दीपा अपने पापा के साथ |
क्रासिंग बन्द थी। ट्रेन का इन्तजार करते हुए खम्भे पर लिखा विज्ञापन पढ़ा- सीएफएल मरम्मत की ट्रेनिंग लें। तीन माह में सीएफएल मरम्मत करना सीखें। ट्रेन धड़धड़ाती हुई निकल गयी। हम क्रासिंग खुलने का इंतजार करते रहे। इन्तजार की इंतहा हो गयी और क्रासिंग न खुली। हमने देखा कि ट्रेन का दूर दूर तक कोई निशान नहीं दिख रहा था तो आहिस्ते से साईकिल टेढ़ी करके सर नीचे झुकाकर क्रासिंग पार कर गए।
अधबने ओवर ब्रिज के नीचे लोग खाना बना खा रहे थे। आगे दीपा मिली। खेलती हुई। उससे बातचीत करते रहे काफी देर। बोली -हमारा खेलने में मन लगता है। पढ़ने में नहीं।।पापा पढ़ाते हैं लेकिन हम पढ़ते नहीं। कल और आज छुट्टी थी। सो स्कूल नहीं गयी। हमने पूछा -किस बात की छुट्टी थी तो बोली ’ऊंट’ की। हमने पूछा ’ऊंट’ क्या तो बता नहीं पायी। पिता ने बताया -बताओ ईद की छुट्टी थी।
हमने पूछा कितने बजे उठी थी? बोली -सात बजे। हमने पूछा- घड़ी तो है नहीं। समय कैसे पता? बोली- अंदाज से पता है हमको। हमने पूछा अच्छा बताओ अब कितने बजे होंगे? थोड़ा सोचकर बोली -साढे सात। हमने मोबाइल दिखाया और पूछा बताओ कितने बजे हैं? अटक-अटककर बताया सात, चार , सात। मतलब सात बजकर सैतालिस मिनट हुये थे। घड़ी देखना आता नहीं बच्ची को।
बात करते हुये दो, तीन का पहाड़ा सुनाया उसने। उसके आगे आता नहीं। बात करते-करते बस्ता पटककर कापी निकालकर होमवर्क करने लगी। होमवर्क पेंसिल से कर रही थी बच्ची। हम भी पास बैठ गये उसके और देखने लगे क्या लिख रही है बच्ची। देखा वह अपनी किसी सहेली की कापी से देखकर अपनी कापी में लिख रही थी। बायें हाथ से लिखती है । ’लेफ़्टी’ है दीपा।
’मित्र’ लिखा तो मैंने पूछा मित्र माने क्या होता है पता है? बोली - नहीं। मैंने बताया- मित्र माने दोस्त होता है। सहेली। बोली -अच्छा। होमवर्क बड़े अनमने ढंग से कर रही थी बच्ची। ’कछुआ’ लिखते- लिखते ’कूछआ’ लिखा कई बार। हमने मिटवाकर दुबारा ठीक कराया। पेंसिल मोटी हो गयी थी। हमने कहा- बना लो। उसने कहा- नहीं, टीचर जी मना करती हैं। बच्चों के लिये उनके टीचर ही आलाकमान होते हैं।
सहेलियों के अलावा किसके साथ खेलती हो? यह पूछने पर बताया -पापा के साथ। या फ़िर अकेले। हमने पूछा-पापा के साथ क्या खेलती हो? बोली -गुद्गुदी करते हैं। हम पापा को करते हैं। पापा हमको करते हैं। हमको खूब हंसी आती है गुदगुदी करने से।
हम दीपा के लिये एक छोटा पैकेट आलू भुजिया का ले गये थे। दिया तो ले लिया। पूछा -टाफ़ी, चाकलेट खाती हो? वोली -ये सब नहीं खाते। इस बीच एक कुत्ता आकर पास बैठ गया। वो उससे बोली- तुमको कुछ नहीं मिलेगा अब। भाग जाओ। कुत्ता लेकिन कहीं गया नहीं। वहीं बैठा रहा।
अक्षर पहचानती है बच्ची लेकिन मिलाकर पढ़ नहीं पाती। अटक-अटककर पढ़ती है। सोचा कि पास रहती हो कहते आया करो मेरे पास। हम सिखायेंगे। लेकिन बस सोचकर ही रह गये। बात करते हुये प्रसिद्ध कवि त्रिलोचन की कविता ’चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती’ की याद आ गयी। यह कविता उनके कविता संग्रह ’धरती ’ में संकलित है जो कि 1945 में प्रकाशित हुआ था। इस कविता के लिखे जाने के 70 साल बाद भी अपने देश के एक बड़े तबके के बच्चे ’काले-काले अच्छर’ नहीं चीन्ह पाते हैं।
वहां से निकलते हुये पानी बरसने लगा। भीगते हुये ही आगे बढे। चाय की दुकान पर लोग बातचीत और गाली-गलौज एक साथ कर रहे थे। गाली में मां-बहन की गालियां ज्यादा प्रयोग कर रहे थे लोग। उनको सुनते हुये मुझे लगा कि शायद गाली रचने वालों को आगे चलकर भारतीय समाज में संयुक्त परिवार के बिखरकर एकल(नाभिकीय) परिवार बनने का पूर्वाभास रहा होगा इसीलिये उसने चाचा, ताऊ, चाची, ताई के लिये गालियों की कोई व्यवस्था नहीं की।
