मेस
से निकलते ही पानी की बूंदे चेहरे पर गिरने लगीं। दो दिन बाद मिले थे
इसका गुस्सा सा था बूंदों में। मुझे एक्यूप्रेशर सरीखा एहसास हुआ । चेहरे
पर लैंड करते ही गुस्सा ठंडा हो जाता बूंदों का और वो चेहरे के मैदान पर
टहलते हुए इधर-उधर घूमने लगीं। कुछ तो गले से गुजरते हुए अंदर तक पहुंच
गयीं और गुदगुदी जैसी करने लगी। हम भी कुछ बोले नहीं। मजे लेते हुए नटखट
बूंदों का खेल देखते हुए वो कविता याद करते रहे जिसमें बादलों की गोद से
निकलकर जमीन की तरफ बढ़ती बूंद की भावनाओं का चित्रण किया गया है।
स्कूल का समय हो गया था। बच्चे अकेले,साइकिल,अपने घरवालों के साथ स्कूल की तरफ बढ़ रहे थे। एक ट्रक, जो चारो तरफ तिरपाल से ढंका था, में खूब सारे बच्चे खड़े थे। ट्रक रुकते ही बच्चे कूदकर नीचे उतरकर भागते, तेज और धीरे-धीरे चलते हुए स्कूल की तरफ चलते गए। धीरे चलने वाले बच्चे पता नहीं धीर-गम्भीर स्वभाव के थे या फिर स्कूल आना उनको मजेदार नहीं लग रहा होगा।
दूर ट्रेन दिखी। दांयी तरफ नीले सफेद डब्बे। हम ट्रेन को देख रहे थे और सोच रहे थे कि आगे जबलपुर उतरने वाले यात्री डब्बे के दरवाजे के पास इकट्ठा होने लगे होंगें। हम यह भी सोच रहे थे कि क्या ट्रेन से कोई हमें देख रहा होगा। फिर तय भी कर लिया कि नहीं देख रहा होगा। बड़ी चीज द्वारा छोटी चींजों को देखने का रिवाज नहीं। इसको ऐसे समझिये कि एक आदमी को सरकार के क्रिया कलाप दीखते हैं लेकिन सरकार आम आदमी को नहीं देख पाती। सरकार की नजर में आने के लिए आदमी को भीड़ बनना पड़ता है। वोट बैंक बनना होता है।
सूरज भाई पूरे जलवे के साथ आसमान में चमक रहे थे। हमको देखकर और भी चमकने लगे। कुछ किरणों को हमारे पास भेज दिया। वे किरणें हमारी बायीं तरफ आकर हमसे बतियाने लगीं। इसके चलते हमारी और साइकिल की एक कमजोर सी परछाई सड़क पर बन गयी। इतनी कमजोर कि उसको देखने का मन नहीं हुआ।
पंकज टी स्टाल पर पहुंचते ही माहौल गर्मजोशी भरा दिखा दिया। एक आदमी ने चाय वाले की माँ को सम्बोधित करतेहुए गाली दी। चाय वाले ने 'भो' से शुरू होने वाली गाली से जबाब दिया। 'भो' से शुरू होने वाली गाली सुनते हुए एक बारगी एहसास हुआ कि शायद इस गाली का जन्म संस्कृत से हुआ हो । संस्कृत में 'भो' सम्बोधन के लिए प्रयोग होता है शायद।
गालीबाजी आगे बढ़ती शायद लेकिन तिपहिया हाथ रिक्शे पर बैठे एक व्यक्ति की किसी बात पर चाय वाला ऐसी तेजी से उसकी तरफ बढ़ा जैसे संसद में सांसद लोग सदन कूप की तरफ बढ़ते हैं। लेकिन हाथ रिक्शे के पास पहुंचकर गड़बड़ी करने वालों के खिलाफ कड़े कदम उठाने की बात करने वाली सरकार के कदमों की तरह गड़बड़ आदमी को देखते ऐन वक्त पर ठिठक गया। अनमने मन से उसने हाथ रिक्शे के अगले पहिये को जमीन से उठाया। रिक्शे वाला उसकी मेहनत से बेपरवाह मुस्कराते हुए रिक्शे की सीट पर बैठा चाय पीता रहा। चाय वाला पहिये को जमीन पर आहिस्ते से रखकर हल्की-फ़ुल्की गलियां बकता हुआ अपनी दूकान के काउंटर के पीछे आकर खड़ा हो गया। रिक्शे पर बैठा पैर से लाचार आदमी चाय पीते हुए मुस्कराता रहा।
