पूजा पांडाल देखकर वापस होटल के पास पहुँचे तो बाहर ही एक जगह चाय बनती दिखी।
बहुत देर से चाय पिए नहीं थे तो चाय बनती देखकर 'चयास' लग आई। लेकिन यह भी
लगा कि अब चलकर खाना ही खाया जाए। पर फिर इस ख्याल ने जोर मारा कि पता नहीं
अब कब फिर कोलकता आना हो। इस ’पिए’ कि ’छोड़ें’ के झूले में काफी देर झूलते
रहे। जब खुद तय नहीं कर पाये तो निर्णय मोबाईल के हाथ में सौंप दिए।
तय यह किया कि अगर नौ बज चुके होंगे तो चाय नहीँ पीयेंगे। लेकिन अगर नौ से कम बजा होगा तो पी लेंगे। इतना तार्किक निर्णय लेने के बाद आहिस्ते से मोबाईल निकाला। देखा तो नौ बजने में दो मिनट बाकी थे। अब तो चाय पीना मजबूरी थी।
चाय की दुकान पर खड़े होकर कब आर्डर दिया तब तक उसकी सब चाय बिक चुकी थी। केतली खाली हो चुकी थी। एक बार फिर सोचा छोड़ें चाय अब चलें। लेकिन इस बार चाय वाले बच्चे और वहां खड़े आदमी में रोक लिया। बोले - ’अब्बी दो मैने रुको। अब्बी बनाते।’ अब हम क्या करते । रूकने के अलावा कोई चारा नहीँ था।
बालक ने स्टोब में हवा भरना शुरू किया। जलाया और चाय चढ़ा दी। हम वहां खड़े आदमी से बतियाने लगे।
उसमें बताया कि यह जगह मेट्रो की है। तीन दिन पहले उसने किराये पर ली है। तीस हजार रुपये महीने किराया है। अभी चाय, डोसा वगैरह बनता है। फिर और काम बढ़ेगा। पता लगा वह आदमी कोलकता इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में काम करता है। दुकान किसी के साथ पार्टनरशिप में है।
हम चाय बनाने वाले बालक से बतियाने लगे। पता चला बालक यहां आने के पहले भुवनेश्वर के एक गेस्ट हॉउस में काम करता था। पांच साल काम किया। खाना-वाना सब बना लेता है। कुछ दिन पहले कोलकता आ गया। यहां अकेले रहता है। माँ मिदिनापुर में रहती है। पिता रहे नहीं। पांच साल पहले। घर का अकेला लड़का है। हाईस्कूल तक पढाई किया। पिता के न रहने पर मजबूरी में काम पर लगना पड़ा।
बालक चाय बनाते हुए बतिया रहा था। हवा भरते हुए अंदाज से चीनी और पत्ती डाली। बताया कि सुबह आठ से रात ग्यारह बजे तक दुकान पर रहना होता है। रात को दुकान बन्द करके अंदर ही सो जाता है। नहाने-निपटने का काम पास के सामूहिक शौचालय में करता है।
चाय बन गयी तो छान कर हमको दी। इस बीच एक युवा जोड़ा वहां आया। लड़के ने दो 'कम चाय' मांगी। उसने दी। हमने सोचा कम चाय के पैसे कुछ कम होंगे। लेकिन उसने बताया कि रेट सेम हैं-पांच टका।
युवा जोड़े में से लड़के की दाढ़ी ऐसी लग रही थी मानो उसने मेहनत से ठोढ़ी पर सामन्तर चतुर्भुज बनाने का प्रयास किया हो। उसने बताया कि चाय में चीनी कम है। बालक ने थोड़ी-थोड़ी चीनी उनके कप में डालकर चम्मच से मिला दिया। इस बीच एक आदमी ने चाय में चीनी कम डालने के सिद्धान्त की व्याख्या करते हुये बताया- " कम हो और डाली जा सकती है। लेकिन ज्यादा हो जाये तो निकाली नहीं जा सकती। इसलिये चीनी कम डालना हमारा ठीक रहता है।’
चाय वाले बालक ने अपने बारे में पूछते देखकर मुझसे पूछा- ’ कोई काम है क्या मेरे लिये?’ हमने कहा -’नहीं ऐसे ही पूछ रहे।’ वह बोला- ;’आजकल कौन पूछता है किसी से इतना। किसी के पास इतना फ़ालतू टाइम कहां।’
मल्लब उसने मुझे बता दिया कि हम जो पूछ रहे हैं वह खाली-मूली टाइम वेस्ट कर रहे हैं।
लेकिन फ़िर अपने आप बताने लगा- " पैसा बहुत कम देते हैं यहां।" कुल तीन हजार महीने और खाना-खुराक पर चाय बनाने का काम करता है वह। उसकी आवाज में विवसता और शिकायत का मिला जुला भाव था।
बाइस साल की उमर के उस बालक को सुबह आठ बजे से रात ग्यारह बजे तक की महीने भर की मेहनत के मात्र तीन हजार रुपये मिलते हैं। इससे ढाई गुना होटल में एक रात के कमरे का न्यूनतम किराया है। आर्थिक असमानता का कितना जलवा है अपने समाज में। यही सोचते हुये वापस चले आये कल होटल में।