विरसा मुंडा चौराहे के पास ठेले पर लोग भीगते हुये चाय पी रहे थे। दो लोग छाता लगाये चायपान कर रहे थे। पता लगा कि मजूर हैं। चौराहे पर बैठेंगे। काम मिल जायेगा तो चले जायेंगे वर्ना दस रुपये खर्च करके घर चले जायेंगे। मजदूरी 180 से 200 तक मिलती है। हमने सरकारी न्यूनतम मजदूरी का बात बताई तो बोले- ’कोई न देत सरकारी मजदूरी। सब ऐसैई है।’
चाय वाले की पत्नी नहीं दिखी। पूछा तो बताया - "पानी भरन गई हती। हुनई खम्भा मां कीलैं निकरी हती। रपट गयीं तो कीलन ते पांव फ़ट गौ। पांच- छ टांका लगे हैं। चार दिन पहले की बात। इसई लाने नाई आई। घर मां आराम करत है। आज कटैंगे टांका।"
दो बच्चियां चाय लेने के लिये ठेलिया के पास खड़ी थीं। चाय वाला केतली ऊंचे ले जाकर पन्नी में चाय डालकर उनको देता रहा। साथ में प्लास्टिक के कप। शायद उनके यहां चाय बनाने का इंतजाम नहीं होगा। या होगा तो और कोई लफ़ड़ा होगा। गुजराती मोहल्ले में रहती हैं बच्चियां।
आगे चले तो पानी तेज बरसने लगा। चश्मे पर पानी गिरते रहने के चलते सामने दिखना बन्द हो गया। हमने चश्मा उतारकर जेब में धर लिया। चश्मा जेब में धरते हुये हमने सोचा कि हमारी तो पावर कम है। दिखता है अच्छे से बिना चश्मे के भी। लेकिन कोई ज्यादा पावर वाला तो बरसते पानी में चले ही न पाये सड़क पर भीगते हुये। क्या पता आने वाले समय में वाइपर लगे चश्मे आने लगें। बैटरी से अपने ऊपर गिरने वाला पानी पोछते रहें स्मार्ट चश्में।
लेकिन जैसे ही यह आइडिया आया वैसे ही आइडिये का विपक्ष भी आ गया उचककर। बोला- अगर बैटरी से चलने वाले वाइपर वाला स्मार्ट चश्मा आया तो उसे जुड़े बवाल भी आयेंगे सामने। पता चला कि किसी वाइपर से करेंट उतर आया और भौंहे जला दी उसने। किसी वाइपर की फ़ेसिंग (अर्थिंग की तर्ज पर) हो गयी और चेहरे पर छाले पड़ गये तो गया वाइपर काम से। इसीलिये हमने चश्मे पर वाइपर लगवाने की कल्पना को तलाक दे दिया।
व्हीकल मोड़ पर एक दुकान के पास भीड़ जमा थी। पता चला कि कोई नौजवान मोटरसाइकिल चला रहा था और अचानक आये मिर्गी के दौरे से सडक पर गिर गया। सीना, चेहरा और कन्धा छिल गया था। उसके होश में आने तक कुछ लोगों ने कहा कि मिर्गी का दौरा नहीं आता इसको। इसके तम्बाकू लग गयी है। मसाला खाता है। उसी का असर है। गर्ज यह कि दुकान पर गिरने का कारण मिर्गी बनाम मसाला पर बहस होने लगी। इस बीच लड़का उठकर बैठ गया और अजनबी की तरह सबको ताकने लगा। उसका भाई वहां आ गया था। उसको ले गया वह। जाने के बाद एक ने बताया कि लड़का इंटर के लड़कों को गणित का ट्यूशन पढ़ाता है। और कोई मुद्दा न होने के कारण मिर्गी बनाम मसाला पर फ़िर बहस होने लगी।
आगे रेलवे क्रासिंग बन्द थी। मोटरसाइकिल पर लोग इस अन्दाज में बैठे थे कि क्रासिंग खुलते ही सामने वाली मोटरसाइकिल से भिड़ा देंगे। लेकिन क्रासिंग खुलने पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। लोग अगल-बगल से अपने अपने रास्ते चले गये।
इस बीच सूरज भाई भी अपनी ड्यूटी पर आ गये। आसमान में पूरी तरह चमकने लगे। सबेरा हो गया। इतवार का सबेरा होने के चलते आज के सबेरे की बात ही कुछ और थी।
आप भी इतवार के मजे लीजिये। जो होगा देखा जायेगा।
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Rashmi Suman बहुत खूब!!!