चाय की दूकान पर एक बुजुर्ग हाथ में एक बैग लटकाये चाय पी रहे थे। उम्र 70 साल। 506 आर्मी बेस वर्कशाप से रिटायर। दफ्तरी का काम करते थे। 1963 में नवी पास की थी। रीवाँ में रहते हैं। महीने दो महीने में आते हैं तो सीजीएचएस अस्पताल से दवा ले आते हैं। यहां रांझी में बेटा रहता है। सुनार है। उसी के पास रहते हैं। दूसरा रीवां में खेती करता है।
अस्पताल में नम्बर लगता है। 33 वां नम्बर लगा है। सुबह 7 बजे 33 वां नम्बर। पहला वाला और जल्दी आया होगा। 8 बजे अस्पताल वाले आएंगे। नम्बर को कम्प्यूटर पर चढ़ाएंगे। फिर डाक्टर 9 बजे आकर देखना शुरू करेंगे। 12 बजे तक नम्बर आएगा।
कार्ड देखते हैं। नाम जगन्नाथ प्रसाद। माँ के नाम के आगे चिड्ढी बाई लिखा है। दूसरी स्त्री के नाम के आगे सम्बन्ध में औरत लिखा है (पत्नी नहीँ)।लिखने वाले के लिए औरत का मतलब पत्नी ही होता होगा।
चाय की दुकान से चलते हुए देखा कि एक आदमी ग्लास में चाय पीते हुए ग्लास को दूर ले जाकर ऐसे देख रहा था जैसे ग्लास में फिट कैमरे से सेल्फी ले रहा हो।
लौटते हुए शाखा वाली जगह पर केवल दो लोग दिखे। बारिश में अनुशासन ढीला हो जाता है। दोनों एक दुसरे के सामने झुके हुए दायें-बायें पंजे छूने वाली कसरत कर रहे थे।
साईकिल की दूकान पर सोचा हवा भरवा ले। उतरते ही अगले पहिये की हवा शेयर बाजार की तरह धड़ाम से कम हो गयी। पहिये की मसल्स पिचक गयीं। पहिया खुलवाया तो पंचर मिला। एक भूरा कांच का टुकड़ा अगले पहिये में घुसपैठ करने में कामयाब हो गया था। पंचर बनाने वाले ने दारू पीने वालों पर गुस्सा उतारा जो पीकर बोतल सड़क पर फेंक देते हैं। उसी के टुकड़े पंचर का कारण बनते हैं।
पंचर की दूकान पर हमारी साईकिल के बारे में इतनी बातें हुईं जिससे लगा कि हम साईकिल के बारे में कुच्छ नहीं जानते। कटोरी, हब और दीगर चीजों का जिक्र हुआ। अपनी साइकिल मुझे अपने देश में विदेशों से मंगाई तकनीक की तरह लगी जिसको हम आधुनिक होने के लिए खरीद तो लेते हैं लेकिन उसके बारे में जानते कुछ नहीं। कोई विदेशी मशीन बिगड़ जाती है तो उसको सुधारने के लिए इंजीनियर विदेश से ही आता है। हम भुक्क बने खाली बटन दबाकर मशीन चलाना जानते हैं।
पंचर बना तो साइकिल चलाते हुए वापस आये। पहला पंचर है तीन महीने करीब में। अब देखते हैं अगला कब होगा।
चलिए अब चला जाये दफ्तर। समय हो गया। आप भी चकाचक रहिये। जो होगा देखा जाएगा।
फ़ेसबुक पर टिप्पणी