आज फ़िर से फ़ोटो देख रहा था तो सब याद आया। सोचा आपसे साझा करें।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10209295682042535
तय यह किया कि अगर नौ बज चुके होंगे तो चाय नहीँ पीयेंगे। लेकिन अगर नौ से कम बजा होगा तो पी लेंगे। इतना तार्किक निर्णय लेने के बाद आहिस्ते से मोबाईल निकाला। देखा तो नौ बजने में दो मिनट बाकी थे। अब तो चाय पीना मजबूरी थी।
चाय की दुकान पर खड़े होकर कब आर्डर दिया तब तक उसकी सब चाय बिक चुकी थी। केतली खाली हो चुकी थी। एक बार फिर सोचा छोड़ें चाय अब चलें। लेकिन इस बार चाय वाले बच्चे और वहां खड़े आदमी में रोक लिया। बोले - ’अब्बी दो मैने रुको। अब्बी बनाते।’ अब हम क्या करते । रूकने के अलावा कोई चारा नहीँ था।
बालक ने स्टोब में हवा भरना शुरू किया। जलाया और चाय चढ़ा दी। हम वहां खड़े आदमी से बतियाने लगे।
उसमें बताया कि यह जगह मेट्रो की है। तीन दिन पहले उसने किराये पर ली है। तीस हजार रुपये महीने किराया है। अभी चाय, डोसा वगैरह बनता है। फिर और काम बढ़ेगा। पता लगा वह आदमी कोलकता इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में काम करता है। दुकान किसी के साथ पार्टनरशिप में है।
हम चाय बनाने वाले बालक से बतियाने लगे। पता चला बालक यहां आने के पहले भुवनेश्वर के एक गेस्ट हॉउस में काम करता था। पांच साल काम किया। खाना-वाना सब बना लेता है। कुछ दिन पहले कोलकता आ गया। यहां अकेले रहता है। माँ मिदिनापुर में रहती है। पिता रहे नहीं। पांच साल पहले। घर का अकेला लड़का है। हाईस्कूल तक पढाई किया। पिता के न रहने पर मजबूरी में काम पर लगना पड़ा।
बालक चाय बनाते हुए बतिया रहा था। हवा भरते हुए अंदाज से चीनी और पत्ती डाली। बताया कि सुबह आठ से रात ग्यारह बजे तक दुकान पर रहना होता है। रात को दुकान बन्द करके अंदर ही सो जाता है। नहाने-निपटने का काम पास के सामूहिक शौचालय में करता है।
चाय बन गयी तो छान कर हमको दी। इस बीच एक युवा जोड़ा वहां आया। लड़के ने दो 'कम चाय' मांगी। उसने दी। हमने सोचा कम चाय के पैसे कुछ कम होंगे। लेकिन उसने बताया कि रेट सेम हैं-पांच टका।
युवा जोड़े में से लड़के की दाढ़ी ऐसी लग रही थी मानो उसने मेहनत से ठोढ़ी पर सामन्तर चतुर्भुज बनाने का प्रयास किया हो। उसने बताया कि चाय में चीनी कम है। बालक ने थोड़ी-थोड़ी चीनी उनके कप में डालकर चम्मच से मिला दिया। इस बीच एक आदमी ने चाय में चीनी कम डालने के सिद्धान्त की व्याख्या करते हुये बताया- " कम हो और डाली जा सकती है। लेकिन ज्यादा हो जाये तो निकाली नहीं जा सकती। इसलिये चीनी कम डालना हमारा ठीक रहता है।’
चाय वाले बालक ने अपने बारे में पूछते देखकर मुझसे पूछा- ’ कोई काम है क्या मेरे लिये?’ हमने कहा -’नहीं ऐसे ही पूछ रहे।’ वह बोला- ;’आजकल कौन पूछता है किसी से इतना। किसी के पास इतना फ़ालतू टाइम कहां।’
मल्लब उसने मुझे बता दिया कि हम जो पूछ रहे हैं वह खाली-मूली टाइम वेस्ट कर रहे हैं।
लेकिन फ़िर अपने आप बताने लगा- " पैसा बहुत कम देते हैं यहां।" कुल तीन हजार महीने और खाना-खुराक पर चाय बनाने का काम करता है वह। उसकी आवाज में विवसता और शिकायत का मिला जुला भाव था।
बाइस साल की उमर के उस बालक को सुबह आठ बजे से रात ग्यारह बजे तक की महीने भर की मेहनत के मात्र तीन हजार रुपये मिलते हैं। इससे ढाई गुना होटल में एक रात के कमरे का न्यूनतम किराया है। आर्थिक असमानता का कितना जलवा है अपने समाज में। यही सोचते हुये वापस चले आये कल होटल में।
आज फ़िर से फ़ोटो देख रहा था तो सब याद आया। सोचा आपसे साझा करें।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10209295682042535
No comments:
Post a Comment