मिलकर इंद्रधनुष बनाएंगी। इंद्रधनुष उनकी इच्छाओं का आईना है। इसीलिए मोहक दीखता है। खूबसूरत लगता है।
रास्ते में एक तालाब दिखा। किनारे मकान और पेड़। तालाब में जमा पानी किसी कम आमदनी वाले परिवार की बचत सा प्यारा लग रहा है। जरा सा पैसा बचते ही जैसे हम लोग इठलाते हुए तमाम तरह की मनोरम इच्छाएं इठलाने लगती हैं वैसे ही तालाब के सीने पर लहरें इठला रही हैं । तालाब में ही पंत जी का नौका विहार याद आ गया:
लहरें उर पर कोमल कुंतल
लहराता ताल तरल सुंदर।
भीमसेन स्टेशन पर गाड़ी रुकी। दूर खड़े एक चाय वाले को आवाज देकर बुलाया-चाय,चाय। चाय वाला आया नहीं। देखा तक नहीं मेरी ओर उसने। कैसे सुनता? उसका नाम चाय थोड़ी होगा। चायवाले का नाम कभी चाय नहीं होता। लेकिन दूर होने पर बुलाते उसको हम चाय के ही नाम से हैं। जैसे आदमी कोई वोट बैंक थोड़ी होता है। लेकिन दूर से लोग उसको वोट बैंक कहकर ही बुलाते हैं। उसी तरह बरतते हैं। जैसे बैंक में पैसे का इंवेस्टमेंट करते हैं वैसे ही वोट बैंक को भी इधर-उधर लगाते,लड़ाते-भिड़ाते हैं लोग।
कानपुर आने वाला है। पटरी किनारे की झपड़ियों में जिंदगी का अतिक्रमण दिखने लगा है। एक बच्ची पतंग उडा रही है। एक घर के सामने खड़े रिक्शे की सीट पर दो बच्चे बैठे कुछ खेल रहे हैं। कुछ बच्चे पटरी के पास से गुजरती रेल को कौतुक से देख रहे हैं।
एक चारपाई पर बैठी औरत अपना सर खुजलाते हुए उबासी लेते ट्रेन को अपनी बिटिया (जिसकी आँख में शायद कौतुक हो )के साथ ताक रही है। उसी चारपाई सामने टांग पर टांग धरे लड़का 'सोचासन' करता लेटा है। पीछे हथेली पर सुर्ती फटकते बैठा आदमी साथ के आदमी से बतिया रहा है।
गाडी जूही डिपो पार कर गयीं। जूही में सुना है आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी रहते थे। पटरी के किनारे सीमेंट के स्लीपर पर उकडू बैठे तमाम बच्चे 'जहां सोच वहीं शौचालय' को अपना पिछवाड़ा दिखाते हुए ठाठ से निपट रहे थे। वैसे भी वह विज्ञापन लड़कियों के लिए है। लड़कों पर लागू नहीं होता तो अमल कैसा।
गोविन्दपुरी स्टेशन पर गाडी रुकने के पहले चार्जर और चश्मा सहेजा। फिर आदतन नीचे उतरकर 'चार्जर छूट तो नहीं गया' सोचते हुये बैग की जामा तलाशी ली। बैग ने गुस्सा होकर कुछ सामान बाहर फेंक दिया। सबको और खुद को समेटकर बाहर आये।
सीढ़ी पर ही परिचित ऑटो वाले भाई मिल गए। कानपुर आते ही ख़ुशी हुई। बताये की 56 वर्ग गज की आवास विकास से मिली जमीन पर 5 लाख खर्च करके मकान बनवाये हैं।
पता चला कि अभी तक पानी नहीं बरसा। हम अबभी बोलते हैं इंद्र देव को और फोन करते हैं -बरखा रानी जरा जम के बरसो।
घर पहुंचते ही चाय पानी के साथ घर इंतजार करता मिला। जिस किसी ने यह कहा होगा वह अपने घर में ही बैठकर कहा होगा:
गर फ़िरदौस बर रुए ज़मीनस्तचलिए आप मजा करिये। मस्त रहिये। जो होगा देखा जाएगा।
हमिअस्तो,हमिअस्तो,हमिअस्तो।
फ़ेसबुकिया टिप्पणियां:
- Neeraj Mishra आगे बढ़ता हुआ अपने साथ के लोगों को पीछे छोड़ता जाता है.. बहुत सही घुमा रहे हैं सर..
- Mukesh Sharma ट्रेन में बतराये नहीं किसी से ? जो होगा सो देखा जायेगा ?किसके साथ ,हमारे या आपके ?