स्कूल का समय हो गया था। बच्चे अकेले,साइकिल,अपने घरवालों के साथ स्कूल की तरफ बढ़ रहे थे। एक ट्रक, जो चारो तरफ तिरपाल से ढंका था, में खूब सारे बच्चे खड़े थे। ट्रक रुकते ही बच्चे कूदकर नीचे उतरकर भागते, तेज और धीरे-धीरे चलते हुए स्कूल की तरफ चलते गए। धीरे चलने वाले बच्चे पता नहीं धीर-गम्भीर स्वभाव के थे या फिर स्कूल आना उनको मजेदार नहीं लग रहा होगा।
दूर ट्रेन दिखी। दांयी तरफ नीले सफेद डब्बे। हम ट्रेन को देख रहे थे और सोच रहे थे कि आगे जबलपुर उतरने वाले यात्री डब्बे के दरवाजे के पास इकट्ठा होने लगे होंगें। हम यह भी सोच रहे थे कि क्या ट्रेन से कोई हमें देख रहा होगा। फिर तय भी कर लिया कि नहीं देख रहा होगा। बड़ी चीज द्वारा छोटी चींजों को देखने का रिवाज नहीं। इसको ऐसे समझिये कि एक आदमी को सरकार के क्रिया कलाप दीखते हैं लेकिन सरकार आम आदमी को नहीं देख पाती। सरकार की नजर में आने के लिए आदमी को भीड़ बनना पड़ता है। वोट बैंक बनना होता है।
सूरज भाई पूरे जलवे के साथ आसमान में चमक रहे थे। हमको देखकर और भी चमकने लगे। कुछ किरणों को हमारे पास भेज दिया। वे किरणें हमारी बायीं तरफ आकर हमसे बतियाने लगीं। इसके चलते हमारी और साइकिल की एक कमजोर सी परछाई सड़क पर बन गयी। इतनी कमजोर कि उसको देखने का मन नहीं हुआ।
पंकज टी स्टाल पर पहुंचते ही माहौल गर्मजोशी भरा दिखा दिया। एक आदमी ने चाय वाले की माँ को सम्बोधित करतेहुए गाली दी। चाय वाले ने 'भो' से शुरू होने वाली गाली से जबाब दिया। 'भो' से शुरू होने वाली गाली सुनते हुए एक बारगी एहसास हुआ कि शायद इस गाली का जन्म संस्कृत से हुआ हो । संस्कृत में 'भो' सम्बोधन के लिए प्रयोग होता है शायद।
गालीबाजी आगे बढ़ती शायद लेकिन तिपहिया हाथ रिक्शे पर बैठे एक व्यक्ति की किसी बात पर चाय वाला ऐसी तेजी से उसकी तरफ बढ़ा जैसे संसद में सांसद लोग सदन कूप की तरफ बढ़ते हैं। लेकिन हाथ रिक्शे के पास पहुंचकर गड़बड़ी करने वालों के खिलाफ कड़े कदम उठाने की बात करने वाली सरकार के कदमों की तरह गड़बड़ आदमी को देखते ऐन वक्त पर ठिठक गया। अनमने मन से उसने हाथ रिक्शे के अगले पहिये को जमीन से उठाया। रिक्शे वाला उसकी मेहनत से बेपरवाह मुस्कराते हुए रिक्शे की सीट पर बैठा चाय पीता रहा। चाय वाला पहिये को जमीन पर आहिस्ते से रखकर हल्की-फ़ुल्की गलियां बकता हुआ अपनी दूकान के काउंटर के पीछे आकर खड़ा हो गया। रिक्शे पर बैठा पैर से लाचार आदमी चाय पीते हुए मुस्कराता रहा।
चाय की दूकान पर एक बुजुर्ग हाथ में एक बैग लटकाये चाय पी रहे थे। उम्र 70 साल। 506 आर्मी बेस वर्कशाप से रिटायर। दफ्तरी का काम करते थे। 1963 में नवी पास की थी। रीवाँ में रहते हैं। महीने दो महीने में आते हैं तो सीजीएचएस अस्पताल से दवा ले आते हैं। यहां रांझी में बेटा रहता है। सुनार है। उसी के पास रहते हैं। दूसरा रीवां में खेती करता है।
