गेट नंबर 3 की तरफ जाते हुये रघुवर दयाल |
कल गौरैया दिवस पर हमने चावल के कुछ दाने टैरेस पर फ़ैला दिया। सोचा कि दाना बिखेरते ही गौरैया चींचीं करते आयेगी और चावल चुगने लगेगी। लेकिन अभी तक किसी चोंच ने चावल चुगा नहीं है। चावल चिडियों के इंतजार में टेरेस पर पलक पांवड़े सा पसरा हुआ है।
चावल के ऊपर टेलिविजन केबल का तार सतह से कुछ ऊपर उठा लटका हुआ है। उस पर आती-जाती चींटियां किसी हाई वे पर तेज गति से आती-जाती कारों सरीखी दिख रहीं हैं। कभी कोई चींटी सामने से आती किसी दूसरी चींटी के सामने आ जाती तो दोनों पल भर के लिये ठिठक जातीं और फ़िर तेजी से आगे, अपने-अपने रास्ते मुस्कराते हुये चल देतीं।
टहलने निकले तो मिसिर जी पुलिया पर अपने साथी के साथ बैठे थे। उनसे बतियाते हुये देखा कि एक कार ड्राइवर ने कार का दरवाजा खोला। इसके बाद अपने मुंह का मसाला सड़क को सप्रेम भेंट करके स्वच्छता अभियान में अपना विनम्र योगदान देकर दरवाजा बन्द किया और तेजी से आगे चला गया। ड्राइवर के मुंह से निकले मसाले की पीक सड़क पर असहाय, लावारिश पड़ी रही।
माता के आने से आँख चली गयीं |
चाय की दुकान पर एक बुजुर्ग महिला मिली। उनका बेटा अनुकंपा के आधार पर नौकरी करता है। नौकरी मिलने के बाद बिगड़ गया। नशा-पत्ती करता है। अब बुजुर्ग महिला मात्र अपनी पेंशन के सहारे गुजर करती है। एक आदमी ने अपनी राय बताई- ’अनुकम्पा के आधार पर जिन लड़कों को नौकरी मिलती है उनमें से अधिकांश दारू-गांजा के चक्कर में पढकर बरबाद हो जाते हैं। अचानक 20-25 हजार रुपये मिलने लगते हैं तो पगला जाते हैं। औरतों को ही नौकरी करनी चाहिये आदमी के मरने पर। कम से कम परिवार तो चलता रहता है।’
बात हो रही थी कि मंदिर की तरफ़ से डगरते हुये 'दृष्टि-दिव्यांग' रघुवर दयाल डगरते हुये आये। हाथ-पैर के साथ बोलते हुये मुंह के जबड़े भी हिल रहे थे बुरी तरह। चाय वाले ने बताया कि ये माताराम (जो कल मिलीं थीं) के पति हैं। हमने पूछा कि आज माताराम किधर चली गयीं? बोले-’वे आज जीआईएफ़ चलीं गयीं। वहां मांगेगी।’
आंखें कैसी चली गयीं पूछने पर बोले-’ बड़ी माता निकली थीं। पांच साल की उमर में। आंखें नहीं रहीं।जिस बीमारी के कारण आँख चली गयी उसके लिए भी इतनी इज्जत से सम्बोधन -बड़ी माता ।’
साठ से ऊपर की उमर के आदमी की आंख चली जायें पांच साल की उमर से तो उसने उस उमर तक जो देखा होगा वही उसकी स्मृतियों में बसा होगा। पता नहीं क्या देखा होगा आखिरी समय? पेड़, पौधे, पत्ती, धूप, सड़क, तालाब, पानी, अंधेरा, उजाला, किसी का चेहरा या फ़िर कुछ और। जो भी देखा होगा आंख न रहने के पहले वही-वही फ़िर-फ़िर यादों में आता होगा।
हम जो लोग आंख वाले हैं, दुनिया देख सकते हैं, आमतौर पर यह महसूस नहीं कर पाते होंगे कि जिनके आंख नहीं हैं वे कितनी बड़ी नियामत से वंचित हैं। हमको उनके मुकाबले जो मिला है वह अनमोल है।
रघुवर दयाल नाम है बुजुर्ग का। मातारानी का नाम है बुढिया बाई। उस समय बुजुर्गों ने दोनों की शादी करा दी कि कम से कम दोनों के लिये संगसाथ तो हो जायेगा। कल बीस रुपये कमाये रघुवरदयाल ने। हमने सिक्का दिया तो टटोलकर बताया -एक रुपया है। इसके बाद लपकते हुये गेट नंबर 3 की तरफ़ चल दिये रघुवरदयाल।
दूर ट्रेन पटरी पर धडधड़ाती हुई चली जा रही थी। बगल में टेसू का पेड़ हिलते हुये रेल को टाटा कर रहा था। ट्रेन मुस्कराती हुई चली जा रही थी। सीटी बजाती हुई। हल्ला मचाती हुई। सोये हुये लोगों को जगाती हुई।
सूरज भाई किरणों की पिचकारी से उजाला चारो तरफ़ फ़ैलाते हुये लगता है होली की तैयारी में लगे हुये हैं। पत्तियों पर फ़िर-फ़िर धूप मल रहे हैं। पत्तियां हिल-डुलकर मुस्कराती हुई मना सा करती हुई धूप अपने चेहरे पर धारण करते हुये चहक रही है।
बगीचे में धूप में खिलते हुये एक कली शायद किसी भौंरे को सुनाते हुये गाना गा रही है:
’मेरा प्यार भी तू है, ये बहार भी तू हैलगता है सुबह हो गयी। नहीं क्या?
तू ही नज़रों में जान-ए-तमन्ना, तू ही नज़ारों में
तू ही तो मेरा नील गगन है, प्यार से रोशन आँख उठाये
और घटा के रूप में तू है, काँधे पे मेरे सर को झुकाये
मुझ पे लटें बिखराये।’
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