बड़े ही सहजता से सामजिक व्यवस्था पर व्यंग्य किया है।।
बड़े ही सहजता से सामजिक व्यवस्था पर व्यंग्य किया है।।
मोनिका जैन 'पंछी' कितनी क्यूट बातें लिखते हैं आप smile इमोटिकॉन ये वाली पोस्ट बहुत अच्छी लगी smile इमोटिकॉन
Mahesh Shrivastava Mani kanchan ,sanyog , bharat ek desh banam , kavita ki ek line 1945, 2015 me jeeutha , wah , apse judne ke liye wah wah
Rekha Srivastava अच्छा लगता उन लोगों को झांक कर देखना जिन्हें कोई नहीं देखता । आप जो कर रहे है सबसे अच्छा और अलग ।
Amit Kumar Srivastava बहुत पहले रेलवे क्रासिंग के फाटक वाले बैरियर पर नीचे लोहे की झालर सी लगी होती थी जिससे लोग बंद होने पर उसके नीचे से निकल नहीं पाते थे । पता नहीं क्यों रेलवे ने उसे हटा दिया अब । आपने भी उल्लंघन किया बंद फाटक का ।
Rajeshwar Pathak बहुत सुन्दर वर्णन ,देर से आया रविवार होने के कारण इंतजार करवाया आपने,
प्रणाम स्वीकार करे सर
प्रणाम स्वीकार करे सर
Rajeshwar Pathak बहुत सुन्दर वर्णन ,देर से आया रविवार होने के कारण इंतजार करवाया आपने,बिटिया रानी का सुन्दर फोटो पिता जी के साथ अच्छा लगा ।
प्रणाम स्वीकार करे सर
प्रणाम स्वीकार करे सर
Anita Singh शुरुआत पढ़कर वो बात याद आ गई ... ' एक व्यक्ति ने आई फोन सिक्स खरीदा था ... जैसे ही गिरा ... जोर की आवाज़ हुई ... उसके मुंह से निकला ... हे! प्रभु हड्डी टूटी हो ' smile इमोटिकॉन
Nirmal Gupta आप मेरा नाम भी अपने फैन्स की लिस्ट में लिख लें यदि उसमें एक और नाम की गुंजाइश हो तो .
Apurba Majumdar RFI will definitely miss ur prudence. Looking Grand ! All the very best in the days to come.
Lata Singh सच..बडी प्यारी और निश्छल मुस्कान है दीपा की...और दीपा के पापा कीआंखो के सपने...वे भी उतने ही सच्चे है.रिजल्ट क्या होगा ये तो नही मालूम ...लेकिन चाहने मे कसर नही है...और होनी भी चाहिये.और आपके कलम की ताकत के बजह से ही दीपा से आत्म्यीता महसूस कर पाये.आपकी रचना बहुत अच्छी है..
Manisha Dixit Teachers बच्चों के आलाकमान smile इमोटिकॉन ... और teachers के आलाकमान कौन??!
Masijeevi Vijender Hindi अच्छा दृश्य उकेरा है। बाकी ये सीएफएल रिपेयरिंग का धंधा समझ नहीं आया। CFL में क्या रिपेयर करते हैं? बल्ब? चोक? तीन महीने किस चीज़ में खपा देते हैं? सीख कर भी सिर्फ CFL रिपेयर में क्या धंधा ?
शशांक शुक्ल आप को पढ़ना अच्छा लगता है...
लेकिन पढ़ना शुरू करने से पहले दिमाग का दही हो जाता है कि कौन पढ़े इसको, ये तो लिख के फुर्सत हो गये..., फिर दिल की बात सुनता हूँ और फिर पढ़ता हूँ,पढ़ते वक्त तो नहीं क्योंकि तब तक उसी में खोया रहता हूँ लेकिन पढ़ने के बाद तो सिरफ़ तारीफे ही निकलती हैं आपकी लेखनी के लिए...
लेकिन पढ़ना शुरू करने से पहले दिमाग का दही हो जाता है कि कौन पढ़े इसको, ये तो लिख के फुर्सत हो गये..., फिर दिल की बात सुनता हूँ और फिर पढ़ता हूँ,पढ़ते वक्त तो नहीं क्योंकि तब तक उसी में खोया रहता हूँ लेकिन पढ़ने के बाद तो सिरफ़ तारीफे ही निकलती हैं आपकी लेखनी के लिए...
Krishn Adhar समाज के निम्न एवं निम्न मध्यवर्गीय जीवन से आप की रूचि वह फिर किसी कारण से हो श्लाघनीय है।वह आप को असामान्य रूप से विशिष्ट वनाती है।
Supriya Singh Very nice.
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