अस्पताल में नम्बर लगता है। 33 वां नम्बर लगा है। सुबह 7 बजे 33 वां नम्बर। पहला वाला और जल्दी आया होगा। 8 बजे अस्पताल वाले आएंगे। नम्बर को कम्प्यूटर पर चढ़ाएंगे। फिर डाक्टर 9 बजे आकर देखना शुरू करेंगे। 12 बजे तक नम्बर आएगा।
कार्ड देखते हैं। नाम जगन्नाथ प्रसाद। माँ के नाम के आगे चिड्ढी बाई लिखा है। दूसरी स्त्री के नाम के आगे सम्बन्ध में औरत लिखा है (पत्नी नहीँ)।लिखने वाले के लिए औरत का मतलब पत्नी ही होता होगा।
चाय की दुकान से चलते हुए देखा कि एक आदमी ग्लास में चाय पीते हुए ग्लास को दूर ले जाकर ऐसे देख रहा था जैसे ग्लास में फिट कैमरे से सेल्फी ले रहा हो।
लौटते हुए शाखा वाली जगह पर केवल दो लोग दिखे। बारिश में अनुशासन ढीला हो जाता है। दोनों एक दुसरे के सामने झुके हुए दायें-बायें पंजे छूने वाली कसरत कर रहे थे।
साईकिल की दूकान पर सोचा हवा भरवा ले। उतरते ही अगले पहिये की हवा शेयर बाजार की तरह धड़ाम से कम हो गयी। पहिये की मसल्स पिचक गयीं। पहिया खुलवाया तो पंचर मिला। एक भूरा कांच का टुकड़ा अगले पहिये में घुसपैठ करने में कामयाब हो गया था। पंचर बनाने वाले ने दारू पीने वालों पर गुस्सा उतारा जो पीकर बोतल सड़क पर फेंक देते हैं। उसी के टुकड़े पंचर का कारण बनते हैं।
पंचर की दूकान पर हमारी साईकिल के बारे में इतनी बातें हुईं जिससे लगा कि हम साईकिल के बारे में कुच्छ नहीं जानते। कटोरी, हब और दीगर चीजों का जिक्र हुआ। अपनी साइकिल मुझे अपने देश में विदेशों से मंगाई तकनीक की तरह लगी जिसको हम आधुनिक होने के लिए खरीद तो लेते हैं लेकिन उसके बारे में जानते कुछ नहीं। कोई विदेशी मशीन बिगड़ जाती है तो उसको सुधारने के लिए इंजीनियर विदेश से ही आता है। हम भुक्क बने खाली बटन दबाकर मशीन चलाना जानते हैं।
पंचर बना तो साइकिल चलाते हुए वापस आये। पहला पंचर है तीन महीने करीब में। अब देखते हैं अगला कब होगा।
चलिए अब चला जाये दफ्तर। समय हो गया। आप भी चकाचक रहिये। जो होगा देखा जाएगा।
फ़ेसबुक पर टिप्पणी
- Alok Puranik जो होगा देखा जायेगा जी, जो ना होगा, उसे भी देखा जायेगा।
- अनूप शुक्ल तब क्या? देख लेंगे जो होगा देख लेंगे। smile इमोटिकॉन
- Nirmal Gupta अगला पंचर कब होगा ।यह देखना दिलचस्प होगा । पंचर के जरिये ही दिलचस्पी बरक़रार रहती है ।कुछ होने के मुकाबले दिलचस्पी बड़ी चीज है ।
- अनूप शुक्ल सही है । दुनिया के तमाम बड़े काम उत्सुकता के चलते ही हुए हैं। smile इमोटिकॉन
- Mukesh Sharma अबकी से किताब में व्यंग के 10 चेहरे नहीं पूरे 11 चेहरे होंगे ।आपके व्यंग की लयबद्धता पाठक को बाँध लेती है ।
- अनूप शुक्ल smile इमोटिकॉन धन्यवाद !
- संतोष त्रिवेदी गजब लिखते हैं भाई।
- अनूप शुक्ल ’आसिरवाद’ के लिये तो बफ़े सिस्टम लागू है। जिसको मन आये जितना उठाके डाल ले थरिया में। smile इमोटिकॉन
- Rekha Srivastava कहां से कलम में इतनी स्याही दिन भर में संजो लेते है ?