- Neerja Shukla Suman ka janamdin manane ja rahe hain. .very good
- बेचैन आत्मा smile इमोटिकॉन
- Kartikeya Mishra बहुतई सुन्दर
- सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी चलिए आप मज़ा करिए। मस्त तो हइए हैं।
हम जा रहे ख़ज़ाना सम्हालने...! जो होगा देखा जाएगा। - Nirmal Gupta चाय वाले का नाम चाय नहीं होता ....वाह ।
- Mukesh Sharma कान्हई पुर तो ठीक है ।घर गृहस्थी की भी जिम्मेदारी होती है ।लेकिन नियमित पोस्ट में व्यवधान न आने पावे ।
- Nirmal Gupta चलती ट्रेन में आपकी मेधा खूब निखरी ।
- Aditya Singh · Friends with Shayak Alok
"कोई नहीं दुनिया भर में तो ड्यूटी करते हैं। जरुरी थोड़ी कि हर समय हमको दिखें ही। सूरज कोई 'कामकाहिल' थोड़ी है जो कि हर समय दांत चियारता 'बॉस परिक्रमा' करता रहता है।" smile इमोटिकॉन - Rajeshwar Pathak चल मेरी बुदिया टिक टिक टिक,
बहुत सुन्दर वर्णन,
प्रणाम स्वीकार करे । - Upendra Shastri सुंदर चित्रण
- Devendra Yadav "चित्रकूट एक्सप्रेस"-खरामा खरामा दुलकी चाल से ही चलती है।
बहुत ही सुंदर और सजीव चित्रण। - Chandra Prakash Pandey कोचिया के पेड़ सीधी रेखा में खड़े होकर सलाम ठोंक रहे हैं।।।
- Nishant Yadav दिल खुश हुआ
- Priyam Tiwari मैं ऑफिस से सीधे कानपुर पहुंच गया।
- Priyam Tiwari घर में सबको नमस्ते कहिएगा।
- Neeraj Goswamy Kya post likhe hain...kamal kar diye hain aap...jhadu waali aap nahin smile इमोटिकॉन
- Siddhartha Krishna राहुल सांकृत्यायन बनने की ओर हैं आप
- Kanupriya वाह!
- Vinod Kumar Agrawal kya baat heiy..shukla ji..
- Nita Kumar · Sujata Sharma और 1 other के मित्र
Cycle yatra ho ya train yatra, apki kalam yatra chalti rahe. Sunder saral chitran. - Nirupma Pandey विज्ञापन लड़कियों के लिए है। लड़कों पर लागू नहीं होता तो अमल कैसा। कितनी बारीक बात पकड़ी है
- Kalpana Chaturvedi Nice.
- Rohini Singh Enjoy ur holiday. Ur bicycle and ur morning friends including nature and me, will miss u.
- Saraswati Chandra Srivastava Kanpur ke dharti paar aapka swagat hai
- Vyanjana Pandey tharmas ko tray ka saath mubarak....... smile इमोटिकॉन
- Jyoti Shukla Too good,anup!
- Anand Awasthi Sir, आपके फोन काल ने कमाल कर दिया, शाम होते होते महसूसे होने लगा कि बरसात का मौसम शुरू होने वाला है और एक बार फ़िर से धन्यवाददेगे यदि आप अपना इसी तरह एक और घुमा कर सुनिश्चित करे कि एसा मौसम बना रहे
- Amit Tiwary आप आये मानसून लाये।
- Madhav Kendurkar लौह पथ गामिनी प्रवास लेख अति उत्तम.
- Alok Ranjan Badhiya yatra varnan... shubh sandhya ji
- RB Prasad इतने ढेर सरे रंग होते हैं आप की रचना में कि समझ में नहीं आता कि किसकी प्रशंसा करें और किसे रहने दें , कहीं वह नाराज़ हो गया तो . मन्त्रमुग्ध हूँ.
- Rekha Srivastava कानपुर में कट्टा लेकर पहले लेकर आये होते तो इतनी गर्मी तो न झेले होते। आप भी आराम कीजिये। घर का सुख कुछ और ही होता है।
- Sunil Chaturvedi शुक्ला साहब हम भी यहीं(कानपुर)आ गए हैं। आप कब तक हैं?
- Mahesh Shrivastava ghar ka sampoorn sukh vaivhav ke saath aanand vihar kare aur , hamari post bhi dene kar kritarth kare , ghar me sabhi ko yath pranam aur aader ke saath , vineet mahesh
- अजीत कुमार मिश्रा ट्रेन की ढुलकनी चाल में इतना न खो जाइयें कि ढुलनियां के धक्के कहीं कलकत्ता पहुच जाये।
- Ram Kumar Chaturvedi तेरह घंटे पहले लिखा है।आज तो कानपुर में पानी बरस गया है।शायद आपके आने का असर है।अब क्या झाडे रहो कलट्टरगंज।
- Aashish Sharma यात्रा वृतांत इससे अच्छा नहीं हो सकता
- Vinita Pandey यात्रा वृतांत.बहुत ही सुन्दर ढंग से...लाजवाब
Suresh Sahani रिपोर्ताज पर शोध प्रबंध लिखा जाय तो आप उसके शीर्षक व्यक्तित्व होंगे।बहुत सुन्दर!!!!!
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