- अनूप शुक्ल स्याही कहां बस ऐसे ही खटरपटर करते रहते हैं। smile इमोटिकॉन
- Ajai Rai Bemishal lekhan sadhuwadd sir.
- अनूप शुक्ल धन्यवाद ! smile इमोटिकॉन
- Sanjay Khetan बहुत ही बढ़िया
- अनूप शुक्ल बहुत धन्यवाद ! smile इमोटिकॉन
- Virendra Bhatnagar कौनो दिन संझा टैम साइकिल संग जाकर बरम बाबा का सवा रुपय्ये का परसाद चढ़ा दीजिये क्योंकि जब से आई है आये दिन हवा निकरी रहित है औ अब तौ पंचरौ हुइ गई smile इमोटिकॉन आप की मार्निंग पोस्ट का बेसब्री से इंतज़ार रहता है।
- अनूप शुक्ल सैकिल चकाचक है। अब हवा वगैरह तो भरना निकलता चलता ही रहता है साइकिल में। smile इमोटिकॉन
- Sushil Kumar Jha सरकार को केवल भीड़ दिखाई देती है,इसी लिए लोगबाग भीड़ जुटाकर अपनी जायज नाजायज बात मनवा लेते हैं/
- अनूप शुक्ल सही है। जंतर-मंतर, रामलीला मैदान, रेल की पटरी ऐसे ही इलाके हैं जहां यह सब होता है। smile इमोटिकॉन
- Rajeshwar Pathak बढीं चीजो का छोटी चीजो द्वारा देखने का रिवाज नहीं है,सुन्दर वर्णन ।बिलकुल सही कहा सर,प्रणाम स्वीकार करे
- अनूप शुक्ल smile इमोटिकॉन धन्यवाद ! smile इमोटिकॉन
- Alok Ranjan Nice.. Gd day
- अनूप शुक्ल धन्यवाद ! शुभ संध्या। smile इमोटिकॉन
- Manoj Yadav Chai ki dukaan pe hone wali baat cheet ka apratim varnan kiya hai.college ,hostel mai hum log yuhi baat karte the aur chai ki dukaan pe to sab jante hi hain.
- अनूप शुक्ल आम आद मी जिन्दगी भर हास्टल की जिन्दगी जी लेता है। smile इमोटिकॉन
- अनूप शुक्ल smile इमोटिकॉन
- Manoj Yadav Have a very nice and joyful day sir
- अनूप शुक्ल धन्यवाद ! smile इमोटिकॉन
- Krishn Adhar लोग कभी कभी पूंछते हैं कि क्या लिखें किस पर लिखें ,वे वेवकूफ आप को पढ़ लें उनको गुरू ग्यान मिल जाये गा,क्या वात है वूदों को आप ने जीवित कर दिया....
- अनूप शुक्ल बेवकूफ़ों को बेवकूफ़ कहना बहुत बड़े कलेजे का काम है। smile इमोटिकॉन
- Ram Kumar Chaturvedi यदि यही बूंदें किसी चंन्द्र बदनी के गालों पर पड़ती तो रसिक श्रंगार कवि कहता कि कुन्तलन से ढरकि कर बरसा जल सौंन्दर्य को सींच रहो है।
- अनूप शुक्ल क्या बात है। smile इमोटिकॉन
- अनूप शुक्ल smile इमोटिकॉन ख्याल अपने आप आते जाते हैं। हम बस उनको रोकते नहीं। smile इमोटिकॉन
- अनूप शुक्ल सही कहा। smile इमोटिकॉन
- Mahesh Shrivastava mann ki baat
- अनूप शुक्ल मजे की बात smile इमोटिकॉन
- Shweta Sharma गाली बाजी
- अनूप शुक्ल गन्दी बात है न ! smile इमोटिकॉन
- Ashok Agrawal अनुशासन ढीला --- बढ़िया , मजा आ गया । पूरी पोस्ट गजब शुकुलजी ।
- कोई टिप्पणी लिखें…
No comments:
Post a Comment